________________ ( 194) * हिंसा विघ्नाय जायते, विघ्न शांत्ये कृताऽपिहि। . कुलाचार धियाप्येषा, कृता कुल-विनाशिनी // 26 अर्थात्-विघ्न शांति या कुलाचार की बुद्धि से भी की गई हिंसा विघ्नवर्द्धक एवं कुल का क्षय करने वाली होती है। (2) पुनः हेमचन्द्रजी उक्त ग्रन्थ और उक्त ही प्रकाश के श्लोक 31 में लिखते हैं कि दमो देव गुरुपास्ति-दानमध्ययनं तपः / सर्वमप्येतद् फलं, हिंसां चेन्न परित्यजेत् // 31 अर्थात्-जो हिंसा का त्याग नहीं करे तो देव गुरु की सेवा और दान, इन्द्रिय दमन, तप, अध्ययन, यह सब निष्फल है। (3) फिर आगे चालीसवाँ श्लोक पढ़ियेशम शील या मूलं, हित्वा धर्म जगद्धितं / अहो ! हिंसापि धर्माय, जगदे मन्दबुद्धिभिः // 40 अर्थात्-शान्ति शील व दया मूलके जगहितकारी धर्म को छोड़कर मन्दबुद्धि वाले लोग धर्म के लिए भी हिंसा कहते हैं, यह महदाश्चर्य है। (4) श्री हेमचन्द्राचार्य मन्दिर मूर्ति से तप संयम की महिमा अधिक बताते हुए प्रकाश, श्लोक 108 के विवेचन में लिखते हैं कि-(योगशास्त्र भा० पृ० 137) कंचण-मणि सोवाणं, थंभ सहस्सो-सियं भुवण-तलं / जो कारिजइ जिणहरं, तो वि तव-संजमो अहिओ // अर्थात्-सोने व मणिमय पायरी वाला हजारों स्तंभों से उन्नत तले वाला भी यदि कोई जिनमन्दिर बनावे तो उससे भो तप संयम श्रेष्ठ है।