________________ (165) (5) योग शास्त्र भाषान्तर आवृत्ति चौथी पृ० 137 यं० 10 में 108 वें श्लोक का विवेचन करते हुए श्री केशर विजयजी गणि लिखते हैं किबहेतर छे के प्रथमथीज धर्म निमित्ते श्रारम्भ न करवो" दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के शानावर्णव ग्रन्थ के आठवें सर्ग में अहिंसावत के विवेचन का कुछ अवतरण पढियेअहो व्यसन विध्वस्तैलोकः पाखण्डिभिर्बलात नीयते नरकं घोरं, हिंसा शास्त्र पदेशकः // 1 // शान्त्यर्थं देवपूजार्थं यज्ञार्थमथवा नृभिः / कृतः प्राणभृतां घातः, पातयत्यविलंबितं / 18 / चारु मंत्रौषधानांवा, हेतो रन्यस्यवा चित् / कृता सती नहिंसा, पातत्य विलंबितं // 27 // धर्मबुद्धयाऽधमैः पापं जंतु घातादि लक्षणम् / क्रियते जीवितस्यार्थ पीयते विषमं विषं // 26 // अहिंसैव शिवं सूते दत्तेच, त्रिदिवश्रिय / अहिंसैव हितं कुर्याद व्यसनानि निरस्यति।३३। अहिंसकापि यत्सौख्यं, कल्याणमथवाशिवम् / दत्ते तद्देहिनां नायं, तपः श्रत यमोत्करः॥४७॥ अर्थात् धर्म तो दयामय है किन्तु स्वार्थी लोग हिंसा का उपदेश देने वाले शास्त्र रचकर जगत जीवों को बलात्कार से नर्क में ले जाते हैं यह कितना.अनर्थ है ? // 16 //