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________________ / 120) जिन परम दयालु प्रभु ने धर्म के लिए की जाने वाली व्यर्थ हिंसा को अनार्य कर्म कहा, श्रहित कारिणी बताई, उन्हीं के भक्त उन्हीं प्रभु के नाम पर निरपराध मूक प्राणियों का अकारण ही नाश कर धर्म माने, यह कितने आश्चर्य की बात है ? जिस त्यागी वर्ग के लिए त्रिकरण, त्रियोग से हिंसा करने, कराने, अनुमोदने का निषेध किया गया, जिन त्यागी श्रमणों ने स्वयं ईश्वर और गुरु साक्षी से किसी भी करणयोग से हिंसा नहीं करने की स्पष्ट प्रतिज्ञा ली, वही त्यागी वर्ग पक्ष व्यामोह में पड़कर अपने कर्तव्य- अपनी प्रतिज्ञा को ठोकर मारकर प्रभु की पूजा के नाम पर अगणित निरपराध जीवों की हिंसा करने का गला फाड़ 2 कर उपदेश आदेश दे, यह कितनी लज्जा की बात है ? क्या जिन मूर्ति को साक्षात् जिन समान मानने वाले अपनी प्रभु विरोधिनी पूजा के जरिये होते हुए प्रभु के अप. मान को समझ कर सत्यपथ गामी बनेंगे? वास्तव में तो मूर्ति साक्षात् के समान हो ही नहीं सकती जबकि मृतकलेवर भी जीवित की स्थान पूर्ति नहीं कर सकता, इसीलिए जलाकर या पृथ्वी में गाड़ कर नष्ट कर दिया जाता है, तब पत्थर या काष्ट की मूर्ति अथवा चित्र क्या साक्षात् की समानता करेंगे? अतएव सरल बुद्धि से विचार कर मान्यता शुद्ध करनी चाहिए?
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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