________________ ( 65 ) निर्धन जैन मंदिर है / अतएव सिद्ध हुश्रा कि- ये मूर्ति-पूजक चन्धु वास्तव में मूर्ति पूजक ही हैं, और मूर्ति के साथ वैभव विलास के भी पूजक हैं / यदि इनके कहे अनुसार ये मूर्तिपूजक नहीं होकर मूर्ति द्वारा प्रभु पूजक होते तो इनके लिए वैभव सजाई आदि की अपेक्षा और उपादेयता क्यों होती ? प्रतिष्ठा की हुई और अप्रतिष्ठित का भेद भाव क्यों होता? क्या अप्रतिष्ठित मूर्ति द्वारा ये अपनी प्रभु पूजा नहीं कर सकते ? किन्तु यह सभी झूठा बवाल है। मूर्ति के जरिये से ही पूजा होने का कहना भी झूठ है प्रभु पूजा में मूर्ति फोटो आदि की आवश्यकता ही नहीं है, वहां तो केवल शुद्धान्तः करण तथा सम्यग्ज्ञान की आवश्यकता है जिसको सम्यग्ज्ञान है, यह सम्यक् क्रिया द्वारा प्रात्मा और परमात्मा की परमोस्कृष्ट पूजा कर सकता है / मूर्ति पूजा कर उसके द्वारा प्रभु को पूजा पहुंचाने वाले वास्तव में लकड़ी या पाषाण के घोड़े पर बैठकर दुर्गम मार्ग को पार कर इष्ट पर पहुंचने की विफल चेष्टा करने वाले मूर्खराज की कोटि से भिन्न नहीं है। ____ इतने कथन पर से पाठक स्वयं सोच सकते हैं कि मूर्ति पूजा वास्तव में अात्म कल्याण में साधक नहीं किन्तु बाधक " है, जब कि-यह प्रत्यक्ष सिद्ध हो चुका कि मूर्ति पूजा के द्वारा हमारा बहुत अनिष्ट हुवा और होता जारहा है फिर ऐसे नग्न सत्य के सम्मुख कोई कुतर्क ठहर भी नहीं सकती किन्तु प्रकरण की विशेष पुष्टि और शंका को निर्मूल करने के लिए कुछ प्रचलित खास 2 शंकाओं का प्रश्नोत्तर द्वारा समाधान किया जाता है, पाठक धैर्य एवं शान्ति से अवलोकन करें।