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________________ इस प्रकार मूल पाठ को इतना ही स्वीकार कर वाचनान्तर में अधिक पाठ होना माना है। इससे अनुमान होता है कि-द्रौपदी के अधिकार में णमोत्थुणं श्रादि अधिक पाठ इस जिन प्रतिमा को तीर्थङ्कर प्रतिमा सिद्ध करने के अभिप्राय से किसी शंकाशील प्रति लेखक ने बढ़ा दिया हो, और वह पाठ सर्व मान्य नहीं है यह स्पष्ट है। इतने विवेचन पर से यह अच्छी तरह सिद्ध होगया कि लग्न प्रसंग पर निदान के प्रभाव से मिथ्यात्व वाली द्रौपदी से पूजी हुई जिन प्रतिमा तीर्थङ्कर की मूर्ति नहीं हो सकती ऐसे प्रकरण पर से मूर्ति पूजा को धार्मिक व उपादेय सम. झना अनुचित है। स्वयं टीका-कार भी द्रौपदी के इस पूजा प्रकरण में लिखते हैं कि 'नच चरितानुवादवचनानि विधि निषेध साधकानि भवंति' ऐसी अवस्था में कथानक की ओट लेकर विधिमार्ग में प्रवृत्त होने वाले और व्यर्थ के आरंभ समारंभ कर आत्मा को अनर्थ दण्ड में डालने वाले बन्धु वास्तव में दया के पात्र SROONAME
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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