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________________ (14) तपश्चर्या का कथन है / संयमाराधन का भी इतिहास मिलता है, किन्तु लग्न के बाद से लेकर संयमाराधन और अंतिम अनशन के सारे जीवन विस्तार में कहीं भी मूर्ति पूजा का उल्लेख खोज करने पर भी नहीं मिलता है / यदि मूर्ति पूजा धार्मिक करणी में मानी गई होती तो उसका वर्णन भी धार्मिक करणी के साथ अवश्य मिलता / इस पर से भी धार्मिक कृत्यों में मूर्ति पूजा की उपादेयता सिद्ध नहीं हो सकती। __इसके सिवाय द्रौपदी के प्रतिमा पूजा के प्रकरण में णमो. त्थुणं' और सूर्याभदेव की साक्षी के पाठ होने का भी कहा जाता है किन्तु यह पाठ मूल का होना सिद्ध नहीं हो सकता, कारण प्राचीन हस्त लिखित प्रतित्रों में उपरोक्त नमोत्थुणं श्रादि पाठ का नहीं होना है. और प्राचार्य अभयदेव सूरि ने भी इस बात को स्वीकार कर वृत्ति में स्पष्ट कर दिया है, प्रा. चार्य अभयदेवजी का समय बारहवीं श० का है जब से 16 वीं और १७वीं शताब्दी तक की प्रतिओं में प्रायः "जिण पडिमारणं अच्चणं करेई" ___ इतना ही पाठ मिलता है / स्वयं इस लेखक ने भी दिल्ली में श्रीमान् लाला मन्नूलालजी अग्रवाल के पास बहुत प्राचीन और जीर्ण अवस्था में ज्ञाता धर्म कथा की एक प्रति देखी, उसमें भी केवल उक्त पाठ ही है / इसी प्रकार किशनगढ़ में भी एक प्रति उक्त प्रकार के ही पाठ को पुष्ट करने वाली है। टीकाकार श्री अभय देवजी भी मूल पाठ में केवल उक्त वाक्य को स्थान देकर बाकी के पाठ को वाचनान्तर में होना बताते हैं, देखिये-- 'जिणपडिमाणं अच्चणं करेइत्ति-एकस्यां वाचनाया मेतावदेव दृश्यते, वाचनान्तरेतु"
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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