________________ ( 173 ) . इस प्रकार मन्दिर व मूर्ति के लिए जिन के सूरिवर्य भी अर्थ के अनर्थ और मिथ्या गप्पें लगाते रहें, वहां सत्य शोधन की तो बात ही कहां रहती है ? इस प्रकार अनेक स्थलों पर मनमानी की गई है, यदि कोई इस विषय की खोज करने को बैठे तो सहज में एक बृहत ग्रन्थ बन सकता है। प्रतएव टस विषय को यहीं पूर्ण कर इनकी टीका नियुक्ति प्रादि की विपरीतता के भी कुछ प्रमाण दिखाये जाते हैं टीका, भाष्यादि में विपरीतता कर देने के दुःख से दुखित हो स्वयं विजयानन्दसूरिजी जैन तत्वादर्श पृ० 35 में लिखते हैं कि "अनेक तरह के भाष्य, टीका, दीपिका, रचकर अर्थों की गड़बड़ कर दीनी सो अव ताई करते ही चले जाते हैं"। यद्यपि श्री विजयानन्द जी का उक्त आक्षेप वेदानुयायियों पर है किन्तु यही दशा इन मूर्ति पूजक आचार्यों से रचित टीका नियुक्ति भाष्य प्रादि का भी है, उनमें भी कर्ताओं ने अपनी करतूत चलाने में कलर नहीं रक्खी है. जबकि स्वयं विजयान्द जी ने मूल में प्रक्षेप करते कुछ भी संकोच नहीं किया, और कई स्थानों पर अर्थों के अनर्थ कर दिये जिनके कुछ प्रमाण पहले दिये जा चुके हैं. तर टीका भाष्यादि में गड़बड़ी करने में तो भय ही कौनसा है ? जैसी चाहें वैसी व्याख्या करदें। श्री विजयानन्दजी का पूर्वोक्त कथन पूर्ण रूपेण इनकी समाज पर चरितार्थ होता है। श्री विजयानन्दसूरि जैन तत्वादर्श पृ० 312 पर लिखते हैं कि- ..