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________________ ( 134 ) रक्षा के लिये बचा सकते हैं जिसके जीवन से अनेकों का उद्धार और परमारा से लाखों के कल्याण होने की संभावना है बचाना उसको परम वश्यक भी है, एक साधुवत धारिणी मह सति के प्राण बचाने का फल अनन्त जीवों की रक्षा कर ने के समान है, यदि बची हुई साध्वी ने एक भी मिथ्यात्वी अनार्य व क्रूर व्यक्ति को मिथ्यात्व से हटा कर आर्य और दयालु बना दिया, सम्यक्त्व प्राप्त कराया तो उस हिंसक के हाथों से अनेक प्राणी की हिंसा रुक कर भविष्य में वही दया पालक होकर स्व-पर का कल्याण करने वाला हो सकता है, यदि किसी एक को भी बोध देकर साधु दीक्षा प्रदान कं. रेगी तो उससे उसकी आत्मा का उद्धार होने के साथ 2 अनेक प्रकारके परोपकार भी होंगे। इसी उद्देश्य से मंयमी महावती साधु अपने ही समान संयता महावत धारिणी साध्वी की रक्षा करते हैं। यह सभी कार्य श्रावश्यक और अनिवार्य होने से किये जाते हैं, इनमें प्रभु की परवानगी आगमों में बनाई गई है, ऐसे अपवाद के कार्य अनावश्यकता की हालत में नहीं किये जाते, यदि ऐसे कार्य बिना श्रावश्यकता के किये जाय तो करने वाला मुनि दण्ड का भागी होता है / साधु आहार पानी स्थंडिल गमन आदि कार्य क. रते हैं, यही उन्हें शारीरिक बाधाओं के कारण करना पड़ता है, बिना बाधाओं के दूर किये रत्नत्रयी का श्राराधन नहीं हो सकता, अतएव ऐसे कार्य को यतना पूर्वक करने में कोई हानि नहीं है। ऐसे श्रावश्यक और अनिवार्य कार्यों के उदाहरण देकर अनावश्यक और व्यर्थ की मूर्ति पूजा में प्राणी हिंसा करना
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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