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________________ है, इस प्रकार जैन धर्म को मान्य ऐसे भाव यज्ञ को स्पष्ट व्याख्या होते हुए भी मूर्ति पूजक ग्रन्थकारों ने कल्प सूत्र में इसका " जिन प्रतिमा " अर्थ कर दिया, यदि यह शब्द किसी कथानक में द्रव्य यज्ञ को बताने वाला होतो भी वहां " मूर्ति " अर्थ तो किसी भी तरह नहीं हो सकता, ऐसे स्थान पर भी " हवन " अर्थ ही उपयुक्त हो सकता है, अतएव यह भी अर्थ का अनर्थ ही है। (4) यज्ञ की तरह ये लोग " यात्रा" शब्द का अर्थ भी पहाड़ों में भटकना बतलाते हैं किन्तु जैन मान्यता में यात्रा शब्द का अर्थ ज्ञानादि चतुथ्य की आराधना करना बताया है, जिसके लिए भगवती, ज्ञाता, स्पष्ट साक्षी है। अतएव यात्रा शब्द का अर्थ भी पहाड़ों में भटकना जैन मान्यता और आत्म कल्याण के लिए अनर्थ ही है। (5) व्यवहार सूत्र में सिद्ध भगवान की वैयावृत्त्य करने का कहा है, जिस का अर्थ मूर्ति मण्डन प्रश्नोत्तरकार पृ० 150 में निम्न प्रकार से करते है, ____ “सिद्ध भगवान् नी वैयावच्च ते तेमनं मन्दिर बंधावी, मूर्ति स्थापन करी वस्त्राभूषण, गंध पुष्प, धूप, दीपेकरी अष्ट प्रकारी, सत्तर कारी पूजा करे तेने कहे छे"। ___ इस प्रकार मन माना अर्थ बनाकर केवल अनर्थ ही किया (6) श्री आत्मारामजी ने हिंदी सम्यक्त्वशल्योद्धार में भगवती सूत्र श० 3 उ०५ का पाठ लिखकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि-"संघ के कार्य के लिए लब्धि फोड़ने में प्रायश्चित नहीं " किन्तु इस विषय में जो मूल पाठ दिया
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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