________________ (75) रटन रूप नाम स्मरण को उच्च फल प्रद नहीं मानता, भाष युक्त स्मरण ही उत्तम कोटि का फलदाता है। किन्तु भाव युक्त भजन के आगे तोते की तरह किया हुघा नामस्मरण किंचित् मात्र होते हुए भी मूर्ति पूजा से तो अच्छा ही है, क्योंकि केवल वाणी द्वारा किया हुआ नामस्मरण भी 'वाणीसुप्रणिधान' तो अवश्य है, और 'वाणीसुप्रणिधान' किसी 2 समय 'मनः सुप्रणिधान' का कारण बन जाता है, और मूर्ति पूजा तो प्रत्यक्ष में 'कायन्दुष्प्रणिधान' प्रत्यक्ष है, साथ ही मनःदुष्प्रणिधान की कारण बन सकती है, क्योंकि-पूजा में आये हुए पुष्पादि घ्राणेन्द्रिय के विषय का पोषण करने वाले हैं, मनोहर सजाई, आकर्षक दीपराशी और नृत्यादि नेत्रेन्द्रिय को पोषण दे ही देते हैं, वाजिन्न और सुरीले तान टप्पे कर्णेन्द्रिय को लुभाने में पर्याप्त है, स्नान शरीर विकार बढ़ाने का प्रथम श्रृंगार ही है, इस प्रकार जिस मूर्ति-पूजा में पांचों इन्द्रियों के विषय का पोषण सुलभ है वहां मनदुष्पणिधान हो तो आश्चर्य ही क्या है ? वहां हिंसा भी प्रत्यक्ष है, अतएव मूर्ति पूजा शरीर और मन दोनों को बुरे मार्ग में लगाने वाली है, कर्मबंधन में विशेष जकड़ने वाली है, इससे तो केवल वाणी द्वारा किया हुश्रा नामस्मरण ही अच्छा और वचन दुष्प्रणिधान का अवरोधक है, और कभी 2 मनःसुप्रणिधान का भी कारण हो जाता है, अतएव मूर्ति-पूजा से नामस्मरण अवश्य उत्तम है। यदि यह कहा जाय कि-'हमारी यह द्रव्य-पूजा काय दुष्प्रणिधान होते हुए भी मनासुप्रणिधान (भाव-पूजा ) की कारण है' तो यह भी उचित नहीं,क्योंकि-मनःसुप्रणिधान