________________ ( 76 ) में शरीर दुष्प्रणिधान की आवश्यक्ता नहीं रहती, द्रव्य-पूजा से भाव-पूजा बिलकुल प्रथक् है, भाव-पूजा में किसी जीव को मारना तो दूर रहा सताने की भी आवश्यकता नहीं रहती, न किसी अन्य बाह्य वस्तुओं की ही आवश्यकता रहती है। भाव-पूजा तो एकान्त मन, वचन, और शरीर द्वारा ही की जाती है / अतएव द्रव्य पूजा को भाव-पूजा का कारण कहना असत्य है। स्वयं हरिभद्रसरि आवश्यक में लिखते हैं कि-- 'भावस्तव में द्रव्यस्तव की आवश्यकता नहीं। और जो गाय का उदाहरण दिया गया है वह भी उल्टा प्रश्नकार के ही विरुद्ध जाता है, क्योंकि जिस प्रकार गाय के नाम रटन मात्र से दृध नहीं मिल सकता, उसी प्रकार पत्थर, मिट्टी, या कागज़ पर बनी हुई गाय से भी दूध प्राप्त नहीं हो सकता यदि हमारे मूर्ति पूजक बन्धु इस उदाहरण से भी शिक्षा प्राप्त करना चाहें तो सहज ही में मूर्ति पूजा का यह फन्दा उनसे दूर हो सकता है। किन्तु ये भाई ऐसे सीधे नहीं, जो मान जाय, ये तो नाम से दूध मिलना नहीं मानेंगे, पर गाय की मूर्ति से दूध प्राप्त करने की तरह मूर्ति-पूजा तो करेंगे ही। - साक्षात् भाव निक्षेप रूप प्रभु की आराधना साक्षात् गाय के समान फलप्रद होती है, किन्तु मूर्ति से इच्छित लाभ प्राप्त करने की आशा रखना तो पत्थर की गाय से दूध प्राप्त करने के बराबर ही हास्यास्पद है। अतएव बेसमझी को छोड़ कर सत्य मार्ग को ग्रहण करना चाहिये /