________________ (14) श्रीमान् लोकाशाह के विषय में पूर्व व पश्चात् . लेखनी उठाई है और गालियां प्रदान की है उनका प्रमाण देना सर्व. था अन्याय है। यदि अभ्यासी बन्धु जरा प्रौढ़ बुद्धि से विचार करते तो उन्हें सूर्यवत् प्रकट मालूम देता कि-जिन महापुरुष को मैं सामायिक, दया, दानादि के उत्थापक कहने की धृष्ठता करता हूं; जरा उनके अनुयाइयों की ओर तो मेरी अवलोकन दृष्टि डालूं कि- वे उक्त क्रिया करते हैं या नहीं? यदि इतना कष्ट भी आपने किया होता तो यह बृहद् भूल करने का अवसर नहीं पाता। * अरे अनऽभ्यासी बन्धु ! जरा लोकाशाह के अनुयाइयों की ओर तो अांख उठाकर देखो, उनके समाज में सामा. यिक, प्रतिपूर्ण पौषध, प्रतिक्रमण, त्याग, प्रत्याख्यान, दया, दान श्रादि किस प्रकार प्रचुर परिमाण में होते हैं / उनके सामने तो आपकी सम्प्रदाय में उक्त क्रियाएं बहुत स्वल्प मात्रा में होती हैं / फिर आपका अभ्यास रहित वाक्य किस प्रकार सत्य हो सकता है ? क्या जिस समाज में जो क्रियाएं प्रचुरता से पाई जाती हैं उनके लिए उनके पूर्वजों को उत्था पक कह डालना मूर्खता नहीं है ? अतएव लोकाशाह मतसमर्थन में जो मूतिपूजा विषयक विचार किया गया है वह लोकाशाह मत-समर्थन अवश्य है। . २-अनऽभ्यासी बन्धु लोकाशाह के लिए इस्लाम संस्कृति की दुहाई देते हैं, इस विषय में अधिक नहीं लिख. कर केवल यही निवेदन किया जाता है कि भाई साहब !