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________________ (13) की बलिहारी / इस पर से इतना तो सहज ही मालूम देता है कि-अभ्यासक महोदय कदाचित अभ्यास सम्बंधी प्रथम श्रेणी के ही छात्र (बालक) हों। जिस समाज के वे सपूत हैं उसके ग्रन्थकार ही श्रीमान् धर्मप्राण लोकाशाह को मूर्तिपूजा उत्थापक, मूतिपूजा के निषेधक कहकर सम्बोधन करते हैं, वे सब यह मानते हैं कि श्रीमान् लोकाशाह ने मूर्तिपूजा के विरुद्ध आवाज उठाई थी, बस अभ्यासी भाई को समझ लेना चाहिए कि उसी सत्य एवं सिद्धांत मान्य आवाज के समर्थन रूप यह पुस्तक है। इतना भी ज्ञान यदि अभ्यासी बंधु को होता तो उन्हें अपनी कलम कृपाण को चलाने का मौका नहीं आता। आगे चलकर अनऽभ्यासी बन्धु, श्रीमान् लोंकाशाह को सामायिक, पौषध, दया, दानादि के लोप करने वाले कहते हैं, पोर प्रमाण में लावण्यसमय का नाम उच्चारण करते हैं, यह सर्वथा अनुचित है। हमारे इन भोले भाई को ध्यान में रखना चाहिए कि-लोकाशाह के शत्रु उन पर चाहे सो श्रा. क्षेप करें पर वह प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता, जिस प्रकार अभी थोड़े दिन पहले आपके इसी 'जैन' पत्र के किसी तुच्छ लेखक ने इस महान क्रांतिकार को वेश्या पुत्र कह डालने का दुःसाहस किया था ( और फिर दाम्भिक दिल गिरी प्रकट कर अपनी मृषावादिता प्रकट की थी) वैसे ही आगे चलकर फिर कोई महानुभाव आपके जैन पत्र के पूर्व के नीच आक्षेप वाले लेख का प्रमाण देकर लोकाशाह को वेश्या पुत्र सिद्ध करने की कुचेष्टा करे तो क्या वह प्रमाणित हो सकेगी ? हरगिज़ नहीं / इसी प्रकार जिन मूर्तिपूजकों ने
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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