________________ ( 2 ) उन्नत अवनत अवस्थाओं से भली भांति परिचित हैं / तदनुसार जैन धर्म को भी कई बार अनुकूल और प्रतिकूल अवस्थाओं में रहना पड़ा / इतिहास साक्षी है कि भगवान् / पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी के मध्यकाल में कितना परिवर्तन होगया था, श्रमण संस्कृति में कितनी शिथिलता श्रा गई थी, धर्म के नाम पर कितना भयंकर अंधेर चलता था, नर हत्या में धर्म मी ऐसे ही निकृष्ट समय में माना जाता था. ऐसी दुरावस्था में ही अहिंसा एवं त्याग के अवतार भगवान् महावीर स्वामी का प्रादुर्भाव हुआ, और पाखण्ड एवं अन्ध विश्वास का नाश होकर यह वसुन्धरा एक बार और अमरापुरी से भी बाजी मारने लगी, मध्यलोक भी उर्द्धलोक (स्वर्ग धाम) बन गया, परमैश्वर्यशाली देवेन्द्र भी मध्यलोक में प्राकर अपने को भाग्यशाली समझने लगे, यह सब जैनधर्म की उन्नत अवस्था का ही प्रभाव था, ऐसे उदयाचल पर पहुँचा हुआ जैन धर्म थोड़े समय के पश्चात् फिर अवनत गामी हुश्रा, होते 2 यहां तक स्थिति हुई कि धर्म और पाप में कोई विशेष अन्तर नहीं रहा / जो कृत्य पाप माना जाकर त्याज्य समझा जाता था, वही धर्म के नाम पर श्रादेय माना जाने लगा। हमारे तारण तिरण जो पृथ्वी श्रादि षटकाया के प्राण वध को सर्वथा हेय कहते थे, वही प्राण वध धर्म के नाम पर उपादेय हो गया / मन्दिरों और मूर्तियों के चक्कर में पड़कर त्यागी वर्ग भी हम गृहस्थों जैसा और कितनी ही बातों में हम से भी बढ़ चढ़ कर भोगी हो गया। स्वार्थ साधना में मन्दिर और मूर्ति भी भारी सहायक हुई, मन्दिरों की जागीर, लाग, टेक्स, चढ़ावा आदि से द्रव्य प्राप्ति अधिक होने लगी / भगवान् के नाम पर भक्तों को उल्लू बनाना