________________ ४०-अंतिम निवेदन - इतने कथन के अन्त में अपने मूर्ति पूजक बन्धुओं से सनम्र निवेदन करता हूं कि वे व्यर्थ की धांधली और शान्त समाज पर मिथ्या आक्रमण करना छोड़कर शुद्ध हृदय से विचार करें। और जिस प्रकार दयादान, सत्य संयम,आदि हितकर धर्म की पुष्टि और प्रमाणिकता सिद्ध की जाती है उसी प्रकार मूर्ति पूजा की सिद्धि कर दिखावें, और यदि यह कार्य आगम सम्मत होतो वह भी जाहिर करदें कि अमुक उभय मान्य मूल सिद्धान्त में सर्वश प्रभु ने मूर्ति पूजा करने की आशा प्रदान की है / इस प्रकार विधिवाद के स्पष्ट प्रमाण पेश करें, कथाओं की व्यर्थ अोट लेना, और शब्दों की निरर्थक खींच तान करना यह तत्वगवेषियों का कार्य नहीं किन्तु अभिनिवेष में उन्मत्त मतान्ध व्यक्तियों का है। इसलिये प्रा. गमों के विधिवाद दर्शक प्रमाण ही पेश करें, कथाओं की ओट और शब्दों की खींचतान अथवा पागम श्राशा की श्र. वहेलना करने वाले ग्रन्थों के प्रमाण तो किसी भोले और ग्रामीण भक्तों को समझाने के लिये ही रख छोड़ें / मैं श्राप लोगों की सुविधा के लिये आप ही की मूर्ति पूजक समाज के प्रतिभाशाली विद्वान पं० बेचरदासजी दोशी रचित 'जैन साहित्य मां विकार थवाथी थयेली हानि' नामक पुस्तक में पंडितजी के विचार आपके सामने रखता हूं जिससे आपको तत्व निर्णय में सरलता हो, देखिये पृ० 125 से