________________ (26) प्रतिष्ठा, धूप, दीप, नैवेद्यं श्रादि वस्तुओं का भी निर्देश किया जाता क्योंकि-मूर्ति-पूजा के काम में यही वस्तुएँ उपयोगी होती हैं। प्रशन पान अलाप संलाप से मूर्ति का तो कोई सम्बन्ध ही नहीं हो सकता। (ग) कल्प सम्बन्धो दूसरी प्रतिमा में तो साधु के सिवाय अन्य किसी का भी नाम नहीं है। न वहां चैत्य शब्द का उल्लेख है। यदि सूत्रकार या श्रावक महोदय को मूर्तिपूजा इष्ट होती तो इस विधि प्रतिज्ञा में उसके लिये भी कुछ न कुछ स्थान अवश्य होता। अतएव सिद्ध हुआ कि हमारे मूर्ति पूजक बन्धुओं ने जो अपने मनमाने शब्द और अर्थ लगाकर श्रानन्द श्रावक को मूर्ति पूजक कहने की धृष्टता की है वह सर्वथा हेय है। इन भोले भाइयों को अपने ही मान्य विजयानन्दसूरि ( जो कार मूर्ति पूजक थे। के निम्न कथन पर ध्यान देकर विचार करना चाहिये। आपने मूर्तिपूजा के मंडन में साधुमार्गियों की निंदा करते हुये 'सम्यक्त्व शस्योद्धार हिन्दी की चतुर्थावृत्ति में 'श्रानन्द श्रावक जिन प्रतिमा वादी है' इस प्रकरण में पृष्ठ 85 पंक्ति 1 से लिखा है कि___'यद्यपि उपाशकंदशांग में यह पाठ नहीं है। क्योंकि-पूर्वाचार्यों ने सूत्रों को संक्षिप्त कर दिये हैं तथापि समवायांग में यह बात प्रत्यक्ष है। इसमें विजयानन्द सूरि साफ स्वीकार करते हैं कि'उपासकदशांग में (जिसमें कि आनन्द श्रावक के सम्पूर्ण