________________ (25) (आ) मूर्तिपूजक विद्वान पं० बेचरदासजी ने 'भगवान महावीरना दश उपासको' नामक पुस्तक लिखी है जो किउपासगदशांग का भाषानुवाद है उन्होंने भी उक्त पाठ के अनुवाद में पृ० 14 के दूसरे पेरे में उक्त एशियाटिक सोसायटी की प्रति के समान ही 'अरिहंत चैत्य' रहित पाठ मानकर भाषान्तर किया है / देखिये 'प्राजश्री अन्य तीथिकों ने, अन्य तीथिक देवताओं ने, अन्य तीथि के स्वीकारेला ने, वन्दन अने लमन करQ मने कल्पे नहीं' आदि। उपरोक्त विचार से यह सिद्ध हो गया कि-पीछे के किसी मूर्ति पूजक लेखक ने आदर्श श्रावकों को मूर्ति पूजक सिद्ध करने के लिये ही 'अरिहंत' शब्द को मूल में प्रक्षिप्त कर अपने श्रद्धालु भक्तों को भ्रम में डाला है, किन्तु इतना कर लेने पर भी इनकी इष्ट सिद्धि तो नहीं हो सकी, क्योंकि इस में निम्न कारण विचारणीय हैं (क) श्रावक महोदय ने अपनी पूर्व प्रतिज्ञा में कहा किमुझे अन्य तीर्थी श्रादि को वन्दनादि करना उनको चारों तरह का आहार देना तथा बिना बोलाये उनसे बोलना, वारंवार बोलना ऐसा मुझे नहीं कल्पता है, इससे यह सिद्ध होता है कि इस प्रतिज्ञा का सम्बन्ध मनुष्यों से ही है, श्राहारादि देना, दिलाना, पहले बोलना, अधिक बोलना ये क्रियाएँ मनुष्यों के साथ ही की जा सकती है किसी जड़ मूर्ति के साथ नहीं। (ख) यदि चैत्य शब्द से सूत्रकार को मूर्ति अर्थ इष्ट होता तो खान, पान आदि क्रियाओं के साथ साथ पूजा,