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________________ ( 186) श्रीमद् भद्रबाहु स्वामी के उक्त कथन को बताने वाली श्री व्यवहार सूत्र की चूलिका पर श्री न्याय विजयजी इतने ऋद्ध हैं कि-यदि इनकी चलती तो उक्त चूलिका की रूमा प्रतियें एकत्रित कर हवन कुण्ड की भेट कर देते, किंतु विवशता वश सिवाय मिथ्या भाषण के अन्य कोई उपाय ही नहीं सूझता, जिस.का परिचय पहले करा दिया गया है। (7) सम्बोध प्रकरण में हरिभद्र सूरि लिखते हैं कि संनिहि महा कम्मं जल, फल, कुसुमाइ सब सचित्तं चेक्ष्य मठाइवासं पूयारंभाइ निच्चवासित्तं / देवाइ दव्वभोगं जिणहर शालाइ करणं च // . - अर्थात्-प्रथम रूचित्त जल, फल, फूलों का प्रारम्भ पूजा के लिए हुवा, चैत्यवासऔर चैत्य पूजा चली देव द्रव्य भोगना, जिन मन्दिरादि बनवाना चला। (8) सन्देह दोलाबली में लिखा है कि गड्डरी-प्पवाहऊ जे एइ नयरंदीसइ बहुजिणेहिं जिणग्गह कारवणाइ सो धम्मो सुत्त विरुद्धो अधम्मोय / अर्थात्-लोक में गडुरिया प्रवाह से गतानुगतिक चलने वाला समूह अधिक होता है, वे जिन मन्दिरादि करवाना यह सूत्र विरुद्ध अधर्म को भी धर्म मानने वाले हैं। . . (E) विवाह चूलिका के ! वै पाहुड़े के 8 वें उद्देशे में लिख है कि--
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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