SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (4) बीच होना बताया है, किन्तु वास्तव में यह रचना शैली ही है. श्री महावीर गौतम की उक्ति से सत्य नहीं, क्योंकि-प्रभू की उपस्थिति के समय तो यह प्रथा थी ही नहीं। इसीलिये किसी प्रमाणिक और गणधर रचित अंग शास्त्रों में भी ऐसा उल्लेख नहीं है, अतएव इस कथन को साक्षात् प्रभु और गणधर के बीच होना मानना भूल है,तो भी मूर्ति पूजा के निध में तो उक्त कथन बहुत स्पष्ट है, इस ग्रन्थ को मूर्ति पूजक लोग भी मानते है, इसके सिवाय अब किती प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती। (10) महा निशीथ सूत्र का तीसरा और पाँचवां अध्ययन तो इस मूर्ति पूजा को जड़ काटने में कुछ भी न्यूनता नहीं रखता, जो कि-मूर्ति पूजकों का मान्य ग्रन्थ है। __ इस तरह मूति पूजक मान्य ग्रन्थों से भी मूर्ति पूजा निषिद्ध ठहरती है, आत्मार्थी बन्धुओं को इसका त्याग कर इतना समय आत्म कल्याण की साधक सामायिक में लगाना चाहिये / मू० पू० से सामायिक करना श्रेष्ठ है। द्रव्य पूजा ( अन्य मचित्त या अचित्त वस्तुओं से पूजा करना ) सावद्य-हिसायुक्त है, साथ ही व्यर्थ और निरर्थक भी। अतएव इसका त्याग कर भाव पूजा रूप सामायिक कर प्रात्म साधन करना चाहिए श्रावकों की सामायिक थोड़े समय का देशविरती चारित्र है, अतएव इसका आराधन करना स्वल्प कालका चारित्र धर्म पालना है। स्वयं विजयानन्द सूरि स्वीकार करतेहैं कि जब श्रावक सामायिक करता है, तब साधु की तरह हो जाता है, इस वास्ते श्रावक सामायिक में देव स्नात्र, पूजादिक, न करें, क्योंकि भाव स्तव के वास्ते द्रव्य स्तव करना है सो
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy