________________ महानिशीथ के कुशील नामक तीसरे अध्ययन में लिखा है कि 'द्रव्यस्तव जिन-पूजा प्रारंभिक है और मावस्तव ( भावपूजा ) अनारंभिक है, भले ही मेरू पर्वत समान स्वर्ण प्रासाद बनावे, भले प्रतिमा बनावे, भले ही धजा, कलश, दंड, घंटा, तोरण आदि बनावे, किन्तु ये भावस्तव मुनिव्रत के अनन्तवें भाग में भी नहीं आ सकते हैं।। आगे चलकर लिखा है कि_ 'जिन मन्दिर, जिन प्रतिमा आदि प्रारम्भिक कार्यों में भावस्तव वाले मुनिराज खड़े भी नहीं रहे, यदि खड़े रहे तो अनंत संसारी बने। पुनः आगे लिखा है कि-- __ जिसने समभाव से कल्याण के लिए दीक्षा ली फिर मुनिव्रत छोड़कर न तो साधु में और न श्रावक में ऐसा उभय भ्रय नामधारी कहे कि मैं तो तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा की जल, चन्दन, अक्षत, धूप, दीप, फल, नैवेद्य आदि से पूजा कर तीर्थों की स्थापना कर रहा हूँ तो ऐसा कहने वाला भ्रष्ट श्रमण कहलाता है, क्योंकि वह अनंतकाल पर्यंत चतुर्गति रुप संसार में परिभ्रमण करेगा। इतना कहने के पश्चात् पांचवें अध्ययन में लिखा है कि