________________ (48) - विजयानन्द सूरिजी सम्यक्त्व शल्योद्धार हिंदी श्रावृत्ति 4 पृष्ठ 175 में चैत्य शब्द का अर्थ करते हैं कि 'जिन मंदिर, जिन-प्रतिमा को चैत्य कहते हैं और चोंतरे बंद वृक्ष का नाम चैत्य कहा है इसके उपरान्त और किसी वस्तु का नाम चैत्य नहीं कहा है। इस प्रकार मनमाने अर्थ कर डालना उक्त प्रमाणों के सा. मने कोई महत्व नहीं रखता क्योंकि इन तीन के सिवाय अन्य अर्थ नहीं होने में कोई प्रमाण नहीं है। जब श्री विज. यानन्दजी चैत्य के तीन अर्थ करते हैं तो इनके शिष्य महो. दय शांति विजयजी जिनके लम्बे चौड़े टाईटल इस प्रकार जनाब, फैजमान, मग्जनेइल्म, जैन श्वेताम्बर धर्मोपदेष्टा विद्यासागर, न्यायरत्न, महाराज शांतिविजयजी अपने गुरूसे दो कदम आगे बढ़ कर अपने गुरू के बताए हुए तीन अर्थों में से एक को उड़ा कर केवल दो ही अर्थ करते हैं वे इस प्रकार हैं। 'चैत्य शब्द के मायने जिन-मन्दिर और जिन-मूर्ति यह दो होते हैं, इससे ज्यादे नहीं' [जैन मत पताका पृ०७४ पं०८] इस तरह जहां मनमानी और घर जानी होती है। हटाग्रह से ही काम चलता हो वहां शुद्ध अर्थ की दुर्दशा होना सम्भव है क्योंकि जहां हठ का प्राबल्य हो जाता है वहां उल्लिखित श्रागम सम्मत प्रकरणानुकूल शुद्ध अर्थ बताये जाय तो भी वे अपने मिथ्या हठ के कारण भले ही प्रकरण के प्रतिकूल हो मनमानी अर्थ ही करेंगे। ऐसे महानुभावों से कहना है कि