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________________ (41) टीकाकार इस शब्द का 'गृहदेव पूजा' अर्थ करते हैं, यहां गृहदेव से मतलब गौत्र देवता है, अन्य नहीं। श्रीमद् रायचन्द्र जिनागम संग्रह में प्रकाशित भगवती सूत्र के प्रथम खंड में अनुवाद कर्ता पं० बेचरदासजी जो स्वयं मूर्ति-पूजक हैं इस शब्द का अर्थ 'गौत्रदेवी नुं पुजन करी' करते हैं ( देखो पृष्ठ 276 ) और इस खण्ड के शब्द कोष में भी इस शब्द का अर्थ 'गृह गौत्र देवी - पूजन' ऐसा किया है (देखो पृष्ठ 382 की दूसरी कालम ) इस पर से सिद्ध हुअा है कि मूर्ति-पूजक विद्वान यद्यपि बलिकर्म का अर्थ 'गृहदेवी की पूजा करते हैं तो भी तीर्थकर मूर्ति पूजा ऐसा अर्थ करना तो उन्हें भी मान्य नहीं है। ___ इस विषय में मूर्ति पूजक प्राचार्य विजयानन्द सूरिश्रादि ऐसी कुतर्क करते हैं कि वे श्रावक देवादि की सहायता चाह ने वाले नहीं थे, इसलिए यहां 'गृहदेव पूजा' से मतलब घरमें रहे हुए तीर्थकर मन्दिर घर देरासर ) से हैं, क्यों कि वे तीर्थंकर सिवाय अन्य देव का पूजन नहीं करते थे किन्तु यह तर्क भी असत्य है। क्योंकि भगवती सूत्र में इन श्रावकों के विषय में यह कहा गया है कि जिनको निग्रंथ प्र. वचन से डिगाने में देव दानव भी समर्थ नहीं थे, आपत्ति के समय किसी भी देवता की सहाय नहीं इच्छकर स्वकृत कर्म फल को ही कारण समझते थे, किन्तु इससे यह नहीं समझ लेना कि वे श्रावक लौकिक कार्य के लिये कुल परम्परानुसार लौकिक देवों को नहीं पूजते थे, क्योंकि वे भी संसार में बैठे थे, अतएव सांसारिक और कुल परंपरागत रि. वाजों का पालन करते थे। प्रमाण के लिये देखिये
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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