SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . (147) और उसका जितना अंश पागम प्राशययुक्त या जिन वचनों को अबाधक है, उसे मानने में हमें कोई हानि नहीं। / ___ हम मूल सूत्र के सिवाय टीका नियुक्ति आदि को मी मानते हैं, किन्तु वे होने चाहिये मूलास्य युक्त, मूल के बिना या मूल के विपरीत मान्य नहीं हो सकते / वर्तमान में ऐसी पूर्ण अबाधक टीका नियुक्ति नहीं होती अभी जितनी टीकाएं या नियुक्ति प्रादि हैं उनमें कहीं 2 तो सर्वथा बिना मूल के ही और कहीं मूल के विपरीत भी प्रयास हुआ पाया जाता है, ऐसी हालत में वर्तमान की टीका नियुक्ति प्रादि साहित्य पूर्ण रूप से मान्य नहीं है। हां उचित और अबाधक अंश के लिये हमारा विरोध नहीं है। वर्तमान की टीकाएं प्राचीन नहीं, किन्तु अर्वाचीन हैं / इस विषय में स्वयं विजयानन्दजी सूरि भी जैन नत्वादर्श पृ० 312 पर लिखते हैं कि____ 'सर्व शास्त्रों की टीका लिखी थी। वो सर्व विच्छेद हो इसी प्रकार प्राचीन टीका का विच्छेद होना स्वयं टीका कार भी स्वीकार करते हैं / इससे सिद्ध हुआ कि इस समय जितनी टीकाएं उपलब्ध हैं वे सभी प्राचीन नहीं किन्तु अ. वर्वाचीन है, इसके सिवाय वर्तमान टीकाकार भी प्रायः चत्य वादी और चैत्यवासी परम्परा के ही थे। तथा टीकाओं में टीकाकार का स्वतन्त्र मंतव्य भी तो होता है। बस चैत्यवाद प्रधान समय में होने से इन टीकाओं में अपने समय के इष्ट भावों का श्राजाना कोई बड़ी बात नहीं है। कितने ही महा शय ऐसे भी होते हैं जो अपने मंतव्य को जनता से मान्य करवाने के हेतु उसे सर्वमान्य साहित्य में मिला देते हैं, इस
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy