________________ (148) प्रकार भी जैन साहित्य में बिगाड़ा हुआ है। कोंकि स्वार्थ परता मनुष्य से चाहे सो करा सकती है। भाष्य, वृत्ति, नियुक्ति प्रादि में स्वार्थ परताने भी अपना रंग जमाया है। हमारी इस बात को तो श्री विजयानन्द सूरि भी जैन तत्वा. दर्श हिंदी के पृष्ट 35 में लिखते हैं कि 'अनेक तरह के भाष्य, टीका दीपिका रचकर अर्थों की गड़बड़ कर दीनी सो 'अवताइकरते ही चले जाते हैं। __ यद्यपि उक्त कथन वेदानुयाइयों पर है, तथापिइस घृणित कार्य से स्वयं जैनतत्त्वादर्श के कर्त्ता और इनके अन्य मूर्तिपूजक टीकाकार भी वंचित नहीं रहे हैं, ग्रन्थकारों ने भी अपने मन्तव्य के नूतन नियम पागम याने जिनवाणी के एक दम विपरीत घड़ डाले हैं, सर्व प्रथम मूर्ति पूजक समाज के उक्त विजयानन्द सूरि के जैनतत्वादर्श के ही कुछ अवतरण पाठकों की जानकारी के लिए देता हूं, देखियेः (1) 'पत्र, वेल, फूल, प्रमुख की रचना करनी......... शतपत्र, सहस्रपत्र, जाई, केतकी, चम्पकादि विशेष फूलों करी माला, मुकुट, सेहरा, फूलधरादिक कीरचना करे, तथा जिनजी के हाथ में बिजोरा, नारियल, सोपारी, नागवल्ली, मोहोर, रुपैया, लड़ प्रमुख रखना.. " (पृ० 405) (2) प्रथम तो उष्ण प्राशूक जल से स्नान करे, जेकर उष्ण जल न मिले तब वस्त्र से छान करके प्रमाण संयुक्त शीतल जल से स्नान करें। (पू० 399)