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________________ (153) हेमचन्द्राचार्यजी का भी वशीकरण मन्त्र देख लीजिए आप योग पास्त्र के पांचवे प्रकाश के 242 वें श्लोक में बताते हैं कि आसने शयने वापि, पूर्णागे विनिवेशिताः / वशी भवंति कामिन्यो, न कार्मण मतः परम // 242 अर्थात्-आसन या शयन के समय पूर्णग की ओर बिठाई हुई स्त्रिये स्वाधीन हो जाती है, इसके सिवाय दूसरा कोई कार्मण नहीं। पाठकों ! क्या, ऐसा लेख जैन मुनि का हो सकता है / यदि मापको ऐसी शंका हो तो मेरे निर्देश किये हुए. स्थलों पर मिलान करा लीजिए आपको विश्वास होजायगा कि जो कथन काम शास्त्र का होना चाहिए वह जैन शास्त्र में और वह भी जैन के कलिकाल सर्वज्ञ महान् प्राचार्य कहे जाने वालों के पवित्र कर कमलों से लिखा जाय, यह पानी में आग और अमृत में हलाहल विष के समान है, अब आप ही बतलाइये कि इस प्रकार के धर्म घातक प्रारम्भ और विषय वर्द्धक पोथों को किस प्रकार धर्म ग्रन्थ माने। . ऐसे ही हमारे मूर्ति पूजक बन्धुओं के कथा ग्रन्थों या अन्य ढाले रास चरित्र और महात्म्य ग्रन्थों को भी आप देखेंगे तो वहां भी आप को मूर्ति पूजा विषयक गपोड़े प्रचुरता से मिलेंगे पर ये हैं सब मन गढन्त ही, क्योंकि उभय मान्य और गणधर रचित, स्त्रों में तो इस विषय का संकेत मात्र भी नहीं है। संक्षेप में यहां कुछ गपोड़ों का नमूना भी देखिये:-- .. कुमारपाल राजा के इस विशाल राज्य ऐश्वर्य का कारण निम्न प्रकार बताया है।
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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