SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (18) (आ) सूर्याभ के पूर्व भवमें प्रदेशी राजा का जीव कितना क्रूर, हिंसक और नर्क गति की ओर लेजाने वाले कर्म करने वाला था, यदि ये ही कृत्य चालू रहते तो अवश्य उसे नार. कीय यातनाएं सहन करनी पड़ती / किन्तु जीवन के उत्तर विभाग में श्रीमान् केशीकुमार श्रमण के उपदेश से उसने धर्माराधन, तपश्चर्या, परिषहसहन, अन्तिम संलेहणा आदि क्रियाओं द्वारा संचित पाप पुंज का नाश कर पुण्य का प्रबल भंडार हस्तगत किया, क्या इस पाप पुंज संहारिणी और पुण्य उदय करने वाली करणी में कहीं मूर्ति पूजा का भी नाम निशान है ? (इ) सूर्याभ ने उत्पन्न होकर मूर्ति पूजा की, उसके बाद भी कभी नियमित रूप से उसने पूजा की है क्या ? क्योंकि धार्मिक कृत्य तो सदैव किये जाने चाहिये, जैसे सामायिक प्रतिक्रमण आदि, पूर्व समय के श्रावक प्रति दिन धार्मिक कृत्य करते थे इसका वर्णन सूत्रों में पाया जाता है। इसी तरह यदि मूर्ति-पूजा को भी धार्मिक क्रिया में स्थान होता तो किसी न किसी स्थान पर एक भी श्राद्धवर्य के जीवन वर्णन में उल्लेख अवश्य मिलता / इसी प्रकार मूर्ति पूजा यदि धार्मिक करणी होती तो सूर्याभ सदैव इस क्रिया को करता, खास 2 प्रसंग पर तो कुल रिवाज अथवा जीताचार ही पाला जाता है। (ई) सूर्याभ का दृढ़ प्रतिश कुमार रूप अन्तिम भव है उसमें चारित्र धर्म की आराधना कर मुक्ति प्राप्त करने का वर्णन है, उसमें भी कहीं मूर्ति पूजा का कथन है क्या ?
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy