________________ (11) प्रारम्भ परिग्रह आदि का छूटना ही अधिक कठिन है, इसलिए सामायिक का उदय में आना ही दुर्लभ है। मूर्तिपूजा में दुर्लभता कैसी ! झट से स्नान किया, फूल तोड़े, केशर चन्दनादि घिस कर पूजा की / ऐसे आरम्भ जन्म कार्य से तो चित्त प्रसन्न हो होता है, और यह प्रवृत्ति भी सब को सरल व सुखद लगती है, इसमें दुर्लभता की बात ही क्या है ? धर्म दया में है हिंसा में नहीं महानुभावो ! खरा धर्म तो इच्छाओं को वश कर विषय कषाय और आरम्भ के त्याग में तथा प्राणी मात्र की दया में है। इसके विपरीत निरर्थक हिंसा भव भ्रमण को बढ़ाने वाली होती है / मात्र एक दया ही संसार से पार करने में समर्थ है, यदि शंका हो तो प्रमाण में आगम वाक्य भी देखिये (1) श्री आचागंग सूत्र के शस्त्रपरिज्ञा नामक प्रथम अध्ययन में जाइ मरण मोयगाए कह कर धर्म के लिए की गई पृथ्वी कायादि जीवों की हिंसा को अहित एवं अबोधी कर बताई है, और प्रभु ने स्पष्ट कहा है कि जो इस प्रकार की हिंसा से त्रिकरण त्रियोग से निवृत्त है, उसे ही मैं संयमी साधु कहता हूं। (2) सूत्र कृतांग अ० 11 गा० 6 से मोक्ष मार्ग की प्ररूपणा करते हुए प्रभू फरमाते हैं कि पुढवी जीवा पुढो सत्ता, आउ जीवा तहागणी। वाउजीवा पुढो सत्ता, तण रुक्खा स-बीयगा // 7 अहावरा तसा पाणा, एवं छकाय आहिया। एतावए जीवकाए, पावरे कोइ विजइ // 8