________________ (100) स्थापना के साथ की जाती है / कापि नहीं यह क्रिया साक्षात् के साथ या उनकी अनुपस्थिति में उन्हीं के चरणों को लक्ष्य कर की जासकती है, और यह भावनिक्षेप में ही है। ऐसे परोक्ष वन्दन का इतिहास सूत्रों में भी मिलता है जहां स्थापना का नाम मात्र भी उल्लेख नहीं है, देखिये। (1) शकेन्द्र ने अवधिज्ञान से प्रभु को देखकर सिंहासन छोड़ा और 7-8 कदम उस दिशा में बढ़कर परोक्ष वन्दन किया किन्तु वहां भी स्थापना का उल्लेख नहीं है। (2) आनन्दादि श्रावकों ने पौषध शाला में प्रतिक्रमण स्वाध्याय ध्यान आदि क्रियाएं की किन्तु वहां भी स्थापना को स्थान नहीं मिला। .. (3) अनेक साधु साध्वी आदि के चरित्र वर्णन में कहीं भी उक्त स्थापना का नाम मात्र भी कथन नहीं है / (4) सुदर्शन, कोणिक, नन्दन मनिहार ( में इक के भव में) ने भगवान को लक्ष्य कर परोक्ष वन्दन किया है। ___ इसके सिवाय आत्मारामजी ने जैन तत्वादर्श पृष्ठ 301 में लिखा है कि: "जेकर प्रतिमा न मिले तो पूर्व दिशा की तरफ मुख करके वर्तमान तीर्थंकरों का चैत्य वन्दन करें।" - यहां भी मूर्ति की अनुपस्थिति में स्थापना की आवश्यकता नहीं बताई। - इत्यादि पर से यह स्पष्ट हो जाता है कि गुरु आदि की अनुपस्थिति में स्थापना रखने की आवश्यकता नहीं। यह नूतन पद्धति भी मूर्ति-पूजा का ही परिणाम है, जो किअनावश्यक अर्थात् व्यर्थ है।