________________ ( 176) तो पण आगल जणावेला श्री शीलांक सूरिए करेला श्राचा. गंग ना केटलाक पाठोना अबला अर्थो उपरथी अने चैत्य शब्द मा अर्थ उपर थी श्राप की कोई जोई शक्या हशोके टीकाकारो ए अर्थो करवा मां पोताना समय नेज सामोराखी केटलुं बधुं जोखम खेडयु छ / हुं आ बावत ने पण स्वीकार करू छु के जो महेरबान टीकाकार महाशयोए जो मूल हो अर्थ मून नो समय प्रमाणेज कयों होत तो जैन शाशन मां वर्तमान मांजे मतमतांतरो जोबा मां श्रावे छे ते घणा अोछा होत, अने धर्म ने. नामे श्रावू अमासन अंधारूं घणुं अोछु व्यापत" श्रागे पृ० 131 में लिखते हैं कि___ जे बात अंगो ना भूल गटो मां नथी ते वात तेना उपांगोमां, नियु कनोमा, भाष्योमां, चूर्णिो मां, श्रवचूर्णिो मां, अने टीकाओ मां शीरीते होइ शके ? इस प्रकार जब मूल की टीकात्रों की यह हालत है तब स्व. तन्त्र ग्रन्थों की तो बात ही क्या ? इन बंधुओं ने मूर्ति पूजा को शास्त्रोक्त सिद्ध करने के लिये कितने ही नूतन ग्रन्थ बना डाले हैं / पहाड़ पर्वतों की महिमा भी खूब भर पेट कर डा. ली है, अन्य को शिक्षा देने में कुशल ऐसे श्री विजयानन्दजी ने स्वयं 'अज्ञानतिमिर भास्कर' नामक ग्रन्थ के पृ० 18 में 'तीर्थों का महात्म्य सो टंक साल है' शीर्षक से स्पष्ट लिखते हैं कि___ "नदी, गाम, तालाब, पर्वत, भूमि इत्यादिकं जो वेदों में. नहीं हैं तिनके महात्म्य लिखने लगे तिनकी कथा जैसी 3