________________ पुगनी होती गई तैसी 2 प्रमाणित होती गई, और फल भी देने लगी............"यह टंकसाल अब भी जारी है। श्री विजयानन्द सूरि के उक्त शब्द शत्रुजय गिरनारादि पहाड़ों के विषय में भी अक्षरशः लागू होते हैं, क्योंकि इनके महात्म्यादि के ग्रन्थ कथाएं तथा मान्यता सभी आगम विरुद्ध होने से मन कल्पित पाखरड और अन्ध विश्वास से श्रोत प्रोत है, और साथ ही स्वार्थी के स्वार्थ साधन का सुलभमार्ग भी। इसके सिवाय इन लोगों ने स्वार्थ और मान्यता में कुठा. राघात होने के भय से एक नया मार्ग और भी निकाला है वो यह है कि जिस ग्रंथ से अपने माने हुए पंथ को वाधा पहुंचती हो, उसके अस्तित्व एवं मान्यता से भी इन्कार कर देना, जैसे कि गत वर्ष वि० सं० 1662 लघ शतावधानी म० श्रीमान् सौभाग्यचन्द्रजी ( संतवालजी) की जैन प्रकाश पत्र में 'धर्म प्राण लोकाशाह' नामक ऐतिहासिक न भाव-पूर्ण लेख माला प्रकाशित हुई, उसमें लेखक ने मूर्ति-पूजा यह धर्म का अंग नहीं है इसकी सिद्धि करने को श्रीमद् भद्रगहु स्वामी रचित व्यवहार सूत्र की चूलिका के पांचवे स्वप्न फल का प्रमाण दिया, जिसके प्रकट होते ही मूर्ति-पूजकों के गुरू पं० न्यायविजयजी महाराज एक दम आपे से बहार होगये। और भावनगर से मूर्ति पूजक पत्र 'जैन' में हिम्मत और बहादुरी पूर्वक उन्होंने इस प्रकार छपवाया कि