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________________ इस पाठ में अरिहंत चैत्य शब्द आया है, जिसका साधु अर्थ गुरु गम्य से जाना है। और वो है भी उपयुक्त, क्योंकि यदि अरिहंत चैत्य से साधु अर्थ नहीं लिया जायगा तो अन्य तीर्थी के साधु वन्दन का निषेध नहीं होगा और जैन के साधुओं को वन्दन नमस्कार करने की प्रतिज्ञा भी नहीं की गई ऐसा मानना पड़ेगा, अतएव सिद्ध हुआ कि-अरिहंत चैत्य का अर्थ अरिहंत के साधु भी होता है और इसी शब्द से गणधर, पूर्वधर, श्रुतधर, तपस्वी आदिमुनियों को वन्द नादि करने की अंबड़ ने प्रतिज्ञा की थी। यह हर्गिज नहीं हो सकता कि-अरिहंत के जीते जागते 'चैत्यों' (गणघर यावत् साधु ) को छोड़कर उनकी जड़ मूर्ति को वन्दनादि करने की अंबड़ मूर्खता करे / अतएव यहां अरिहंत चैत्यार्थ अरिहंत के साधु ही समझना उपयुक्त और प्रकरण संगत है। ___ यदि अरिहंत चैत्य शब्द से अरिहंत की मूर्ति ऐसा अर्थ माना जाय को अन्य तीर्थी के ग्रहण कर लेने मात्र से वह मूर्ति अवन्दनीय कैसे हो सकती है ? यह तो बड़ी प्रसन्नता की बात होनी चाहिए कि-तीर्थकर मूर्ति को अन्य तीर्थी भी माने और वन्दे पूजे ! हां यदि साधु अन्य तीर्थी में मिलकर उनके मतावलम्बी हो जाय तब वो तो अवन्दनीय हो सकता है, किन्तु मूर्ति क्यों ? उसमें कौनसा परिवर्तन हुआ ? उसने कौनसे गुण छोड़ कर दोष ग्रहण कर लिये ? वह अछूत क्यों मानी गई ? इत्यादि विषयों पर विचार करते यही प्रतीत होता है कि--यहां अरिहंत चैत्य का मूर्ति अर्थ असंगत ही है।
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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