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________________ (54) मू० पू० का यह पाठ होने से ही 32 सूत्रों के सिवाय ग्रंथ आदि भी हमको मान्य नहीं ऐसी श्रापकी शंका भी ठीक नहीं है। आपको स्मरण रहे कि 32 सूत्रों के सिवाय भी जो सूत्र, ग्रंथ, टीका, नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, दीपिका, श्रवचूरि श्रादि वीतराग वचनों को अबाधक हो तथा आगम के अाशय को पुष्ट करने वाले हों तो हमें उनको मानने में कोई बाधा नहीं है। किन्तु जो अंश सर्वज्ञ वचनों को बाधक और बनावटी या प्रक्षिप्त,होकर आगम बाणी को ठेस पहुंचाने वाला हो वह अनर्थोत्पादक होने से हमें तो क्या पर किसी भी विज्ञ के मानने योग्य नहीं है / इन टीका आदि ग्रंथों में कई स्थान पर श्रागयाशय रहित भी विवेचन या कथन हो गया है, इसी लिये ये ग्रंथ सम्पूर्ण अंश में मान्य नहीं है, टीका आदि के बहाने से स्वार्थी लोगों ने बहुत कुछ गोटाला कर डाला है। जिनको कसौटी पर कसने से शीघ्र ही कलाई खुल जाती है, अतएव ऐसे बाधक अँश तो अवश्य लामान्य मेरा तो यह दृढ विश्वास है कि ऐसी बिना सिर पैर के वात मूल नियुक्तिकार की नहीं होगी, पीछे से किसी महा शय ने यह चतुराई (?) की होगी, ऐसे चतुर महाशयों ने शुद्ध स्वर्ग में तांबे की तरह मूल में भी प्रतिकूल वचन रूप धूल मिलाने की चेष्टा की है, जो आगे चल कर बताई जायगी। श्रेणिक राजा का नित्य 108 स्वर्ण जौ से पूजने का क थन भी इसी प्रकार निर्मूल होने से मिथ्या है, यदि लेखा 108 के बदले एक क्रोड आठ लाख भी लिख मारते तो उन्हें
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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