Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहितं क सा य पाहु डं भाग (अणुभागविहत्ती २) भारतीय दिगम्बर जैन संघ Jain Education intermane Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भा० दि० जैनसंघग्रन्थमालायाः प्रथमपुष्पस्य चतुर्थों दलः श्रीयतिवृषभाचार्यरचितचूर्णिसूत्रसमन्वितम् श्रीभगवद् गुणधराचार्यप्रणीतम् कसाय पाहुडं तयोश्च श्रीवीरसेनाचार्यविरचिता जयधवला टीका [ तृतीयोऽधिकारः द्विदिविहत्ती] पं० फूलचन्द्रः सिद्धान्तशास्त्री सम्पादक महाबन्ध, सहसम्पादक धवला सम्पादको पं० कैलाशचन्द्रः सिद्धान्तरत्न, सिद्धान्तशास्त्री, न्यायातीर्थ प्रधान अध्यापक स्याद्वाद महाविद्यालय काशी प्रकाशक मंत्री साहित्य विभाग भा० दि० जैन संघ, चौरासी मथुरा वि० सं० २०१३] [ई० सं० १९५६ वीरनिर्वाणाब्द २४८३ मूल्यं रूप्यकद्वादशकम् Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भा०दि जैनसंघ-ग्रन्थमाला इस ग्रन्थमालाका उद्देश्य प्राकृत संस्कृत आदि में निबद्ध दि० जैनागम, दर्शन, साहित्य, पुराण आदिका यथासम्भव हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन करना सञ्चालक भा० दि० जैनसंघ ग्रन्थाङ्क १-४ प्राप्तिस्थान मैनेजर भा० दि० जैन संघ चौरासी, मथुरा मुद्रक-कन्हैयालाल, कैलाश प्रेस, बी० ७९२ हाड़ाबाग ( सोनारपुर ) वाराणसी। स्थापनान्द] प्रति ८०० [वी०नि० सं० २४६८ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sri Dig. Jain Sangha Granthamala NO. 1- IV KASAYA-PAMUDAM IV THIDI VIHATTI BY GUNADHARACHARYA WITH CHURNI SUTRA OF YATIVRASHABHACHARYA AND THE JAYADHAVALA COMMENTARY OF VIRASENACHARYA THERE-UPON EDITED BY Pandit Phulachandra Siddhantashastri, EDITEOR MAHABANDHA JOINT EDITOR DHAVALA, Pandit kailashachandra Siddhantashastri Nyayatirtha, Sidhantaratna, Pradhanadhya pak, Syadvada Digambara Jain Vidyalaya, Banaras. PUBLISHED BY THE SECRETARY PUBLICATION DEPARTMENT. THE ALL-INDIA DIGMBAR JAIN SANGHA CHAURASI MATHURA. VIRA-SAMVAT 248 VIKRAMS. 2013 [ 1956 A. C. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sri Dig. Jain Sangha Granthamala Foundation year] [-Vira Niravan Samvat 2468 Aim of the Series: Publication of Digambara Jain Siddhanta, Darsana, Purana, Sahitya and other Works in Prakrit, Sanskrit etc. Possibly with Hindi Commentary and Translation. DIRECTOR SRI BHARATAVARSIYA DIGAMBARA JAIN SANCHA NO. 1. VOL. IV. To be had from: THE MANAGER SRI DIG. JAIN SANGHA. CHAURASI, MATHURA, U. P. ( INDIA ) Printed by-Kanhiaya Lal At Tke Kailash Press, B. 7/92 Hara Bagha, Sonarpur Banaras. 800 Copies Price Rs. Twelve only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक की ओरसे श्री कसायपाहुड (जयधवलाजी) के चौथे भाग स्थितिविभक्ति और पाँचवें भाग अनुभाग विभक्तिका प्रकाशन एक साथ हो रहा है। इसका कारण यह है कि जिस प्रेसमें चौथा भाग छापनेके लिए दिया था उस प्रेसने उसे छापनेमें आवश्यकतासे अधिक विलम्ब किया । साथ ही शुरूके पाँच फर्मोको दीमक चाट गई। तब वहाँ से काम उठाकर दूसरे प्रेसको दिया गया। किन्तु शुरूके पाँच फर्मोंको छापकर देने में पहले प्रेसने पुनः अनावश्यक विलम्ब किया । इतनेमें तीसरे प्रेसने पाँचवाँ भाग छापकर दे दिया। इस तरह ये दोनों भाग एक साथ प्रकाशित हो रहे हैं। दीपावलीके पश्चात् छठा और सातवाँ भाग भी प्रेसमें दिये जानेके लिये प्रायः तैयार हैं। इन सब भागोंका प्रकाशन संघके वर्तमान सभापति दानवीर सेठ भागचन्द जी डोंगरगढ़की ओरसे हो रहा है। सेठ साहब तथा उनको धर्मपत्नी सेठानी नर्वदाबाईजी बहुत ही धर्मप्रेमी और उदार हैं। आपके साहाय्यसे यह कार्य शीघ्र ही निर्विघ्न पूर्ण होगा ऐसी आशा है। आपकी उदारता और धर्मप्रेमकी सराहना करते हुए मैं आपको बहुत २ धन्यवाद देता हूँ। ___ इस भागके सम्पादन आदिका भार श्री पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने वहन किया है, मेरा भी यथाशक्य सहयोग रहा है । मैं पंडितजीको भी एतदर्थ धन्यवाद देता हूँ। ____ अपने जन्मकालसे ही जयधवला कार्यालय काशीके स्व० बा० छेदीलालजीके जिनमन्दिरके नीचेके भागमें स्थित है। और यह सब स्व० बाबू साहबके सुपुत्र बा० गनेसदासजी और सुपौत्र बा० सालिगरामजी तथा बा० ऋषभदासजीके सौजन्य और धर्मप्रेमका परिचायक है। अतः मैं आप सबका भी आभारी हूँ। ___ इस भागका बहुभाग 'बम्बई प्रिन्टिंग प्रेस तथा अन्तके कुछ फर्मे 'कैलाश प्रेस' में छपे हैं। दोनों के स्वामी तथा कर्मचारी भी इस सहयोगके लिए धन्यवादके पात्र हैं । । जयधवला कार्यालय __ भदैनी, काशी दीपावली, २४८३ कैलाशचन्द्र शास्त्री मंत्री, साहित्य विभाग भा० दि० जैनसंघ, मथुरा Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय - परिचय प्रस्तुत अधिकारका नाम स्थितिविभक्ति है । कर्मका बन्ध होनेपर जितने कालतक उसका कर्मरूपसे अवस्थान रहता है उसे स्थिति कहते हैं । स्थिति दो प्रकार की होती है - एक बन्धके समय प्राप्त होनेवाली स्थिति और दूसरी संक्रमण, स्थितिकाण्डकघात और अधः स्थितिगलना आदि होकर प्राप्त होनेवाली स्थिति । केवल बन्धसे प्राप्त होनेवाली स्थितिका विचार महाबन्ध में किया है । मात्र उसका यहाँपर विचार नहीं किया गया है । यहाँ तो बन्धके समय जो स्थिति प्राप्त होती है उसका भी विचार किया गया है और बन्धके बाद अन्य कारणोंसे जो स्थिति प्राप्त होती है या शेष रहती है उसका भी विचार किया गया है । मोहनीय कर्मकी उत्तर प्रकृतियाँ अट्ठाईस हैं। एक बार इन भेदोंका आश्रय लिए बिना और दूसरी बार इन भेदोंका आश्रय लेकर प्रस्तुत अधिकार में विविध अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर स्थितिका सांगोपांग विचार किया गया है । वे अनुयोगद्वार ये हैं- अद्धाच्छेद, सर्वविभक्ति, नोसर्वविभक्ति, उत्कृष्ट विभक्ति, अनुत्कृष्टविभक्ति, जघन्यविभक्ति, अजघन्यविभक्ति, सादिविभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति, अध्रुवविभक्ति, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, सन्निकर्ष भाव और अल्पबहुत्व । मूलप्रकृति स्थितिविभक्ति एक है, इसलिए उसमें सन्निकर्ष अनुयोगद्वार सम्भव नहीं है, इसलिए इस अधिकारको उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा ही जानना चाहिए । अद्धाच्छेद - अद्धा शब्द स्थितिके अर्थ में कालवाची है । तदनुसार अद्धाच्छेदका अर्थ कालविभाग होता है । यह जघन्य और उत्कृष्ट भेदसे दो प्रकारका है । मोहनीय सामान्यका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सत्तर htड़ाकोड़ी सागरप्रमाण होता है यह विदित है, इसलिए मोहनीय सामान्यका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद उक्तप्रमाण कहा है। इसमें सात हजार वर्ष आबाधाकालके भी सम्मिलित हैं, क्योंकि ऐसा नियम है कि कर्मका बन्ध होते समय स्थितिबन्ध के अनुसार उसकी आबाधा पड़ती है । यदि अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरके भीतर स्थितिबन्ध होता है तो अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा पड़ती है और सौ कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिबन्ध होता है तो सौ वर्षप्रमाण आबाधा पड़ती है। आगे इसी अनुपात से आबाधाकाल बढ़ता जाता है, इसलिए सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिबन्ध के होने पर उसका आबाधाकाल सात हजार वर्षप्रमाण बतलाया है । विशेष खुलासा इस प्रकार है - किसी भी कर्मका बन्ध होने पर वह अपनी स्थिति के सब समयों में विभाजित हो जाता है । मात्र बन्ध समय से लेकर प्रारम्भके कुछ समय ऐसे होते हैं जिनमें कर्मपुब्ज नहीं प्राप्त होता । जिन समयों में कर्मपुंज नहीं प्राप्त होता उन्हें आबाधा काल कहते हैं । इस आबाधाकालको छोड़कर स्थितिके शेष समयों में उत्तरोत्तर विशेष हीन क्रमसे कर्मपुञ्ज विभाजित होकर मिलता है । उदाहरणार्थ मोहनीय कर्मका सप्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिबन्ध होने पर बन्ध समय से लेकर सात हजार वर्ष तक सब समय खाली रहते हैं । उसके बाद अगले समयसे लेकर सत्तर कोड़ाकोड़ो सागर तकके कालके जितने समय होते हैं, विवक्षित मोहनीयकर्मके उतने विभाग होकर सात हजार वर्ष के बाद, प्रथम समयके बटवारे में जो भाग आता है वह सबसे बड़ा होता है, उससे अगले समयके बटवारे में जो भाग आता है वह उससे कुछ हीन होता है । इसी प्रकार सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरके अन्तिम समय तक जानना चाहिए । यहाँ इसना विशेष जानना चाहिए कि यहाँ पर मोहनीयको जो उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर कही है वह सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरके अन्तिम समयके बटवारे में प्राप्त होनेवाले द्रव्यको अपेक्षा से कही । वस्तुतः आबाधाकाल के बाद जिस समयके बटवारे में जो द्रव्य आता है उसकी उतनी ही स्थिति जाननी चाहिए । स्थिति के अनुसार बटवारेका यह क्रम सर्वत्र जानना चाहिए । इस प्रकार मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट अद्धाच्छेदका विचार किया । मोहनीयकर्मका जधन्य अद्धाच्छेद एक समयप्रमाण है । यह क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक जीवके अन्तिम समय में सूक्ष्मलोभकी उदयस्थिति के समय प्राप्त होता है । मोहनीयको उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद मोहनीय सामान्यके समान सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्कृष्ट अद्धाच्छेद अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है, क्योंकि ये दोनों बन्ध प्रकृतियाँ न होकर संक्रम प्रकृतियाँ हैं, इसलिए जिस जीवने मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके उसका काण्डकघात किये बिना अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त किया है उसके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करनेके प्रथम समयमें अन्तर्मुहूर्त कम मिथ्यात्वके सब निषेकोंका कुछ द्रव्य संक्रमणके नियमानुसार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व रूपसे संक्रमित हो जाता है, इसलिए इन दो प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अद्धान्छेद अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण प्राप्त होता है। सोलह कषायोंका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद चालीस कोडाकोड़ी सागरप्रमाण है, क्योंकि संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्यात जीवके इन कर्मोंका इतना उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद एक आवलि कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण है । यद्यपि नौ नोकषाय बन्ध प्रकृतियां हैं पर बन्धसे इनकी उक्त प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति नहीं प्राप्त होती। किन्तु यह उत्कृष्ट अद्धाच्छेद संक्रमणसे प्राप्त होता है । यहां इतना विशेष जानना चाहिए कि जब सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है तब नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध होता है । उस समय स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिका बन्ध नहीं होता। इसलिए नपुंसकवेद आदि पाँच प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद सोलह कषायों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धके समय भी सम्भव है, क्योंकि मान लीजिए किसी जीवने सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध प्रारम्भ किया और उस समय वह नपुंसकवेद आदिका भी बन्ध कर रहा है, इसलिए वह जीव एक आवलि के बाद सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिको नपुंसकवेद आदिमें संक्रमित भी करने लगेगा । अतः सोलह कषायोंके बन्धकालके भीतर ही नपुंसकवेद आदिका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद बन जायगा पर स्त्रीवेद आदिका उस समय तो बन्ध होता ही नहीं, इसलिए सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कराकर और उससे निवृत्त होकर स्त्रीवेद आदि चारका बन्ध करावे और एक आवलि कम सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण कराके इनका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद आवलि कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण प्राप्त करे। स्त्रीवेद आदि चार प्रकृतियोंकी कहीं कहीं पुण्य प्रकृतियों के साथ परिगणना की जाती है। इसका बीज यही है। यह उत्कृष्ट अद्धाच्छेद है। इन प्रकृतियों के जघन्य अद्धाच्छेदका विचार करने पर मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषाय ये स्वोदयसे क्षय होनेवाली प्रकृतियां नहीं , इसलिए जब इनकी अपनी अपनी क्षपणाके अन्तिम समयमें दो समय कालवाली एक निषेकस्थिति शेष रहती है तब इनका जघन्य अद्धाच्छेद होता है । सभ्य व और लोभसंज्वलन इनका तो नियमसे स्वोदयसे ही क्षय होता है। तथा स्त्रीवेद और नपुंसकवेद ये भी स्वोदयसे क्षयको प्राप्त हो सकती हैं, अतः जब इनकी क्षपणाके अन्तिम समय में एक समय कालवाली एक निषेकस्थिति शेष रहती है तब इनका जघन्य अद्धाच्छेद होता है । एक तो क्रोधसंज्वलन, मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और पुरुषवेद इनका क्षपकश्रेणिमें अपनी अपनी उदयव्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें पूरा सत्त्वनाश नहीं होता। दूसरे वहाँ इनके अपने अपने वेदनकालके अन्तिम समयमें नवकबन्धके निषेकों के साथ प्रथम स्थितिके निषेक भी शेष रहते हैं, इसलिए इनकी जघन्य स्थिति अपने अपने वेदनकालके अन्तिम समयमें न कहकर अन्तमें जो नूतन बन्ध होता है उसके एक समय कम दो आवलिप्रमाण गला देने पर अन्तमें इन कर्मों की जघन्य स्थिति कही है। जो क्रोधसंज्वलनकी अन्तर्महर्त कम दो महीना, मानसंज्वलन की अन्तर्मुहूर्त कम एक महीना, मायासंज्वलनकी अन्तर्मुहूर्त कम पन्द्रह दिन और पुरुषवेदकी अन्तर्मुहूर्त कम आठ वर्षप्रमाण होती है । यही इनका जघन्य अद्धाच्छेद है। छह नोकषायोंके अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालि संख्यात वर्षप्रमाण होती है, इसलिए इसका जघन्य अद्धाच्छेद संख्यात वर्षप्रमाण कहा है। सर्व-नोसर्वविभक्ति-सर्वस्थितिविभक्तिमें सब स्थितियाँ और नोसर्वस्थितिविभक्तिमें उनसे न्यून स्थितियाँ विवक्षित हैं । मूल और उत्तर प्रकृतियों में यह यथायोग्य घटित कर लेना चाहिए। उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टविभक्ति-सबसे उत्कृष्टस्थिति उकृष्ट स्थितिविभक्ति है और उससे न्यून स्थिति अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति है। ओष और आदेशसे जहाँ यह मिसप्रकार सम्भव हो उस प्रकारसे उसे जान लेना चाहिए। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जघन्य-अजघन्यविभक्ति-सबसे जघन्य स्थिति जघन्य स्थितिविभक्ति है और उससे अधिक स्थिति अजघन्य स्थितिविभक्ति है । मूल और उत्तर प्रकृतियोंमें इस बीजपदके अनुसार घटित कर लेना चाहिए। सादि-अनादि-ध्रुव-अध्रुवविभक्ति–सामान्यसे मोहनीयकी जघन्य स्थिति क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक जीवके अन्तिम समयमें होती है, अतः जघन्य स्थितिविभक्ति सादि और अध्रुव है। इसके पूर्व अजघन्य स्थितिविभक्ति होती है, इसलिए वह अनादि तो है ही। साथ ही वह अभव्यों की अपेक्षा ध्रुव और भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव भी है । तथा उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति कादाचित्क होती है इसलिए वे सादि और अध्रुव हैं। उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंके विषयमें इसीप्रकार जानना चाहिए । अर्थात् इनकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य स्थितिविभक्ति सादि और अध्रुव होती है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्ति सादि विकल्पको छोड़कर तीन प्रकारकी होती है । कारण स्पष्ट है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियाँ ही सादि हैं, इसलिए इनकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ये चारों स्थितिविभक्तियों सादि और अध्रुव होती हैं। अब रही अनन्तानुबन्धीचतुष्क सो इसकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तियाँ कादाचित्क होनेसे सादि और अध्रुव हैं। तथा जघन्य स्थितिविभक्ति विसंयोजनाके बाद इसकी संयोजना होनेके प्रथम समयमें ही होती है, इसलिए यह भी सादि और अध्रुव है। किन्तु अजघन्य स्थितिविभक्ति विसंयोजनाके पूर्व अनादिसे रहती है तथा विसंयोजना के बाद पुनः संयोजना होनेपर भी होती है, इसलिए तो वह अनादि और सादि है। तथा अभव्योंकी अपेक्षा ध्रुव और भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव भी है । इसप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अजघन्य स्थितिविभक्ति सादि आदिके भेदसे चारों प्रकारकी है। यह ओघ प्ररूपणा है। मार्गणाओंमें अपनी अपनी विशेषताको जानकर योजना करनी चाहिए। स्वामित्व-सामान्यसे मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव उत्कृष्ट स्थितिषिभक्तिका स्वामी है। अवान्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा मिथ्यात्व और सोलह कषायोंके विषयमें इसी प्रकार स्वामित्व जानना चाहिए । यद्यपि यहाँ पर यह कहा जा सकता है कि उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके द्वितीयादि समयोंमें अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवालेके उत्कृष्ट स्थितिका एक भी निषेक नहीं गलता, इसलिए केवल बन्धके समय उत्कृष्ट स्थिति न मानकर अन्य समयोंमें भी उत्कृष्ट स्थिति मानी जानी चाहिए पर यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उत्कृष्ट स्थिति कालप्रधान होती है और द्वितीयादि समयोंमें अधःस्थिति गलनाके द्वारा एक एक समय कम होता जाता है, इसलिए उत्कृष्ट स्थितिबन्धके समय ही उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति मानी गई है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका ऐसा प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टि जीव स्वामी है जिसने मिथ्यात्व गुणस्थानमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कर अन्तर्मुहर्त में वेदकसम्यक्त्व प्राप्त किया है। तथा कषायोंकी उत्कृष्ठ स्थिति बाँधकर जो एक आवलिकालके बाद उसे नौ नोकषायोंमें संक्रान्त कर रहा है वह नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका स्वामी है। सामान्यसै मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्ति क्षपक सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए वह इसका स्वामी है। उत्तरप्रकृतियोंकी अपेक्षा मिथ्यात्वकी क्षपणा करनेवाला जीव उसकी क्षपणाके अन्तिम समयमें उसकी जघन्य स्थितिविभक्तिका स्वामी है। इसी प्रकार सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायकी जघन्य स्थितिविभक्ति का स्वामी अपनी अपनी क्षपणाके अन्तिम समयवर्ती जीवको जानना चाहिए। मात्र सम्यग्मिथ्यात्वका यह जघन्य स्वामित्व अपनी उद्वेलनाके अन्तिम समयमें भी बन जाता है। तथा तीन वेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिका स्वामी स्वोदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ा हुआ अन्तिम समयवर्ती जीव है। यह ओघसे स्वामित्व कहा है। मार्गणाओंमें अपनी अपनी विशेषता जानकर यह स्वामित्व घटित कर लेना चाहिए । जहाँ जिन प्रकृतियोंकी क्षपणा सम्भव हो वहाँ उसका विचार कर और जहाँ क्षपणा सम्भव न हो वहाँ अन्य प्रकारसे जघन्य स्वामित्व घटित करना चाहिए। तथा उत्कृष्ट स्वामित्वमें भी भपनी अपनी विशेषताको जानकर वह ले आना चाहिए । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल-उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है, इसलिए सामान्यसे मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल | एक बार उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होकर पुनः उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होने में कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल लगता है और यदि कोई जीव उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके एकेन्द्रियादि पर्यायोंमें परिभ्रमण करने लगे तो उसके अनन्त काल तक उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध नहीं होगा, इसलिए यहां अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्तप्रमाण जानना चाहिए। नौ नोकषायोंमें नपुंसकवेद अरति, शोक, भय और जुगुप्साका बन्ध सोलह कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके साथ भी सम्भव है और इसलिए इनकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है पर शेष चार नोकषायोंका बन्ध सोलह कषायोके उत्कृष्ट स्थितिवन्धके समय सम्भव नहीं है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल एक आवलिप्रमाण है। तथा इन नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय है, क्योंकि क्रोधादि कषायोंकी एक समयके अन्तरसे एक समय आदि कम अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कर एक आवलिके बाद उसका उसी क्रमसे नौ नोकषायोंमें संक्रमण करने पर इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय उपलब्ध होता है। तथा उत्कृष्ट काल सोलह कषायोंके समान अनन्त काल है यह स्पष्ट ही है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति जो मोहनोयको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव अन्तर्मुहूर्तमें वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होता है उसके प्रथम समयमें होती है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा जो जीव उपशमसम्यक्त्वके साथ इन दोनों प्रकृतियोंकी सत्ता प्राप्त कर अन्तर्मुहूर्तमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है उसके इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त देखा जाता है और जो बीचमें सम्यग्मिथ्यात्वके साथ दो छयासठ सागर कालतक वेदकसम्यक्त्व के साथ रहता है उसके साधिक दो छयासठ सागर कालतक इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति देखी जाती है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्टस्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्तप्रमाण कहा है। सामान्यसे मोहनीयको जघन्य स्थिति क्षपक सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समय में होती है इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्ति अभव्योंकी अपेक्षा अनादि अनन्त और भव्योंकी अपेक्षा अनादि-सान्त है। उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा छह नोकषायोंके सिवा शेष सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। मिथ्यात्व बारह कषाय और तीन वेदको अजघन्य स्थितिविभक्तिका काल अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त है, क्योंकि इनकी जघन्य स्थिति क्षपणाके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए यह काल बन जाता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य स्थिति भी अपनी अपनी क्षपणाके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए इनकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्महर्त और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर प्रमाण है। कारण का निर्देश पहले कर ही आये हैं। अनन्तानुबन्धी विसंयोजना प्रकृति है इसलिए इसकी अजघन्य स्थितिके अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त ये तीन विकल्प बन जाते हैं। उनमें सादि-सान्त अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि संयोनना होने पर पुनः अन्तर्मुहूर्तमें इसकी विसंयोजना हो सकती है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है, क्योंकि विसंयोजनाके बाद संयोजना होने पर इतने काल तक जीव इसकी विसंयोजना न करे यह सम्भव है। छह नोकषायोंकी जघन्य स्थिति अन्तिम स्थितिकाण्डकके पतनकै समय होती है और उसमें अन्तर्मुहूर्त काल लगता है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा अजघन्य स्थिति इसके पहले सर्वदा बनी रहती है और अभव्योंके इनका कभी अभाव होता, इसलिए इनकी अजघन्य स्थितिका काल अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त कहा है। गति आदि मार्गणाओं में इसी प्रकार अपनी अपनी विशेषता जानकर यह काल घटित कर लेना चाहिए । अन्तर-सामान्य से मोहनीयका एक बार उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होकर पुनः वह अन्तमुहूर्तके बाद हो सकता है और एकेन्द्रियादि पर्यायोंमें परिभ्रमण करता रहे तो अनन्तकालके अन्तरसे होता है, इसलिए इसकी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है । तथा इसको अनुत्कष्ट स्थिति कमसे कम एक समय के अन्तरसे और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे होती है, क्योंकि इसकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इसकी अनुत्कृष्ट स्थितिका अघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका इसी प्रकार अन्तर काल जानना चाहिए । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त के अन्तरसे भी हो सकती है और उपार्ध पुद्गल परिवर्तनके अन्तर से भी हो सकती है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है। तथा इनकी उत्कृष्ट स्थितिका काल एक समय होनेसे इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर एक समय होता है और जो जीव अर्धपुद्गल परिवर्तन के प्रारम्भ में और अन्तमें इनकी सत्ता प्राप्त कर मध्यके उपार्धपुद्गलपरिवर्तन काल तक इनकी सत्ता से रहित होता है उसके उपार्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण अन्तर हो सकता है, इसलिए अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर उक्तप्रमाण कहा है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जनन्य अन्तर एक समय मिथ्यात्वके समान घटित कर लेना चाहिए। तथा जो वेदकसम्यग्दृष्ट इनकी विसंयोजना कर मध्य में सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होकर कुछ कम दो छयासठ सागर काल तक इनके बिना रहता है उसके इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उक्त अन्तर देखा जाता है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिका कुछ कम दो छयासठ सागरप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर कहा है । नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर मिथ्यात्वके समान ही है । मात्र इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट अन्तर में भेद है । बात यह है कि पाँच नोकषायोंका स्थितिबन्ध सोलह कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के समय भी सम्भव है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर तो अन्तर्मुहूर्त बन जाता है पर चार नोकषायोंका बन्ध सोलह कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके समय सम्भव नहीं है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर एक आवलि प्राप्त होता है । जघन्यकी अपेक्षा मोहनीय सामान्य को जघन्य स्थिति क्षपकश्रेणिके अन्तिम समय में प्राप्त होती है, इसलिए इसकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर काल नहीं है । इसी प्रकार मिथ्यात्व बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका भी अन्तर काल नहीं है । इसकी अजघन्य स्थितिका है । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति उद्वेलनाके समय और क्षपणाके समय जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है, समय में सम्यक्त्व के साथ पुनः इसकी सत्ता प्राप्त कर काल बन जाता है । तथा इसका उत्कृष्ट उपार्ध पुद्गल परिवर्तन के प्रारम्भ में इसकी सत्तासे रहित रहता है और उपार्ध पुद्गल परिवर्तन के अन्त में पुनः इसकी सत्ता प्राप्त कर क्षपणा करता है उसके इसकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण देखा जाता है । इसकी अजघन्य स्थितिका अन्तर अनुत्कृष्टके समान है यह स्पष्ट ही है । अनन्तानुबन्धी विसंयोजना प्रकृति है, इसलिए इसकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण प्राप्त हो जाता है इसलिए वह उक्त प्रमाण कहा है। तथा इसकी विसंयोजना होकर कम से कम अन्तर्मुहूर्त काल तक और अधिक से अधिक कुछ कम छयासठ सागर काल तक इसका अभाव रहता है, इसलिए इसकी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागरप्रमाण कहा है । गति आदि मार्गणाओं में अपने अपने स्वामित्वको जानकर इसी प्रकार यह अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए । अन्तर काल नहीं है। अन्तर अनुत्कृष्ट के समान होती है, इसलिए इसकी क्योंकि जो जीव इसकी उद्वेलना करके और दूसरे अन्तर्मुहूर्त में इसकी क्षपणा करता है उसके यह अन्तरअन्तर उपार्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है, क्योंकि जो प्राप्त करके मध्य काल में इसकी सत्ता भंगविचय- जो उत्कृष्ट स्थितिवाले होते हैं वे अनुत्कृष्ट स्थितिवाले नहीं होते और जो अनुत्कृष्ट स्थितिवाले होते हैं वे उत्कृष्ट स्थितिवाले नहीं होते। इसी प्रकार जघन्य और अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी यह अर्थपद जानना चाहिए। इस अर्थपदके अनुसार १ कदाचित् सब जीव मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिसे रहित हैं; २ कदाचित् बहुत जीव मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिसे रहित हैं और एक जीव उत्कृष्ट स्थितिवाला है, ३ कदाचित् बहुत जीव मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिसे रहित हैं और बहुत जीव उत्कृष्ट स्थितिवाले हैं ये तीन भङ्ग होते हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा , कदाचित् सब जीव मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिवाले हैं, २ कदाचित् बहुत जीव मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिवाले हैं और एक जीव अनुत्कृष्ट स्थितिसे रहित है, ३ कदाचित् बहुत जीव मोहनीय की अनुत्कृष्ट स्थितिवाले हैं और बहुत जोव अनुत्कृष्ट स्थितिसे रहित हैं ये तीन भंग होते हैं। उत्तर २८ प्रकृतियों की अपेक्षा ये ही भङ्ग जानने चाहिए। मोहनीय सामान्य की जघन्य और अजधन्य स्थितिकी अपेक्षा भी जो उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा तीन तीन भङ्ग कहे हैं उसी प्रकार तीन तीन भंग जानने चाहिए । २८ उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा भी इसी प्रकार भङ्ग घटित कर लेने चाहिए । तात्पर्य यह है कि जो उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा तीन भङ्ग कहे हैं वे सर्वत्र जघन्य स्थितिकी अपेक्षा तीन भङ्ग जानने चाहिए और जो अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा तीन भङ्ग कहे हैं वे सर्वत्र अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा तीन भङ्ग जानने चाहिए । गति आदि मार्गणाओं में भी अपनी अपनी विशेषताको जानकर ये भङ्ग ले आने चाहिए। भागाभाग-मोहनीय सामान्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं और अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव अनन्त बहुभागप्रमाण हैं । इसी प्रकार मोहनीयकी छब्बीस उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा भागाभाग जानना चाहिए । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं और अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। मोहनीय सामान्य और उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका इसी प्रकार भागाभाग है। अर्थात् जघन्य स्थितिवाले अनन्तवें भागप्रमाण हैं और अजघन्य स्थितिबाले अनन्त बहुभागप्रमाण हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा जघन्य स्थितिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं और अजघन्य स्थितिवाले जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। गति आदि मार्गणाओंमें अपनी अपनी संख्या आदिको जानकर यह भागाभाग घटित कर लेना चाहिए। परिमाण -मोहनीय सामान्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यात हैं और अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव अनन्त हैं। इसी प्रकार छब्बीस उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षासे यह परिमाण जानना चाहिए । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कष्ट और अनत्कष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यात हैं। मोहनीय सामान्यकी अपेक्षा जघन्य स्थितिवाले जीव संख्यात और अजघन्य स्थितिवाले जीव अनन्त हैं। छब्बीस उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा इसी प्रकार परिमाण जानना चाहिए । सम्यक्त्वकी अपेक्षा जघन्य स्थितिवाले जीव संख्यात हैं और अजघन्य स्थितिवाले जीव असंख्यात हैं। तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवाले जीव असंख्यात हैं। गति आदि मार्गणाओंमें अपने अपने परिमाणको और स्वामित्वको जानकर यह घटित कर लेना चाहिए। क्षेत्र-मोहनीयकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिवालोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और अनुत्कृष्ट व अजघन्य स्थितिवालोंका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है। मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा इसी प्रकार क्षेत्र जानना चाहिए । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका क्षेत्र लोक के असंख्यातवें भागप्रमाण है। गति आदि मार्गणाओंमें अपने अपने स्वामित्वको व क्षेत्रको जानकर यह घटित कर लेना चाहिए । स्पर्शन-मोहनीय सामान्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिवालोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, विहारादिकी अपेक्षा अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण और मारणान्तिक पदको अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम तेरह बटे चौदह भागप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन है। उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका यही स्पर्शन है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थिति Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वालोंका यह स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण है । तथा अन्य आचार्यों के अभिप्रायसे यह त्रसनालीके कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण है। कारणका निर्देश पृष्ठ ३६८ के विशेषार्थ में किया है। सम्यक्त्व और सम्याग्मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थिति वेदकसम्यक्त्वकी प्राप्तिके प्रथम समयमें सम्भव है और ऐसे जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण है, इसलिए यह स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। इस अपेक्षासे वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका उत्कृष्ट के समान स्पर्शन तो बन ही जाता है। साथ ही मारणान्तिक और उपपादकी अपेक्षा सर्वलोक प्रमाण स्पर्शन भी बन जाता है इसलिए यह उक्तप्रमाण कहा है। मोहनीयकी जघन्य स्थिति क्षपकश्रेणिमें प्राप्त होती है, इसलिए इसकी जघन्य स्थितिवालोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन है और मोहनीय की सत्तावाले जीव सर्व लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए इसकी अजघन्य स्थितिवालोंका सर्वलोक प्रमाण स्पर्शन कहा है। उत्तर प्रकृतियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा इसी प्रकार स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए । सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिवालोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान और अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्शन अपने अनुत्कृष्टके समान है यह स्पष्ट ही है । तथा सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्शन अनुत्कृष्टके समान है यह भी स्पष्ट है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थिति देवोंके विहारादिके समय भी सम्भव है इसलिए इसवाले जीवोंका स्पर्शन वर्तमानकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीतकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। इसके अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्शन सर्वलोकप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। गति आदि मार्गणाओंमें अपनी अपनी विशेषताको जानकर इसी प्रकार स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। काल-नाना जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका एक समय बन्ध करके दूसरे समयमें न करें यह सम्भव है और अधिकसे अधिक पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक करते रहें यह भी सम्भव है, इसलिए मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । तथा इसको अनुत्कृष्ट स्थितिका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है। मोहनीयको छब्बीस उत्तरप्रकृतियोंकी अपेक्षा यह काल इसी प्रकार जानना चाहिए। मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मि स्थितिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होते हैं। तथा इनको अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है । मोहनीयकी जघन्य स्थितिवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है, क्योंकि क्षपकश्रेणिकी प्राप्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। तथा इसकी अजघन्य स्थितिवालोंका काल सर्वदा है । मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारह कषाय और तीन वेदवाले जीवोंका यह काल इसी प्रकार है। सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क को जघन्य स्थितिवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। कारण स्पष्ट है। इनकी अजधन्य स्थितिवालोंका काल सर्वदा है। छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिवालोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि एक स्थितिकाण्डकघातमें इतना काल लगता है और उत्कृष्ट काल सर्वदा है । गति आदि मार्गणाओं में अपनी-अपनी विशेषता जानकर यह काल घटित कर लेना चाहिए । अन्तर-मोहनीय सामान्य और अट्ठाईस उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय है, क्योंकि एक समय के अन्तरसे उत्कृष्ट स्थितिकी प्राप्ति सम्भव है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिबन्धके बाद उसका पुनः बन्ध होने में अधिकसे अधिक इतना अन्तरकाल प्राप्त होता है। इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका अन्तरकाल नहीं है यह स्पष्ट ही है। मोहनीयकी जघन्य स्थितिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। अजघन्य स्थितिवालोंका अन्तरकाल नहीं है। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, आठ कषाय और छह नोकषायोंकी अपेक्षा यह अन्तरकाल इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थिति Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) बालोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात है, क्योंकि सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवालोंका और सम्यक्त्वसे मिध्यात्वमें जानेवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात है, इसलिए यह उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। तीन संज्वलन और पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है, क्योंकि इन प्रकृतियोंके उदयसे इतने काल के अन्तरसे क्षपकश्रेणिपर आरोहण करना सम्भव है । लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थितिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है, क्योंकि क्षपकश्रेणिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तरसंख्यात वर्ष है, क्योंकि इन वेदवालोंका इतने कालके अन्तरसे क्षपकश्रेणि पर आरोहण करना सम्भव है । इन सब प्रकृतियोंकी अनघन्य स्थितिवालोंका अन्तर काल नहीं है यह स्पष्ट ही है । गति आदि मार्गणाओं में अपनी अपनी विशेषता जानकर यह अन्तरकाल ले आना चाहिए । सन्निकर्ष----मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता होती भी है और नहीं भी होती । यदि अनादि मिथ्यादृष्टि जीव हैं या जिन्होंने इन दोनोंकी उद्वेलना कर दी है उनके सत्ता नहीं होती, शेष जीवोंके होती है । जिनके सत्ता होती है उनकी इनकी स्थिति नियमसे अनुत्कृष्ट होती है, क्योंकि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति मिथ्यात्व गुणस्थान में होती है और इनकी उत्कृष्ट स्थिति वेदकसम्यक्त्वकी प्रासिके प्रथम समय में होती है, इसलिए मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीवके इन दोनोंकी उत्कृष्ट स्थितिका निषेध किया है । इनकी अनुत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर एक स्थितिपर्यन्त होती है । कारण स्पष्ट है । इतनी विशेषता है कि अन्तिम जघन्य उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिमें जितने निषेक होते हैं उतने मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति के साथ इन दोनों प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थिति के सन्निकर्ष विकल्प नहीं होते । मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीवके सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति भी होती है और अनुत्कृष्ट स्थिति भी होती है यदि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते समय सोलह कषायों की उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है तो उत्कृष्ट स्थिति होती है, अन्यथा अनुत्कृष्ट स्थिति होती है जो अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा कमसे कम एक समय और अधिक से अधिक पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कम होती है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिकी नियमसे अनुत्कृष्ट स्थिति होती है, क्योंकि उस समय इनका बन्ध नहीं होता जो अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा कमसे कम अन्तर्मुहूर्त कम होती है और इस प्रकार उत्तरोत्तर कम होती हुई इनकी अनुत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण तक प्राप्त हो सकती है। मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति के समय शेष पाँच नोकषायों की स्थिति उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी होती है । यदि उस समय सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होकर एक आवलि कम उसका पाँच नोकषायों में संक्रमण हो रहा है तो उत्कृष्ट स्थिति होती है, अन्यथा अनुत्कृष्ट स्थिति होती है जो अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग कम बीस कोड़ाकोड़ी सागर तक सम्भव है । इस प्रकार मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिको प्रधान करके सन्निकर्षका विचार किया । । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिवाले के मिथ्यात्वकी स्थिति नियमसे अनुत्कृष्ट होती है जो अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कम होती है । उस समय सम्यग्मिथ्यात्व की स्थिति नियमसे उत्कृष्ट होती है । कारण स्पष्ट है । सोलह कषाय और नौ नोकषायों की स्थिति नियमसे अनुत्कृष्ट होती है जो अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कमसे लेकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कम तक होती है । सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको मुख्य करके इसी प्रकार सन्निकर्ष विकल्प जानना चाहिए। मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको मुख्य करके पहले सन्निकर्ष कह आये हैं उसी प्रकार सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए । स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिवालेके मिध्यात्वकी स्थिति नियमसे अनुत्कृष्ट होती है जो अपनी उत्कृष्ट की अपेक्षा एक समय कमसे लेकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कम तक होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मि Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थ्यात्वको स्थिति नियमसे अनुत्कृष्ट होती है जो अपनी उत्कृष्ट की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कमसे लेकर एक स्थिति तक होती है। मात्र इनको अन्तिम जघन्य स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिको इन सन्निकर्ष विकल्पों मेंसे कम कर देना चाहिए। सोलह कषायोंकी नियमसे अनुत्कृष्ट स्थिति होती है जो अपनी उत्कृष्ट की अपेक्षा एक समय कमसे लेकर एक आवलि कम तक होती है। पुरुषवेदकी स्थिति नियमसे अनुत्कृष्ट होती है जो अन्तर्मुहूर्त कमसे लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर तक होती है। हास्य और रतिको स्थिति उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी होती है। स्त्रीवेदके बन्धके समय हास्य और रतिका बन्ध होता है तो उत्कृष्ट होती है, अन्यथा अनुत्कृष्ट होती है जो अपनी उत्कृष्टकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर तक होती है। अरति और शोककी स्थिति उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी होती है। स्त्रीवेदके बन्धके समय । इनका बन्ध होता है तो उत्कृष्ट होती है, अन्यथा अनुत्कृष्ट होती है जो अपनी उत्कृष्टकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भागकम बीस कोड़ाकोड़ी सागर तक होती है। नपुंसकवेदकी स्थिति नियमसे अनुत्कृष्ट होती है जो एक समय कमसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम बीस कोड़ाकोड़ी सागर तक होती है । भय और जुगुप्साकी स्थिति नियमसे उत्कृष्ट होती है । पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिको मुख्य करके इसी प्रकार सन्निकर्ष जानना चाहिए । हास्य और रतिकी उत्कृष्ट स्थितिको मुख्य करके भी इसी प्रकार सन्निकर्ष जानना चाहिए । मात्र इसके स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अनुत्कृष्ट स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा एक समय कम आदि न होकर अन्तर्मुहूर्त आदि कम होती है। कारणकी जानकारीके लिए पृष्ठ ४७३ देखो। नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीवके मिथ्यावकी स्थिति उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी होती है । अनुत्कृष्ट स्थिति अपनी उत्कृष्टकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर पल्यके असंख्यातवें भागतक कम होती है । सम्यक्त्व और सम्याग्मथ्यावत्की स्थिति नियमसे अनुत्कृष्ट होती है, जो अन्तर्मुहूर्त कमसे लेकर एक स्थिति तक होती है । सोलह कषायोंकी स्थिति उत्कृष्ट भी होती है और अनुस्कृष्ट भी होती है। अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कमसे लेकर एक आवलि कम तक होती है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी स्थिति नियमसे अनुत्कृष्ट होती है जो अपनी उत्कृष्टकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कमसे लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर तक होती है । हास्य और रतिकी स्थिति उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कष्ट भी होती है बो अपनी उत्कृष्टकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर तक होती है। अरति और शोककी स्थिति उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी होती है । अनुत्कृष्ट स्थिति अपनी उत्कृष्टकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भागकम बीस कोड़ाकोड़ी सागर तक होती है। भय और जुगुप्साकी स्थिति नियमसे उत्कृष्ट होती है। इसी प्रकार अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट स्थितिको मुख्य करके सन्निकर्ष जानना चाहिए । यहाँ जो विशेषता है उसे ४८३ पृष्ठसे जान लेनी चाहिए। ___मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिवालेके अनन्तानुबन्धीचतुष्कका सत्व नहीं होता, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समय मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति होती है और अनन्तानुबन्धीकी इससे पूर्व विसंयोजना हो जाती है। शेष कर्मों की स्थिति नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है। सम्यक वकी जघन्य स्थितिवालेके मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचारकी सत्ता नहीं होती। शेष कर्मों की अजघन्य असंख्यातगुणी स्थिति होती है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिवालेके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचारकी सत्ता है भी और नहीं भी है। उद्वेलनाके समयसम्यग्मिथ्या वकी जघन्य स्थितिवाले जीवके सम्यक्त्वकी सत्ता नहीं है शेषकी है और क्षपणाके समय सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिवालेके मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचारकी सत्ता नहीं होती, सम्यक्वकी होती है। जब इनकी सत्ता होती है तो इनकी नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी होती है । इन छह प्रकृतियोंके सिवा शेष प्रकृतियोंकी नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी स्थिति होती है। अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य स्थितिवालेके मिथ्यात्व आदि सब प्रकृतियोंकी नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी स्थिति होती है। मात्र अनन्तानुबन्धी मान आदि तीनकी जघन्य स्थिति होती है। इसी प्रकार Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) अनन्तानुबन्धीमान आदि तीनकी जघन्य स्थिति की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिवालेके चार संज्वलन और नौ नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी स्थिति होती है । अप्रत्याख्यानावरण मान आदि तोन और प्रत्याख्यानावरण चतुष्ककी नियमसे जघन्य स्थिति होती है । इसी प्रकार इन सात कषायोंकी जघन्य स्थितिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । स्त्रीवेदको जघन्य स्थितिवालेके सात नोकषाय और तीन संज्वलनोंकी नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी स्थिति होती है और लोभसंज्वलनकी अजघन्य असंख्यातगुणी स्थिति होती है । नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिवालेके इसी प्रकार सन्निकर्ष जानना चाहिए । पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिवाले के तीन संज्वलनोंकी अजघन्य संख्यातगुणी स्थिति होती है और लोभ संज्वलनकी अजघन्य असंख्यातगुणी स्थिति होती है । हास्यको जघन्य स्थितिवालेके तीन संज्वलन और पुरुषवेदकी अजघन्य संख्यातगुणी स्थिति होती है और लोभसंज्वलनकी अजघन्य असंख्यातगुणी स्थिति होती है । तथा पाँच नोकषायोंकी जघन्य स्थिति होती है । इसी प्रकार पाँच नोकषायोंकी जघन्य स्थितिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । क्रोधसंज्वलनकी जघन्य स्थितिवालेके दो संज्वलनकी अजघन्य संख्यातगुणी और लोभसंज्वलनकी अन्य असंख्यातगुणी स्थिति होती है । मानसंज्वलनकी जघन्य स्थितिवालेके मायासंज्वलनकी अजघन्य संख्यातगुणी और लोभसंज्वलनकी अजघन्य असंख्यातगुणी स्थिति होती है । मायासंज्वलनकी जघन्य स्थितिवाले के लोभसंज्वलनकी अजघन्य असंख्यातगुणी स्थिति होती है। लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थितिवालेके अन्य प्रकृतियाँ नहीं होतीं । भाव - मूल और उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है । अल्पबहुत्व - सामान्यसे मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव थोड़े हैं, क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्यात मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं । इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिवाले अनन्तगुणे है । कारण स्पष्ट है । जघन्यकी अपेक्षा मोहनीयकी जघन्य स्थितिवाले सबसे थोड़े हैं, क्योंकि क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक जीवके अन्तिम समय में मोहनीयको जघन्य स्थिति होती है । इनसे अजघन्य स्थितिवाले जीव अनन्तगुणे हैं । उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा यहां स्थिति अल्पबहुत्वका विचार किया है जिसका ज्ञान अद्वाच्छेदसे हो सकता है, इसलिएयह वह नहीं दिया जाता है । इस प्रकार कुल तेईस अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर स्थितिविभक्तिका विचार करके आगे भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थितिसत्कर्मस्थान इन अधिकारोंका अवलम्बन लेकर विचार करके स्थितिविभक्ति समाप्त होती है । इन अधिकारोंकी विशेष जानकारीके लिए मूलग्रन्थका स्वाध्याय करना आवश्यक है । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची भुजगार आदि अर्थपद कहने की प्रतिज्ञा १ | अनन्तानुबन्धीके अवक्तव्यका काल सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के भुजगार आदिका काल पद शब्दका अर्थ भुजगारविभक्तिका अर्थपद अल्पतरविभक्तिका अर्थ पद अवस्थितविभक्तिका अर्थपद अवक्तव्यविभक्तिका अर्थपद उच्चारणाके अनुसार कालका विचार एक जीवकी अपेक्षा अन्तर मिथ्यात्व शेष कर्म उच्चारणाके अनुसार अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषाय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व उच्चारणाके अनुसार भंगविचय उच्चारणाके अनुसार भागाभाग उच्चारणाके अनुसार परिमाण उच्चारणाके अनुसार क्षेत्र उच्चारणाके अनुसार स्पर्शन भुजगारके १३ अनुयोगद्वार समुत्कीर्तना स्वामित्व मिथ्यात्व सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व शेष कर्म उच्चारणाके अनुसार स्वामित्व सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके विषय में दो उच्चारणाओंके मतोंका निर्देश एक जीवकी अपेक्षा काल मिथ्यात्व भुजगारविभक्तिके चार समय भिन्न-भिन्न स्थितिबन्धके कारणभूत संक्लेशपरिणामोंका २ ३ ३-१०५ ४-५ ६-१४ ទ ७-९ ९-१० १०-१४ १२-२३ १४-४२ १४-२० १५ १६-१७ १७-१८ अनन्तानुबन्धीका अवक्तव्यकाल उच्चारणा के अनुसार काल नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व शेष कर्म २०-२३ | अनन्तानुबन्धीके अवक्तव्यका अन्तर उच्चारणाके अनुसार अन्तर उच्चारणाके अनुसार भाव सन्निकर्ष विचार स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंके परिणमनकालका विचार सोलह कषाय और नौ नोकषाय सोलह कषायोंके भुजगारके १९ समयोंका विचार नोकषायोंके भुजगारके १७ समयोंका विचार स्त्री वेद आदिके अवस्थितका अन्तर्मुहूर्त काल कहाँ किस प्रकार प्राप्त होता है इसका विचार २३-२३ अल्पबहुत्व नाना जीवों की अपेक्षा काल सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व शेष कर्म २०-२१ २१ मिथ्यात्वकी मुख्यता से शेषके विषयमें जाननेकी सूचना व उसका व्याख्यान २३-२४ २४-२६ २६-४२ ४२-५० ४२-४३ ५३ ४३-५० ५०-५५ ५०-५१ ५१ ५१-५५ ५५-५७ ५७-५९ १५९-६० ६०-६६ ६७–७३ ६७-६८ ६८ ६८-६९ ६९-७३ ७४-८२ ७४-७७ ७७ ७७ ७८-८२ ८२-८३ ८३-९५ ८३-८४ ८४-९५ ९५-१०५ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्व ९५-५७ स्थानहानिप्ररूपणा १३७–१३९ बारह कषाय और नौ नोकषाय मिथ्यात्वकी कितनी वृद्धियां और कितनी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ९४-१०२ हानियां होती हैं इसका निर्देश १४०-१४१ अनन्तानुबन्धी चतुष्क १०२ | शेष कर्मोकी वृद्धियां और हानियां १४१-१५१ उच्चारणाके अनुसार अल्पबहुत्व १०२-१०५ | उच्चारणाके अनुसार समुत्कीर्तना १५१-१६० पदनिक्षेपके ३ अनुयोगद्वार १०५-११७ " , स्वामित्व १६०-१६३ प्रतिज्ञा १०५ एक जोवकी अपेक्षा काल १६४-१९० तीन अनुयोगद्वारों के नाम १०५-१०६ मिथ्यात्व १६४-१६९ उच्चारणाके अनुसार समुत्कीर्तना १०६ महाबन्ध और कषायप्राभृतमें उत्कृष्ट १०६ मतभेदका निर्देश १६५ जघन्य शेष कर्म १६५ उच्चारणाके अनुसार स्वामित्व १०७-११० उच्चारणाके अनुसार काल १६९-१९० उत्कृष्ट १०७-१०९ एक जीवकी अपेक्षा अन्तर १९१-२२१ जघन्य १८९-११० | मिथ्यात्व १९१-१९४ उत्कृष्ट अल्पबहुत्व ११०-११६ शेष कर्म १९४ मिथ्यात्व ११०-१११ उच्चारणाके अनुसार अन्तर १९४-२२१ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके , भंगविचय २२२-२२३ अतिरिक्त शेष कर्म भागाभाग २२७-२२८ नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय परिमाण २२८-२३० और जुगुप्सा १११-११२ , क्षेत्र २३१ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ११२-११३ २३२-२५० उच्चारणाके अनुसार उत्कृष्ट , काल २५१-२६० अल्पबहुत्व ११३-११६ , अन्तर २६०-२७४ जघन्य अल्पबहुत्व ११६-११७ २७४ उच्चारणाके अनुसार जघन्य अल्पबहुत्व २७४-३१९ अल्पबहुत्व ११६-११७ मिथ्यात्व २७४-२८८ वृद्धिके १३ अनुयोगद्वार ११७-३१९ बारह कषाय और नौ नोकषाय २८८-२८९ प्रतिज्ञा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ११७ २८९-३०२ वृद्धिके दो भेद और उनका विचार ११८-१३९ अनन्तानुबन्धीचतुष्क ३०२-३०३ स्वस्थानवृद्धि ११८-१२० उच्चारणाके अनुसार अल्पबहुत्व ३०३-३१९ परस्थानवृद्धि १२१ स्थितिसत्कर्मस्थान ३१९-३३६ स्वस्थानवृद्धिकी निरन्तर वृद्धिका स्थितिसत्कर्मस्थानोंके दो अधिकार ३१९ कथन १२१-१३४ प्ररूपणा ३१९-३२९ परस्थानवृद्धि १३५-१३७ अल्पबहुत्व ३२९-३३६ १११ , स्पर्शन " भाव Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायपाहुडस्स ट्ठि दिवि हत्ती तदियो अत्याहियारो Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि-जइवसहाइरियविरहय-चुण्णिसुत्तसमण्णिदं सिरि-भगवंतगुणहरभडारओवइटुं कसा य पाहुडं सिरि-वीरसेणाइरियविरइया टीका जयधवला तत्थ उत्तरपयडिद्विदिविहत्ती णाम विदिमो अत्याहियारो * जे भुजगार-अप्पदर-अवहिद-अवत्तव्वया तेसिमपदं । १. किमट्ठपदं णाम ? भुजगार-अप्पदर-अवट्टिदावत्तव्बयाणं सरूवं तं परूवेमि त्ति भणिदं होदि । तं किमढे वुच्चदे १ अणवगयचदुसरूवस्स भुजगारविसओ बोहो सुहेण ण उप्पज्जदि त्ति तदुप्पायणटु वुच्चदे। . * अब जो भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य पद हैं उनका अर्थपद कहते हैं। ६१. शंका-यहाँ अर्थपद से क्या तात्पर्य है ? समाधान- भुजगार; अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यका जो स्वरूप है उसे कहते हैं यह इसका तात्पर्य है। शंका-भुजगार आदिका स्वरूप किसलिये कहते हैं ? समाधान-जिन्होंने भुजगार आदि चारोंका स्वरूप नहीं जाना है उन्हें भुजगार विषयक ज्ञान सुखपूर्वक नहीं उत्पन्न होता है, अतः भुजगारादि विषयक ज्ञानके सुखपूर्वक उत्पन्न करानेके लिये उनके स्वरूपका कथन करते हैं। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [विदिविहत्ती ३ * जत्तियानो अस्सि समए हिदिविहत्तीओ उस्सकाविदे अणंतरविदिते समए अप्पदरानो बहुदरविहत्तिो एसो भुजगारविहत्तिो ।। २. 'अस्सि' समए अस्मिन् वर्तमानसमये 'जत्तियाओ' यावन्त्यः 'द्विदिविहत्तीओ' स्थितिविभक्तयः स्थितिविकल्पाः इति यावत् । 'उस्सकाविदे तासूत्कर्षितासु वद्धितासु इत्यर्थः। 'अणंतरविदिकते समए अनन्तरव्यतिक्रान्ते समये । अप्पदराओ अल्पतराः स्थितयो यदि भवन्ति । बहुदरविहत्तिओ स बहुतरस्थितिविकल्पो जीवः । एसो भुजगारविहत्तिओ । स एष जीवो भुजगारविभक्तिः। अणंतरादीदहिदीहिंतो जदि वट्टमाणसमए बहुआओ द्विदीओ बंधदि तो भुजगारविहत्तिओ ति भणिदं होदि।। * ओसक्काविदे पहुदराम्रो विहत्तीरो एसो अप्पदरविहत्तिो ! ____$ ३. 'बहुदराओ विहत्तीओ' अनन्तरव्यतिक्रान्ते समये बहुस्थितिविकल्पेषु व्यवस्थि. तेषु 'ओसक्काविदे' वर्तमानसमये स्थितिकांडघातेन अधास्थितिगलनेन वा अपकर्षितेषु । एसो अप्पदरविहत्तिओ एषः अन्पतरविभक्तिकः । ___* ओसक्काविदे [ उस्सकाविदे वा] तत्तियाओ चेव विहत्तीओ एसो अवठिदविहत्तिो । $ ४. ओसक्काविदे उस्सकाविदे वा जदि तत्तियाओ तत्तियागो चेव हिदिवंधवसेण * इस समयमें जितनी स्थितिविभक्तियां हैं उनके, अनन्तर व्यतीत हुए समयमें अल्पतर स्थितिविभक्तियोंको उत्कर्षित करके, बांधने पर वह बहुतरविभक्तिवाला जीव भुजगारस्थितिविभक्तिवाला होता है। ६२. 'अस्सिं समए' का अर्थ 'इस वर्तमान समयमें है। 'जात्तियाओ' का अर्थ 'जितनी' है। 'हिदिविहत्तीओ' का अर्थ स्थितिविभक्तियाँ अर्थात् स्थितिविकल्प है। 'उस्सक्काविदे' का अर्थ 'उनके उत्कर्षित करने पर अर्थात् बढ़ाने पर है। 'अणंतरविदिक्कते समए' का अर्थ 'अनन्तर व्यतीत हुए समयमें' है । 'अप्पदराओ'अर्थात् 'अल्पतर स्थितियाँ' यदि होती हैं । तो वह बहुदरविहत्तिओ' अर्थात् 'बहुत स्थितिविकल्पवाला जीव' है। एसो भुजगारविहत्तिओ' अर्थात् यह भुजगारविभक्तिवाला जीव है । इसका यह तात्पर्य है कि अनन्तर अतीत समयसे यदि वर्तमान समयमें जीव बहुत स्थितियोंका बन्ध करता है तो वह भुजगारविभक्तिवाला कहा जाता है। __* जो अनन्तर अतीत समयमें बहुतर स्थितिविभक्तियोंमें रहकर पुन: उन्हें अपकर्षित करके इस वर्तमान समयमें अल्पतर स्थितिविभक्तियोंको प्राप्त होगया वह जीव अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला होता है। ६३. 'बहुदराओ विहत्तीओ' अर्थात् जो अनन्तर अतीत हुए समयमें बहुत स्थितिविकल्पोंमें रहा वह जब 'ओसक्काविदे' अर्थात् इस वर्तमान समयमें स्थितिकाण्डकघात या अधःस्थितिगलनाके द्वारा बहुत स्थितियोंको घटाकर अल्पतर स्थितिविभक्ति कर देता है तब वह जीव अल्पतर स्थितिविभक्तवाला होता है। ___ * अपकर्षित करने पर या उत्कर्षित करने पर यदि उतनी ही स्थितियां रहें तो वह जीव अवस्थितविभक्तिवाला होता है। $४. अपकर्षित करने पर या उत्कर्षित करने पर यदि स्थितिबन्धके कारण उतनी ही स्थिति Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारसमुक्कित्तणा द्विदिविहत्तीओ होति तो एसो अवट्ठिदविहत्तिओ णाम । * अविहत्तियादो विहत्तियात्रो एसो अवत्तव्वविहत्तिो । ६४. णिस्संतकम्मिओ होदण जदि स संतकम्मिओ होदि तो अवत्तव्व विहत्तिओ होदि वड्डिहोणिअवट्ठाणाणमभावादो। तदभावो वि पुव्वं संतकम्मस्स अभावादो; बिल्लसंतकम्ममवेक्खिय द्विदवड्डिहाणिअवट्ठाणाणं ण तेण विणा संभवो हिदि; विरोहादो । तम्हा ते अवेक्खिय अवत्तव्वं सिद्ध; अण्णहा अवत्तव्वसद्देण वि तस्सावत्तप्पसंगादो। * एदेण अपदेण। ६. एदमट्ठपदं काऊण उवरि भण्णमाणअणियोगद्दाराणं परूवणं कस्सामो । ६७. एत्थ ताव मंदबुद्धिजणाणुग्गहमुच्चारणा वुच्चदे । भुजगारे तेरस अणियोग विभक्तियाँ होती हैं जितनी कि पिछले समयमें थीं तो वह जीव अवस्थितविभक्तिवाला होता है। * जो अविभक्तिकसे पुनः विभक्तिवालाहोता है वह अवक्तव्यविभक्तिवाला जीव है। ६५. जो निःसत्त्वकर्मवाला होकर यदि पुनः सत्कर्मवाला होता है तो वह अवक्तव्यविभक्तिवाला जीव है, क्योंकि इसके वृद्धि, हानि और अवस्थानका अभाव है। वृद्धि, हानि और अवस्थानका अभाव भी पहले सत्तामें स्थित कर्मों के अभावसे होता है: क्योंकि जो वृद्धि, हानि और अवस्थान पहले सत्तामें स्थित कर्मोकी अपेक्षासे पाये जाते थे उनका सत्तामें स्थित कर्मों के बिना पाया जाना सम्भव नहीं है। अन्यथा विरोध आता है। इसलिये उक्त अपेक्षासे अवक्तव्य विकल्प है यह बात सिद्ध हुई, अन्यथा अवक्तव्य शब्दसे भी उसके अवक्तब्यपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। अर्थात् पूर्वोक्त प्रकारसे यदि अवक्तव्य भंग न माना जाय तो उसे 'अवक्तव्य' इस शब्दके द्वारा भी नहीं कह सकेंगे। विशेषार्थ-यहाँ स्थितिसत्त्वकी अपेक्षा भुजगार आदिका विचार किया गया है, अतः इसके अनुसार भुजगार आदिके निम्न लक्षण प्राप्त होते हैं-जिस जीवके अनन्तर अतीत समयमें अल्प स्थिति है वह यदि वर्तमान समयमें बन्ध या संक्रमके द्वारा उससे अधिक स्थितिको प्राप्त करता है तो वह भुजगार स्थितिविभक्तिवाला जीव कहा जाता है। जिसके अनन्तर अतीत समयमें अधिक स्थिति है वह यदि स्थितिघात या अधःस्थितिगलना के द्वारा वर्तमान समयमें कम स्थिति कर लेता है तो वह अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला जीव कहा जाता है। जिस जीवके स्थितिकी घटाबढ़ी होते हुए भी बन्धके वशसे प्रथमादि समयोंके समान द्वितीयादि समयोंमें स्थिति बनी रहती है वह जीव अवस्थित स्थितिविभक्तिवाला कहा जाता है। तथा जो निःसत्त्वकर्मवाला होकर पुनः स्थितिसत्कर्मको प्राप्त करता है वह अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाला कहा जाता है। प्रकृत अनुयोगद्वारमें इन्हींकी अपेक्षा मोहनीयके अवान्तर भेदोंकी स्थितिका विचार किया गया है। * इस अथंपदके अनुसार। ६६. इस अर्थपदको करके आगे कहे जानेवाले अनुयोगद्वारोंका कथन करते हैं। ६७. अब यहाँ मन्दबुद्धि जनोंपर अनुग्रह करनेके लिये उच्चारणाका कथन करते हैं Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ दाराणि णादव्वाणि भवंति-समुकित्तणा सामित्तं कालो अंतरं गाणाजीवेहि भंगविचओ भागामागं परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं मावो अप्पाबहुए त्ति । समुकित्तणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । श्रोघेण मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक. अत्थि भुजगार-मप्पदर-अवद्विदविहत्तिया। सम्मत्त-सम्मामि० अणंताणु०चउक्काणमेवं चेव । णवरि अस्थि अवत्तव्वं पि। एवं सव्वणेरड्य-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरि०पज. पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-मणुसतिय-देव० भवणादि जाव सहस्सार०-पंचिंदिय-पंचिं०पज०-तस-तसपज०.पंचमण-पंचवचि० कायजोगि०-ओरालिय०-वेठब्धिय-तिष्णिवेदचत्तारिक०-असंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-पंचले०भवसि०-सण्णि-आहारित्ति । ६८. पंचिं०तिरिक्खअपञ्जत्त० छव्वीसं पयडीणमोघं । सम्मत्त-सम्मामि० अत्थि अप्पदरं चेव । अणंताणु०चउक० अव्वत्तव्वं णथि । एवं मणुसअपज० सव्वएइंदियसव्वविगलिंदिय-पंचिं०अपज ०-सव्वपंचकाय०-तसअपज्जत्त-ओरालियमिस्स-वेउब्वियमि०-कम्मइय०मदि-सुद-विहंग-मिच्छादि० असण्णि-अणाहारि ति । भुजगार स्थितिविभक्तिमें तेरह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहत्व । उनमेंसे समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तियोंके धारक जीव हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका कथन इसी प्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनका अवक्तव्य भंग भी है। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तियच, पंचेन्द्रियतियच, पंचेन्द्रियतियचपर्याप्त, पंचेन्द्रियतियचयोनिमती, सामान्य ममुष्य, मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यिनी, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रारस्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, स, त्रस पर्याप्त पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, कृष्णादि पाँच लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषाय इनका क्षय हो जाने के पश्चात् पुनः इनकी उत्पत्ति नहीं होती, अतः इनकी स्थितिमें ओघसे भुजगार अल्पतर और अवस्थित ये तीन विभक्तियाँ ही बनती हैं। किन्तु अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना हो जानेके पश्चात् पुनः उत्पत्ति सम्भव है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना हो जानेपर भी उनका सत्त्व पुनः प्राप्त हो जाता है, अतः इन छह प्रकृतियोंमें ओघसे भुजगार आदि चारों विभक्तियाँ बन जाती हैं। मूल में जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें ओघके समान व्यवस्था बन जाती है, अतः उनकी प्ररूपणाको ओघके समान कहा है। ८. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भंग ओघके समान है। किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पतर ही है और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अवक्तव्य नहीं है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सब पाँचों स्थावरकाय, बस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञा और अनाहारक जीवोंके जानना। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपडिभुजगारसमुक्त्तिणा ६९. आणदादि जाव उवरिमगेवज० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० अत्थि अप्प० जीवा । अणंताणु० चउक्क० एवं चेव । णवरि अवत्तव्वं पि अस्थि । समत्त-सम्मामि० ओघं एवं सुक्कले० । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठ० सधपयडीणं अस्थि अप० जीवा । एवमाहार०-आहारमिस्स०-अवगद०-अकसा०-आमिणि-सुद०-ओहि ०- मणपज्ज०- संजदसामाइय-छेदो०-परिहार-सुहम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद-ओहिदंस०-सम्मादि०-खइय०वेदय०-उवसम० सासण-सम्मामिच्छाइहि त्ति । अभव० छब्बीसं पयडीणमत्थि भुज०. अप्प०-अवढि० विह। एवं समुक्त्तिणाणुगमो समत्तो विशेषार्थ– पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च लब्ध्यपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष छब्बीस प्रकृतियोंकी प्ररूपणाको ओघके समान कहा है। इसका यह तात्पर्य है कि जिस प्रकार ओघसे मिथ्यात्व आदिकी स्थितियों में भुजगार आदिका कथन किया है उसीप्रकार मनुष्य और तिर्यञ्च लब्ध्यपर्याप्तकोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना तथासंयोजना नहीं होती, अतः इनके अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्य भंग नहीं पायाजाता। तथा इनके एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है और मिथ्यात्व गुणस्थानमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें मिथ्यात्वका संक्रमण नहीं होता, अतः इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका एक अल्पतर भंग ही पाया जाता है। इसी प्रकार मूलमें और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी सब प्रकृतियोंकी यही व्यवस्था जाननी चाहिये। यद्यपि उनमें कुछ ऐसी मार्गणाएँ हैं जिनमें मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं और औदारिकमिश्र आदि कुछ ऐसी मार्गणाएँ हैं जिनमें मिथ्यात्व, सासादन और अविरतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान होते हैं तो भी इतने मात्रसे उन मार्गणाओंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिके होने में कोई अन्तर नहीं आता । इसका विशेष खुलासा स्वामित्व अनुयोगद्वारमें किया ही है। ९. आनत कल्पसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतर स्थितिबिभक्तिके धारक जीव हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा इसी प्रकार जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि इसका अवक्तव्य भंग भी है। सम्यक्त्व और सम्यम्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिए । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतरस्थितिविभक्तिके धारक जीव हैं। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकायोगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्द्राष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्ति के धारक जीव है। विशेषार्थ-आनतकल्पसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंके वहाँ उत्पन्न होनेके पहले समयमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जो स्थिति होती है वह उत्तरोत्तर कमती ही होती जाती है, बन्ध या संक्रमसे उसमें वृद्धि नहीं होती, अतः इन देवोंके उक्त कर्मोंकी एक अल्पतर स्थितिविभक्ति ही होती है। किन्तु अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थितिमें अल्पतर और अवक्तव्य ये दो भंग होते हैं। बात यह है कि उक्त स्थानोंमें मिथ्यादृष्टि जीव भी उत्पन्न होते हैं और जिन्होंने Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ * सामित्तं । मिच्छत्तस्स भुजगार अप्पदर-अवहिदविहत्तिो को होदि? $ १० सुगममेदं पुच्छासुत्तं । * अण्णदरो णेरइयो तिरिक्खो मणुस्सो देवो वा । ११. भुज० अवडिद० मिच्छाइटिस्सेव । अप्पद० सम्मादिहिस्स मिच्छादिहिस्स वा। * अवत्तव्यो पत्थि । ६ १२. मिच्छत्तसंतकम्मे णिस्संतभावमुवगए पुणो तस्संतकम्मस्सुप्पत्तीए अभावादो। सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया है वे मिथ्यादृष्टि भी हो सकते हैं। अब यदि किसी सम्यग्दृष्टि देवने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की और वह कालान्तरमें मिथ्यादृष्टि हो गया हो तो उसके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अवक्तव्य भंग प्राप्त हो जाता है और शेष देवोंके अनन्तानन्धी चतुष्कका अल्पतर भंग रहता है। तथा यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना भी होती है, अतः इन दोनों कृतियोंके ओघके समान भुजगार आदि चारों भंग बन जाते हैं। इस प्रकार शक्ललेश्यामें जानना चाहिये । तथा अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके सब प्रकृतियोंकी स्थितिमें वृद्धि नहीं होती, अतः सब प्रकृतियोंकी स्थितिका एक अल्पतर भंग ही है। इसी प्रकार मूलमें और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी जानना चाहिये । जिस जीवने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है वह सासादनमें भी जाता है और ऐसे जीवके सासादनके प्रथम समयमें ही अनन्तानुबन्धीका सत्त्व हो जाता है पर यहाँ सासादनगुणस्थानसे पूर्व अवस्थाका विचार सम्भव नहीं है, अतः सासादनमें अवक्तव्य नहीं होता। इसी कारण सासादनमें भी अनन्तानुबन्धी चतुष्कका एक अल्पतर भंग कहा है। अभव्योंके छब्बीस प्रकृतियोंका ही सत्त्व होता है और उनके उन सब प्रकृतियोंकी स्थितियोंमें वृद्धि, ह्रास और अवस्थान सम्भव है, अतः उनके छब्बीस प्रकृतियोंके तीन भंग कहे। __इस प्रकार समुत्कीर्तनानुगम समाप्त हुआ। * स्वामित्व कहते हैं। मिथ्यात्वकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तिका स्वामी कौन है। १०. यह पृच्छासूत्र सुगम है। * कोई भी नारकी, तिथंच, मनुष्य और देव मिथ्यात्वकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिका स्वामी है। ६११. भुजगार और अवस्थितविभक्ति मिथ्यादृष्टि के ही होती है तथा अल्पतरविभक्ति सम्यग्दृष्टि के भी होती है और मिथ्यादृष्टि के भी होती है। * मिथ्यात्वका अवक्तव्य भंग नहीं है । ६ १२. क्योंकि मिथ्यात्वसत्कर्मके निःसत्त्वभावको प्राप्त होनेपर पुनः उसकी सत्कर्मरूपसे उत्पत्ति नहीं होती है। विशेषार्थ-मिथ्यात्वका बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ही होता है और बन्धके बिना मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्ति बन नहीं सकती, अतः मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्ति मिथ्यादृष्टिके ही होती है यह मूलमें कहा है। तथा जो मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके अनन्तर उत्तरोत्तर कारणवश उसकी अल्पतर स्थितिका Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारसामित्तं * सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार-अप्पदरविहत्तिो को होदि ? १३. सुगममेदं पुच्छासुत्तं । • * अण्णदरो णेरइयो तिरिक्खो मणुरुसो देवो वा । ६१४. त्ति वत्तव्वं । भुजगारो सम्मादिट्ठीणं चेव । अप्पदरं पुण सम्मादिहिस्स मिच्छादिहिस्स वा। *अवहिदविहत्तिो को होदि ? ६ १५. सुगमभेदं । * पुव्वुप्पण्णादो समत्तादो समयुत्तरमिच्छत्तेण से काले सम्मत् पडिवरुणो सो अवहिदविहत्तियो। १६. तं जहो-सम्मत्तसंतकम्म पेक्खिद्ण समयुत्तरमिच्छत्तद्विदिसंतकम्मिएण सम्मत्त गहिदे तग्गहणपढमसमए चेव समयुत्तरमिच्छत्तहिदिसंतकम्मे सम्मत्त-सम्म।मिच्छत्तसरूवेण संकते सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमवद्विदविहत्ती होदि । कुदो १ चरिमसमयमिच्छाइट्ठिस्स सम्मत्तहिदिसतेण पढमसमयसम्माइटिसम्मत्तद्विदिसंतस्स समाणत्तादो । बन्ध करता है या विशुद्ध परिणामोंके निमित्तसे जिसने मिथ्यात्व की स्थितिका घात किया है उस मिथ्यादृष्टिके और सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्ति होती है। किन्तु मिथ्यात्वकी अवक्तव्यस्थितिविभक्ति नहीं होती, क्योंकि जिसने मिथ्यात्वका क्षय कर दिया है उसके पुनः मिथ्यात्वकी उत्पत्ति नहीं होती। ___* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अल्पतरस्थितिविभक्तिका स्वामी कौन है ? ६ १३. यह पृच्छासूत्र सुगम है। * कोई नारकी, तियञ्च, मनुष्य और देव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको भुजगार और अल्पतर स्थितिविभक्तिका स्वामी है। ६१४. ऐसा कहना चाहिए । भुजगार भंग सम्यग्दृष्टियोंके ही होता है। परन्तु अल्पतर भंग सम्यग्दृष्टिके भी होता है और मिथ्यादृष्टिके भी होता है। * अवस्थित विभक्तिका स्वामी कौन है। ६ १५. यह सूत्र सुगम है। * पहले उत्पन्न हुई सम्यक्त्व प्रकृतिसे एक समय अधिक स्थितिवाले मिथ्यात्वके साथ विद्यमान कोई एक जीव यदि तदनन्तर समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है तो वह अवस्थितिविभक्तिका स्वामी है। $ १६. खुलासा इस प्रकार है-जिस मिथ्यादृष्टि जीवके सत्तामें विद्यमान मिथ्यात्वकी स्थिति सत्तामें विद्यमान सम्यक्त्वकी स्थितिसे एक समय अधिक है वह जीव जब दूसरे समयमें सम्यक्त्वको ग्रहण करता है तब उसके सम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समयमें ही मिथ्यात्वकी एक समय अधिक स्थिति सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वरूपसे संक्रान्त हो जाती है, अतः उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्ति होती है। क्योंकि मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समयमें Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ चरिमसमयमिच्छाट्ठिस्स सम्मत्तणिसेगेहिंतो पढमसमयसम्माहट्टिस्स सम्मत्तणिसेगा एग णिसेगेणब्भहिया, मिच्छत्तदयसरूवेण त्थिबुक्कसंकमेण गच्छमाणसम्मत्तणिसेगस्स सम्माडिपटमसमए गमणाभावादो । तदो णावट्ठिदत्तं जुञ्जदि ति १ ण एस दोसो, कालं पेक्खिदून सम्मत्तस्स अवट्ठिदत्तुवल भादो । तं जहा - मिच्छाहट्ठिचरिमसमए जत्तिया सम्मत्तदि तत्तिया चैत्र सम्माट्ठिपढमसमए वि, अधो एगसमए गलिदक्खणे चैव मिच्छत्तादो सम्मत्तम्मि उवरि एगसमयवडिदंसणादो । णिसेगेहि अवट्टिदत्तं जदि इच्छिजदि तो वि ण दोसो, कालमस्सिदृण सम्मत्त - मिच्छत्ताणं समाणद्विदिसंतकम्एिण णिसेगे पडुच्च एगणिखेगेणा हिय मिच्छत्त ड्डि दिसंत कम्मेण मिच्छादिट्टिणा सम्म गहिदे चरिमपदमसमयमिच्छादिट्टिसम्म|दिट्ठीसु खिसेगाणं सरिसत्त वलंभादो | $ १७. सम्मामिच्छत्तस्स पुण हेट्ठा उवरिं च एगणिसे गाहियमिच्छाइट्टिणा सम्मत गहिदे वदत्तं होदि, सम्माडिपढमसमयम्मि एगे णिसेगे त्थिर्बुकसंक्रमेण गदे उवरि एगणिसेगस्स वड्डिसणादो। सुत्तकारो पुण पहाणीकय कालो । तं कुदो णव्वदे ? सम्मत्तादो समयुत्तर मिच्छत्तरेण सम्मत्त े पडिवण्णे सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमकमेण अवट्ठिदभोपरूवणादो | - सम्यत्वका जो स्थितिसत्त्व था, सम्यग्दृष्टि के प्रथम समय में प्राप्त हुआ सम्यक्त्वका स्थितिसत्त्व उसके समान है । शंका- मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समय में जो सम्यक्त्वके निषेक हैं उनसे सम्यग्दृष्टिके पहले समयमें प्राप्त हुए सम्यक्त्वके निषेक एक अधिक हो जाते हैं, क्योंकि मिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्व के उदयरूपसे स्तिवक संक्रमणके द्वारा प्राप्त होनेवाला सम्यक्त्वका निषेक सम्यग्दृष्टि के प्रथम समय में मिथ्यात्व के उदयरूपसे नहीं प्राप्त होता है । अर्थात् मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्वका निषेक स्तिवुक संक्रमणके द्वारा मिथ्यात्वरूप होता रहता है परन्तु सम्यक्त्वके प्राप्त होनेपर वह निषेक मिथ्यात्वरूप नहीं होता और इस प्रकार प्रकृतमें एक निषेककी वृद्धि हो जाती है, अतः सम्यक्त्वप्रकृतिका अवस्थित पना नहीं बनता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि कालकी अपेक्षा सम्यक्त्वका अवस्थितपना बन जाता है । उसका खुलासा इस प्रकार है मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समय में सम्यक्त्वकी जितनी स्थिति थी उतनी ही सम्यग्दृष्टि के प्रथम समय में रही, क्योंकि नीचे एक समयके गलनेके समय में ही मिथ्यात्व से सम्यक्त्व में ऊपर एक समयकी वृद्धि देखी जाती है । G अब यदि निषेककी अपेक्षा अवस्थितपना चाहते हो तो भी दोष नहीं है, क्योंकि कालकी अपेक्षा जिसके सम्यक्त्व और मिथ्यात्वका स्थितिसत्कर्म समान है और निषेकोंकी अपेक्षा जिसके मिथ्यात्वका स्थितिसत्कर्म एक निषेक अधिक है ऐसे किसी एक मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्व के ग्रहण करने पर मिथ्यादृष्टि अन्तिम और सम्यदृष्टि के प्रथम समय में दोनोंके निषेकोंकी समानता पाई जाती है । $ १७. सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा तो जिसके नीचे और ऊपर एक निंषेक अधिक हो ऐसे मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्व के ग्रहण करने पर अवस्थितपना प्राप्त होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि के प्रथम समय में एक निषेकके स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा चले जानेपर ऊपर एक निषेककी वृद्धि देखो जाती है । किन्तु चूर्णिसूत्रकारने तो कालकी प्रधानता से कथन किया है । शंका - यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान — क्योंकि उन्होंने सम्यक्त्व प्रकृति से एक समय अधिक स्थितिवाले मिथ्यात्व के Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] विदिविहत्ती उत्तरपयडिभुजगारसामित्तं $ १८. किं च जदि णिसेगेहि चेव सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमवट्ठिदत्तमिच्छिज्जदि तो अंतरकरणं काऊण मिच्छत्तपढमडिदिं गालिय विदियट्ठिदीए धरिददंसणतिय हिदिसंतकम्मस्स उवसमसम्माइट्ठिस्स वि अवट्ठिदत्तं होदि, तत्थ दंसणमोहणिसेगाणं गलणाभावादो | ण च जइवसहाइरिएण एत्थ अवट्ठिदभावो परुविदो । तदो जाणिजह जहा जवसहाहरियो एत्थुद्देसे पहाणीकयकालो त्ति । जुत्तीए वि एसो चेव अत्थो जुज्जदे, कम्मखंधाणं कम्मभावेणावद्वाणस्स कम्मट्ठिदित्तादो । ण च कम्मक्खंधी ट्ठिदी; ड- डिदि - अणुभागाधारस्स द्विदित्तविरोहादो । * अवत्तव्वविहत्तिओ अणदरो । $ १९. कुदो १ अण्णदरगईए अण्णदरकसाएण अण्णदरतसपाओग्गोगाहणाए अण्णदरलेस्साए णिस्तीकयसम्मत्त सम्मामिच्छत्तेण मिच्छादिट्टिणा पढमसम्मत्ते गहिदे अवतव्वभाववलभादो । ६ साथ सम्यक्त्व प्राप्त होनेपर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अक्रमसे अवस्थितपना कहा है । इससे मालूम होता है कि चूर्णिसूत्र में कालकी प्रधानता से कथन किया है । $ १ . दूसरे यदि निषेकोंकी अपेक्षा ही सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अवस्थितपना स्वीकार किया जाय तो अन्तरकरण करके और मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिको गलाकर दूसरी स्थिति में जिसने दशनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंका स्थितिसत्कर्म प्राप्त कर लिया है ऐसे प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिके भी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अवस्थितपना प्राप्त होता है, क्योंकि वहाँपर दर्शनमोहनीयके निषेकोंका गलन नहीं होता है । परन्तु यतिवृषभ आचार्यने यहाँपर अवस्थितपनेका कथन नहीं किया है। इससे जाना जाता है कि यतिवृषभ आचार्यने इस उद्देश में कालकी प्रधानता से कथन किया है । युक्ति से भी यही अर्थ जुड़ता है, क्योंकि कर्मस्कन्धोंका कर्मरूपसे रहना ही कर्मस्थिति कही जाती है । केवल कर्मस्कन्ध स्थितिरूप नहीं हो सकता क्योंकि प्रकृति, स्थिति और अनुभागके आधारको केवल स्थिति माननेमें विरोध आता है । * अवक्तव्य विभक्तिवाला कोई भी जीव होता है । १६. क्योंकि जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको निःसत्त्व कर दिया है ऐसे किसी एक मिथ्यादृष्टि जीवके अन्यतर गति, अन्यतर कषाय, त्रस पर्यायके योग्य अन्यतर अवगाहना और अन्यतर लेश्या के रहते हुए प्रथमोपशम सम्यक्त्व के प्राप्त करने पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अवक्तव्य भाव देखा जात है । विशेषार्थ - सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिका स्वामी चारों गतियों का सम्यग्दृष्टि जीव हो सकता है, क्योंकि उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति संक्रमणसे ही प्राप्त होती है और इनमें मिथ्यात्वका संक्रमण सम्यग्दृष्टिके ही होता है । तथा चारों गतियों के मिथ्यादृष्टि जीवके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्ति ही होती है. क्योंकि मिथ्यादृष्टि के अधःस्थितिगलना और स्थितिघातके द्वारा उत्तरोत्तर इनकी स्थितिमें न्यूनता देखी जाती है । किन्तु जिस सम्यग्दृष्टिने इनकी भुजगार या अवस्थित स्थितिविभक्ति नहीं की उस सम्यग्दृष्टि के प्रथम समयमें और इन दोनों प्रकृतियोंकी सत्तावाले अन्य सम्यग्दृष्टियोंके द्वितीयादि समयों में इनकी अल्पतर स्थितिविभक्ति बन जाती है तथा जिन मिथ्यादृष्टियों के सम्यक्त्वको ग्रहण करने के पहले समय में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिसे मिथ्यात्वकी स्थिति एक समय अधिक है उनके द्वितीय समय में सम्यक्त्वके ग्रहण करनेपर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अव Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ 8 एवं सेसाणं कम्माणं णेदव्वं । २०. एदेण सुत्तस्स देसामासियत्तं जइवसहाइरिएण जाणाविदं। तेणेदेण सूचि. दत्थपरूवणट्ठमेत्थुञ्चारणाणुगमं कस्सामो । २१. सामित्ताणुगमेण दुविहो णिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त. चारसक०-णवणोक० भुजगार-अवद्विदविहत्ती कस्स होदि ? अण्णदरस्स मिच्छाइद्विस्स । स्थित स्थितिविभक्ति होती है , क्योंकि ऐसे जीवके यद्यपि सम्यक्त्व 'और सम्यग्मिथ्यात्वका एक अधःनिषेक स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा मिथ्यात्वमें संक्रमित हो जाता है तो भी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिसे मिथ्यात्वकी स्थिति एक समय अधिक है, अतः सम्यग्दर्शनके ग्रहण करनेके पहले समयमें मिथ्यात्व द्रव्यके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमित होनेसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी ऊपर एक समय स्थिति बड़ जाती है, अतः जिस समय सम्यग्दर्शन को यह जीव ग्रहण करता है उस समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उतनी ही स्थिति प्राप्त होती है जितनी सम्यक्त्व ग्रहण करनेके पूर्व समयमें थी और इस प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित स्थितिविभक्ति बन जाती है। यहाँ इस विषयमें यह शंका उठाई गई है कि इस प्रकार पहले और दूसरे समयमें सम्यक्त्वकी स्थिति समान भले ही प्राप्त हो जाओ पर निषेकोंमें समानता नहीं हो सकती, किन्तु मिथ्यात्वके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वके जितने निषेक थे सम्यक्त्व ग्रहण करनेके समय उनमें एक निषेक बढ़ जाता है, क्योंकि मिथ्यात्वके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वका एक निषेक स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा मिथ्यात्वमें संक्रमित हो गया और इस प्रकार मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही सम्यक्त्वका एक निषेक कम हो गया । पर दूसरे समयमें सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर सम्यक्त्वका अधःस्तन निषेक मिथ्यात्वमें नहीं संक्रमित होता किन्तु एक समय स्थिति अधिक मिथ्यात्वके द्रव्यके सम्यक्त्वमें संक्रमित होनेसे सम्यक्त्वका एक निषेक बढ़ जाता है, अतः उक्त प्रकारसे सम्यक्त्वकी अवस्थित विभक्ति नहीं बन सकती। इस शंकाका वीरसेनस्वामीने जो समाधान किया है उसका सार यह है कि इस प्रकार यद्यपि निषेकमें वृद्धि हो जाती है पर स्थितिमें वृद्धि नहीं होती, क्योंकि मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वकी जितनी स्थिति थी सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर उसकी उतनी ही स्थिति प्राप्त हो गई, क्योंकि मिथ्यात्वके अन्तिम समयमें इसकी स्थितिमें यद्यपि एक समय कम हो गया तो भी सम्यक्त्वको ग्रहण करने पर ऊपर एक समय स्थिति में वृद्धि भी हो गई. अतः स्थिति समान रही आई । और स्थिति कालप्रधान होती है निषेक प्रधान नहीं । हाँ यदि निषेकोंकी अपेक्षा सम्यक्त्वकी स्थितिमें अवस्थितपना लाना हो तो ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवको लो जिसके मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी स्थिति समान हो किन्तु सम्यक्त्वके निषेकसे मिथ्या त्वका एक निषेक अधिक हो । अब यह जीव जब सम्यक्त्वको ग्रहण करता है तो इसके मिथ्यात्व के अन्तिम समयमें सम्यक्त्वके जितने निषेक रहते हैं उतने ही सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके पहले समयमें भी देखे जाते हैं अतः यहाँ निषेकोंकी अपेक्षा अवस्थित विभक्तिपना बन जाता है। तथा सम्यग्मिथ्यात्वके निषेकोंकी अपेक्षा अवस्थितविभक्तिपनाका कथन करते समय सम्यग्मिथ्यात्वके निषेकोंसे मिथ्यात्वके दो निषेक अधिक लेने चाहिये । शेष कथन सुगम है। * इसी प्रकार शेष कर्मों का जानना चाहिए। $ २०. इस कथनसे यतिवृषभआचार्यने सूत्रका देशामर्षकपना जता दिया, इसलिए इसके द्वारा सूचित होनेवाले अर्थका ज्ञान करानेके लिये यहाँ पर उच्चारणा का अनुगम करते हैं २१. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकार का है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित विभक्ति Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ गा०२२ . द्विदिविहत्तीए उउरपयडिभुजगारसामित्त 'अप्पदरविहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स सम्मोइहिस्स मिच्छाइटिस वा । अणंताणु० चउक्कस्स तिण्हं पदाणमेवं चेव वत्तव्वं । अवत्त० कस्स ? अण्ण० पढमसमयमिच्छाइहिस्स सासणसम्माइद्विस्स वा । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं भुजगारविहत्ती कस्स ? सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं तप्पाओग्गजहण्णहिदिसंतकम्मिरण मिच्छत्तस्त तप्पाओग्गुकस्सहिदिसंतकम्मिएण मिच्छादिट्टिणा सम्मत्ते गहिदे तस्स पढमसमयसम्मादिहिस्स; सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुवरि मिच्छत्तद्विदीए तत्थ सन्धिस्से उदयावलियवजाए संकंतिदसणादो। उवरिमसुण्णम्मि कधं संकमो ? ण, तत्थ वि मिच्छत्तसंकतीए विरोहाभावादो। अप्पदर० कस्स ? अण्णद० सम्माइटिस्स मिच्छाइट्ठिस्स वा । अवद्विदं कस्स ? अण्णद० जो समउत्तरमिच्छत्तद्विदिसंतकम्मिओ सम्मत्तं पडिवण्णो तस्स । अवत्तव्वं कस्स ? अण्णदस्स जो असंतकम्मिओ सम्मत्तं पडिवण्णो तस्स । एवं सव्वणेरइय-तिरिक्ख-पंचिंदिय. तिरिक्ख-पंचिंतिरि०पज०-पंचिंतिरि०जोणिणि-मणुसतिय-देव-मवणादि जाव सहस्सार०-पंचिंदिय-पंचिं०पज०-तस-तसपज०-पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि० ओरालि.. वेउवि०-तिण्णिवेद-चत्तारिक०-असंजद-चक्खु०-प्रचक्खु०-पंचले०-भवसि०-सण्णिआहारि त्ति । किसके होती है ? किसी भी मिथ्यादृष्टि जीवके होती है। अल्पतरविभक्ति किसके होती है ? किसी सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीवके होती है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उक्त तीन पदोंका कथन इसी प्रकार करना चाहिये । अवक्तव्यविभक्ति किसके होती है ? किसी एक मिथ्यादृष्टि या सासादनसम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगारस्थितिविभक्ति किसके होती है ? सम्यक्त्व और सम्यम्मिथ्यात्वके तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मवाले और मिथ्यात्वके तत्प्रायोग्य उत्कृष्टस्थितिसत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर उसके प्रथम समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगारस्थितिविभक्ति होती है. क्योंकि वहाँ पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें मिथ्यात्वकी उदयावलिसे रहित शेष समस्त स्थितिका संक्रमण देखा जाता है। शंका-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति से ऊपर शून्यमें मिथ्यात्वका संक्रमण कैसे होता है ? समाधान--नहीं, क्योंकि वहाँ भी मिथ्यात्वके संक्रमण होनेमें कोई विरोध नहीं है। अल्पतर स्थितिविभक्ति किसके होती है ? किसी एक सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीवके होती है। अवस्थितस्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो मिथ्यात्वके एक समय अधिक स्थिति सत्कर्मके साथ सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है ऐसे किसी एक जीवके होती है। अवक्तव्यस्थितिविभक्ति किसकेहोती है१ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वरूप सत्कर्मसे रहित जो कोई एक जीव सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है उसके अवक्तव्यस्थितिविभक्ति होती है। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तियेच, पंचेद्रिय तियच पर्याप्त, पंचेन्द्रि तियेच योनिमती, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेंद्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि पाँच लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। 1ता०प्रतौ भवहिदबिहत्ती इति पाठः। २ भा०प्रातौ-संतकम्मेण इति पाठः। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ $ २२. पंचिं०तिरि०अपज० छब्बीसं पयडीणं भुज०-अप्प० अवढि० सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमप्पदरं० कस्स ? अण्णद० । एवं मणुसअपज०-सम्बएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचि अपञ्ज०-पंचकाय-तसअपज-मदि०-सुद-विहंग-मिच्छादि० असण्णि त्ति। ६२३. ओणददि जाव उवरिमगेवजो त्ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० अप्पदर० कस्त० १ अण्णद० सम्मादिहिस्स मिच्छाइद्विस्स बा । अणंताणु०चउक. अप्पदर०-अवत्तयाणमोघं। सम्मत्त-सम्मामि० भुज-अप्प-अवत्तव्याणमोघं। एदं चिराणुच्चारणमस्सिदण भणिदं । एदीए उच्चारणाए पुण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमोघमिदि भणिदं । तेण अवढिदेण वि होदव्वं, अण्णहा ओघत्ताणुववत्तीदो । ण च एसो लिहताणं दोसो; समुक्तितणाए वि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमोघमिदि परूविदत्तादो। कथमेत्थ पुण अवद्विदभावो विशेषार्थ- यहाँ पर उच्चारणचार्यने अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्यस्थितिविभक्ति मिथ्यादृष्टिके समान सासादनसम्यग्दृष्टि के भी बतलाई है सो इसका कारण यह है कि जिसने अनंतानु बन्धीकी विसंयोजना की है ऐसा उपशमसम्यग्दृष्टि जीव भी सासादन गुणत्थानको प्राप्त होता है यह बात कसायपाहुडकार और यतिवृषभ आचार्यको इष्ट है, अतः सासादन गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धीका अवक्तव्य पद बन जाता है। बात यह है कि संक्रमित द्रव्यका एक आवलितक अपकर्षण और उदीरणा आदि काम नहीं होते यह एक मत है और दूसरा मत यह है कि अनन्तानुबन्धीरूपसे संक्रमित द्रव्यका सासादनमें उसी समय अपकर्षण और उदीरणा सम्भव हैं। गुणधर आचार्य और यतिवृषभ आचार्य इसी दूसरे मतको मानते हैं। तदनुसार जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है ऐसा कोई उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासादनमें आता है तो उसके उसी समय प्रत्याख्यानावरण आदि द्रव्यका अनन्तानुबन्धीरूपसे संक्रमित हो जाता है। और संक्रमित द्रब्यकी उदीरणा भी हो जाती है, अतः सासादन गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धीका अवक्तव्य पद बन जाता है। यह कथन नैगम नयकी मुख्यतासे है। शेष कथन सुगम है। २२. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तियाँ होती हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्ति किसके होती है ? किसी भी जीवके होती है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेद्रिय अपर्याप्त पाँचों स्थावरकाय, त्रस अपर्याप्त, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिए। ६२३. आनतकल्पसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतर स्थितिविभक्ति किसके होती है ? किसी भी सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवके होती है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अल्पतर और अवक्तव्य स्थितिविभक्ति ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार,अल्पतर और अवक्तव्य विभक्ति ओघके समान है। यह कथन पुरानी उच्चारणाका आश्रय लेकर किया है। प्रकृति उचारणामें तो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कथन ओघके समान है ऐसा कहा है, इसलिए सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्ति भी होनी चाहिये, अन्यथा सम्यक्त्व और सम्मग्मिथ्यात्वके ओघपना नहीं बन सकता है । यदि कहा जाय कि यह लिखनेवालोंका दोष है सो भी बात नहीं है, क्योंकि समुकीर्तनामें भी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कथन ओघके समान है ऐसा कहा है। शंका-तो फिर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें अवस्थितिविभक्तिपना कैसे प्राप्त होता है Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारसामित्तं लब्भदे १ मिच्छाइट्टिणा सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लंतेण मिच्छत्तद्विदिसंतादो हेट्ठा कदसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तहिदिसंतकम्मेण सम्मत्ताहिएहेण मिच्छाइटिचरिमविदिखंडयं फालेदण सम्मत्तहिदिसंतादो कयसमउत्तरमिच्छत्तहिदिसंतकम्मिएण वेदगसम्मत्ते गहिदे सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमवहिदविहत्तो होदि, पहाणोकयकालत्तादो। णिसेगाणं पहाणत्ते संते वेदगसम्मत्तं पडिवजमाणेसु समढिदिसंतकम्मिएसु सव्वेसु अवट्ठिदविहत्ती होदि सम्मत्तस्स । सम्मामिच्छत्तस्स पुण ण होदि । तेण दोण्हं पि पुवुद्दिट्टपदेसे चेव अवडिदभावो वत्तव्यो । ण च वेदगसम्मत्ताहिमुहमिच्छाइटिम्मि हिदिखंडयघादोणस्थि चेवे त्ति पञ्चवट्ठाण जुत्तं, वेदयसम्मत्तं पडिवजमाणम्मि वि कहिं पि विसोहियवसेण अणियमेण द्विदिकंडयसिद्धोए बाहाणुवलंभादो। कुदो एवं णवदे ? एदम्हादो चेव उच्चारणादो । दोण्हमुच्चारणाणं कधं ण विरोहो ? ण, विरोहो णाम एयणयविसओ। दो वि उच्चारणाओ पुण भिण्णणयणिबंधणाओ, तम्हा ण विरोहो ति । एवं सुक्कलेस्साए वत्तव्वं । समाधान-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेवाले जिसने मिथ्यात्वके स्थितसत्त्वसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके स्थितिसत्त्वको कम कर दिया है, जो सम्यग्दर्शनके सम्मुख है और जिसने मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितिकाण्डकका घात करके मिथ्यात्वके स्थितिसत्त्वको सम्यक्त्वके स्थितिसत्त्वसे एक समय अधिक किया है, ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवके वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करनेपर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित स्थितिविभक्ति होती है, क्योंकि यहाँपर कालकी प्रधानता है। निषेकोंकी प्रधानता होनेपर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले समान स्थितिसत्कर्मवाले सभी जीवों में सम्यक्त्वकी अवस्थित स्थितिविभक्ति होती है। परन्तु सम्यग्मि यात्वकी नहीं होती, अतः इन दोनोंकी अबस्थितविभक्तिका कथन पूर्वोक्त स्थानमें ही करना चाहिये। यदि कहा जाय कि वेदकसम्यक्त्वके अभिमुख हुए मिथ्यादृष्टि जीवमें स्थितिकाण्डकघात होता ही नहीं सो ऐसा निश्चय करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले किसी भी जीव में विशुद्धिके अनुसार अनियमसे स्थितिकाण्डकघातकी सिद्धि होनेमें कोई बाधा नहीं पाई जाती है। शंका-यह बात किस प्रमाणसे जानी जाती है ? समाधान-इसी उच्चारणासे जानी जाती है। शंका-दोनों उच्चारणाओंमें परस्पर विरोध कैसे नहीं माना जाय ? समाधान-नहीं,क्योंकि,विरोध एक नयको विषय करता है । परन्तु दोनों उच्चारणाएँ भिन्न भिन्न नयके निमित्तसे प्रवृत्त हैं, अतः कोई विरोध नहीं है। तात्पर्य यह है कि जब एक ही दृष्टिसे विरुद्ध दो बातें कही जाती है तब विरोध आता है। किन्तु इन दोनों उच्चारणाओंका कथन भिन्नभिन्न दृष्टिसे किया गया है. अतः कोई विरोध नहीं आता। इसी प्रकार शुक्ललेश्यामें कहना चाहिये। विशेषार्थ-आनतादिकमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अवस्थितके बिना तीन पद होते हैं और अवस्थित सहत चार पद होते हैं। इस प्रकार यहाँ वीरसेन स्वामीने दो मतोंका उल्लेख किया है। पहला मत प्राचीन उच्चारणाका है और दूसरा मत उस उच्चारणाका है जिसका वीरसेन स्वामीने सर्वत्र उपयोग किया है। यहाँ पर वीरसेन स्वामीने पहले मतके समर्थन या निषेधमें तो कुछ भी नहीं लिखा है। हाँ दूसरे मतका उन्होंने अवश्य समर्थन किया है। पहले तो उन्होंने यह बतलाया है कि यह लेखकोंकी भूल नहीं है। यदि लेखकोंकी भूल होती तो एक जगह Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ २४. अंणुहिस्सादि जाव सम्वसिद्धि ति सबपयडीणमप्पदरं कस्स १ अणद० । एवमाहार०-आहारमिस्स० अवगद० अकसा० आभिणि सुद०- ओहि०-मणपज० संजद०. समाइय-छेदो०-परिहार०-सुहम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद०-ओहिदंस०-सम्मादि०खाय०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामिच्छादिहि ति । ओरालियमिस्स० छब्बीसपयडि तिण्हं पदाणमोघं । सम्मत्त-सम्मामि० अप्पद० ओघं । एवं वेउव्वियमिस्स.कम्मइय०-अणाहारए ति : अभव० छब्बीसपयडीणं तिण्हं पदाणमेइंदियभंगो। एवं सामित्वाणुगमो समत्तो। * एत्तो एगजीवेण कालो। २५. सुगममेदं सुत्तं । * मिच्छत्तस्स भुजगारकम्मसियो केवचिरं कालादो होदि ? २६. एवं पि सुगमं । * जहएणेण एगसमओ। होती किन्तु जब समुत्कीर्तनामें भी आनतादिमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके पद ओषके समान बतलाये हैं तब इसे लेखकोंकी भूल नहीं कह सकते । तब प्रश्न हुआ कि तो यहाँ अवस्थित पद कैसे बनता है ? इसपर वीरसेनस्वामीने यह समाधान किया है कि जिसने आनतादिकमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाद्वारा मिथ्यात्वसे कम स्थिति कर ली है वह जब सम्यक्त्वके सम्मुख होता है तब मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितिखण्डके पतन द्वारा यदि सम्यक्त्वकी स्थितिसे मिथ्यात्वकी स्थिति एक समय अधिक करके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करता है तो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्ति बन जाती है। यह कालकी प्रधानतासे कथन किया है। पर जब निषेकोंकी प्रधानतासे विचार करते हैं तब सनान स्थितिवालोंके सम्यक्त्वकी अवस्थितविभक्ति प्रात होती है। किन्तु इस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्ति नहीं बनती। २४. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतरस्थितिविभक्ति किसके होती है ? किसी भी जीवके होती है। इसी प्रकार आहारककाययोगी आहारकमिश्रकाय. योगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, अभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। - औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा तीन पदोंका भंग ओघके समान है। तथा सम्यक्त्व और सम्यम्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्ति ओघके समान है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगो और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा तीन पदोंका भंग एकेन्द्रियोंके समान है। इस प्रकार स्वामित्वानुगम समाप्त हुआ। *आगे एक जीवकी अपेक्षा कालानुगमका अधिकार है। ६ २५. यह सूत्र सुगम है। * मिथ्यात्वके भुजगारस्थितिसत्कर्मवाले जीवका कितना काल है ? $ २६. यह सूत्र भी सुगम है। . * जघन्य काल एक समय है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारसामित्तं ६२७. कुदो १ मिच्छत्तद्विदीए उपरि एगसमयं वड्डिद्ण पबद्ध मिच्छत्तहिदिभुज. गारस्स एगसमयकालुवलंभादो । * उक्कस्सेण चत्तारि समया ४। २८. तं जहा--अद्धाक्खपण हिदिबंधे वड्डिदे भुजगारस्स एगो समयो । संकि. लेसक्खएण वड्डिण बद्धे विदियो समयो । एई दियस्स विग्गहं कादण पंचिंदिएसुप्पण्णपढमसमए असण्णिद्विदि बंधमाणस्स तदिओ समभो। सरीरं घेत्तण चउत्थसमए सण्णिहिदि बंधमाणस्स चउत्थो भुजगारसमओ। २६. का अद्धा णाम ? हिदिबंधकालो। किं तस्स पमाणं । जह० एगसमओ, उक्त ० अंतोमुहत्तं । एदिस्से अद्धाए खओ विणासो अद्धाक्खो णाम । एगहिदिबंधकालो सव्वेसि जीवाणं समाणशरिणामो किण्ण होदि ? ण, अंतरंगकारणमेदेण सरिसत्ताणुव. वत्तीदो। एगजीवस्स सत्रकालमेगपमाणद्धाए द्विदिवंधो किण्ण होदि ?ण, अंतरंगकारणेसु दव्वादिसंबंधेण परियत्तमाणस्त एगम्मि चव अंतरंगकारणे सव्यकालमवहाणामावादो। ३०. को संकिलेसो णाम ? कोह-माण माया-लोहपरिणामविसेसो । ते किं सवासिं ६ २७. क्योंकि मिथ्यात्वकी स्थितिके ऊपर एक समय बढ़ाकर बन्ध करनेपर मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिका एक समय काल पाया जाता है । * उत्कृष्ट काल चार समय है ४ । ६२८. उसका खुलासा इस प्रकार है- अद्धाक्षयसे स्थितिबन्धके बढ़ानेपर भुजगारका पहला समय होता है । संक्ल शक्षयसे स्थितिको बढ़ाकर बन्ध करने पर दूसरा भुजगार समय होता है। एकेन्द्रिय पर्यायसे विग्रह करके पंचेन्द्रियमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें असंज्ञीकी स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके तीसरा भुजगारसमय होता है । शरीर ग्रहण करके चौथे समयमें संज्ञीकी स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके चौथा भुजगार समय होता है। $२६. शंका-अदा किसे कहते हैं ? समाधान-स्थितिबन्धके कालको अद्धा कहते हैं। शंका-उसका प्रमाण क्या है ? समाधान-जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है। इस अद्धाके क्षय अर्थात् विनाशका नाम अद्धाक्षय है। शंका-सब जीवोंके एक स्थितिबन्धका काल समान परिणामवाला यों नहीं होता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि अन्तरंग कारणमें भेद होनेसे उसमें समानता नहीं बन सकती है। शंका-एक जीव के सर्वदा स्थितिबन्ध एक समान कालवाला क्यों नहीं होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि यह जीव अन्तरंग कारणोंमें द्रव्यादिकके सम्बन्धसे परिवर्तन करता रहता है, अतः उसका एक ही अन्तरंग कारणमें सर्वदा अवस्थान नहीं पाया जाता है। ६ ३०. शंका-संक्लश किसे कहते हैं ? समाधान .. क्रोध, मान, माया, और लोभरूप परिणामविशेषको संलश कहते हैं। . Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ हिदीणं बंधस्स सव्वे वि पाओग्गा ? ण, परिमिदाणं द्विदीणं बंधस्स परिमिदसंकिलेसाणं वेव कारणत्तादो । तं जहा-सव्वजहण्णबंधो धुवहिदी णाम । तिस्से हिदीए बंधपाओग्गाणि असंखेज्जलोगमेत्तहिदिबंधज्झवसाणहाणाणि छवड्डीए असंखे०लोगमेचछट्ठाणेहि सह अवद्विदाणि । समयुत्तरधुवद्विदीए वि एत्तियाणि चेव । परि धुवट्ठिदिपरिणामेहितो पलिदो० प्रसंखे०भागपडिमागेण विसेसाहियाणि । एवं विसेसाहियकमेण द्विदाणि जाव सरिसागरोवमकोडाकोडीए चरिमसमओ त्ति । पुणो धुवद्विदीए असंखेज्जलोगज्झवसोणाणि पलिदो० असंखे०भागमेत्तखंडाणि कायव्याणि । ताणि च अण्णोण्णं विसेसाहियाणि । एवं सव्वढिदिअन्झवसाणाणि खंडेदव्वाणि । संपहि धुवहिदीए पढमखंडद्विदअसंखे०लोगडिदिबंधज्झवसाणट्ठाणेहि धुवद्विदी चेव बज्झदि ण उवरिमद्विदीओ। कुदो ? तब्बंधसत्तीए तेसिमभावादो। णिरुद्धहिदीए पुण हेडिमद्विदीओ ण बझंति; सव्वजहण्णहिदिबंधादो हेट्ठा बंधहिदीणमभावादो। पुणो तत्थतणविदियखंडपरिणामेहि धुवहिदि समउत्तरधुट्टिदिं च बंधदि ण उवरिमट्टिदीपो। पुणो तदियखंडपरिणामेहि धुवहिदि समउत्तरघुवहिदि दुसमउत्तरघुवहिदि च बंधदि । एवं तिसमय चदुसमय-पंचसमयुत्तरादिकमेण धुवहिदि बंधाविय णेदव्वं जाव चरिमपरिणामखंडं ति । पुणो चरिमखंडपरिणामेहि धुवढिदिप्पडि समयुत्तरादिकमेण परिणामखंडमेत्तद्विदीओ वज्झंति, ण शंका-वे सब संक्लेश परिणाम क्या सब स्थितियोंके बन्धके योग्य होते हैं ? समाधान -नहीं, क्योंकि परिमित स्थितियोंके बन्धके परिमित संक्लेश परिणाम ही कारण होते हैं। उसका खुलासा इस प्रकार है-सबसे जघन्य बन्धका नाम ध्रुवस्थिति है। उस स्थितिके बन्धके योग्य असंख्यात लोकप्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं। जो षटस्थानपतित वृद्धिकी अपेक्षा असंख्यात लोकप्रमाण छहस्थानोंके साथ अवस्थित हैं । एक समय अधिक ध्रुवस्थितिबन्धके योग्य भी इतने ही स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि वे परिणाम ध्रुवस्थितिके परिणामोंमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जितना लब्ध आवे उतने ध्रुवस्थितिके परिणामोंसे अधिक होते हैं। इस प्रकार सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर-प्रमाण स्थितिके अन्तिम समय तक वे परिणाम उत्तरोत्तर विशेषाधिक क्रमसे स्थित हैं। पुनः ध्रवस्थितिके असंख्यात लोकप्रमाण परिणामोंके पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण खण्ड करने चाहिये । जो परस्पर विशेषाधिक है। इसी प्रकार सब स्थितियों के परिणामस्थानोंके खण्ड करने चाहिये । इनमें ध्रवस्थितिके पहले खण्डमें स्थित असंख्यात लोकप्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंसे ध्रुवस्थितिका ही बन्ध होता है अगली स्थितियोंका नहीं, क्योंकि उन परिमाणोंमें आगेकी स्थितियोंके बन्धकी शक्ति नहीं पाई जाती है तथा उन परिणामोंके द्वारा ध्रुवस्थितिसे नीचेकी स्थितियोंका बन्ध नहीं होता है, क्योंकि सबसे जघन्य स्थितिबन्धके नीचे बन्धस्थितियाँ नहीं पाई जाती हैं। पुनः ध्रुवस्थितिसम्बन्धी दूसरे खण्डके परिणामोंसे ध्रुवस्थिति और एक समय अधिक ध्रुवस्थितिका बन्ध होता है, किन्तु इससे आगेकी स्थितियोंका बन्ध नहीं होता। पुनः तीसरे खण्डके परिणामोंसे ध्रुवस्थिति, एक समय अधिक ध्रुव स्थिति और दो समय अधिक ध्रुवस्थितिका बन्ध होता है। इस प्रकार तीन समय, चार समय और पाँच समय आदि अधिकके क्रमसे ध्रुवस्थितिका बन्ध कराते हुए अन्तिम परिणामखंड तक ले जाना चाहिये । पुनः अन्तिम खण्डके परिणामोंसे ध्रुवस्थितिसे लेकर एक समय अधिक आदिके क्रमसे परिणामोंके जितने खंड हों उतनी स्थितियोंका बन्ध होता Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारसामित्तं उवरिमाओ। समयुत्तरधुवद्विदीर पढमखंडपरिणामेहि संखाए धुवद्विदिविदियखंड. समाणेहि धुवहिदी समयुत्तरधुवट्टिदी वा बज्झइ, ण उवरिमाओ। विदियखंडपरिणामेहि धुवटिदितदियखंडसमाणेहि धुवहिदी समयुत्तरधुव द्विदी दुसमयुत्तरधुवहिदी च बज्झइ, ण उवरिमाओ। एवं दव्वं जाव दुचरिमखंडं ति। पुणो चरिमखंडझवसाणहाणहि समयाहियधुवटिदिप्प हुडि परिणामखंडभागहारमेत्तद्विदीओ उवरिमाओ बंधति ण धुवहिदी, धुवटिदिपरिणामेहि चरिमखंडपरिणामाणं सरिसत्तामावादो। एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणुक्कस्सुक्कस्सट्ठिदि त्ति । ३१. उकस्सहिदीए पढमखंडपरिणामेहि उक्कस्सटिदिप्पडुडि हेट्ठा परिणामखंडभागहारमत्तद्विदीओ बझंति । विदियखंडपरिणामेहि रूवृणपरिणामखंडसलागमेतद्विदीओ हेट्ठिमाओ बझंति । तदियखंडपरिणामेहि दुरूवणपरिणामखंडसलागामेत्तहिदीओ हेडिमाओ बझंति । एवं गंतूणुकस्सहिदीए चरिमखंडपरिणामेहि उक्कस्सद्विदी एक्का चेव बज्झइ । कुदो, तक्खंडपरिणामाणं हेट्ठिमखंडेहि अणुकट्टीए अमावादो। जेणेगद्विदिपरिणामा उवरि पलिदोवमस्स असंखे०मागमेत्ताणं चेव द्विदीणं बंधकारणं होति, तेण अद्धाक्खएण सुट्ट महंतो वि द्विदिवंधभुजगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो चेवे त्ति घेत्तव्यो। ६३२. संपहि एदेसिं विदिबंधज्झवसाणषट्ठाणाणं परिणामकालो जहण्णेण एगसमयहै, इनसे और ऊपरकी स्थितियोंका नहीं । एक समय अधिक ध्रुवस्थितिके पहले खंडके परिमाणोंसे, जो कि संख्यामें ध्रुवस्थितिके दूसरे खंडके समान है, ध्रुवस्थितिका या एक समय अधिक ध्रुवस्थितिका बन्ध होता है ऊपरकी स्थितियोंका नहीं। ध्रुवस्थितिके तीसरे खण्डके समान दूसरे खण्डके परिणामोंसे ध्रवस्थितिका,एक समय अधिक ध्रुवस्थितिका और दो समय अधिक ध्रुवस्थितिका बन्ध होता है, ऊपरकी स्थितियोंका नहीं । इसी प्रकार द्विचरमखण्डतक ले जाना चाहिये। पुनः अन्तिम खण्डके अध्यवसानस्थानोंसे एक समय अधिक ध्रुवस्थितिसे लेकर परिणामोंके खण्ड करनेके लिये जो भागहार कहा है तत्प्रमाण ऊपरकी स्थितियोंका बन्ध होता है ध्रुवस्थितिका नहीं क्योंकि ध्रवस्थितिके परिणामोंके साथ अन्तिम खण्डके परिणामोंकी समानता नहीं है। इसी प्रकार जानकर अनुत्कृष्ट-उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये। अर्थात् जिन परिणामोंसे जिन स्थिति खण्डोंका बन्ध हो उसका विचार कर कथन करना चाहिए। ६३१. उत्कृष्ट स्थितिके प्रथम खण्डके परिणामोंसे उत्कृष्ट स्थितिसे लेकरापरिणामखण्ढोंकेभागहार प्रमाण नीचेकी स्थितियाँ बंधती हैं। दूसरे खण्ड के परिणामोंसे एक कम परिणामखण्डोंकी शलाकाप्रमाण नोचेकी स्थितियाँ बंधती हैं। तीसरे खण्डके परिणामोंसे दो कम परिणामखण्डोंकी शलाकाप्रमाण नीचेकी स्थितियाँ बंधती हैं इस प्रकार जाकर उत्कृष्ट स्थितिके अन्तिम खण्डके परिणामोंसे एक उत्कृष्ट स्थिति ही बंधती है, क्योंकि अन्तिम खण्डके परिणामोंकी नीचेके खण्डोंके साथ अनुकृष्टि नहीं पाई जाती है। चूकि एक स्थितिके परिणाम ऊपर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिके ही बन्धके कारण होते हैं, अतः अद्धाक्षयके द्वारा खूब बढ़ाकर भी यदि भुजगार स्थितिबन्ध हो तो वह पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हो बड़ा होगा ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये। ६३२. इन स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंका जघन्य परिणामकाल एक समय और उत्कृष्ट १ मा०प्रतौ साणाणं हाणाणं इति पाठः । maarnamurn Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ मेत्तो, उकस्सेण अट्ठसमयमेतो । कुदो ? एगपरिणामप्पणादो । एगद्विदीए सम्बढिदिवंधज्झवसाणट्ठाणेसु अवठ्ठाणकालो पुण जहण्णेण एगसमयमेत्तो, उक्क० अंतोमुहुत्तं । पुणो विसमय-तिसमयादिपाओग्गेहि द्विदिबंधज्झक्साणट्ठाणेहि णिरुद्धगहिदि बंधमाणेण तद्विदि. बंधकाले समत्ते संकिलेसक्खयाभावादो तिस्से द्विदिबंधज्झवसाणहाणेहि समयुत्तरादिकमेण पलिदो० असंखे०भागमेत्तहिदिवियप्पेसु उवरि चडिद्ण बद्धेसु अद्धाक्खएण एगो भुजगारसमओ लद्धो होदि । पुणो चरिमसमए एगहिदिबंधपाओग्गद्विदिबंधज्झवसाणहाणेसु अवट्ठाणकालो समत्तो । तस्स समत्तीए संकिलेसक्खओ णाम । ३३. एवंत्रिहेण संकिलोसक्खएण उवरि समयुत्तर-दुसमयुत्तरादिकमेण जाव संखेजसागरोवममेत्तहिदीणं द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि समयाविरोहेण परिणामिय' बंधमाणस्स संकिलेसक्खएण भुजगारस्स विदियो समयो। तदिर समए कालं कादृण विग्गहगदीए पंचिदिएसुप्पण्णपढमसमए असण्णिहिदि बंधमाणस्स एइंदियस्स तदियो भुजगारसमयो । चउत्थसमए सरीरं घेत्तण अंतोकोडाकोडिद्विदि बंधमाणस्स चउत्थो भुजगारसमओ । एवं मिच्छत्तभुजगारस्स चत्तारि चेव समया । जत्थ जत्थ भुजगारो वुच्चदि तत्थ तत्थ एत्थ परूविदअत्थो परवेयव्यो। 23 अप्पदरकम्मसिनो केवचिरं कालादो होदि ? ३४. सुगममेदं। आठ समय प्रमाण है, क्योंकि यहाँ एक परिणामकी मुख्यता है। परन्तु सब स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंमें एक स्थितिका अवस्थानकाल जघन्यसे एक समय और उत्कृष्टरूपसे अन्तमुहूर्त होता है । पुनः दो समय और तीन समय आदिके योग्य स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंके द्वारा विवक्षित एक स्थितिको बांधनेवाले जीवके यद्यपि उस स्थितिबन्धका काल समाप्त हो जाता है तो भी संक्लेशका क्षय न होनेसे उस स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंके द्वारा एक समय अधिक आदिके क्रमसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविकल्पोंके ऊपर जाकर बन्ध होनेपर अद्धाक्षयसे एक भुजगारसमय प्राप्त होता है। पुनः अन्तिम समयमें एक स्थितिबन्धके योग्य स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंमें रहनेका काल समाप्त होता है। उसकी समाप्तिको संक्लेशक्षय कहते हैं। ६३३. इस प्रकारके संक्लेशक्षयके द्वारा ऊपर एक समय अधिक और दो समय अधिक आदिके क्रमसे संख्यात हजार सागरप्रमाण स्थितियोंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंको यथाविधि परणमाकर बन्ध करनेवाले जीवके संक्लेशक्षयसे भुजगारका दूसरासमय होता है। तीसरे समयमें जो एकेन्द्रिय मरकर विग्रहगतिसे पंचेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ है वह वहाँ उत्पन्न होनेके पहले समयमें असंज्ञीकी स्थितिका बन्ध करता है तब इसके तीसरा भुजगार समय होता है। तथा चोये समयमें शरीरको ग्रहण करके अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिका बन्ध करनेवाले उस जीवके चौथा भुजगार समय होता है : इस प्रकार मिथ्यात्वसम्बन्धी भुजगारके चार ही समय होते हैं। आगे जहाँ जहाँ भुजगारका कथन किया जाय वहाँ वहाँ यहाँ पर कहे गये अर्थकी प्ररूपणा करनी चाहिये । मिथ्यात्वके अल्पतरस्थितिसत्कर्मवाले जीवका कितना काल है ? ६ ३४. यह सूत्र सुगम है। आ. प्रतौ परिणमिय इति पाठः । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०२२ हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारसामित * जहणणेण एगगमत्रो । $ ३५ कुदो ? भुजगारमवद्विदं वो करेमाणेण एगसमयं संतस्स हेट्ठा ओदरिद्ग पबंधिय विदियसमए भुजगारे अवट्ठाणे वा कदे अप्पदरस्स एगसमय उवलंभादो। * उक्कस्सेण तेवहिसागरोवमसदं सादिरेयं ।। ३६ तं बहा-- एक्को तिरिक्खो मणुस्सो वा मिच्छाइट्ठी एगं हिदि बंधमाणो अच्छिदो, तिस्से द्विदीए हेट्ठा बंधमाणेण सव्वुक्कस्सो तप्पाओग्गो अंतोमुत्तमेत्तो अप्पदरकालो गमिदो। पुणो से काले द्विदिसंतकम वोलेदण बंधहिदि ति कालं जादूण तिपलिदोवमिएसु उववण्णो। पुणो तत्थ अंतोमुहत्तावसेसे जीविदव्वए ति सम्मत्तं घेत्तण पढमच्छावढि भमिय सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जिय पुणो वि सम्मत्तं घेत्तृण विदियच्छावडिं भमिय अवसाणे तप्पाओग्गपरिणामेण मिच्छत्तं गंतूण एकत्तीसागरोवमट्टिदिएसु देवेसु उववण्णो । पुणो कालं कादण मणुस्सेसुववज्जिय जाव सक्कं ताव अंतोमुहुत्तकालं संतकम्मस्स हेट्ठा बंधिय पुणो संकिलेस पूरेदण भुजगारविहत्तिओ जादो। एवं वेअंतोमुहुत्तेहि तिहि पलिदोवमेहि य सादिरेयतेवढिसागरोवसदमप्पदरस्स उकस्सकालो होदि । * अवहिदकम्मसियो केवचिरं कालादो होदि ? ३७. सुगममेदं * जहणणेण एगसमत्रो। * जघन्य काल एक समय है। $३५. क्योंकि भुजगार या अवस्थितको करनेवाला कोई एक जीव एक समयके लिये सत्कर्मसे नीचे उतरकर स्थितिका बन्ध करके पुनः दूसरे समयमें यदि भुजगार या अवस्थित विकल्पको करता है तो उसके अल्पतरका एक समय काल प्राप्त होता है। * उत्कृष्ट काल साधिक एकसौ त्रेसठ सागर है । ३६. उसका खुलासा इस प्रकार है-कोई एक तियच या मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव एक स्थितिका बन्ध करता हुआ विद्यमान है। पुनः उस स्थितिके नीचे बन्ध करते हुए उसने उसके योग्य सर्वोत्कृष्ट अन्तमुहूर्तप्रमाण अल्पतरका काल बिताया । पुनः तदनन्तर काल में स्थितिसत्कर्मो व्यतीत करके बन्ध करेगा इसलिए मरकर वह तीन पल्यकी आयुवाले जीवों में उत्पन्न हुआ। पुनः वहाँ पर जीवनमें अन्तमुहूर्त काल शेष रहने पर सम्यक्त्वको ग्रहण करके और पहले छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त किया। तथा फिर भी सम्यक्त्वको ग्रहण करके दूसरी बार छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके अन्त में मिथ्यात्वके योग्य परिणामोंसे मिथ्यात्वमें जाकर एकतीस सागरप्रमाण स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। पुनः मरकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और वहाँ यथासंभव अन्तर्मुहूर्त कालतक सत्कर्मके नीचे बन्ध करके पुनः संक्लेशको प्राप्त होकर वह भुजगारस्थितिविभक्तिवाला हो गया। इस प्रकार दो अन्तमुहूर्त और तीन पल्यसे अधिक एक सौ त्रेसठ सागर अल्पतर स्थितिविभक्तिका उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है। * मिथ्यात्वके अवस्थितस्थितिविकिवाले जीवका कितना काल है ? ६३७. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक सम Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ ६३८. कुदो ? भुजगारमप्पदरं वा कुणमाणेण एगसमयसंतसमाणद्विदीए परद्धाए अवडिदस्स एगसमयुवलंमादो * उकस्सेण अंतोमुहुत्तं । F३९. कुदो ? भुजगारमप्पदरं वा कादण संतसमाणढिदिवंधस्स उकस्सेण अंतोमुहुत्तमत्तकालुवलंभादो __ * एवं सोलसकसाय-णवणोकसायाणं । ४०. जहा मिच्छत्तस्स भुजगार-अप्पदर-अवहिदाणं परूवणा कदा तहा सोलकणवणोकसायाणं भुजगार-अष्पदर-अवविदाणं वि परूवणा कायया । एत्थतण. विसेसपरूवणमुत्तर सुत्तं भणदि । * गवरि भुजगारकम्मसिनो उक्कस्सेण एगूणवीससमया । ६ ४१. तं जहा-सत्तारससमयाहियएगावलियसेसाउएण एइंदिएण अणंताणुबंधिकोचं मोत्तूण सेसमाणादिपण्णारसपयडीसु परिवाडीए पण्णारससमयेहि अद्धाक्खएण अण्णोण्णं पेक्खिय वडिय बद्धासु पण्णारस वि पयडीओ भुजगारसंकमपाओग्गाओ जादाओ । पुणो बंधावलियमेत्तकाले अदिकंते सत्तरससमयमेत्ताउअसेसे पुवुत्तावलिय. कालम्मि पढमसमयपहुडि पण्णारससमासु वणि बद्धपण्णारसपयाडट्टिदि बंधपरिवाडीए अणंताणुवंधिकोघे संकममाणस्स पण्णारस भुजगारसमया अणंताणुबंधिकोधस्स ६३८. क्योंकि भुजगार या अल्पतरको करनेवाले किसी जीवके द्वारा एक समय तक सत्तामें स्थित स्थितिके समान स्थितिका बन्ध करने पर अवस्थितका एक समय काल पाया जाता है। * उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। ६३६. क्योंकि भुजगार या अल्पतर करके सत्तामें स्थित स्थितिके समान स्थितिके निरन्तर बँधनेका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है। * इसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायांका काल जानना चाहिये। ६४०. जिस प्रकार मिथ्यात्वके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित भंगोंका कथन किया है उसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विकल्पोंका कथन करना चाहिये । अब यहाँ पर विशेष कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं --- * इतनी विशेषता है कि भुजगारस्थितिविभक्तिवालेका उत्कृष्ट काल उन्नीस समय है। ६४१. उसका खुलासा इस प्रकार है-जिसके सत्रह समय अधिक एक आवलिप्रमाण आयु शेष है ऐसे एकेन्द्रियके द्वारा अनन्तानुबन्धी क्रोधको छोड़कर शेष मान आदि पन्द्रह प्रकृतियोंके क्रमसे पन्द्रह समयोंमें अद्धाक्षयसे एक दूसरेको देखते हुए उत्तरोत्तर स्थितिको बढ़ाकर बाँधने पर पन्द्रह ही प्रकृतियाँ भुजगारसंक्रमके योग्य हो गई। पुनः बन्धावलिप्रमाण कालके व्यतीत हो जाने पर और उस एकेन्द्रियके सत्रह समयप्रमाण आयुके शेष रहने पर पूर्वोक्त आवलिके कालके भीतर प्रथम समयसे लेकर पन्द्रह समयोंमें बढ़ाकर बाँधी हुई पन्द्रह प्रकृतियोंकी स्थितिको जिस क्रमसे बन्ध हुआ था उसी क्रमसे अनन्तानुबन्धी क्रोधमें संक्रमण करनेवाले जीवके अनन्तानुबन्धी क्रोधके पन्द्रह भुजगार समय प्राप्त होते हैं। पुनः सोलहवें समयमें अद्धाक्षयसे अनन्तानुबन्धी क्रोधको ता. प्रतौ-बंधिकोधं इति पाठः Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारसामित्तं बद्धा। पुणो सोलससमयम्मि अद्धाक्खएण अणांताणुवंधिकोघेण वड्डिद्ग बद्धे सोलस भुजगारसमया । पुणो सत्तारससमए संकिलेसक्खएण अणंताणुबंधिकोघेण सह सन्चेसिं कसायाणं वविदण बद्धे सत्तारस भुजगारसमया । पुणो कालं कादू ण एगविग्गहेण सण्णीसुप्पण्णपढमसमए असण्णिहिदि बंधमाणस्स अट्ठारस भुजगारसमया । पुणो सरोरं घेत्तण सण्णि हिदि बंधमाणस्स एगूणवीस भुजगारसमय। १३ । जहा अणंताणुबंधिकोषस्स उक्कस्सेण एगूणवीससमयाणं परूवणा कदा तहा माणादीणं पण्णारसहं पयडीणं पत्तेयं पत्तेयं परिवाडीए परूवणा कायब्बा। ४२ णवणोकसायाणं पि एवं चेव वत्तव्यं । णवरि सत्तारससमयाहियआवलिया. वसेसे आउए आवलियपढमसमयप्प हुडि कोधादिसोलसकसायाण परिवाडीए अद्धाक्चएण सोलससमयमेत्तकाल वडिदूण बधिर पुणो सत्तारससमए संकिलेसक्खएण सबार्सि चेव सोलरूपयडीणं भुजगारं कादण पुणो बंधावलियादिकंतकसायट्ठिदिं णवणोकसायाणवरि बंधपरिवाडीए संकममाणस्स णोकसायाण सत्तारस भुजगारसमया । पुणो एगविगहेण सण्णीसुप्पण्णपढमसमर अलग्णिहिदि बंधमाणस्स अट्ठारस भुजगारसमया । पणो सरोरगहिदपढमसमए सणिहिदि बंधमाणस्त एगूणवीस भुजगारसमया । जहा एइंदिधमस्सिदण भुजगारस्स एगूणवीससमयाणं परूषणा कदा तहा विगलिंदियजीवे वि अस्सिदण कायब्बा। बढ़ाकर बाँधने पर सोलह भुजगार समय होते हैं। पुनः सत्रहवें समयमें संक्लेशक्षयसे अनन्तानुबन्धी क्रोधके साथ सब कर्षायोंको बढ़ाकर बाँधनेपर सत्रह भुजगारसमय होते हैं। पुनः मरकर एक मोड़ाके द्वारा संज्ञियोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें असंज्ञियोंकी स्थितिको बाँधनेवाले उस जीवके अठारह भुजगार समय होते हैं । पुनः शरीरको ग्रहण करके संज्ञीके योग्य स्थितिको बाँधनेवाले उस जीवके उन्नीस भुजगार समय होते हैं १९ । मूलमें जिस प्रकार अनन्तानुबन्धी क्रोधके उत्कृष्टरूपसे उन्नीस भुजगार समयोंका कथन किया है उसीप्रकार मानोदिक पन्द्रह प्रकृतियोंके १९ भुजगार समयोंका क्रमसे अलग अलग कथन कर लेना चाहिये ।। ४२. नौ नोकषायोंका भी इसीप्रकार कथन करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि जिस एकेन्द्रिय जीवके आयुमें सत्रह समय अधिक एक आवलिप्रमाण काल शेष रहे उसके आवलिके प्रथम समयसे लेकर क्रोधादि सोलह कषायोंका क्रमसे अद्धाक्षयके द्वारा सोलह समय तक स्थिति बढाकर बन्ध करावे । पुनः आवलिके सत्रहवें समयमें संक्लेशक्षयसे सभी सोलह प्रकृतियोंकी भुजगार स्थितिका बन्ध करावे । पुनः बन्धावलिके व्यतीत हो जाने पर बन्धक्रमसे उन कषायोंकी स्थितियोंका नौ नोकषायोंमें संक्रमण करावे । इस प्रकार संक्रमण करनेवाले जीवके नौ नोकषायोंके सत्रह भुजगार समय प्राप्त होते हैं। पुनः एक मोड़ेके द्वारा संज्ञियोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें असंज्ञियोंकी स्थितिको बाँधनेवाले उस पूर्वचर एकेन्द्रिय जीवके अठारह भुजगार समय होते हैं। पुनः शरीर ग्रहण करनेके प्रथम समयमें संज्ञीके योग्य स्थितिको बाँधनेवाले उस जीवके उन्नीस भुजगार समय होते हैं। यहाँ जिस प्रकार एकेन्द्रियोंका आश्रय लेकर भुजगार स्थितिविभक्तिके उन्नीस समयोंका कथन किया है उसी प्रकार विकलेन्द्रिय जीवोंका आश्रय लेकर भी कथन करना चाहिये। भा०प्रतौ सम्वेसि कम्माणं बट्टिदूण इति पाठ :। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे हिदिविहत्ती ३ ४३. इस्थि-पुरिस-हस्स-रदीणमवहिदकालो कथमुक्करण अंतोमुहुत्तमेत्तो ? ण, कसायाणमंतोकोडाकोडिसागरोवममेहिदिमवाद्विदसरूवेण अंतोमुहुत्तं कालं वंधिय बंधावलियादिकंतकसायटिदिं पुव्वुत्तचदुण्हं पयडीणमुबरि अंतोषुहुत्तं संकामिदे इत्थि-परिसहस्स-रदीणमट्टिदस्स अंतोमुहुत्तमेत्तकालुकलंमादो । एमो अवविदकालो कत्थ गहिदो ? सण्णीसु । कुदो ? तत्थ इत्थि-परिस हस्स-रदोणं बंधगद्धाए बढ़त्तवलंभादो। बारसकसाय विशेषार्थ- यहाँ सोलह कषायोंकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्ट काल १९ समय बतलाया है। इसके लिये दो पर्यायोंका ग्रहण किया है, क्योंकि एक पर्यायकी अपेक्षा १९ भुजगार समय नहीं प्राप्त होते । ऐसा नियम है कि सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका परस्परमें संक्रमण होता है। इसके लिये यह व्यवस्था है कि जिस समय जिस प्रकृतिका बन्ध होता है उसमें अन्य सजातीय प्रकृतिका संक्रमण होता है। चूंकि यहाँ अनन्तानुबन्धी क्रोधकी भुजगार स्थितिके उत्कृष्ट कालको प्राप्त करना है अतः ऐसा एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय जीव लो जिसकी वर्तमान आयु एक आवलि और सत्रह समय शेष रही हो उसने पन्द्रह समयोंमें अनन्तानुबन्धी क्रोधको छोड़कर शेष पन्द्रह कषायोंकी स्थिति उत्तरोत्तर बढ़ा बढ़ाकर बाँधी । पहले समयमें अनन्तानुवन्धी मानकी स्थितिको सत्तामें स्थित स्थितिसे बढ़ाकर बाँधा । दूसरे समयमें अनन्तानुबन्धी मायाकी स्थितिकोअनन्तानुबन्धी मानकी स्थितिसे बढ़ाकर बाँधा इत्यादि । तदनन्तर एक आवलि कालके व्यतीत हो जाने पर उसी क्रमसे इनका अनन्तानुबन्धी क्रोधमें संक्रमण किया। इस प्रकार भुजगारके पन्द्रह समय तो ये प्राप्त हुए । अब रहे चार समय सो सोलहवें समयमें अद्धाक्षयसे उसने अनन्तानुबन्धी क्रोधकी स्थितिको बढ़ाकर बाँध।। सत्रहवें समयमें संक्लेशक्षयसे अनन्तानुबन्धी क्रोधके साथ सब कषायोंकी स्थितिको बढ़ाकर बाँधा । इस प्रकार भुजगारके सत्रह समय तो एकेन्द्रिय या विकलत्रयके प्राप्त हुए । अब यह जीव मरकर एक विग्रहसे संज्ञी पंचेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ, इसलिये उसने विग्रहकी अवस्थामें असंज्ञीके योग्य स्थितिको बढ़ कर बाँधा और दूसरे समयमें शरीर ग्रहण कर लेनेसे संज्ञी पञ्चन्द्रियके योग्य स्थितिको बढ़ाकर बाँधा । इस प्रकार भुजगार के १९ समय प्राप्त हुए। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदिके और नौ नोकभायोंके १६ भुजगार समय प्राप्त होते हैं। किन्तु नौ नोकषायोंके सम्बन्धमें इतनी विशेषता है कि सोलह कषायोंका अद्धाक्षयसे उत्तरोत्तर बढ़ाकर बन्ध करावे । तदनन्तर सत्रहवें समयमें संक्लेशक्षयसे स्थिति बढ़ाकर बन्ध करावे । पुनः एक आलि हो जानेपर इनका नौ पायोंमें सत्रह समयके द्वारा संक्रमण करावे। तदनन्तर इस जीवको संज्ञियोंमें उत्पन्न कराकर पर्वोक्त प्रकारसे दो भुजगार समय और प्राप्त करे । इस प्रकार नौ नोकषायोंके १६ भुजगार समय प्राप्त होते हैं। ६४३. शंका--स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिका अवस्थित काल उत्कृष्ट रूपसे अन्तमुहूर्त कैसे प्राप्त होता है ? समाधान--नहीं, क्योंकि जब कोई जीव कषायोंकी अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिको अवस्थितरूपसे अन्तर्मुहूर्त कालतक बाँधकर पुनः बन्धावलिके व्यतीत होने पर उस स्थितिका पूर्वोक्त चार प्रकृतियोंमें अन्तर्मुहूर्त कालतक संक्रमण करता है तब उस जीवके स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिकी अवस्थितस्थितिविभक्तिका अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है । शंका--यह अवस्थित काल कहाँ पर ग्रहण किया गया है ? समाधान--संज्ञियोंमें। शंका-यह अवस्थित काल संज्ञियोंमें ही क्यों ग्रहण किया गया है ? Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारसामित्तं २३ णवणोकसायाणमुव समसेढिम्हि अंतरकरणं काऊण सव्वोवसमे कदे अवट्ठिदकालो अंतोमुत्तमेत्तो लब्भदि विदियट्टिदीए डिदणिसेगाणमवट्ठिदाए गलणाभवादो सो किण्ण दि १ ण, घडियाजलं व कम्मक्खंधडिदिसमएस पडिसमयं गलमासु कम्महिदीए मावविरोहादो । णिसेगेहि अविट्ठदत्तं जडवसहाइरियो णेच्छदित्ति कुदो णव्व ? ? सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमवट्ठिदस्स अंतोमृत्तं मोत्तूण उकस्टेण एगसमयपरूवणादो * अणंताणुबंधिचउक्कस्स अवत्तव्यं जहरणुक्कस्से एगसमो । समाधान —— क्योंकि वहाँपर स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिका बन्धकाल बहुत पाया जाता है । शंका . उपशमश्रेणी में अन्तरकरण करके सर्वोपशम कर लेनेपर बारह कषाय और नौ नोकषायोंका अवस्थितकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि वहाँपर द्वितीय स्थितिमें स्थित निषेक अवस्थित रहते हैं उनका गलन नहीं होता है, अतः इस अवस्थित कालका ग्रहण क्यों नहीं किया गया है ? समाधान — नहीं, क्योंकि वहाँपर घटिकायन्त्रके जलके समान कर्मस्कन्धकी स्थिति के समय प्रत्येक समय में गलते रहते हैं, अतः वहाँपर कर्मस्थितिका अवस्थितपना माननेमें विरोध आता है । शंका- यतिवृषभ आचार्यने निषेकोंकी अपेक्षा अवस्थितपनेको स्वीकार नहीं किया है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान -- चूँकि यतिवृषभ आचार्यने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिका उत्कृष्ट अवस्थितकाल अन्तर्मुहूर्त न कहकर एक समय कहा है। इससे मालूम पड़ता है कि यतिवृषभ आचार्यको निषेकों की अपेक्षा अवस्थितकाल इष्ट नहीं है । विशेषार्थ -- बात यह है कि जब कोई जीव बारह कषाय और नौ नोकषायों का उपशम कर लेता है तब उसके उक्त प्रकृतियोंके सब निषेक अन्तर्मुहूर्त कालतक अवस्थित रहते हैं उनमें उत्कर्षषण, आदि कुछ भी नहीं होता । इसपर शंकाकार कहता है कि अवस्थित विभक्तिका यह काल क्यों नहीं लिया जाता है । इसका जो समाधान किया गया है उसका भाव यह है कि यद्यपि उक्त प्रकृतियोंके निषेक अन्तर्मुहूर्त कालतक अवस्थित रहते हैं यह ठीक है फिर भी जिस प्रकार घटिकायन्त्रका जल एक एक बूँदरूपसे प्रति समय घटता जाता है उसी प्रकार उनकी स्थिति भी प्रति समय एक एक समय घटती जाती है, क्योंकि अन्तरकरण करनेके समय उनकी जितनी स्थिति रहती है अन्तरकरण की समाप्ति के समय वह अन्तर्मुहूर्त कम हो जाती है, अतः उपशमश्रेणिमें अवस्थित विभक्ति नहीं प्राप्त होती । इसपर फिर शंकाकार कहता है कि स्थिति भले ही घटती जाओ पर निषेक तो एक समान बने रहते हैं, अतः निषेकोंकी अपेक्षा यहाँ अवस्थितविभक्ति बन जायगी । इसका वीरसेन स्वामीने जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि यतिवृषभ आचार्यने निषेकोंकी अपेक्षा अवस्थितविभक्तिको नहीं स्वीकार किया है। इसका प्रमाण यह है कि यदि उन्होंने निषेककी अपेक्षा अवस्थितपनेको स्वीकार किया होता तो वे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिके उत्कृष्ट अवस्थितकालको एक समयप्रमाण न कहकर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहते, क्योंकि एक अन्तर्मुहूर्त कालतक उनका भी उपशमभाव देखा जाता है । * अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ minara ---mirmirror-~ -warniver जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ४४. कुदो ? अणंताणु०चउक्कं णिस्संतीकयसम्माइट्ठिणा मिच्छत्ते सासणसम्मत्ते वा पडिवण्णे तस्स पढमसमए चेव अणंताणु०चउकस्स हिदिसंतुप्पत्तीदो। कुदो असंतस्स अणंताणु०चउक्करण उप्पत्ती ? ण, मिच्छत्तोदरण कम्मइयवग्गणक्खंघाणमणंताणु० च उक्कसरूवेण परिणमणं पडि विरोहाभावादो सासणे कुदो तेसिं संतुप्पत्ती ? सासणपरिणामादो । को सासणपरिणामो ? सम्मत्तस्स अमावो तचत्थेसु असद्दहणं । सो केण जणिदो ? अणंताणुबंधीणमुदएण। अणंताणुबंधीणमुदओ कुदो जायदे । परिणामपच्चएण। * सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार-अवहिद-अवत्तव्वकम्मसियो केवचिरं कालादो होदि ? ६४५. सुगर्म । * जहण्णुकस्सेण एगसमत्रो। ४६. तं जहा-पुन्वुप्पण्णसम्मत्तसंतकम्ममिच्छाइटिणा सम्मत्तसंतकम्मस्सुवरि दुसमयुत्तरादिमिच्छत्तहिदि बंधिय गहिदसम्मत्तस्स पढमसमए भुजगारो होदि । समयुत्तर ६४४. क्योंकि जिस सम्यग्दृष्टि जीवने अनन्तानुबन्धी चतुष्कको निःसत्त्व कर दिया है वह जब मिथ्यात्व या सासादनसम्यक्त्वको प्राप्त होता है तब मिथ्यात्व या सासादनके प्रथम समयमें ही अनन्तानुबन्धी चतुष्कका स्थितिसत्त्व पाया जाता है। शंका--असद्रूप अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी मिथ्यात्वमें उत्पत्ति कैसे हो जाती है ? समाधान--नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वके उदयसे कामणवर्गणास्कन्धोंके अनन्तानुबन्धी चतुष्करूपसे परिणमन करने में कोई विरोध नहीं आता है। शंका--सासादनमें उनकी सत्तारूपसे उत्पत्ति कैसे हो जाती है ? समाधान--सासादनरूप परिणामोंसे । शंका-सासादनरूप परिणाम किसे कहते हैं ? समाधान-तत्त्वार्थों में अश्रद्धानलक्षण सम्यक्त्वके अभावको सासादन रूप परिणाम कहते हैं। शंका-वह सासादनरूप परिणाम किस कारणसे उत्पन्न होता है ? समाधान-अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उदयसे होता है। शंका--अनन्तानुबन्धीचतुष्कका उदय किस कारण से होता है ? समाधान-परिणामविशेषके कारण अनन्तानुबन्धीचतुष्कका उदय होता है। * सम्यक्त्व और सम्याग्मिथ्यात्वके भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाशे जीवका कितना काल है ? ६४५. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। ६ ४६. उसका खुलासा इस प्रकार है-जिसने पहले सम्यक्त्वसत्कर्मको उत्पन्न कर लिया है ऐसा कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव जब सम्यक्त्वसत्कर्मके ऊपर दो समय अधिक इत्यादिरूपसे मिथ्यात्वकी स्थितिको बाँधकर सम्यक्त्वको ग्रहण करता है तब उसके सम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समय में सम्यत्वकी भुजगारस्थितिविभक्ति होती है। तथा एक समय अधिक Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारकालो मिच्छत्तहिदि वंधिय गहिदसम्मत्तस्स पढमसमए अवट्ठिदविहत्तीए कालो एगसमओ होदि, विदियसमए अप्पदरविहत्तीए समुप्पत्तीदो। उवसमसम्मत्तद्धाए दसणतियहिदीए णिसेगाणं विदियविदीए अवडिदाणं गलणाभावादो अवविदकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो लब्भइ, सो किण्ण गहिदो ? ण, तिन्हं कम्माणं कम्मढिदिसमएसु अणुसमयं गलमाणेसु हिदीए अवट्ठाणविरोहादो। ण णिसेगाणं डिदित्तमस्थि, दव्वस्स पज्जयभावविरोहादो । णिस्संतकम्मिएण मिच्छाइटिणा सम्मत्ते गहिदे एगसमयमवत्तव्वं होदि, पुव्वमविज्जमाणसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तहिदिसंताणमेहि समुप्पत्तीदो । तस्स कालोएगसमओ चेव, विदियसमए अप्पदरसमुप्पत्तोदो। * अप्पदरकम्मंसिओ केवचिरं कालादो होदि ? ६४७. सुगमं । ॐ जहरणेण अंतोमुहत्तं । ६४८. कुदो ? णिस्संतकम्मिएण मिच्छाइटिणा पढमसम्मत्तं घेत्तूण पढमसमए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमवत्तव्वं कादण विदियसमए अप्पदरं करिय सधजहणतोमिथ्यात्वकी स्थितिको बाँधकर जिसने सम्यक्त्वको ग्रहण किया है उसके सम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समयमें सम्यक्त्वकी अवस्थितविभक्तिका काल एक समय प्राप्त होता है, क्योंकि दूसरे समयमें अल्पतरविभक्ति उत्पन्न हो जाती है। शंका-उपशमसम्यक्त्वके कालमें तीन दर्शनमोहनीयकी स्थितिके निषेक द्वितीय स्थितिमें अवस्थित रहते हैं, अतः उनका गलन नहीं होनेके कारण अवस्थितकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्राप्त होता है, उसे यहाँ क्यों नहीं ग्रहण किया ? समाधान-नहीं, क्योंकि वहाँपर तीनों कोंकी कर्मस्थितिके समयोंके प्रत्येक समयमें गलते रहनेपर स्थितिका अवस्थान माननेमें विरोध आता है। यदि कहा जाय कि निषेकोंको स्थितिपना प्राप्त हो जायगा सो भो बात नहीं है, क्योंकि द्रव्यको पर्यायरूप मानने में विरोध आता है । अर्थात् निषेक द्रव्य हैं और उनका एक समयतक कर्मरूप रहना आदि पर्याय है । चूँकि द्रव्यसे पर्याय कथाश्चित् भिन्न है, अतः पर्यायके विचारमें द्रव्यको स्थान नहीं । जिसके सम्यक्त्वकर्मकी सत्ता नहीं है मिथ्यादृष्टि जीव जब सम्यक्त्वको ग्रहण करता है तब उसके सम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समयमें एक समयतक अवक्तव्य स्थितिविभक्ति होती है, क्योंकि पहले अविद्यमान सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके स्थितिसत्त्वकी इनके उत्पत्ति देखी जाती है। इस अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका काल एक समय ही है, क्योंकि दूसरे समयमें अल्पतर स्थितिविभक्ति उत्पन्न हो जाती है। * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर स्थितिविभक्तिसत्कर्मवाले जीवका कितना काल है ? ६ ४७. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल अन्तर्मुहृत है। ६४८. क्योंकि जिसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व नहीं है ऐसा मिथ्यादृष्टि जीव जब प्रथमोपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करता है तब उसके सम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्य स्थितिविभक्ति होती है। तथा दूसरे समयसे अल्पतर स्थितिविभक्तिको प्रारम्भ करके अति लघु अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा वह यदि दर्शमोहनीयका क्षय कर Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे मुहुरोण दंसणमोहणीए खविदे अप्पदरकालो जह० अंतोमुहुत्तं होदि' । * उक्कस्सेण वे छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ६ ४६, तं जहा -- णिस्संतकम्मियमिच्छादिट्टिणा सम्मत्ते गहिदे उवसमसम्मत्तद्धा समयूणमेत्ता अप्पदरकालो होदि । पुणो वेद्गसम्मतं घेत्तृण तेण सम्मत्तेण पढमखावडिं गमिथ पुणो सम्मामिच्छतं पडिवज्जिय तत्थ अंतोमुडुत्तमच्छिय वेदगसम्मतमुवणमिय तेण सम्मत्तेण विदिषछावहिं गमिय पुणो मिच्छत्तं गंतूण पलिदो ० असंखे० भागमे तेण सब्बुकस्सुव्वेरलणकालेण सम्मत्त सम्मामिच्छत्तेसु उव्वेलिदेसु वेछावट्टिसागरोवमाणि पलिदो० असंखे० भागेण सादिरेयाणि सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सप्पदरकालो | एवं जवसहाइरियमुत्तमस्सिदृण ओघपरूवणं करिय संपहि उच्चारणमस्सिदुण भुजगारकालपरूवणं कस्सामी । ५०. कालानुगमेण दुविहो णिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत ० केवचिरं कालादो होदि १ जह० एगसमओ, उक्क ० चत्तारि समया । अप्पदर ० के ० १ जह० एगसमओ, उक्क० तेवट्टिसागरोवमसदं सादिरेयं । अवट्टि० केवचि ० १ जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुडुतं । सोलसक०-णवणोक० भुज० जह० एगसमओ, उक्क० एगुणवीस समया । अप्पदर अवट्ठिदाणं मिच्छत्तभंगो | अनंताणु०चउक्क० अवत्तव्व० जहण्णुक्क० एगसमय | सम्मत्त सम्मामि० भुज० - अवट्टि ० -अवत्तव्त्र • जहण्णुक० एगओ । अप्पद ० देता है तो उसके अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । * उत्कृष्ट काल साधिक दो छ्यासठ सागर है । $ ४९. उसका खुलासा इस प्रकार है - जिसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व कर्मका सम्व नहीं है ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यक्त्व के ग्रहण करनेपर एक समयक्रम उपशम सम्यक्त्वका काल अल्पतरकाल होता है । पुनः वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करके और उस सम्यक्त्वके साथ प्रथम छयासठ सागर काल बिताकर तदनन्तर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और वहाँ अन्तर्मुहूर्त कालतक रहकर पुनः वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके और उसके साथ द्वितीय छयासठ सागर काल बिताकर पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त करके जब वह पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण सर्वोत्कृष्ट उद्वेलनाकालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर देता है तब उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका पल्योपमके असंख्यातवें भाग से अधिक दो छयासठ सागर प्रमाण अल्पतर काल होता है । ५०. इस प्रकार यतिवृषभ आचार्य के सूत्र के आश्रयसे ओघका कथन करके अब उच्चारणाके आश्रयसे भुजगारकालका कथन करते हैं - कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश | उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल चार समय है । अल्पतर स्थितिविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल साधिक एकसौ त्रेसठ सागर है । अवस्थित स्थितिविभक्ति का कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । सोलह कषाय और नौ नोकषायों की भुजगारस्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एकसमय और उत्कृष्टकाल उन्नीस समय है । अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका भंग मिथ्यात्व के समान है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की भुजगार, १ ता० प्रतौ- मुहुत्तो होदि इति पाठः । [ द्विदिविहत्ती ३ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] द्विदिविहत्ती उत्तरपयडिभुजगार कालो जह० तो ०, उक्क० वेछावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । एवं तस-तसवज्ज०अचक्खु०- मवसिद्धिया ति । णवरि तस तसपज्ज० सम्म सम्मामि० अप्पद० जह० ऐगसमओ । ० ५१. आदेसेण रइएस मिच्छत्तस्स भुज० के ० १ जह० एगसमओ, उक्क० तिण्णि समया । तं जहा - असण्णिपंचिंदियस्स दोविग्गहं काढूण पणेरहएस उववण्णस्स विदियसमर्थ अद्धावखरण एगो भुजगारसमओ । तदियसमए तडिदिपरिणामेहि चैव सणिहिदि बंघमाणस्स विदिओ भुजगारसमओ । संकिलेसक्खएण विणा तदियसमए कधं सण्णिहिदि बंधदि ? ण, संकिलेसेण विणा सणिपंचिंदियजादिमस्सिदृण द्विदिबंधवड्डीए उवभादो | उत्थसमए संकिलेसक्खरण तदिओ भुजगारसमओ । एवं मिच्छत्तभुजगारस्स तिण्णि समया परूविदा | अहवा अद्धाक्खरण संकिलेसक्खएण च वड्डिण बंधमाणस्स वे समया । एस पाढो एत्थ पहाणभावेण घेत्तव्वो । अप्पदर० जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीससागरो० देसूणाणि । अवद्विद० ओघं । बारसक० णवणोक० भुज० ज० एगसमओ, उक्क० सत्तारस समया । अट्ठारससमयमेतभुजगारकालो किमेत्थ गोवलब्भदे ? २७ अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तियोंका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल साधिक एकसौ बत्तीस सागर है । इसी प्रकार स, स पर्याप्त, अचक्षुदर्शनवाले और भव्य जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि स और स पर्याप्तकों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय है । विशेषार्थं - यद्यपि ओघसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरस्थितिविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्तसे कम प्राप्त नहीं होता तो भी त्रस और त्रसपर्याप्त जीवोंके वह एक समय न जाता है, क्योंकि जिसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनामें एक समय शेष रह गवा है उसके स और सपर्याप्तकों में उत्पन्न होनेपर वहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिका जघन्य काल एक समय देखा जाता है । ५१. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्वकी भुजगारस्थितिविभक्तिका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन समय है । उत्कृष्टकाल तीन समय इस प्रकार है - जो असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव दो मोड़े लेकर नारकियों में उत्पन्न हुआ है उसके दूसरे समयमें अद्धाक्षयसे एक भुजगार समय होता है। तीसरे समय में स्थितिके उसी परिणामसे ही संज्ञीकी स्थितिको बाँधते हुए उसके दूसरा भुजगार समय होता है । शंका -- संक्लेशक्षयके बिना तीसरे समयमें वह जीव संज्ञीको स्थितिको कैसे बाँधता है ? समाधान – क्योंकि संक्लेशके बिना संज्ञी पंचेन्द्रिय जातिके निमित्तसे उसके स्थितिबन्धमें वृद्धि पाई जाती है । तथा चौथे समय में संक्लेशक्षयसे उसके तीसरा भुजगार समय होता है । इस प्रकार नारकियोंके मिथ्यात्वकी भुजगारस्थितिके तीन समयोंका कथन किया। अथवा अद्धाक्षय और संक्लेश से स्थिति बढ़ाकर बाँधनेवाले नारकी के दो भुजगार समय होते हैं । यह पाठ यहाँपर प्रधानरूपसे लेना चाहिये । अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीससागर है । अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है । बारह कषाय और कषायी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल सत्रह समय है । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ जयधवलासहिदोंकसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ण, अट्ठारसमस्स भुजगारसमयस्स विचारिज्जमाणसाणुवलंभादो। अप्पदर०अवविद० मिच्छत्तभंगो। भणंताणु० चउक० एवं चेव । णवरि अवत्तव्व० ओघं। सम्मत्त०-सम्मामि० अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरो०देसूणाणि। सेसमोघं ५२. पढमढवि० एवं चेव । णवरि सव्वेसिमप्पद० जह० एगसममो, उक्क० सगढिदो देसूणा । विदियादि जाव सत्तमि ति मिच्छत्त० भुज० ज० एगस०, उक्क. वे समया । अप्प० ज० एगस०, उक्क० सगसगहिदी देसूणा । अवढि० भोघं । बारसक० शंका-यहाँपर अठारह समयप्रमाण भुजगारकाल क्यों नहीं प्राप्त होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि अठारहवाँ भुजगार समय विचार करनेपर बनता नहीं, अतः यहाँ उसे स्वीकार नहीं किया है। - बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका भंग मिथ्यात्वके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका कथन इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिविभक्ति ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। शेष कथन ओघके समान है। विशेषार्थ-सामान्यसे नारकियोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्ट काल तीन या दो समय घटित करके बतलाया है। साथ ही यह सूचना भी की है कि यहाँ दो समयवाला पाठ प्रधान है। मालूम होता है कि यह सूचना बहुलताकी अपेक्षासे की है । एक तो असंज्ञी जीव नरकमें कम उत्पन्न होते हैं। उसमें भी पहले नरकमें ही उत्पन्न होते हैं। फिर भी सर्वत्र भुजगार स्थितिके तीन समय प्राप्त होना शक्य नहीं है । हाँ दो समय सातों नरकोंमें प्राप्त होते हैं। यही कारण है कि वीरसेन स्वामीने दो समयवाली मान्यताको मुख्यता दी। तथा नरकमें वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, अतः इस अपेक्षासे वहाँ मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्ट काल कुल कम तेतीस सागर प्राप्त होता है। इसी प्रकार अन्य प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्ट काल जानना चाहिये। तथा किसी भी विवक्षित कषाय और नोकषायकी भुजगार स्थितिके नरकमें सत्रह समय ही बनते हैं, क्योंकि संक्रमणकी अपेक्षा पन्द्रह, अद्धाक्षयकी अपेक्षा एक और संक्लेशक्षयकी अपेक्षा एक इस प्रकार एक भवकी अपेक्षा भुजगार के कुल सत्रह समय ही प्राप्त होते हैं। सामान्यसे जो भुजगारके उन्नीस समय बतलाये हैं वे दो पर्यायोंकी अपेक्षा घटित किये गये हैं । पर यहाँ केवल एक नरक पर्याय ही विवक्षित है, अतः सत्रह समयसे अधिक नहीं बनते । यही कारण है कि वीरसेन स्वामीने नरकमें भुजगारके अठारहवें समयका भी निषेध कर दिया है। किन्तु नौ नोकषायोंके सत्रह समय घटित करनेमें जो विशेषता ओघप्ररूपणामें बतला आये हैं वह यहाँ भी जान लेनी चाहिये। ६५२. पहली पृथिवीमें इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ सभी प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। _दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल दो समय है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थिति Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] ट्टिदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारकालो णवणोक. भुज० ज० एगस०, उक्क० सत्तारस समया। सेस० मिच्छत्तभंगो । अणंताणु० चउक्क० एवं चेक । णवरि अवत्त० ओघ । सम्मत्त-सम्मामि० अप्प० ज० एगस०, उक्क० सगद्विदी देसूणा । सेस० अोपं ।। .६५३. तिरिक्ख० मिच्छत्त० भुज० ओघं । अप्प० ज० एगस०, उक० तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि । अवढि० ओघं । बारसक०-णवणोक० अणंताणु०चउक्क० अप० मिच्छत्तभंगो। सेस० ओघं । सम्मत्त-सम्मामि० अप्पद० ज०ए गस०, उक० तिणिपलि० देसू० । सेसमोघं । ५४. पंचिंदियतिरि०-पंचि०तिरिक्खपज्ज०-पंचिंतिरि०जोणिणीसु मिच्छत्त-सोलविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल सत्रह समय है। तथा शेष अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका भंग मिथ्यात्वके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका कथन इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यस्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा शेष स्थितिविभक्तियोंका काल ओघके समान है। विशेषार्थ—सामान्यसे नारकियोंके सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्ट काल यद्यपि कुछ कम तेतीस सागर बतला आये हैं पर प्रथमादि नरकोंमें वह कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण ही प्राप्त होता है, क्योंकि जिस नरककी जितनी उत्कृष्ट स्थिति होगी उससे कुछ कम काल तक ही उस नरकका नारकी अल्पतर स्थिति के साथ रह सकता है । तथा सामान्यसे नारकियों के मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिका जो उत्कृष्ट काल तीन समय या दो समय बतलाया है वह पहले नरकमें तो अविकल बन जाता है। किन्तु द्वितीयादि नरकोंमें असंज्ञी जीव मरकर न होता है, अतः वहाँ तीन समयवाला विकल्प नहीं बनता है। शेष कथन सगम है। ६५३. तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्वकी भजगार स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल साधिक तीन पल्य है। तथा अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। बाहर कषाय, नौ नोकपाय और अनन्तानुबन्धो चतुष्ककी अल्पतर स्थितिविभक्तिका भंग मिथ्यात्वके समान है। तथा शेष स्थितिविभक्तियोंका काल ओषके समान है सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम तीन पल्य है । तथा शेष स्थितिविभक्तियोंका काल ओघके समान है। विशेषार्थ-तिर्यंचोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय बन जाता है, इसलिये इसे ओघके समान कहा । तथा अल्पतर स्थितिका जो साधिक तीन पल्य कहा है उसका कारण यह है कि भोगभमिमें तो तियचोंके मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थिति ही होती है इसलिये अल्पतर स्थितिके तीन पल्य तो ये हुये तथा इसमें पूर्व पर्यायका अन्तर्मुहूर्त और सम्मिलित कर देना चाहिये । इस प्रकार अल्पतर स्थितिका साधिक तीन पल्य प्राप्त हो जाता है । तथा यहाँ सम्यक्त्व और सम्याग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिका जो उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है सो यह, जिसने उत्तम भोगभूमि के तियेचमें उत्पन्न होकर अतिशीघ्र वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर लिया है और अन्ततक वेदकसम्यक्त्वके साथ रहा, उसकी अपेक्षा कहा है, क्योंकि इसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति उत्तरोत्तर अल्प अल्प होती जाती है । शेष कथन सुगम है। ... ६५४. पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रियतिथंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिमती जीवमें Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कासयपाहुडे [ट्ठिदिविहत्ती ३ सक०-णवणोक. भुज० ज० एगस०, उक० तिण्णि समया अट्ठारस समया । सेसं तिरिक्खोघं । णवरि पंचिं०तिरि०पज्ज. इत्थिवेद० भुजगार० जह• एगस०, उक्क० सत्तारस समया । जोणिणि पुरिस०णवूस० मुज० ज० एगस०, उक० सचारस समया । ६५५. पंचिंतिरि०अपज्ज० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क. अंतोप्नु० । सेसं पंचिंतिरिक्खभंगो। णवरि इस्थि-पुरिस० ज० एयस०, उक्क० सचारस समया। सम्मत्त-सम्मामि० अप्प० ज० एगस०, उक्क० अंतो. मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल मिथ्यात्वकी अपेक्षा तीन समय और शेषकी अपेक्षा अठारह समय है। तथा शेष कथन सामान्य तिर्यचोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेदकी भजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल सत्रह समय है। तथा योनिमती तियचोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल सत्रह समय है। विशेषार्थ-जिस प्रकार नारकियोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्ट काल तीन समय घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ उक्त तोन प्रकारसे तियचोंके भी घटित कर लेना चाहिये । तथा उक्त तीन प्रकारके तियचोंमें सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्ट काल अठारह समय प्राप्त होता है। जिसका खुलासा इस प्रकार है उक्त तीनों प्रकारके तिर्यंच असंज्ञी भी होते हैं और संज्ञी भी। अब ऐसा असंज्ञी जीव लो जिसकी आयुमें एक आवलि और सोलह समय शेष है । तब उसने विवक्षित कषायको छोड़कर शेष पन्द्रह कषायोंकी उत्तरोत्तर भुजगार स्थितिका पन्द्रह समयमें बन्ध किया। पश्चात् एक आवलिके बाद जब आयुमें सोलह समय शेष रहे तब उसने उन भुजगार स्थितियोंका पन्द्रह समयके द्वारा विवक्षित कषायमें संक्रमण किया। अनन्तर सोलहवें समयमें उसने अद्धाक्षयसे भुजगार स्थितिको बाँधा और सत्रहवें समयमें ऋजुगतिसे संज्ञियोंमें उत्पन्न होकर संज्ञियोंके योग्य स्थितिका बन्ध किया। पश्चात् अठारहवें समयमें संक्लेशक्षयसे भुजगार स्थितिको बाँधा । इस प्रकार यहाँ भुजगार स्थितिके कुल अठारह समय प्राप्त होते हैं। किन्तु तिथंच पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके स्त्रीवेदकी और योनिमती तियचके पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी भुजगार स्थितिके सत्रह समय ही प्राप्त होते हैं जिसका उल्लेख मूलमें किया ही है। बात यह है कि जो जिस वेदके साथ उत्पन्न होता है उसके पूर्व पर्यायके अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में वह वेद ही बंधता है, अतः योनिमती तियचमें उत्पन्न होनेवाले जीवके पर्व पर्यायके अन्तमें पुरुष व नपुंसक वेदका बंध नहीं होनेसे सोलह कषायोंका उक्त वेदोंमें संक्रमण भी नहीं होता, अतः उक्त वेदोंके भुजगारके अठारह समय घटित नहीं होते। इसीप्रकार पर्याप्त तियचके स्त्रीवेदके भुजगारका काल अठारह समय न रहकर सत्रह समय कहा है। सो यह सत्रह समय स्वस्थानकी अपेक्षा जानना चाहिये। ६५५. पंचेन्द्रिय तियच अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतरस्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है तथा शेष स्थितिविभक्तियोंका भंग तियचोंके समान है किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल सत्रह समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसी Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारकालो मुद्दुत्तं । एवं मणुसअपज्ज० । णवरि छन्वीसं पयडीणं भुज० ज० एयस०, उक० वे समया सत्तारस समया। ५६. मणुसतिए मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक. भुज. ज. एयस०, उक. वेसमया सत्तारस समया । सेसं पंचिं०तिरिक्खभंगो। णवरि मणुसपज्ज० वारसक०णवणोक० अप्प० जह० एयस०, उक्क० तिणि पलिदो० सादिरेयाणि पुवकोडितिभागेण । ५७. देवाणं णारयभंगो। णवरि मिच्छत्तस्स सम्मत्त०-सम्मामि०-सोलसक०णवणोक० अप्प० ज० एयस०, उक्क० तेत्तीससागरोवमाणि । भवण-वाण एवं चेव । णवरि अप्पदर० सगट्टिदी देसूणा । जोदिसियादि जाव सहस्सारोत्ति विदियपुढविभंगो। प्रकार मनुष्य अपर्याप्तक जीवोंके जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल मिथ्यात्वकी अपेक्षा दो समय तथा शेषकी अपेक्षा सत्रह समय है। $ ५६. सामान्य, पर्याप्त और मनुष्य इन तीन प्रकारके मनुष्योंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल मिथ्यात्वकी अपेक्षा दो समय तथा शेषकी अपेक्षा सत्रह समय है। तथा शेष भंग पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्य पर्याप्तकों में बारह कषाय और नोकषायों की अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पूर्वकोटित्रिभागसे अधिक तीन पल्य प्रमाण है। विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंकी आयु अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं होती, इसलिये इनमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूत कहा । तथा इनके स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्ट काल अठारह समय प्राप्त न होकर सत्रह समय ही प्रान होता है। इसका विशेष खुलासा जिस प्रकार पंचेन्द्रिय तियच आदिके कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है। मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकोंके यद्यपि सब प्रकृतियोंकी भुजगार आदि स्थितियोंका काल पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान ही होता है फिर भी छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार स्थितिके उत्कृष्ट कालमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि मनुष्योंमें संज्ञी और असंज्ञी ये दो भेद नहीं होते, अतः इनके मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्टकाल दो समय और सोलह कषाय तथा नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्टकाल सत्रह समय ही प्राप्तहोता है। उक्त प्रकृतियोंकी भुजगार स्थितिके उत्कृष्ट कालके विषयमें यही कारण सामान्य, पर्याप्तक और योनिमती मनुष्योंके जानना चाहिये । इन तीन प्रकारके मनुष्योंका शेष कथन पंचेन्द्रिय तियचोंके समान है किन्तु मनुष्य पर्याप्तकोंके बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल एक पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य है, क्योंकि जिस मनुष्य पर्याप्तकने आगामी भवकी आयुको बाँधकर तदनन्तर क्षायिक सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लिया है उसके मनुष्य पर्याप्तक अवस्थाके रहते हुए उक्त कालतक अल्पतर स्थिति देखी जाती है। ६५७. देवोंमें नारकियोंके समान जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषयोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल तेतीस सागर है। भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँपर अल्पतरस्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। ज्योतिषियोंसे लेकर सहस्रारस्वर्गतकके देवोंमें दूसरी पृथिवीके Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे हिदिबिहत्ती ३ णवरि सोहम्मादिसु अप्प० ज० एगस०, उक्क० सगढिदी । आणदादि जाव उवरिमगेवजो त्ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० अप्पद० जहण्णुक द्विदी। अणंताणु०चउक्क० अप्पदर० जह० एयसमओ, उक्क० सगसगट्टिदी। अवत्तव्वं० ओघं। सम्मत्त-सम्मामि० अप्प० जह० एयस०, उक्क. सगसगद्विदी। सेस. ओघं। अणुद्दिसादि जाव सम्वट्ठसिद्धि ति सव्वपयडी० अप्प० जहण्णुक्क० जहण्णुक्कस्सहिदो । णवरि सम्मत्त० अप्पदरस्स जह• एयस० । अणंताणु०चउक० अप्प० जह० अंतोमु० । समान जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि सौधर्मादिक स्वर्गो में अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी स्थितिप्रमाण है। आनत कल्पसे लेकर उपरिम अवेयकतकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्टकाल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । तथा अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। शेष कथन ओघके समान है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धतकके देवोंमें सब प्रकृतियों की अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-सर्वार्थसिद्धिके देवोंके सब प्रकृतियोंकी उत्तरोत्तर अल्पतर स्थिति ही होती है, इसलिये सामान्य देवोंके सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल तेतीस सागर कहा । भवन त्रिकमें सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते अतः यहाँ सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण प्राप्त होता है । तथा बारहवें स्वर्गतक संक्लेशानुसार स्थितिमें घटाबढ़ी होती रहती है इसलिये यहाँ तक सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका जघन्य काल एक समय भी प्राप्त होता है । किन्तु बारहवें स्वर्गके ऊपर यद्यपि सब प्रकृतियोंकी स्थिति उत्तरोत्तर अल्प ही होती जाती है फिर भी नौ ग्रैवेयकतकके जीव सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकारके होते हैं। तथा सम्यग्यदृष्टिसे मिथ्यादृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादृष्टिसे सम् ग्दृष्टि भी। अतः यहाँ अनन्तानुबन्धो चतुष्क, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति अल्पतर और अवक्तव्य दो प्रकारकी बन जाती है किन्तु शेष कर्मो की एक अल्पतर स्थिति ही प्राप्त होती है। तदनुसार २२ भल्पतर स्थितिका जघन्य काल अपनी-अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण प्राप्त होता है। किन्तु शेष छह प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका जघन्य काळ एक समय भी बन जाता है, क्योंकि जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है ऐसा कोई एक जीव सासादनमें जाकर पहले समयमें अवक्तव्य स्थितिको प्राप्त हुआ और दूसरे समयमें अल्पतरस्थितिको प्राप्त करके यदि मर जाता है तो अनन्तानुबन्धीकी अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है। इसी प्रकार उद्वेलनाकी अपेक्षाउक्त स्थानोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिका जघन्य काल एक समय बन जाता है। तथा अनुदिश आदिमें बाईस प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह तो स्पष्ट ही है। किन्तु शेष छह प्रकृतियोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अल्पतर स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि वहाँ उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर जो अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर देता है उसके अनन्तानुबन्धीकी अल्पतर स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारकालो ३३ 5 ५८. एइंदिएसु मिच्छत्त० भुज० ज० एयसमओ, उक्क० बेसमया । अप्प० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अवढि० ओघं । सोलसक०-णवणोक० भुज० विदियपुढविभंगो। अप्प ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सम्मत्तसम्मामि० अप्प० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे भागो। एवं बादरेइंदिय. सुहमइंदिय-पुढवि० बादरपुढवि०-सुहुमपुढवि०-आउ०-बादरआउ०-सुहुमआउ० तेउ०बादरतेउ०-सुहुमतेउ०-वाउ०-चादरवाउ०-सुहुमवाउ०-बादरवणप्फदिपत्तेय-त्रणप्फदि०णिगोद०-बादरसुहुमाणं । बादरेइंदियअपज्ज-सुहमइंदियपज्जत्तापज्जत्ताणं मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० भुज० अवट्टि० एइंदियभंगो। अप्पदर० जह० एगस०, उक० अंतोमु० । सम्मत्त-सम्मामि० अप्प० ज० एयस०, उक्क० अंतोमु०। एवं पंचकायवादरअपज्ज०-सुहुमपज्जत्तापज्जत्ताणं। बादरेइंदियपज्ज-विगलिंदिय०-विगलिंदियपज्जत्ताणं मिच्छत्त० भुज० ज० एगस०, उक्क० बेसमया। अप्पद० ज० एगसमओ, उक्क० संखेज्जाणि वाससहस्साणि । अवढि० ओघं। सोलसक०-णवणोक० भुज० ज० एगस०, उक्क० सत्तारस समया। अप्पद०-अवढि० मिच्छत्तभंगो । [सम्मत्त-सम्माहोता है। तथा सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल एक समय कृतकृत्यवेदके सम्यक्त्वकी अपेक्षा प्राप्त होता है। ५८. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल दो समय है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्योपमका असंख्यातवाँ भागप्रमाण है। अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थितिविभक्तिका भंग दूसरी पृथिवीके समान है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, वादर पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, जलकायिक, बादर जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, निगोद, बादर निगोंद और सूक्ष्म निगोद जीवोंके जानना चाहिये। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका भंग एकेन्द्रियोंके समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार पाँचों स्थावरकाय बादर अपर्याप्त, पाँचों स्थावरकाय सूक्ष्मपर्याप्त और पाँचों स्थावरकाय सूक्ष्म अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, विकलेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल दो समय है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात हजार वर्ष है। तथा अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है । सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल सत्रह समय है। तथा अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका भंग मिथ्यात्वके समान है। सम्यकत्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी ५ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ मिच्छत्त० अप्प० मिच्छत्तभंगो।] विगलिंदियअपज्जत्ताणमेवं चव । णवरि अप्पद० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु०। ५६. पंचिंदिय-पंचिं०पज्जत्ताणमोघं । णवरि भुज. जह० एगसमओ, उक्क० तिण्णि अट्ठारस समया। सम्म०-सम्मामि० अप्प० जह० एगसमयो' । पंचिंदियअपज्ज. पंचिंतिरिक्खअपज्ज०भंगो। अल्पतर स्थितिविभक्तिका भंग मिथ्यात्वके समान है। विकलेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके इसीप्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्टकाल दो समय अद्धाक्षय और संक्लेशक्षयकी अपेक्षासे कहा है। तथा सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल सत्रह समय जो दूसरी पृथिवीमें बतला आये हैं वह एकेन्द्रियों के भी बन जाता है, अतएव यहाँ उक्त प्रकृतियोंकी भुजगार स्थितिका काल दूसरी पृथिवीके समान कहा है। एकेन्द्रियोंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवक्तव्य व अवस्थित स्थिति नहीं होती, क्योंकि इनके ये पद सम्यग्दृष्टिके पहले समयमें ही सम्भव है। एकेन्द्रियोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है.। कि जो पंचेन्द्रिय जीव एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर निरन्तर एकेन्द्रिय ही रहे आते हैं उन्हें सत्तामें स्थित शितिको घटाकर एकेन्दियके योग्य करने में पल्यका असंख्यातवां भाग प्रमाण काल लगता है। मुलमें बादर एकेन्द्रिय आदि और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिये इनमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा। इसी प्रकार पाँचों स्थावरकाय बादर अपर्याप्त तथा सूक्ष्म पर्याप्त और सूक्ष्म अपर्याप्त जीवोंके भी जानना चाहिये । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, विकलेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका उत्कृष्टकाल संख्यात हजार वर्ष है इसलिये इनमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल संख्यात हजार वर्षे कहा। तथा विकलेन्द्रिय अपर्याप्तकोंका उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त है, अतः इनमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तमहूर्तप्रमाण कहा । शेष कथन सुगम है। ५४. पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके ओघके समान जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें भुजगारका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल मिथ्यात्वकी अपेक्षा तीन समय तथा शेषकी अपेक्षा अठारह समय है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय है । पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्तकोंके समान जानना चाहिए। विशेषार्थ _पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें संज्ञी और असंज्ञी दोनों भेद सम्मिलित हैं. अतः इनमें मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्टकाल तीन समय तथा सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्टकाल अठारह समय बन जाता है। इन तीन और अठारह समयोंका विशेष खुलासा पहले किया ही है उसी प्रकार यहाँ भी जान लेना चाहिये। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षा प्राप्त होता है। इस प्रकार यहाँ उक्त कथनमें ओघसे विशेषता है । शेष सब कथन ओघके समान है। १ ता. प्रतौ समयो......। पंचि-इति पाठः । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपडिभुजगारकाला ३५ ६०, बादरपुढविपज्ज०-बादरआउ०पज्ज०-बादरते उपज्जयादरवाउपज्ज०-बादरवणप्फदिपचेय०पज्ज० सवपयडी० भुज०-अवढि० विदियपुढविभंगो। अप्पद० विगलिंदियपज्जत्तभंगो। ६१. तसअपज्ज० छब्बीसपयडी० भुज० अवट्टि० ओघं । णवरि इत्थिपुरिस.. भुज० सत्तारस समया । अप्पद० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्मत्त-सम्मामि० अप्प० ज० एगसमओ, उक्क • अंतोमु०।। 5६२. पंचमण-पंचवचि० मिच्छत्त सोलसक०-णवणोक०-सम्मत्त-सम्मामि० अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । सेस० विदियपुढविभंगो । एवं वेउव्विय० । कायजोगि० ओघभंगो। णवरि सव्वेसिमप्प० ९क० पलिदो० असंखे०भागो। ओरालिय० मिच्छत्त० भुज० ज० एगसमओ, उक्क० वे समया। अवढि० ओघं । अप्प. ज० एगस०, उक्क० वावीस वाससहस्साणि देसूणाणि । सोलसक०-णवणोक० भुज० ज० एगस०, उक्क० सत्तारस समया। अवट्टि० ओघं । अप्पदर० सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताण ६०. बादरपृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंके सब प्रकृतियोंकी भुगगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका भंग दूसरी पृथिवीके समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका भंग विकलेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान है ? ६१. बस अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार और अवस्थित स्थिति विभक्तियोंका भंग ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल सत्रह समय है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूत है। विशेषार्थ-सब अपर्याप्तक नपुंसक ही होते हैं, इसलिये त्रस अपर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्टकाल सत्रह समय ही प्राप्त होता है। तथा अपर्याप्तकोंका उत्कृष्ट काल अन्तमहूर्त है, इसलिये इनमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा। शेष कथन सुगम है। ६२. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा शेष कथन दूसरी पृथिवीके समान है। इसी प्रकार वैक्रियिककाययोगी जीवोंके जानना चाहिये। काययोगियोंके ओघके समान भंग है। किन्तु इतनी विशषता है कि इनके सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। औदारिककाययोगियोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल दो समय है। अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल सत्रह समय है । अवस्थितस्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। तथा इन प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका और , ता. प्रतौ सम्मत्त-सम्मामि० अप्प० ज०एणसमो, उस० अंतोमुहुरा इति पाठो नास्ति । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे हिदिविहत्ती ३ मप्पदरस्स च ज० एगसमो, उक्क० बावीस वस्ससहस्साणि देसूणाणि । सेसमोघं । ओरालियमिस्स० मिच्छत्त० भुज० ज० एगस०, उक्क० तिण्णि समया । अप्पद० एगस०, उक्क० अंतोमु०। अवढि० ज० एगस०, उक्क अंतोमु० । सोलसक०-णवणोक० भुज० ज० एगस०, उक० अट्ठारस समया। अवढि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अप्प० ज० एगस०, उक० अंतोमु०। सम्मत्त-सम्मामि० अप्प० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । वेउव्वियमिस्स अट्ठावीसपयडीणमप्प० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु०। सेस० विदियपुढविभंगो। णवरि पदविसेसो जाणियव्वो। आहारकाय० सव्वपय० अप्प० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु । आहारमिस्स० सव्वपय० अप्प० जहण्णुक्क० अंतोमु० । एवमुवसमसम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं । कम्मइथ० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० भुज० ज० एगसमओ, उक० वे समया। अप्प०-अवढि० ज० एगसमग्रो, उक्क० तिणि समया । सम्मत्त-सम्मामि० अप्प० ज० एगस० । उक० तिणि समया। एवमणाहार० । सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। शेष कथन ओघके समान है। औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन समय है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अठारह समय है। अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। शेषका भंग दूसरी पृथिवीके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि पदविशेष जानना चाहिये। आहारककाययोगियोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्महूर्त है। आहारकमिश्रकाययोगियोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । कार्मणकाययोगियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल दो समय है। अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन समय है। इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ—पाँचों मनोयोग, पाँचों वचनयोग और वैक्रियिककाययोगका उत्कृष्टकाल अन्तमहूर्त है, अतः इनमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा। औदारिककाययोगका उत्कृष्टकाल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है, अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल कुछ कम बाईस हजार वर्ष कहा। औदारिकमिश्रकाययोगका उत्कृष्टकाल अन्तर्महूर्त है अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा । वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें भी इसी प्रकार समझना चाहिये। तथा इसी प्रकार आहारककाययोग और आहारकमिश्र Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारकालो ६३. वेदाणुवादेण इत्थि० मिच्छत्तस्स भुज० ज० एगसमो, उक्कम्सेण तिण्णि समया। अप्प० ज० एगस०, उक्क. पणवण्ण पलिदोवमाणि देसूणाणि । अवढि० ओषं । बारसक०-णवणोक. भुज० ज० एगस०, उक्क० अट्ठारस समया । णवरि पुरिस०-णदुंस० सत्तारस समया। अप्प०-अवहि० मिच्छत्तभंगो ।अणंताणु० चउक्क० एवं चेव । णवरि अवत्तव्व० जहण्णुक्क० एगस० । सम्मत्त-सम्मामि० भुज अवहि ०. अवत्तव्व० श्रोघं । अप्पद० ज० एगस०, उक्क. पणवण्णपलिदो० सादिरेयाणि । पुरिसवेद० पंचिंदियभंगो । णवरि इत्थि-णqस. भुज. उक० सत्तारस समया। णस० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक०-भुज०-अवहि० अोघं। णवरि इत्थि-पुरिस० भुज० उक्क ० सत्तारस समया। अप्प० ज० एगस०, उक० तेत्तीससागरोवमाणि देसूणाणि । अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्वं ओघं । सम्मत्त-सम्मामि० अप्प० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । सेस० ओघं । अवगदवेद० चउवीसपयडि. अप्प० काययोगमें भी समझना चाहिये। इतना विशेषता है कि मिश्रयोगोंमें अवक्तव्य भंग नहीं होता। तथा आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगमें एक अल्पतर स्थितिविभक्ति ही होती है। उपशमसम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्टकाल भी अन्तर्मुहूर्त है तथा इनमें एक अल्पतर स्थितिविभक्ति ही होती है इसलिये इनमें अल्पतर स्थितिके कथनको आहारकद्विकके समान कहा । कार्मण काययोगमें अद्धाक्षय और संक्लेशक्षयकी अपेक्षा सर्वत्र भुजगारके दो समय ही प्राप्त होते हैं, इसलिये इसमें छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्टकाल दो समय कहा ल तीन समय है इसलिये इसमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल तीन समय कहा। संसारी जीवोंके अनाहारक अवस्था कामणकाययोगमें ही होती है, अतः इसके कथनको कार्मणकाययोगके समान कहा । शेष कथन सुगम है। ६३. वेदमागणाके अनुवादसे खावेदय में मिथ्यात्वकी भजगार स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन समय हे । अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम पचवन पल्य है। अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल अोधक समान है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अठारह समय है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी भुजगार स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल सत्रह समय है । तथा अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका भंग मिथ्यात्वके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तियोंका काल ओघके समान है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल साधिक पचवन पल्य है। पुरुषवेदीजीवाके पंचेन्द्रियोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी भुजगार स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल सत्रह समय है। नपुंसकवोदयोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल सत्रह समय है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीस सागर है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे ज० एस ०, उक्क० अंतोमु० । एवमकसा० सुहम० - जहाक्खादसंजदे त्ति | ०६४. चत्तारिक० मिच्छत्त-सम्मत-सम्मामि ० - सोलसक० - णवणोक० भुज०० सम्म सम्मामि० अणंताणु० चउक्क० अवत्तव्व० श्रोधं । अप्प० ज० एस ०, उक्क अंतोमु० । O ६५. मदि० सुद० मिच्छत्त-सोलसक० णवणोक० भुज० - अवहि० ओघं । अप्प० ज० एस ०, उक्क० एकतीसं सागरो ०' सादिरेयाणि । सम्मत्त सम्मामि० अप्पद० सागर है । शेष कथन ओघ के समान है । अपगतवेदियों में चौबीस प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अकषायी, सूक्ष्म सांप रायिकसंगत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिए । ६४. क्रोधादि चारों कषायवाले जीवों में मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है । अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ – वेदमार्गणा में निम्न बातें ध्यान देने योग्य हैं। पहली तो यह कि विवक्षित वेद में उस वेदके अतिरिक्त शेष वेदोंकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्टकाल सत्रह समय होता है । दूसरी यह कि यद्यपि स्त्रीवेदी आदिका उत्कृष्टकाल सौ पल्य पृथक्त्व आदि है फिर भी इनमें मिथ्यात्व आदिकी अल्पतर स्थितिका काल उस वेद के उत्कृष्टकाल प्रमाण नहीं है । इनमें से स्त्रीवेदमें मिध्यात्व आदि छब्बीस प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका काल कुछ कम पचवन पल्य है, क्योंकि यहाँ सम्यग्दर्शन का जो उत्कृष्टकाल है वही यहाँ उक्त प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल प्राप्त होता है । किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के विषय में स्थिति इससे भिन्न है । बात यह है कि इनकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल सम्यक्त्व व मिथ्यात्व के क्रम से प्राप्त होते रहने से होता है और स्त्रीवेदियों में मिध्यादृष्टि जीव ही उत्पन्न होता है अतः सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल साधिक पचवन पल्य प्राप्त होता है । तथा ओघ में सत्र प्रकृतियोंकी जो भुजगार आदि स्थिति कही है वह अधिकतर पुरुषवेदकी प्रधानता से ही घटित होती है । पंचेन्द्रियों में भी वह अविकल बन जाती है, क्योंकि पुरुषवेदी पंचेन्द्रिय ही होते हैं, अतः यहाँ पुरुषवेद में भुजगार स्थिति आदिका काल पंचेन्द्रियों के समान कहा । तथा नपुंसक वेद में २६ प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीस सागर है, क्योंकि यहाँ सम्यग्दर्शनका जो उत्कृष्टकाल है वही उक्त प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी अल्पत्तर स्थितिका उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर है । विशेष खुलासा जिस प्रकार स्त्रीवेदियों के कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है | अवगतवेदमें सब प्रकृतियों की अल्पतर स्थिति ही होती है। तथा इसका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा। इसी प्रकार अकपायी, सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत और यथाख्यात संयत जीवोंके भी घटित कर लेना चाहिये । तथा क्रोधादि चारों कषायोंकी अल्पतर स्थिति का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इनमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा। शेष कथन सुगम है । 1 $ ६५. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओधके समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका १. ता० प्रतौ सागरो० देसूणाणि इति पाठः । [ द्विदिविहत्ती ३ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२]] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारकालो जह० अंतोमु०,' उक० पलिदो० असंखे भागो। विहंग० मिच्छत्त-सोलसक० भुज० ज० एगस०, उक. विदियपुढविभंगो। अवढि० ओघं । अप्प० जह० एगस०, उक० एक्कत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सम्म०-सम्मामि० अप्प० ज० एयस०, उक्क० पलिदो० असंखे भागो। ६६. आभिणि सुद०-ओहि० मिच्छत्त-सोलसक०णवणोक० अप्प० ज०अंतोमु०, उक्क० छावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । णवरि अणंताणु० देसू० । सम्मत्त-सम्मामि० अप्प० ज० अंतोमु०, उक्क० छावहिसागरो० सादिरेयाणि । भुज०-अवहि०-अवत्त० णत्थि । मणपज० अट्ठावीसं पय० अप्प० जह० अंतोमु०, उक्क० पुवकोडी देसूणा । एवं० संजद०-सामाइय०-छेदोव० परिहार०-संजदासंजदा त्ति । णवरि सामाइय०-छेदोव० चउवीसपय० अप्प० जह० एयममओ। असंज० ओघभंगो। णवरि अप्प. सादिरेयं तेतीसं सागरोवमाणि । सम्म० अप्प० जह० एगसमश्रो। जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल साधिक इकतीस सागर है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल अन्तर्महूर्त और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। विभंगज्ञानियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकालका भंग दूसरी पृथिवीके समान है। अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है । तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम इकतीस सागर है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्योपमक असंख्यातवें भाग प्रमाण है। ६६. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय . और नौ नोकषायोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल साधिक छयासठ सागर है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीकी अपेक्षा कुछ कम छयासठ सागर है । सम्यक्त्व और सम्याग्मथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल अन्तमहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है। यहाँ भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तियाँ नहीं हैं। मनःपर्ययज्ञानियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम पूर्वकादि प्रमाण है। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि स क सामायिक संयत र छेदोपस्थापना संयत जीवोंमें चौबोस प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय है। असंयतोंमें ओघक समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अल्पतर स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर है। तथा सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय है। विशेषार्थ नौवें ग्रैवेयकमें मिथ्यात्व आदिकी अल्पतर स्थिति होती है। अब यदि वहाँ कोई मिथ्यादृष्टि जीव उत्पन्न हुआ तो उसके आदि और अन्तमें भी अल्पतर स्थिति पाई जाती है, अतः मत्यज्ञानी और ताज्ञानी जीवोंके मिथ्यात्व आदि छब्बीस प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल साधिक इकतीस सागर कहा। तथा विभंगज्ञान अपर्याप्त अवस्थामें नहीं पाया जाता, इसलिये इसमें उक्त प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल कुछ कम इकतीस सागर कहा। तथा मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण कालतक १. ता० प्रतौ जह० एगस• इति पाठः । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे द्विदिविहत्ती ३ 5६७. धक्खु० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० भुज०-अवहि० अणंताणु०चउक्क०' अवत्तव्व० ओघं । अप्प० ज० एगस०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं सादिरेयं । सम्मत्त-सम्मामि० भुज०-अवहि-अवत्तव्यमोघं । अप्प० ज० एगस०, उक्क० वे छावहिसागरो० सादिरेयाणि । ओहिदंस० ओहिणाणिभंगो। ही पाई जाती है अतः उक्त तीनों अज्ञानों में इन दो प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। आभिनिबोधिकज्ञान आदि सम्यग्ज्ञानों में केवल अल्पतर स्थिति ही पाई जाती है। किन्तु मनःपर्ययज्ञानको छोड़कर इनका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल साधिक छयासठ सागर है इसलिये इनमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल साधिक छयासठ सागर कहा। किन्तु अनन्तानुबन्धी चतुष्क इसका अपवाद है। बात यह है कि वेदक सम्यक्त्वके साथ अनन्तानुबन्धीका सत्त्व कुछ कम छयासठ सागर तक हा पाया जाता है इसलिये इसकी अल्पतरस्थितिका उत्कृष्टकाल कुछ कम छयासठ सागर कहा। तथा मनःपर्ययज्ञानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है, अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण कहा। मनःपर्ययज्ञानके समान संयत आदि मार्गणाओंमें भी जानना चाहिये, क्योंकि इनका जघन्य और उत्कृष्टकाल मनःपर्ययज्ञानके समान है। इतनी विशेषता है कि सामायिक और छेदोपस्थानाका जघन्यकाल एक समय भी है जो कि उपशान्तमोहसे च्युत हुए जीवके ही सम्भव है, क्योंकि ऐसा जाव एक समय तक अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें रहा और मरकर यदि देव हो जाता है तो उसके सामायिक और छेदोपस्थापना संयमका जघन्यकाल एक समय पाया जाता है। पर यहाँ २४ प्रकृतियोंकी सत्ता ही सम्भव है, अत: २४ प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल एक समय कहा। असंयत मार्गणामें और सब काल तो ओघके समान बन जाता है किन्तु सब प्रकृतियोंकी अल्पतरस्थितिका उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है। बात यह है कि अविरतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्टकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है, अत: असंयममें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण कहा। तथा यहाँ कृतकृत्यवेदककी अपेक्षा सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है। ६७. चक्षुदर्शनवाले जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका काल अोधके समान है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल साधिक एक सौ वेसठ सागर है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तियोंका काल ओघके समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल साधिक एक सौ बत्तीस सागर है। अवधिदर्शनवाले जीवोंका भंग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। विशेषार्थ-चक्षुदर्शनमार्गणाका काल यद्यपि दो हजार सागर है पर इसमें अल्पतर स्थितिका काल इतना नहीं प्राप्त होता, इसलिये यह कहा है कि चक्षुदर्शनमें २६ प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल साधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल साधिक एक सौ बत्तीस सागर है। १. ता. प्रतौ चउक्क० [ ओघं ] भवत्तव्व० इति पाठः । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारकालो - 5६८. किण्ह-णील-काउ० मिच्छत्त० भुज०-अवहि ओघं । अप्पद० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीस-सत्तारस-सत्तसागरोवमाणि देसूणाणि । सोलसक०-णवणोक० भुज०अवहि० ओघं।. अप्प० मिच्छत्तभंगो। अणंताणु० चउक्क० अवत्तव्व० जहण्णुक्क० एगस० । सम्मत्त-सम्मामि० भुज०-अवहि०-अवत्तव्वं ओघं। अप्प० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीस-सत्तारस-सत्तसारोव० देसूणाणि । तेउ० सोहम्मभंगो। पम्म० सहस्सारभंगो । सुक्क० आणदभंगो। णवरि अप्प० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । ६६. अभव० छब्बीस. मदि०भंगो। सम्माइटि. आभिणिभंगो। खइयसम्मा० एक्कवीसपय० अप्पद० ज० अंतोमुहत्तं, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । वेदग० मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्त-अणंताणु०चउक्क० ओहि भंगो । णवरि उक० छावहिसागरो० देसूणाणि । सम्मत्त बारसक०-णवणोक० अप्प० ज० अंतोमु०, उक्क० छावट्टिसागरोवमाणि । सासण० सव्वपयडि ० अप्प० ज० एगस०, उक्क० छ आवलियाओ। मिच्छाइहि० मदिअण्णाणिभंगो। यह ओघके समान घटित कर लेना चाहिये। किन्तु इन दो प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिके जघन्य कालमें कुछ विशेषता है । बात यह है कि उद्वेलनाकी अपेक्षा इनकी अल्पतर स्थितिका जघन्य काल एक समय भी पाया जाता है अतः यहाँ अल्पतर स्थितिका जघन्य काल एक समय कहा । शेष कथन सुगम है। तथा इसके आगे अन्य मार्गणाओंमें जो कालका निर्देश किया है उसका अनुगम पूर्व कथनसे हो जाता है, इसलिये पृथक् खुलासा नहीं किया। 5६८. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका काल ओधके समान है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल क्रमसे कुछ कम तेतीस, कुछ कम सत्रह और कुछ कम सात सागरप्रमाण है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका भंग मिथ्यात्वके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल क्रमसे कुछ कम तेतीस, कुछ कम सत्रह और कुछ कम सात सागर है । पीतलेश्यावाले जीवोंके सौधर्मके समान भंग है । पद्मलेश्यावालोंके सहस्त्रारके समान भंग है। और शुक्ललेश्यावालोंके आनतकल्पके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि शुक्ललेश्यामें अल्पतर स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर है। 5६९. अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकाभंग मत्यज्ञानियों के समान है। सम्यग्दृष्टियोंके आभिनिबोधिकज्ञानियोंके के समान भंग है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग अवधिज्ञानियोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अल्पतर स्थितिविभक्तिका उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर है। सम्यक्त्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल अन्तर्महूर्त और उत्कृष्ट काल छयासठ सागर है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल छह आवली है। मिथ्याष्टियोंके मत्यज्ञानियोंके समान भंग है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ ७०. सणि० पंचिंदियभंगो। एवमाहारीणं । णवरि सण्णि० मिच्छ०-सोलसक०णणोक० भुज० उक्क० वे सत्तारस समया । असण्णि० मिच्छत्त-सम्मत्त सम्मामि०सोलसक० -णवणोक० अप्पदर ज० एगसमओ, उक्क० पलिदो ० असंखे० भागो | सेस ० ओरालियमस्स० भंगो । ४२ एवं कालानुगमो समत्तो । * अंतरं । ७१. सुगममेदं, अहियार संभालणफलत्तादो । * मिच्छुत्तस्स भुजगार - श्रवद्विदकम्मंसियस्स अंतरं जहर णेण एगसमओ । १ ७२. कुदो ? भुजगार अवद्विदविहत्तीओ एगसमयं काढूण विदियसमए अप्पदरं after after भुजगार अवहिदेसु एगसमय मे तंतरुवलंभादो । * उक्कस्सेण तेवट्टिसागरोवमसदं सादिरेयं । १ ७३. तं जहा - 1 - तिरिक्खेसु मणुस्सेसु वा भुजगार अवहिदाणमादि काढूण पुणो तत्थेव तोमुत्तकालमप्पदरेणतरिय तिपलिदोव मिएसुप्पजिय तेवट्टिसागरोवमसदं भमिय मणुस्सेसुप्पजिय अंतोमुहुत्ते गदे संकिलेस पूरेण भुज० - अबट्ठि ० कदेसु लद्वमंतरं होदि । $ ७०. संज्ञी जीवोंके पंचेन्द्रियों के समान भंग है । इसी प्रकार आहारक जीवों के जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि संज्ञियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकपायोंकी भुजगार स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल मिथ्यात्वकी अपेक्षा दो समय और शेपकी अपेक्षा सत्रह समय है । असंज्ञियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कपाय और नौ नोकपायों की अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा शेष भंग श्रदारिकमिश्रकाययोगियोंके समान है । इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ । * आगे अन्तरानुगमका अधिकार है । ७१. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि अधिकारकी संम्हाल करना इसका फल है । * मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवका जघन्य अन्तरकाल एक समय है । ९७२. क्योंकि जो कोई जीव भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंको एक समय तक करके और दूसरे समय में अल्पतर स्थितिविभक्ति करके यदि तीसरे समय में पुनः भुजगार और अवस्थित विभक्तियाँ करते हैं तो उनके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका केवल एक समय अन्तर पाया जाता है। * उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एकसौ त्रेसठ सागर है । 5 ०३. उसका खुलासा इस प्रकार है- जिन्होंने तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होकर भुजगार और अतिस्थितिविभक्तिका प्रारम्भ किया । पुनः वहीं पर अन्तर्मुहूर्त कालतक अल्पतर स्थितिविभक्तिसे उन्हें अन्तरित किया । पुनः वे तीन पल्यकी आयुवाले जीवोंमें उत्पन्न होकर और एकसौ सठ सागर कालतक परिभ्रमण करके मनुष्योंमें उत्पन्न हुए और वहाँ पर उन्होंने अन्तर्मुहूर्त काल के बाद संक्लेशकी पूर्ति करके भुजगार और अवस्थित विभक्तियोंको किया । इस प्रकार भुजगार और अवस्थित विभक्तियोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक्सौ त्रेसठ सागर प्राप्त होता है । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपय डभुजगारअंतर * अप्पदरकम्मंसियस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ७४. सुगममेदं । * जहरणेण एगसमग्र । ९ ७५. कुदो ? मिच्छत्तस्स अप्पदरं करेमाणेण भुजगारमवट्ठिदं वा एगसमयं काण पुणो तदियसमए अप्पदरे कदे एगसमयमेत्तं तरुवलंभादो । * उक्कस्सेण अंतोमुत्तं । ९ ७६. कुदो ? अप्पदरं करेंतेण भुज० - अवट्ठिदाणि अंतोमुहुत्तं काढूण अप्पदरे कदे अंतोमुहुत्तमेतं तरवलंभादो । * सेसाणं पि दव्वं । ४३ ९ ७७, जहा मिच्छत्तस्स गोदं तहा सेसपयडीणं पि णेदव्वं । एवं चुण्णिसुतार सूचिदत्थस्स उच्चारणमस्सिदृण परूवणं कस्सामो । ७८. अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्तबारसक० णवणोक० भुज० - अवट्ठि० ज० एस० उक्क० तेवट्टिसागरोवमसदं सादिरेयं । अप्पदर० ज० एगस०, उक्क अंतोमु० । अनंताणु० चउक० भुज ० - अवट्ठि० * मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवका अन्तरकाल कितना है ? ७४. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य अन्तरकाल एक समय है । $ ७५. क्योंकि मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिको करनेवाले जिस जीवने एक समय के लिए भुजगार या अवस्थित स्थितिविभक्तिको किया पुनः तीसरे समय में यदि वह अपर स्थितिविभक्ति करता है तो उसके अल्पतर स्थितिविभक्तिका एक समय अन्तर पाया जाता है । * उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । J ७६. क्योंकि अल्पतर स्थितिविभक्तिको करनेवाले जिस जीवने अन्तर्मुहूर्त कालतक भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंको किया । पुनः उसके अन्तर्मुहूर्त काल के बाद अल्पतर स्थितिविभक्तिके करनेपर मिध्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । * इसी प्रकार शेष प्रकृतियोंका भी अन्तरकाल जानना चाहिए । ७७. जिस प्रकार मिध्यात्वका अन्तरकाल कहा उसी प्रकार शेष प्रकृतियोंका भी जानना चाहिए । इस प्रकार चूर्णिसूत्र के कर्ता यतिवृषभ आचार्य के द्वारा सूचित हुए अर्थका उच्चारणा आश्रयसे कथन करते हैं $ ७८. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से की अपेक्षा मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकपायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियों का जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एकसौ त्रेसठ सागर है । अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अनन्तातुबन्धी चतुष्ककी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका भंग मिथ्यात्व के समान है । अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छ्यासठ सागर हैं । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ मिच्छत्तभंगो । अप्प० ज० एगस०, उक० वे छावद्विसागरो० देसूणाणि । अवत्तव्च० ज. अंतोमु०, उक्क० अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूणं । सम्मत्त-सम्मामि० भुज०-अवढि० ज० अंतोमुहुत्तं, अप्पदर० ज० एगस०, अव्वत्तव० ज० पलिदो० असंखे०भागो । उक. सव्वेसि पि अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं । एवमचक्खु०-भवसिद्धियाणं । अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा सभी स्थितिविभक्तियोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। इसी प्रकार अचक्षुदर्शनवाले और भव्य जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-एक जीवने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की, पश्चात् वह कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर तक विसंयोजनाके साथ रहा और अन्त में जाकर उसने अवक्तव्य स्थितिविभक्तिपूर्वक अल्पतर स्थितिको प्राप्त किया। इस प्रकार अनन्तानुबन्धीकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर प्राप्त होता है। जिसने अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना की है ऐसा एक जीव मिथ्यात्वमें गया और वहाँ उसने अवक्तव्य स्थितिको प्राप्त किया। तदनन्तर दसरी बार अन्तर्महर्तके भीतर उसने मिथ्यात्वसे वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके अन्तर्महूर्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त किया और इस प्रकार दूसरी बार अवक्तव्यस्थितिको प्राप्त किया। इस प्रकार अवक्तव्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्महर्त प्राप्त हो जाता है। तथा जिस जीवने अर्ध पुद्गलपरिवर्तन कालके प्रारंभमें और अन्तमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके मिथ्यात्वको प्राप्त किया है उसके अवक्तव्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवतन प्रमाण प्राप्त होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थित स्थिति सम्यग्दर्शन ग्रहण करनेके पहले समयमें होती है । अतः जिसने अन्तर्महूतके अन्दर दो बार सम्यक्त्वको ग्रहण करके भुजगार या अवस्थित स्थितिको किया है उसके उक्त प्रकृतियोंकी भुजगार या अवस्थित स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तमहूर्त प्राप्त होता है। जो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिको कर रहा है उसने एक समय तक भुजगार या अवस्थित स्थितिको किया और पुनः अल्पतर स्थितिको करने लगा उसके उक्त प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनामें पल्यका असंख्यातवां भागप्रमाण काल लगता है और अवक्तव्य स्थिति उद्वेलनाके बिना प्राप्त नहीं होती अतः सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्य स्थितिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। जिसने अर्धपुद्गल परिवर्तन कालके प्रारंभमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता प्राप्त करके यथासम्भव भुजगार आदि स्थितियोंको किया । अनन्तर इनकी उद्वेलना करके कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक २६ प्रकृतियोंकी सत्ताके साथ रहा। पश्चात् कुछ कालके शेष रह जानेपर पुनः इनकी सत्ताको प्राप्त करके उक्त भुजगार आदि स्थितियोंको किया । इस प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार आदि स्थितियोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण प्राप्त होता है। यहाँ हमने सब प्रकृतियोंकी भुजगार आदि स्थितियों के अन्तरका खुलासा नहीं किया है। जिनका आवश्यक था उन्हींका किया है। शेषका मूलसे होजाता है। इसी प्रकार मार्गणाओंमें भी जहाँ जिसके खुलासा करनेकी आवश्यकता होगी उसीका किया जायगा। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारअंतरं ४५ . ७९. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त० बारसक०-णवणोक० भुज०अवट्ठि ज० एगसमओ, उक्क० तेत्तीससागरोवमाणि देसूणाणि । अप्प० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु०। अणंतागु०चउक्क० एवं चेव । णवरि अप्पदर० जह• एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अवत्तव्व. ज. अंतोमु०, उक० तेत्तीससागरो० देसूणाणि । सम्मत्तसम्मामि० भुज० अवट्टि० ज० अंतोमु०, अप्प० ज० एगस०, अवत्तव्व० ज० पलिदो० असंखे भागो । उक्क० सव्वेसि तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि . एवं सव्वणेरइयाणं वत्तव्वं । णवरि सगसगहिदी देसूणा।। ८० तिरिक्ख० मिच्छत्त०-बारसक०-णवणोक० भुज-अवढि० ज० एगसमओ, उक्क पलिदो० असंखे०भागो। अप्पद० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अणंताणु०चउक० भुज०-अवढि० मिच्छत्तभंगो। अप्प० ज० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । अवत्तव्वं ओघं । सम्मत्त-सम्मामि० चदुण्डं पदाणमोघभंगो । 5 ८१. पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिं०तिरि० पज०-पंचिं०तिरि०जोणिणीसु मिच्छत्तबारसक०-णवणोक० भुज० अवढि० ज० एगस०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । अप्प० ओघं । एवमणंताणु ०चउक्काणं । णवरि अप्प० ज० एगस०, उक० तिणि पलि० देसू. ७६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कपाय और नो नोकपायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। तथा अवक्तव्य स्थिति विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्महूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्महूर्त, अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा सभी स्थितिविभक्तियोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार सब नारकियोंके कहना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम तेतीस सागरके स्थानमें कुछ कम अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिये। 6८०. तियचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका भंग मिथ्यात्वके समान है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। तथा अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका अन्तर अोधके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके चारों पदोंका भंग ओघके समान है। . ८१. पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमती जीवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तर ओघके समान है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जयधवलासहिदें कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ णाणि । अवत्तव्व० ज० अंतोमु०, उक० तिण्णि पलिदो० पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । सम्मत्त-सम्मामि० भुज० ज० अंतोमुहुत्तं, अप्प० ज० एगस०, अवत्तव्व० ज० पलिदो० असंखेभागो । उक० सव्वेसि पि तिण्णि पलिदो० पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । अवढि० ज० अंतोमु०, उक्क. पुवकोडिपुधत्तं । एवं मणुसतिय० । णवरि मिच्छत्तसोलसक०-णवणोकसायाणं जम्हि पुत्व कोडिपुधत्तं तम्हि पुव्यकोडी देसूणा । 5 ८२. पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज मिच्छत्त०-सोलसक०-णवणोक. भुज०-अप्प.. अवद्विदाणं जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु०। सम्मत्त-सम्मामि० अप्पदरस्स णत्थि अंतरं । एवं मणुसअपज्ज०-एइंदिय-बादरेइंदिय-सुहुमेइंदिय-तेसिं पज्जत्तापज्जत्त-सव्वविगलिंदियपंचिंदियअपज्ज०-पंचकाय० बादरसुहुमपज्जत्तापज्जत्त-तसअपज्ज०-ओरालिमिस्स०-वेउब्वियमिस्स०-विभंगणाणि त्ति । ८३ देव० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० भुज-अवढि० ज० एगस०, उक० अट्ठारससागरो० सादिरेयाणि । अप्पदर० ओघं'। अणंताणु०चउक्क० अप्पदर० ज० एगस०, अवत्तव्व० ज० अंतोमु० । उक० दोण्हं पि एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । कि अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्य है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, अल्पतर स्थितिविभतिका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा सभी स्थितिविभक्तियोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक तीन पल्य है। अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व है। इसी प्रकार सामान्य, पर्याप्त और मनुष्यनी इन तीन प्रकारके मनुष्योंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायों की जिस स्थितिविभक्तिके रहते हुए पूर्वकोटि पृथक्त्व कहा है वहाँ कुछ कम पूर्वकोटि अन्तर कहना चाहिये । 5८२. पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्महर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त. एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, तथा बादर और सूक्ष्मके पर्याप्त और अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, पाँचों स्थावरकाय तथा इनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और विभंगज्ञानी जीवोंके जानना चाहिए। ८३. देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तर ओघके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है। तथा १. ता. प्रतौ ओघ । अवराम्ब० अणं-इति पाठः । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०२२] हिदिविहत्तीए उत्तरपडिभुजगारअंतरं सेसं मिच्छत्तभंगा । सम्मत्त-सम्मामि० भुज० ज० अंतोमु०, अप्पद० ज० एगस०, अव्यत्तव्व० ज० पलिदो० असंखे०भागो। उक्क० सव्वेसि पि एकत्तीसंसागरो० देसूणाणि । अवट्टि० ज० अंतोमु०, उक्क० अट्ठारस सागरो० सादिरेयाणि । भवणादि जाव सहस्सार० एवं चेव । णवरि सगढिदी देसूणा।। ८४. आणदादि जाव उवरिमगेवजो ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० अप्पदरस्स पत्थि अंतरं। सम्मत्त-सम्मामि० भुज० ज० अंतोमु०, अप्प० ज० एगस०, अवत्तव्य० ज० पलिदो० असंखे०भागो० । अणंताणु०चउका० अप्पदर० अवत्तव्वाणं ज० अंतोमु० । उक्क० सव्येसि पि सगढिदी देसूणा । एवं सुक्कले० । 5 ८५. अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठसिद्धि ति सव्यपयडीणमप्पदर० णत्थि अंतरं । एवमाहार०-आहारमिस्स० अवगद० अकसा०-आभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज०-संजद०सामाइय-छेदो०.-परिहार०-सुहुम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद-ओहिदंस०-सम्मादि'.. खइय ०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामिच्छाइद्वित्ति। ६८६. पंचिंदिय-पंचिं०पज०-तस-तसपञ्ज० मिच्छत्त-बारसक-णवणोक० ओघं। अणंताणु०च उक्क० ओघ । णवरि अवत्तव्व० ज० अंतोमु०, उक्क० सगढिदी देसूणा । दोनोंका ही उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। शेष स्थितिविभक्तियोंका भंग मिथ्यात्वके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त, अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अवस्थित स्थितिविभक्तिका जयन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देवोंके इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। ८४. आनतकल्पप्ते लेकर उपरिम अवेयकतकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त,अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अल्पतर और अवक्तव्य स्थितिविभक्तियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । इसी प्रकार शुक्ललेश्यामें जानना चाहिए। 5८५. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तर नहीं है । इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी,मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के जानना चाहिए। ६८६. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, बस और सपर्याप्त जीवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका भंग ओघके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग ओघके समान है। किन्तु १. आ०प्रतौ सम्मामि० इति पाठः । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ ट्ठिदिविहत्ती ३ सम्मत्त० सम्मामि० भुज० श्रवट्ठि ० ज० अंतोमु०, उक्क० सगट्ठिदी देभ्रूणा । अप्पदर० ज० एस ०, अव्वत्तव्य० ज० पलिदो० असंखे ०भागो । उक्क० सगट्ठिदी देणा । एवं पुरिस० चक्खु०सणि त्ति । ४८ $ ८७. पंचमण० - पंचवचि ० मिच्छत्त-सोलसक० णवणोक० भुज० - अप्पदर ० अव०ि ज० एगसमओ, उक्क अंतोमु० । सम्म० सम्मामि० अप्प० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० | सेसाणं णत्थि अंतरं । एवमोरालिय० वेडव्वि ० चत्तारिकसायाणं । - ८८. कायजोगि० मिच्छत्त-सोलसक० णवणोक० भुज० अवट्टि० ज० एस ०, उक० पलिदो ० असं० भागो अप्प० ज० एस ०, उक्क० अंतोमु० । अणंताणु ०चक्क० अवतन्त्र ० णत्थि अंतरं । सम्मत्त सम्मामि० भुज ० - अवट्टि० - श्रवत्तव्व० णत्थि अंतरं । अप्पदर० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । कम्मइय० छब्वीसं प्यडीणं भुज०अप्पदर० - अव०ि जहण्णुक० एगसमओ । सेसं णत्थि अंतरं । एवमणाहार० । एगस ०, ९८६. इत्थि० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० भुज० श्रवडि ० ज० उक्क० पणवण्ण पलिदो० देसूणाणि । अप्पदर० ओघं । णवरि अणंताणु ० चउक्क० अप्पइतनी विशेषता है कि वक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियों का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यो के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । इसी प्रकार पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनवाले और संज्ञी जीवों के जानना चाहिए । ८७. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तियों का जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । तथा शेष स्थितिविभक्तियों का अन्तर नहीं है । इसी प्रकार औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी और चार कषायवाले जीवों के जानना चाहिए । § ८८. काययोगियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकपायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका अन्तर नहीं है । सम्यक्त्व ओर सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका अन्तर नहीं है । अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । कामंणकाययोगियों में छब्बीस प्रकृतियों की भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तियों का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । शेषका अन्तर नहीं है । इसी प्रकार अनाहारकोंके जानना चाहिए । S =६. स्त्रीवेदियों में मिध्यात्व सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियों का जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचवन पल्य है । अल्तर स्थितिविभक्तिका अन्तर ओघ के समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी १. ता-प्रतौ एगस० ।... अठ-इति पाठः । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारअंतर ४६ दर० ज० एगस०, उक्क० पणवण्ण पलिदो० देसूणाणि । अवत्तव्व० ज० अंतोमु०, उक्क० सगद्विदी देसूणा। सम्मत्त-सम्मामि० भुज०-अवढि० ज० अंतोमुहुत्तं, अप्पदर० ज० एगसममो, अवतव्व० ज० पलिदो० असंखे०भागो, उक० सव्वेसि पि सगट्टिदी देसूणा। णवंस० मिच्छत्त० सोलसक०-णवणोक. भुज० अवढि० ज० एगसमो, उक० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि | अप्पदर० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । णवरि अणंताणु०चउक्क० अप्पदर० ज० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अवत्तव्व० ज० अंतोमु०, उक्क० अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूणं । सम्मत्त-सम्मामि० ओघं । एबमसंजद० । $ ९०. मदि०सुद० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० भुज०-अवढि० ज० एगस०, उक्क० एकत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । अप्पदर० ओघ । सम्मत्त-सम्मामि० अप्प० णत्थि अंतरं । एवं मिच्छादिट्ठीणं । अभव० छन्वीसं पयडीणमेवं चेव । ६१. किण्ह०-णील०-काउ० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक. भुज-अवहि० ज० एगस०, उक्क० सगढिदी देसूणा । अप्पदर० ओघं। अणंताणु०च उक्क० भुज०-अवहि. ज० एगस०, अप्पदर ज० एगस०, अवत्तव्व० ज० अंतोमु०, उक्क० सव्वेसिं सगहिदी चतुष्ककी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचवन पल्य है । अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। नपंसकवेदियों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहूर्त है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार असंयत जीवोंके जानना चाहिए। ६६०. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तर ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टियोंके जानना चाहिए। अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंका इसी प्रकार जानना चाहिये। ६ ९१. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका ओघके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका जघन्य अन्तर एक समय, अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थिातप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૫૦ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे द्विदिविहत्ती ३ देसूणा। सम्मत्त-सम्मामि० भुज०-अवढि० ज० अंतोमु०, अप्पदर० ज० एगस०, अवत्तव्य० ज० पलिदो० असंखे०भागो, उक्क. सव्वेसिं सगढिदो देसूणा । तेउ. सोहम्मभंगो । पम्म० सहस्सारभंगो । असण्णि० एइंदियभंगो। णवरि छव्वीसपयडी० भुज-अवाहि० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। आहारि० ओघं । णवरि जम्हि उबड्डपोग्गलपरियट्ट तम्हि अंगुलस्स असंखे०भागो। एवमंतराणुगमो समत्तो । * णाणाजीवेहि भंगविचरो $ ६२. सुगममेदं; अहियारसंभालणफलत्तादो। * संतकम्मिएसु पयदं । ६६३. कुदो १ असंतकम्मिएसु भुजगारादिपदाणमसंभवादो । * सव्वे जीवा मिच्छत्त-सोलकसाय-णवणोकसायाणं भुजगारहिदिविहत्तिया च अप्पदरहिदिविहत्तिया च अवहिदहिदिविहत्तिया च । ६ ९४. एदेसिं कम्माणं भुजगार-अप्पदर-अवट्टिदहिदिविहत्तिया सव्वे जीवा ते णियमा अस्थि ति संबंधो काययो । * अणंताणुबंधीणमवत्तव्वं भजिदव्वं । भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । पीतलेश्यामें सौधर्मके समान भंग है। पद्मलेश्यामें सहस्रारके समान भंग है। असंज्ञियोंमें एकेन्द्रियों के समान भंग है। इतनी विशेषता है कि छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। आहारकोंके ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि जहाँ उपाधपुद्गल परिवर्तनप्रमाण अन्तर कहा है वहाँ इनके अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तर कहना चाहिये । इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। * अब नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमका अधिकार है। ६२. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि इसका फल अधिकारकी सम्हाल करना है । * सत्कर्मवाले जीवोंका प्रकरण है। ६६३. शंका-सत्कर्मवाले जीवोंमें ही इस अधिकारकी प्रवृत्ति क्यों होती है ? समाधान-क्योंकि जिन जीवोंके मोहनीयकर्मकी सत्ता नहीं है उनमें भुजगारादि पदोंका पाया जाना सम्भव नहीं है। ___ * मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगारस्थिति विभक्तिवाले, अल्पतरस्थितिविभक्तिवाले और अवस्थितस्थितिविभक्तिवाले सब जीव नियमसे हैं। SE४. इन पूर्वोक्त कर्मोंकी भुजगार, अल्लतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जो सब जीव हैं वे नियमसे हैं ऐसा यहाँ सबन्ध करना चाहिये। * अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्य पद भजनीय है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपडिभुजगारभंगविचओ ६ ९५. कुदो ? विसंजोइदअणंताणु० चउक्क० सम्माइट्ठीणं णिरंतरं मिच्छत्तगुणेण परिणमणाभावादो। * सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार-अवहिद-अवत्तवहिदिविहत्तिया भजिदव्वा । ६६६. कुदो ? णिरंतरं सम्मत्तं पडिवजमाणजीवाणमभावादो। * अप्पदरहिदिविहत्तिया णियमा अस्थि । ६७. कुदो? सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसंतकम्मियजीवाणं तीदाणागदवट्टमाणकालेसु विरहाभावादो। ९८, एवं जइवसहाइरियदेसामासियसुत्तत्थपरूवणं काऊण संपहि जइवसहाइरियसूचिदत्यमुच्चारणाए भणिस्सामो। णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिदेसोओघे० आदेसे० । ओघेण० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० भुज०-अप्पदर०-अवट्ठि. ६५. क्योंकि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करनेवाले सम्यग्दृष्टि जीवोंका मिथ्यात्व गुणके साथ निरन्तर परिणाम नहीं पाया जाता। * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव भजनीय हैं। ६६. क्योंकि, निरन्तर सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीव नहीं पाये जाते हैं। * अल्पतरस्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। ६६७. क्योंकि, सम्यक्त्व और सभ्यग्मिथ्यात्वसत्कर्मवाले जीवोंका अतीत अनागत और वर्तमान इन तीनों कालोंमें अभाव नहीं है। विशेषार्थ-यहाँपर भुजगार आदि पदोंका आलम्बन लेकर नाना जीवोंकी अपेक्षा भंग. विचयका विचार किया जा रहा है । मोहनीयके कुल भेद २८ हैं। उनमें से मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकपायोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदवाले नाना जीव निरन्तर पाये जाते हैं, यह स्पष्ट ही है, क्यों कि यथासम्भव मिथ्यात्व आदि गुणस्थानोंमें इनका निरन्तर बन्ध सम्भव होनेसे ये बन जाते हैं। किन्तु अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अवक्तव्य पदकी यह स्थिति नहीं है। कारण कि जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थानमें आता है उसीके यह पद सम्भव है पर ऐसे जीवोंका निरन्तर उक्त गुणस्थानोंको प्राप्त होना सम्भव नहीं है। कदाचित् एक भी जीव उक्त गुणस्थानोंका नहीं प्राप्त होता और कदाचित् एक जीव तथा कदाचित नाना जीव वात गुणस्थानोंका प्राप्त होते हैं, इसलिए अनन्तानुबन्धीके अवक्तव्य पदवाले भजनीय कहे हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर पदवाले जीव तो सदा पाए जात प्रकृतियोंकी सत्तावाले सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टि जीवोंकानिरन्तर सद्भाव पाया जाता है और उनके एक मात्र अल्पतर पद ही होता है पर इन प्रकृतियोंके शेष पद भजनीय हैं, क्योंकि शेष पद, जो मिथ्या. त्वसे सम्यक्त्वको प्राप्त करते हैं, उनके ही प्रथम समयमें सम्भव हैं और ऐसे जीव निरन्तर नहीं पाये जाते, अतः इन प्रकृतियोंके भुज़गार, अवस्थित और अवक्तव्य पदवाले जीव भजनीय कहे हैं। ६८. इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यके देशामर्षकसूत्रके अर्थका कथन करके अब यतिवृषभ आचार्यके द्वारा सूचित किये गये अर्थकी उच्चारणाका कथन करते हैं-नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आश्चनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा किन Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहु [हिदिविहत्ती ३ णियमा अस्थि । अणंताणु०चउक० भुज०-अप्प०-अवट्ठि० णियमा अस्थि । अवत्तव्वं भयणिजा। सिया एदे च अवत्तव्वविहत्तिओ च, सिया एदे च अवत्तव्वविहत्तिया च । सम्मत्त ०-सम्मामि० अप्पदर० णियमा अत्थि । सेसपदा भयणिज्जा । एवं तिरिक्ख०कायजोगि०-ओरालिय०-णवूस०-चत्तारिक०-असंजद०-अचक्खु०-किएह-णील-काउ.. भवसि०-आहारि त्ति । ६९९. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० अप्पदर०-अवढि० णियमा अस्थि । [भुज० भयणिज्जा० ।] सिया एदे च भुजगारविहत्तिओ च, सिया एदे च भुजगारविहत्तिया च । अर्णताणु०चउक्क० अप्पद० अवढि० णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिजा। सम्मत्त-सम्मामि० ओघभंगो। एवं सव्वणेरइय-पंचिंदियतिरिक्खतिय०-मणुसतिय०-देव०-भवणादि जाव सहस्सार०-पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज-तस-तसपज०मिथ्यात्व, बारह कपाय और नौ नाकषायोंका भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। प्रवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव भजनीय हैं। कदाचित् ये भुजगारादि विभक्तिवाले बहुत जीव होते हैं और अवक्तव्यविभक्तिवाला एक जीव होता है। कदाचित् ये भुजगारादिविभक्तिवाले नाना जीव होते हैं और अवक्तव्य विभक्तिवाले नाता जीव होते हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। तथा शेष पदवाले जीव भजनीय हैं। इसी प्रकार तियच, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेवाले, क्रोधादि चार कषायवाले, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले कपोतलेश्यावाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषाय इन २२ प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित ये तीन पद होते हैं जो सर्वदा पाये जाते हैं इसलिये इनकी अपेक्षा एक ध्रवभंग ही होता है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कके चार पद हैं जिनमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित ये तीन पद ध्रुव हैं और अवक्तव्यपद अध्रुव है। अवक्तव्यपवाला कदाचित् एक जीव होता है और कदाचित् नाना। अब इन दो भंगोंमें ध्रवभंग और मिला दिया जाता है तो अनन्तानुबन्धीकी अपेक्षा कुल तीन भंग प्राप्त होते हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्थात्वके चार पद हैं। जिनमें भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य ये तीन भजनीय और एक अल्पतर ध्रुव है, अतः यहाँ कुल २७ भंग होते हैं, क्योंकि एक और नाना जीवोंकी अपेक्षा तीन भजनीय पदोंके २६ भंग और उनमें एक ध्रुव भंगके मिलानेपर कुल २७ भंग होते हैं। तियच आदि मूलमें गिनाई गई कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें यह ओघ प्ररूपणा घटित हो जाती है, अतः उनके कथनको ओघके समान कहा है। ६६६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। इनके भुजगार पदवाले जीव भजनीय हैं। कदाचित् ये नाना जीव हैं और एक भुजगार स्थितिविभक्तिवाला जीव है। कदाचित् ये नाना जीव हैं और नाना भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव हैं। अनन्तानु बन्धीचतुष्ककी अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं तथा शेष पद भजनीय हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार सब नारकी, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तियेच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिथेच यानिमती, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेद Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] वित्तीय उत्तरपर्याडभुजगार भंगविचश्रो पंचमण० - पंचवचि ० - वेउच्चिय ० इत्थि ० पुरिस० चक्खु ० तेउ०- पम्म० सण्णि त्ति । $१००. पंचि०तिरि०अपज० मिच्छत्त- सोलसक० णवणोक० णारयभंगो | णवरि अनंताणु अवत्त० णत्थि । सम्म० सम्मामि० अप्प० णियमा अत्थि । एवं सच्चत्रिगलिंदिय-पंचिंदिय अपज्ज० - बादरपुढ विपज्ज० - बादरआउ० पज ० -बादरते उपज ० - बादरवाउपज ०- बादरवणफदिपत्तेय ० पञ्ज० तस अपज ० - विहंगणाणि ति । $ १०१. मणुस अपज० छब्वीसं पयडीणं सव्वपदा भयणिजा । भंगा छव्वीस; ध्रुवपदाभावादो । सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमप्पदरं भयणिज्जं । भंगा दोण्णि, धुवाभावादो । एवं वेउव्विय मिस्स ० | I ५३ वाले, पुरुषवेदवाले, चतुदर्शनवाले, पीतलेश्यात्राले, पद्मलेश्यावाले और संज्ञी जोवों के जानना चाहिए । विशेषार्थ – नरक में मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंके दो पद ध्रुव और एक पद भजनीय बतलाया है, अतः इनके ध्रुव भंगके साथ तीन भंग प्राप्त होते हैं । अनन्तानुबन्धी चतुष्कके चार पदोंमेंसे अल्पतर और अवस्थित ये दो पद ध्रुव तथा भुजगार और अवक्तव्य ये दो पद भजनीय बतलाये हैं, इसलिये इनके नौ भंग प्राप्त होते हैं । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व जिसप्रकार ओघसे २७ भंग बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिये । मूलमें सब नारी आदि और जितनी मार्गणाएं गिनाईं हैं उनमें उक्त व्यवस्था बन जाती है । $ १००. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायों की अपेक्षा नारकियों के समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यस्थितिविभक्ति नहीं है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं । इसी प्रकार सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बादरपृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पति कायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त, त्रस अपर्याप्त और विभंगज्ञानी जीवों के जानना चाहिए । विशेषार्थ – पञ्चेन्द्रिय तिर्येच लब्ध्यपर्याप्तक मिथ्यादृष्टिही होते हैं, उनमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अवक्तव्य भंग नहीं बनता । अतः इनके मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषाय इन सबके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित ये तीन पद ही होते हैं । इनमें से दो पद ध्रुव और एक भुजगार पद भजनीय है, अतः कुल तीन भंग प्राप्त होते हैं । यहाँ नारकियों के समान कहनेका मत यह है कि जिसप्रकार नारकियोंके एक भुजगार पद भजनीय बतलाया उसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तियँच लब्ध्यपर्याप्तकों के भी जानना चाहिये । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अपेक्षा इनके एक अल्पतर पद ही पाया जाता है जो ध्रुव है, अतः इनकी अपेक्षा एक ध्रुव भंग ही प्राप्त होता है । सब विकलेन्द्रिय आदि और जितनी मार्गणाएं मूलमें गिनाई हैं उनमें भी यह व्यवस्था बन जाती है, अतः उनके कथनको पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान कहा । १०१. मनुष्य अपर्याप्तकों में छब्बीस प्रकृतियोंके सत्र पद भजनीय हैं। भंग छब्बीस ही होते हैं, क्योंकि यहाँ ध्रुवपदका अभाव है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्यका अल्पतर पद भजनीय है। भंग दो होते हैं, क्योंकि ध्रुवपदका अभाव है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों के जानना चाहिए। विशेषार्थ - लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य यह सान्तर मार्गणा है । अतः इसमें २६ प्रकृतियोंके तीनों पद भजनीय हैं जिनके कुल भंग २६ होते हैं । यहाँ ध्रुव पदका अभाव होनेसे ध्रुव भंगका निषेध किया है । यद्यपि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका यहाँ एक अल्पतर पद ही है फिर भी सान्तर मार्गणा के कारण वह भी भजनीय है अतः उसके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा दो भंग कहे। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे हिदिविहत्ती ३ १०२. आणदादि जाव उवरिमगेवजो ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० अप्पदर० णियमा अस्थि । अर्णताणु०चउक्क० अप्पदर० णियमा अस्थि । अवत्तव्यविहत्तिया भयणिजा । भंगा तिण्णि । सम्मत्त-सम्मामि० ओघं । एवं सुक्कले० । अणुदिसादि जाव सव्वट्ठ० सव्वपयडीणमप्पदर० णियमा अस्थि । एवमाभिणि-सुद०-ओहि-मणपज०संजद-सामाइय-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद-अोहिदंस०-सम्मादि'०-खइय०-- वेदय०दिट्टि ति। १०३. एइंदिय० सव्वपयडि० सव्वपदा णियमा अत्थि । एवं बादरसुहुमेइंदियपञ्जत्तापजत्त-[ पुढवि०-बादरपुढवि०.] बादरपुढवि०अपज०-सुहुमपुढविपजत्तापजत्त[आउ०-बादरआउ० वादरआउअपज०-सुहुमाउ०पज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-बादरतेउ०]वादरतेउअपज०-सुहुमतेउपजत्तापज्जत्त-वाउ०-बादरवाउ०] बादरवाउअपज०-सुहुमवाउपजत्ता यहाँ भी ध्रुव पदका अभाव होनेसे ध्रव भंगका निषेध किया। वैक्रियिकमिश्रकाययोग यह भी सान्तर मार्गणा है और इसमें लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंके समान सब प्रकृतियोंके पद तथा भंग बन जाते हैं, अतः इनके कथनको लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों के समान कहा। १०२. आनतकल्पसे लेकर उपरिम ग्रेवयक तकके देवों में मिथ्यात्व, बाहर कषाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। अनन्तानबन्धी चतष्ककी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव भजनीय हैं। भंग तीन होते हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कथन ओघके समान है। इसी प्रकार शुक्ल लेश्यावाले जीवोंमें है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-आनतसे लेकर उपरिमौवेयकतकके देवोंके मिथ्यात्व आदि २२ प्रकृतियोंका एक अल्पतर पद ही बतलाया है, अतः इनका एक ध्रुव भंग ही होता है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अल्पतर और अवक्तव्य ये दो पद बतलाये हैं। इनमें से अल्पतर पद ध्रुव है और अवक्तव्य पद अध्रुव है। अतः एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा इन अवक्तव्य सम्बन्धी दा अध्रुव भंगोंमें एक ध्रुवभंगके मिला देनेपर तीन भंग प्राप्त होते हैं। आनतादिकमें मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति और सम्यक्त्वसे मिथ्यात्वकी प्राप्ति सम्भव है, अतः यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके ओघके समान चारों पद और उनके २७ भंग बन जाते हैं। यही कारण है कि यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भंगोंको ओघके समान कहा है। अनुदिश आदिकमें तो सम्यग्दृष्टि जीव ही होते हैं और सम्यग्दृष्टियोंक सब प्रकृतियोंका एक अल्पतर पद ही होता है। इसीलिये अनुदिशादिकमें सब प्रकृतियोंका एक अल्पतर पद कहा है। मूलमें आभिनिबोधकज्ञानी आदि और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी एक अल्पतर पद ही सम्भव है, अत: उनके कथनको अनुदिश आदिके समान कहा। ६१०३. एकेन्द्रियोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदवाले जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक तथा Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] वित्तीय उत्तरपयडिभुजगार भागाभागो पञ्जत- - [वणष्फदि० - बादरवणफदि०-] बादरवणष्फ दिपत्तेय ० पञ्ज ०० - [सुहुमवणफदि पज्जत्तापज्जत्त ० - ] बादरणिगोद ० - सुहुमणिगोदपज्जत्तापज्जत्त ओरालियमि० कम्मइय०मदि०सु० - अभवसि ०-मिच्छादि० असण्णि-अणाहारि ति । गवरि कम्मइय- अणाहारि० सम्म० सम्मामि ० अप्पद० भयणि० । श्राहार० - आहारमि० सव्वपयडीणमप्पदरं भयणिजं । एवमवगद ० - अकसा०-सुहुम ० - जहाक्खाद ० - उवसम० ससाण० सम्मामि० दिट्टि ति । एवं णाणाजीवेहि भंगविचओ समत्तो । दे० । श्रघेण मिच्छत्त $ १०४. भागाभाग शुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओघे० बारसक० णवणोक० भुज० सव्वजी० केवडियो भागो ? असंखे० भागो । अप्पद ० केवडिओ भागो ? असंखेजा भागा। अब ट्ठि० सव्वजी० के० १ संखे ० भागो । एवमणंताणु० चउक्क० । णवरि श्रवत्तव्य अनंतिमभागो । सम्मत्त सम्मा मि० अप्पदर० सव्वजी ० उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सूक्ष्मवनस्पति व उनके पर्याप्त और अपर्याप्त बादर निगोद और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त सूक्ष्म निगोद और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, अभव्य, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव भजनीय | आहारककाययोगी और आहारकमिश्र काययोगियों में सब प्रकृतियों का अल्पतर पद भजनीय है । इसी प्रकार अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के जानना चाहिए । विशेषार्थ — एकेन्द्रियोंके २८ प्रकृतियों में से जिसके जितने पद सम्भव हैं उन पदवाले जीव सर्वदा रहते हैं अतः यहाँ एक ध्रुव भंग ही होता है। इसी बात के द्योतन करनेके लिये 'सब प्रकृतियोंके सब पद नियमसे हैं यह कहा है । इसी प्रकार मूलमें गिनाई गई बादर एकेन्द्रिय आदि मार्गणाओं में एक ध्रुव पद ही प्राप्त होता है अतः उनके कथनको एकेन्द्रियोंके समान कहा । किन्तु कार्य काययोग और अनाहारक मार्गणा में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीव कदाचित् पाये जाते हैं और कदाचित् नहीं पाये जाते हैं, इसलिये इनमें उक्त प्रकृतियोंका अल्पतर पद भजनीय है जिससे एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा दो भंग प्राप्त होते हैं । आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगमें सब प्रकृतियोंका एक अल्पतर पद ही होता है फिर भी यह सान्तर मार्गणा है इसलिये इसमें अल्पतर पदको भजनीय कहा । यहाँ भी दो भंग होते हैं । मूलमें अपगतवेद आदि और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें सब प्रकृतियों के अल्पतर पदवीला कदाचित् एक जीव और कदाचित् नाना जीव होते हैं अतः उनके कथनको आहारक काययोगियों के समान कहा । इस प्रकार नानाजीवों की अपेक्षा भंगविचय समाप्त हुआ । o १०४. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ निर्देश और आदेशनिर्देश | उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकायोंकी भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं । अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं । अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवों के कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव अनन्तवें भाग हैं । सम्यक्त्व और Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ केव० १ असंखेजा भागा । सेस० असंखे भागो। एवं तिरिक्ख-कायजोगि-ओरालिय०णवूप०-चत्तारिक० असंजद०-अचक्खु०-तिण्णिले०-भवसि०-पाहारि त्ति । १०५. आदेसेण णेरइएसु एवं चेव । णवरि अणंताणु० चउक्क० अवत्तव्वमसंखे०. भागो। एवं सत्तसु पुढवीसु पंचिंदियतिरिक्खतिय०-देव०-भवणादि जाव सहस्सार०. पंचिदिय-पंचिं०पज्ज-तस-तसपज्ज०-पंचमण०-पंचवचि०-वेउवि०-इत्थि०-पुरिस०चक्खु०-तेउ०-पम्म०-सण्णि त्ति । $१०६. पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० छव्वीसं पयडीणमेवं चेव । णवरि अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्व० णत्थि। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं णत्थि भागाभागं; एगप्पदरपदत्तादो । एवं मणुसअपज्ज-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचकाय-तसअपज०. ओरालियमिस्स०-वेउवि०मिस्स-कम्मइय-मदि-सुद०-विहंग०-मिच्छादिहि-असण्णिअणाहारि त्ति। १०७. मणुस० णिरओघं । मणुसपन्ज-मणुसिणी० एवं चेव । णवरि जम्हि असंखे०भागो तम्हि संखे०भागो कायव्वो। १०८. आणदादि जाव उवरिमगेवजो त्ति अणंताणु०चउक्क० अप्प० सव्वजी. के० ? असंखेजा भागा। अवत्तव्य. असंखे०भागो। सम्मत्त-सम्मामि० ओघं । सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं। तथा शेष पदवाले असंख्यातवें भाग हैं। इसी प्रकार तियंच, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। 8 १०५. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले असंख्यातवें भाग हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तियेच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तियेच योनिमती, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, बस पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, चक्षुदर्शनवाले पीतलेश्यावाले. पद्मलेश्यावाले, और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए। ६१०६. पंचेन्द्रियतिथेचअपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियों की अपेक्षा इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अवक्तव्यपद नहीं है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भागाभाग नहीं है, क्योंकि यहाँ इन दोनों प्रकृतियोंका एक अल्पतरपद है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सब पाँचों स्थावर काय त्रस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिथ्या दृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। ६ १०७. सामान्य मनुष्यों में सामान्य नारकियोंके समान जानना चाहिए । मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि जहाँ असंख्यातवाँ भाग कहा है वहाँ संख्यातवाँ भाग कर लेना चाहिये। ६ १०३. आनत कल्पसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक तकके देवोंमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं। तथा अवक्तव्य Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारपरिमाणं सेसपयडि० णत्थि भागाभागं। एवं सुक्कले० । अणुदिसादि जाव सव्वट्ठ० सवपयडी० णत्थि भागाभागं। एवमाहार-माहारमिस्स०-अवगद०-प्रकसा०-आभिणि.. सुद०-श्रोहि०-मणपज०-संजद० सामाइय-०छेदो०-परिहार ०-सुहुम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद०-ओहिदंस०-सम्मादिढि०- खइय--वेदय०-उवसम-सासाण०-सम्मामिच्छादिट्टि त्ति । अभव० छव्वीसपयडि० मदिभंगो।। एवं भागाभागाणुगमो समत्तो । १०६. परिमाणाणुगमेण दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण । ओघेण मिच्छत्तबारसक०-णवणोक तिण्णि पदा० केत्तिया ? अणंता। अणंताणु०चउक्क० एवं चेव । णवरि अवत्तव्य. असंखेजा। सम्मत्त-सम्मामि० सव्वपदा केत्तिया? असंखेजा । एवं तिरिक्ख-कायजोगि-ओरालि०-णqस०-चत्तारिक०-असंजद०-अचक्खु०-तिण्णिले०भवसि०आहारि ति । ___ ११०. आदेसेण णेरइएसु सव्वपयडीणं सव्वपदा केत्तिया ? असंखेजा। एवं सवणेरइय० सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसअपज०-देव०-भवणादि जाव सहस्सार०-पंचिंदिय-पंचिं०पज-तस-तसपज्ज०-पंचमण-पंचवचि०-वेउव्विय०-इत्थि०-पुरिस०-चक्खु०. तेउ०-पम्म०-सण्णि त्ति । मणुस० अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्व० केत्ति ? संखेज्जा। स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भाग हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कथन ओघके समान है। यहाँ शेष प्रकृतियोंकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है। इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें जानना चाहिए। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है । इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भंग मत्यज्ञानियोंके समान है। इस प्रकार भागाभागानुगम समाप्त हुआ। ६१०६. ओघ और आदेशकी अपेक्षा परिमाणानुगम दो प्रकारका है। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा तीन पदवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पदवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसी प्रकार तिर्यंच, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, अचक्षदर्शनवाले, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य और पाहारक जीवोंके जानना चाहिए। ६ ११०. श्रादेशकी अपेक्षा नारकियोंमें सब प्रकृतियों के सब पदवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रारस्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त , त्रस, सपर्याप्त, पांचों मनोयोगो, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, चक्षुदर्शनवाले, पीतलेश्यावाले, पद्म लेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए। मनुष्यों में अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूस जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ सम्मत्त-सम्मामि० भुज०-अवट्ठि०-अवत्तव्व० केत्ति ? संखेज्जा। सेसपयडीणं सव्वपदा० अणंताणु० भुज०-अप्प०-अवढि० सम्म०-सम्मामि० अप्प० के० ? असंखेज्जा । $ १११. मणुसपज्ज०-मणुसिणी० सव्वपयडी० सव्वपदा० के० ? संखेज्जा । एवं सबढ०-आहार-आहारमिस्स०-अवगद० अकसा०- मणपज्ज०-संजद० - सामाइय-छेदो०. परिहार०-सुहुम०-जहाक्खादसंजदे ति। ६ ११२. आणदादि जाव उपरिमगेवज्जो ति सव्यपयडीणं सवपदा० के० ? असंखेज्जा । एवं सुकले० । अणुदिसादि जाव अवराइद त्ति सव्वपयडि. अप्पदर० के• ? असंखेज्जा। एवमाभिणि सुद०-ओहि०-संजदासंजद०-ओहिदंस०-सम्मादि०खइय०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्पामिच्छादिट्टि त्ति । ११३. एइंदिरासु मिच्छत्त०-सोलसक०-णवणोक० सव्वपदा० के० ? अणंता। सम्मत्त-सम्मामि० अप्पदर० के० १ असंखेज्जा। एवं सव्वएइंदिय-वणफदि०-बादरसुहमपज्जत्तापज्जत्त-णिगोद०- बादर-सुहम-पज्जत्तापज्जत्त - ओरालियमिस्स - कम्मइयमदि-सुद०-मिच्छादि०-असण्णि-अणाहारि त्ति । विगलिंदियाणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। एवं पंचिं०अपज्ज०-चत्तारिकाय-तस अपज्ज०-वेउब्वियमिस्स-विहंगस्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। तथा शे। प्रकृतियों के सब पदवाले अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। ६ १११. मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसीप्रकार सर्वार्थसिद्धिके देव, आहारककाययोगी, अाहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदवाले, अकषायवाले, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहार. विशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिए। ११२. आनतकल्पसे लेकर उपरिमौवेयकतकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें जानना चाहिए। अनुदिशसे लेकर अपराजिततकके देवोंमें स । प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्ति वाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसीप्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। ६११३. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके सब पदवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक, उनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, निगोद, उनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, ताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना। विकलेन्द्रियों के पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भंग है। इसीप्रकार पंचेन्द्रिय अपर्याप्त. पृथिवी आदि चार स्थावरकाय, त्रय अपर्याप्त, बैक्रियिकमिश्रकाययोगी और विभंगज्ञानी जीवों के Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारखेत्तं णाणि त्ति । अभव० छव्वीसपयडि० मदिभंगो। एवं परिमाणाणुगमो समत्तो। $ ११४. खेत्ताणुगमेण दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त. बारसक०-णवणोक० तिण्णिपदा केवडि खेत्ते ? सबलोगे। अणंताणु० चउक्क० एवं चेव । णवरि अवत्त० लोगस्स असंखे भागे। सम्मत्त०-सम्मामि० सव्वपदा० लोग० असंखे०भागे। एवं तिरिक्ख०-कायजोगि०-ओरालिय०-णqस०-चत्तारिक०-असंजद०. अचक्खु०-तिण्णिले०-भवसि०आहारि ति । ११५. आदेसेण णेरइएसु सव्वपयडी०सव्वपदा के०१ लोग० असंखे भागे। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख०-सव्वमणुस०-सव्वदेव०-विगलिंदिय-सव्वपंचिंदियबादरपुढविपज्ज० बादरभाउपज्ज० बादरतेउपज्ज०-बादरवाउपज्ज०-बादरवणप्फदिपत्तेयपज्ज०-सव्वतस०-पंचमण०-पंचवचि.-वेउव्विय०-वेउ-मिस्स०- आहार-आहारमिस्स०इत्थि०-पुरिस०-विहंग-आभिणि सुद०-ओहि०-मणपज्ज० -संजद०-सामाइय-छेदो०परिहार०-सुहम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद०-चक्खु०-ओहिदंस०-तिण्णिले-सम्मादिढि०खइय०-वेदय-उवसम-सासाण ० सम्मामि०-सण्णि ति। णवरि बादरवाउपज्जत्त. सम्मत्त-सम्मामि० अप्पदरवज्जं लोग० संखे०भागे। जानना चाहिए। अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा मत्यज्ञानियों के समान भंग है। इस प्रकार परिमाणानुगम समाप्त हुआ। ६११४. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओ घनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमें से ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंके तीन पदवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सब लोकमें रहते हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा इसीप्रकार जानना। किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पदवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यंच, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुसकवेदवाले, क्रोधादिचारों कषायवाले, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। ६११५. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पंचेन्द्रियतिथंच, सब मनुष्य, सब देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिकपर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिकपर्याप्त, बादर वायुकायिकपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, सब त्रस, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले. पीत आदि तीन लश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि बादरवायुकायिकपर्याप्तक जीवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंको छोड़कर शेष पदवाले जीव लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ s ११६. एइदिए मिच्छत्त-सोलसक० णवणोक० भुज० - अवट्ठि अप्पदर० ओघं । सम्मत्त सम्मामि० अप्पदर० ओघं । एवं बादर-सुहुमेइं दिय-पज्जत्तापज्जत्त-पुढवि० - बादरपुढवि अपज्ज० - सुहुम पुढ वि-पज्जत्तापज्जत्त आउ०- बादरआउअपज्ज० सुहुम आउपज्जत्तापज्जत्त ० - तेउ० - बादरतेउ० अपज्ज० मुहुमते उपज्जता पज्जत वाउ०- बादरवाउअपज्ज० - सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त- बादरवणष्फदिप त्तेय सरीरपज्ज० वणष्कदि ० णिगोद० - बादर सुहुम पज्जत्ता पज्जत' ओरा लिय मिस्स ० कम्मइय० मदि० सुद० -मिच्छादि ० असण्णि० आहारि ति । $ ११८. अगद० सव्वपयडि० अप्प० लोग० असंखे ० भागे । एवमकसा० । अभवसि ० छव्वीसपयडीणं मदि० भंगो | एवं खेत्ताणुगमो समत्तो । ११८. पोसणागमेण दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण ६० - $ ११६. एकेन्द्रियोंमें मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नाकषायोंकी भुजगार, अवस्थित और अल्पतरु स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र ओघ के समान है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र ओघ के समान है। इसी प्रकार बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अभिकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक तथा उनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, निगोद, तथा उनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, श्रदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये । ११७. अपगतवेदियों में सब प्रकृतियों की अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं । इसी प्रकार अकषायी जीवोंके जानना चाहिए । अभव्यों में छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा मत्यज्ञानियोंके समान भंग है । विशेषार्थ - ओघ से मिथ्यात्व सोलह कषाय और नौ नोकपायोंकी भुजगार, अवस्थित और अल्पतर स्थितिवाले जीव अनन्त हैं और ये सब लोकमें पाये जाते हैं, अतः इनका क्षेत्र सब लोक कहा । तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिवाले और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्व के सब पदवाले जीव श्रसंख्यात होते हुए भी स्वल्प हैं, अतः इनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा । यह व्यवस्था तिर्यंचगति आदि मूलमें गिनाई हुई मार्गणाओं में बन जाती है, अतः इनके कथनको ओघ के समान कहा । आदेशसे जिस मार्गणावाले और उसके अवान्तर भेदोंका जितना क्षेत्र है उसमें २६ प्रकृतियोंके सम्भव पदवालोंका उतना क्षेत्र कहा । किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा सर्वत्र सम्भव पदवालोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिवाले जीवोंका क्षेत्र सर्वत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । इस प्रकार क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ । $ ११८. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश | Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] ट्ठिदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारपोसणं ६१ O मिच्छत्त- बारसक० णवणोक० तिन्हं पदाणं विहत्तिएहि केवडियं खेत्तं पो सिदं ? सव्वलोगो । अणंताणु ० चउक० एवं चैव । णवरि अवत्तव्व० लोग० असंखे ० भागो अह चोदसभागा वा देखणा । सम्मत्त० सम्मामि० अप्पदर० के० खे० पो० ? लोग असंखे० भागो पोसिदो अट्ठ चोद्दस • देखणा सव्वलोगो वा । सेसविहत्तिएहि केव० ? लोग० श्रसंखे० भागो अट्ठ चोदस० देसूणा । एवं कायजोगि०- चत्तारिकसा० - असंजद०श्रचक्खु ० भवसि ० - आहारिति । ० $ ११९. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त ० - बारसक० णवणोक० तिन्हं पदाणं विहत्ति ० लोग० असंखे० भागो छ चोदस देणा । अणंताणु० चउक्क० एवं चैव । णवरि उनमें से की अपेक्षा मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकपायोंके तीन पदविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सब लोकका स्पर्श किया है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा इसी प्रकार जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रस नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग, त्रस नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा शेष विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रस नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसी प्रकार काययोगी, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवों के जानना चाहिये । विशेषार्थ - ओघ से मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार, अवस्थित और अतर स्थितिवाले जीव अनन्त हैं और ये सब लोकमें पाये जाते हैं अतः इनका स्पर्श सब लोक कहा । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिवाले जीवोंका वर्तमान स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग है, क्योंकि वर्तमान काल में जिन्होंने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है ऐसे जीव सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्व में जानेवाले बहुत ही थोड़े हैं । तथा अतीत कालीन स्पर्श स नालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग है, क्योंकि यद्यपि ऊपर नौवें ग्रैवेयक तकके और नीचे सातवें नरक तकके जीव अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्य स्थितिको करते हुए पाये जाते हैं । परन्तु उनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग ही है । किन्तु इस पद युक्त देवोंका विहारवत् स्वस्थान त्रस नालीके आठवटे चौदह भाग है अतः इनका अतीत कालीन स्पर्श त्रस नालीके कुछ कम आठबटे चौदह भाग प्रमाण कहा । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिवालोंका स्पर्श तीन प्रकार से बतलाया है । इनमें से लोकका असंख्यातवाँ भागप्रमाण स्पर्श वर्तमान काल की अपेक्षा बतलाया है | कुछ कम आठवटा चौदह भाग प्रमाण स्पर्श विहार आदि पदोंकी अपेक्षासे बतलाया है । और सब लोक स्पर्श मारणान्तिक तथा उपपाद पदकी अपेक्षा बतलाया है । तथा शेष पदोंकी अपेक्षा जो लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्श बतलाया है वह वर्तमान कालकी प्रधानता से बतलाया है और कुछ कम आठवटा चौदह राजु प्रमाण स्पर्श अतीत कालकी अपेक्षा बतलाया है । यहाँ कुछ और मार्गणाएं गिनाई हैं जिनका स्पर्श ओघ के समान प्राप्त होता है, अतः उनके कथनको ओघ के समान कहा । जैसे काययोगी आदि । § ११६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायों के तीन पदवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भाग Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ अवत्तव्व० खेत्तभंगो। सम्मत्त०-सम्मामि० अप्पदर० लोग० असंखे भागो छ चोदस० देसूणा। सेस० लोग० असंखे०भागो। पढमाए खेत्तभंगो। विदियादि जाव सत्तमि ति णिरयोघो । णवरि सगपोसणं कायव्वं । तिरिक्ख० ओघं । णवरि अट्ठ चोद्दस भागा त्ति णस्थि । एवमोरालिय०-णस०-तिण्णिलेस्सा त्ति । १२०. पंचिंदियतिरिक्ख-पंचितिरि०पज्ज-पंचिंतिरि०जोणिणी० मिच्छत्त०सोलसक०-णवणोक० सव्वपदाणं वि० के० खे० पो० १ लोग० असंखे भागो सबलोगो वा। णवरि अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्व० इत्थि०-पुरिस० भुज० अवढि० खेत्तभंगो। सम्म०-सम्मामि० अप्पदर० मिच्छत्तभंगो । सेस. खेत्तभंगो। एवं मणुसतिय० । पंचिंदियतिरिक्ख० अपज्ज० मिच्छत्त०-सोलसक०-णवणोक० तिण्णिपदा० प्रमाण क्षेत्रका स्पश किया है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यका भंग क्षेत्रके समान है । सम्यक्त्व और सम्बग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रस नालीके चौदह भागोंमसे कुछ कम छहभाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा शेष स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । पहली पृथिवी में स्पर्शका भंग क्षेत्रके समान है। दूसरीसे लेकर सातवीं तक सामान्य नारकियोंके समान स्पर्श है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपना अपना स्पर्श कहना चाहिये। तियंचोंमें ओषके समान स्पर्श है। किन्तु इतनी विशेषता है कि आठबटे चौदह भाग यह विकल्प नहीं है। इसी प्रकार औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी और कृष्णादि तीन लेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये । ... विशेषार्थ-सामान्यसे नारकियोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम छहबटे चौदह राजु प्रमाण बतलाया है। वह यहाँ सब प्रकृतियोंके सब पदोंकी अपेक्षा बन जाता है। किन्तु इसके दो अपवाद हैं। एक तो अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अवक्तव्य पदकी अपेक्षा यह स्पर्श नहीं प्राप्त होता, क्योंकि ऐसे जीव मारणान्तिक समुद्धात या उपपाद पदसे रहित होते हैं। इसलिये उनके लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही स्पर्श पाया जाता है। दूसरे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर पदको छोड़कर शेष पदोंकी अपेक्षा भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्श प्राप्त होता है। कारण वही है जो अनन्तानुबन्धीके अवक्तव्य भंगके सम्बन्धमें बतलाया है। प्रथमादि नरकोंमें भी इसीप्रकार अपने अपने स्पर्शको जानकर कथनकर लेना चाहिये । यद्यपि तियंचोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंकी अपेक्षा ओघके समान स्पर्श बन जाता है किन्तु यहाँ कुछ कम आठबटे चौदह राजु स्पर्श नहीं प्राप्त होता, क्योंकि यह स्पर्श देवोंकी प्रधानतासे बतलाया है परन्तु तिर्यञ्चोंमें देव सम्मिलित नहीं हैं । औदारिककाययोग आदि मार्गणाओं में भी इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिये। ६१२०. पंचेन्द्रियतिथंच, पंचेन्द्रियतिथंच पर्याप्त और पंचेन्द्रियतिर्यंच योनिमती जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके सब पविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवालोंका तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका भंग क्षेत्रके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिवालोंका भंग मिथ्यात्वके समान है और शेषका भंग क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार सामान्य, पयोप्त और मनुयिनी इन तीन प्रकारके मनुष्योंके जानना चाहिये । पंचेन्द्रिय Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपडिभुजगारपोसणं ६३ सम्म० - सम्मामि० अप्पदर० पंचिंदियतिरिक्खभंगो | एवं मणुमअपज० सव्व विगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज० - बादर पुढ विपञ्जत- बादरआउपज्ज० - बादर ते उपज्ज० बादरवाउपज्ज[ बादरव०- ] तस अपजत्ता त्ति । णवरि बादरवा उपज छव्वीसपयडि० तिष्णिपदा० लो० संखे० भागो । इत्थ० - पुरिस० भुज० - अवट्ठि० वज्रं सव्वलोगो वा । मिच्छत्त- सोलसक० णवणोक० सव्वपदाणं वि० लोग० असंखे०देसूणा । णवरि अणंताणु० चउक्क० अवत्तव्व ० इत्थि० - पुरिस० असंखे० भागो अट्ठचोदस० देसूणा । सम्म० सम्मामि० भुज० तिर्यंच अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके तीन पदवाले जीवोंका और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरस्थितिविभक्तिवाले जीवों का भंग पंचेन्द्रियतियेंचों के समान है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर पृथिवी कायिकपर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रतेकशरीर और त्रस अपर्याप्त जीवों के जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियों के तीन पदवाले जीवोंने लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिके विना शेष स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सब लोकका स्पर्श किया है । $ १२१. देव० भागो अडणव चो६० भुज ० - अवट्टि० लोग० wwwww. विशेषार्थ – सामान्य नारकियों में सब प्रकृतियोंके सब पदोंके स्पर्शके लिये जो युक्ति दे आये हैं वहीं तिर्यञ्चत्रिक में भी लागू होती है । किन्तु यहाँ भी कुछ अपवाद हैं । दो अपवाद तो वही हैं जो नरकगतिमें बतला आये हैं । तथा एक तीसरा अपवाद स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगा और अवस्थित स्थितिके स्पर्शका है। बात यह है कि यद्यपि उक्त तीन प्रकारके तिर्यंचोंका सब लोक स्पर्श बतलाया है पर यह उन्हीं के प्राप्त होता है जो एकेन्द्रियों में से आकर इनमें उत्पन्न होते हैं या जो एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते हैं । परन्तु ऐसे जीवोंके स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार और अवस्थित स्थिति नहीं पाई जाती, अतः यहाँ इनका स्पर्श क्षेत्र के समान बतलाया है । मनुष्यत्रिमें भी इसीप्रकार विशेषताओंको जानकर स्पर्शका कथन करना चाहिये | पंचेन्द्रियतियँच लब्ध्यपर्याप्तकों में मिथ्यात्व आदिके तीन पदोंकी अपेक्षा तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अल्पतर पदकी अपेक्षा स्पर्श पंचेन्द्रियतिर्यंचों के समान प्राप्त होता है, अतः इनके कथनको पंचेन्द्रियतिर्यंचों के समान बतलाया । मनुष्य अपर्याप्त आदि कुछ और मार्गणाएं हैं जिनमें यह व्यवस्था बन जाती है, अतः इनके कथनको पंचेन्द्रियतिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान बतलाया है । किन्तु बाद वायुकायिकपर्याप्त जीव इसके अपवाद हैं। बात यह है कि बादर वायुकायिक पर्याप्तकोंका स्पर्श लोकके संख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है, अतः इनमें छब्बीस प्रकृतियोंके तीन पदवालोंका स्पर्श लोकके संख्यातवें भागप्रमाण बन जाता है । यहाँ जो स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिवालोंके सब लोक स्पर्शका निषेध किया है सो इसका कारण प्रायः वही है जो पहले बतला आये हैं । १२१. देवों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायों के सब पदविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रस नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोक असंख्यातवें भा । और त्रस नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षत्रका स्पर्श किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ अवढि०-अवत्तव्व० लोग० असंखे०मांगो अट्ठ चोदस० देसूणा। अप्पदर० लोग० असंखे०भागो अट्ठ-णव चोद्दस० देसूणा । एवं सोहम्म० । भवण०-वाण-जोदिसि० एवं चेव । णवरि अछुट्ट-अट्ठ-णव चोदस० देसूणा। सणक्कुमारादि जाव सहस्सार० सव्वपयडि० सव्वपदवि० लोग० असंखे भागो अट्ठ चोद्द० देसूणा। आणदादि जाव अच्चुदे त्ति सव्वपय० सव्वपदवि० लोग० असंखे०भागो छ चोदस० देसूणा । एवं सुक०। उवरि खेत्तभंगो। एवमाहार०-आहारमिस्स०-अवग०-अकसा०-मणपज.. संजद०-सामाइय छेदो०-परिहार०-सुहुम०-जहाक्खाद०-अभवसिद्धिया ति । १२२, एइंदिएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० तिण्हं पदाणमोघं । सम्मत्त.. सम्मामि० अप्पदर० पंचिदियतिरिक्ख अपज्जत्तभंगो। एवं चत्तारिकाय-बादरअपज०सव्वेसिं सुहुमपजतापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेय०अपज्ज०-वणप्फदि-णिगोद०-ओरालियमिस्स०-कम्मइय०-मदि०-सुद०-मिच्छाइट्ठि-असण्णि०-अणाहारि त्ति । स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवेंभाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रर के चौदह भागोंमेंसे कुछकम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसीप्रकार सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देवोंके जानना चाहिये । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके इसीप्रकार जानना । किन्तु इतनी विशेषता है कि उन्होंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछकन साढ़ेतीन, कुछकम आठ और कुछकम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछकम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । आनतसे लेकर अच्युत कल्पतकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और वसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछकम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसीप्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिए। ऊपर नौ ग्रैवेयक आदिमें स्पर्श क्षेत्रके समान है। इसीप्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत और अभव्य जीवोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ पूर्वमें नरकगति आदिमें स्पर्शका जो विवेचन किया है उसे ध्यानमें रखते हुए देवोंमें और उनके अवान्तर भेदोंमें यदि सब प्रकृतियोंके यथासम्भव पदोंकी अपेक्षा स्पर्शका विचार किया जाता है तो किस अपेक्षा कहाँ कितना स्पर्श बतलाया है यह बात सहज ही समझमें आजाती है। इसीलिये यहाँ अलग-अलग खुलासा नहीं किया है। तथा 'एवं' कह कर जो आहारककाय. योग आदिमें स्पर्शका निर्देश किया है उसका यही अभिप्राय है कि जिसप्रकार नौ ग्रैवेयक आदिमें स्पर्श क्षेत्रके समान है उसी प्रकार इन मागंणाओं में भी जानना चाहिये। ६ १२२. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके तीन पदवाले जीवोंका स्पर्श ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श पंचेन्द्रियतिथंच अपर्याप्तकोंके समान है। इसीप्रकार पृथिवीकायिक आदि चार स्थावरकाय इनके बादर तथा बादर अपर्याप्त, सभी सूक्ष्म तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और उनके अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, निगोद, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मण काययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपडिभुजगारफोस ६५. O ९१२३. पंचिंदिय - पंचि ० पज्ज० - तस तसपज्ज • मिच्छत्त- बारसक०० - णवणोक० तिण्णिपद० वि० लोग० असंखे०भागो अट्ठ चोदस० देसूणा सव्वलोगो वा । णवरि इत्थि० - पुरिस० भुज० - अवडि० अट्ठ बारस चोहस० देखणा । अणंताणु० चउक० एवं चेव । णवरि अवत्तव्य० ओघं । सम्मत्त - सम्मामि० ओघं । एवं पंचमण० - पंचवचि०इत्थि० - पुरिस० - चक्खु ०-सण्णि त्ति | णवरि इत्थि० - पुरिसवेदमग्गणासु इत्थि० - पुरिस० भुज ० - अवट्टि० अट्ठ चोहस० देसूणा । $१२४. वेउव्त्रिय० मिच्छत्त बारसक० णवणोक० तिणिपद० लोग० असंखे० विशेषार्थ – एकेन्द्रियों में मिथ्यात्व आदि २६ प्रकृतियोंके तीन पदवालोंके स्पर्शको ओके समान सब लोक बतलानेका कारण यह है कि ये जीव सब लोकमें पाये जाते हैं । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व अल्पतर स्थितिवालोंक स्पर्शको पंचेन्द्रियतिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान बतलानेका कारण यह है कि जिसप्रकार पंचेन्द्रियतिर्यंच अपर्याप्तकोंमें इन प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिवालों का वर्तमान कालीन स्पर्शं लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीतकालीन स्पर्श सब लोक पाया जाता है उसी प्रकार एकेन्द्रियों में भी बन जाता है । इसीप्रकार चारों स्थावर काय आदि मार्गणाओं में स्पर्शका विवेचन कर लेना चाहिये । $ १२३. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस और सपर्याप्त जीवों में मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकपायोंके तीन पदविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार, और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ और कुछ कम बारह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा इसीप्रकार जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवों का स्पर्श ओघके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा स्पर्श ओके समान है । इसी प्रकार पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, चक्षुदर्शनवाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्री और पुरुषवेद मागेणाओं में स्त्री और पुरुषवेदकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । - विशेषार्थ – पंचेन्द्रिय आदि चार मार्गणाओंमें और स्पर्श तो सुगम है । किन्तु स्त्रीवेद और पुरुषवेदक भजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिवालोंका स्पर्श जो कुछकम आठबटे चौदह राजु बतलाया है वह विहार आदिकी अपेक्षा बतलाया है । तथा कुछकम बारहबटे चौदह राजुस्पर्श मारणान्तिक और उपपाद पदकी अपेक्षा बतलाया है। यहाँ इन दोनों प्रकृतियोंके उक्त पदोंकी अपेक्षा इससे अधिक स्पर्श नहीं प्राप्त होता । इसी प्रकार पाँच मनोयोगी आदि मार्गणाओं में भी घटित कर लेना चाहिये । किन्तु स्त्रीवेद और पुरुषवेद मार्गणाओं में जो स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार और अल्पतर स्थितिवालोंका स्पर्श कुछकम आठवटे चौदह राजु बतलाया है सो इसका कारण यह है कि ये जीव अधिकतर देव होते हैं जो तीसरे नरकतक नीचे और अच्युत कल्पतक ऊपर विहार करते हुए पाये जाते हैं । इसके ऊपर यद्यपि पुरुषवेदी जीव हैं पर वे बिहार नहीं करते अतः उनका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है इसलिये उससे इस स्पर्शमें कोई विशेषता नहीं आती । $ १२४. वैक्रियिककाययोगियों में मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकपायोंके तीन पदवाले ६ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती भागो अट्ठ तेरह चोदसभागा वा देखणा । णवरि इत्थि०-पुरिस० भुज०-अवढि० अट्ठबारस चोदस० देसूणा। अणंताणु०चउक्क० एवं चेव । णवरि अवत्तव्व० ओघं । सम्मत्त-सम्मामि० अप्पदर० मिच्छत्तभंगो। सेस० ओघं । वेउव्वियमिस्स० खेत्तभंगो। .६१२५. विहंग० मिच्छत्त०-सोलसक०-णवणोक० तिण्णिपदा सम्मत्त-सम्मामि० अप्पदर० पंचिंदियभंगो। आभिणि-सुद्०-ओहि० सवपयडि० अप्पदर० लोग० असंखे भागो अट्ट चोद्द० देसूणा। एवमोहिदंस०-सम्मादि०-खइय०-वेदय०-उवसम०सम्मामिच्छादि ित्ति । संजदासंजद० सवपयडि० अप्पदर० लोग० असंखे०भागो छ चोदस भागा वा देसूणा। तेउ० सोहम्मभंगो । पम्म० सहस्सारभंगो। सासण. सव्वपयडि० अप्पदर० लोग० असंखे०भागो अट्ट बारस चोदस० देसूणा । एवं पोसणाणुगमो समत्तो। जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और ब्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछकम आठ और कुछकम तेरह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सनालीके चौदह भागोमेंसे कुछकम आठ और कुछकम बारह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिभक्तिवाले जीवोंका भंग ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंकाभंग मिथ्यात्वके समान है। तथा शेष कथन ओघके समान है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें क्षेत्रके समान भंग है। विशेषार्थ_अन्यत्र वैक्रियिककाययोगियोंका स्पर्श जो तीन प्रकारका बतलाया है वही यहाँ मिथ्यात्व आदिके तीन पदोंकी अपेक्षा प्राप्त होता है जो मूल में बतलाया ही है। किन्तु इनमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भजगार और अल्पतर स्थितिवालोंका वही स्पर्श प्राप्त होता है जो पंचन्द्रिय जीवोंके पहले बतला पाए हैं इसलिये यहाँ इसका तत्प्रमाण कथन किया। वैक्रियिककाययोगियोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका स्पर्श इसी प्रकार है। यह जो कहा है सो इसका यह तात्पर्य है कि जिस प्रकार इनमें मिथ्यात्व आदिके सम्भव पदोंका स्पर्श बतलाया है उसीप्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अवक्तव्य पदको छोड़कर शेष पदोंका स्पर्श जानना चाहिये । शेष कथन सुगम है । ६ १२५. विभंगज्ञानियों में मिथ्यात्व सोलह कषाय और नौ नोकपायोंके तीन पद और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरस्थितिका भंग पंचेन्द्रियोंके समान है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। संयतासंयतोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। पीतलेश्याका भंग सौधर्मके समान और पद्मलेश्याका भंग सहस्रार कल्पके समान है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम बारह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] वित्तीए उत्तरपयडिभुजगारकाला * णाणाजीवेहि कालो । $ १२६. सुगममेदं । * सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार अवद्विद-अवत्तब्बद्विदिविहत्तिया haचिरं कालादो होंति ? $ १२७. एदं पि सुगमं । * जहण्णेण एगसमश्रो । $ १२८. कुदो ? सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार - श्रवदि अवत्तव्वाणि एगसमयं कारण विदियसमए सव्वेसिं जीवाणमप्पदरस्स गमवलंभादो । * उक्कस्सेण आवलिया संखेज्जदिभागो । $ १२६. कुदो ? सगसगंतरकाले अदिकंते भुजगार अवट्ठिद अवतव्वाणि कुणमागाणं णिरंतर मावलि० असंखे० भागमेत्तकालमवद्विदावत्तव्य-भुजगाराणमुवलंभादो । * अप्पदरट्ठिदिविहत्तिया केवचिरं कालादो होंति ? $ १३०, सुगमं । * सव्वद्धा । विशेषार्थ — यहाँ विभंगज्ञानी आदि जितनी मार्गेणाओं में अपने अपने सम्भव पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन बतलाया है वह उन उन मार्गणाओं के स्पर्शनको जान कर घटित कर लेना चाहिए । कोई विशेषता न होनेसे उसका हमने अलगसे स्पष्टीकरण नहीं किया है । इसप्रकार स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ । ६७ * अब नानाजीवकी अपेक्षा कालानुगमका अधिकार है । $ १२६. यह सूत्र सुगम है । * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? $ १२७. यह सूत्र भी सुगम है । * जघन्य काल एक समय है । $ १२८. क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तियों को एक समय तक करके दूसरे समय में उन सब जीवोंका अल्पत्तर स्थितिविभक्तिमें गमन पाया जाता है । * उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है । $ १२६. क्योंकि अपने अपने अन्तरकालके व्यतीत हो जाने पर भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तियों को करनेवाले जीवोंके निरन्तर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक अवस्थित, अवक्तव्य और भुजगार पद पाये जाते हैं । * अल्पतरस्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? $ १३०. यह सूत्र सुगम है । * सब काल है । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती १३१. कुदो ? णाणाजीवप्पणाए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमप्पदरहिदिविहत्तियाणं तिसु बि कालेसु विरहाभावादो। * सेसाणं कम्माणं विहत्तिया सव्वै सव्वद्धा । $ १३२. कुदो, अणंतरासीसु भुजगार-अवडिद-अप्पदराणं विरहाभावादो । *णवरि अर्णताणुबंधीणमवत्तव्वहिदिविहत्तियाणं जहणणेण एगसमत्रो। $ १३३. कुदो, अवत्तव्वं कुणमाणजीवाणमाणंतियाभावादो। ण सम्मत्तअप्पदरविहत्तिएहि वियहिचारो;सम्मत्तप्पदरस्सेव अणंताणुबंधीणमवत्तव्वस्स सगपाओग्गगुणद्धाएसम्वसमए असंभवादो। ६१३१. क्योंकि नाना जीवोंकी अपेक्षासे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिको करनेवाले जीवोंका तीनों ही कालोंमें विरह नहीं होता। * शेष कर्मोंकी सब स्थितिविभक्तिवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं। १३२ क्योंकि शेष कर्मोंकी भुजगार, अवस्थित और अल्पतर स्थितिविभक्तियों को करनेवाली जीवराशि अनन्त है, अतः उनका कभी विरह नहीं होता। * किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है। ६१३३. क्योंकि अवक्तव्य स्थितिविभक्तिको करनेवाले जीवोंका प्रमाण अनन्त नहीं है। यदि कहा जाय कि इस तरह तो सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके साथ व्यभिचार हो जायगा, क्योंकि इनका प्रमाण भी अनन्त नहीं है अतः इनका भी विरह पाया सो बात नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिके योग्य सब काल है उस प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिके योग्य सब काल नहीं है अतः अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका सर्वदा पाया जाना सम्भव नहीं है । विशेषार्थ-यहाँ यह बतलाया है कि चूँ कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवालांका प्रमाण अनन्त नहीं है अतः उनका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय बन जाता है। इस पर यह शंका की गई है कि सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिवालोंका भी प्रमाण अनन्त नहीं है परन्तु उनका काल सर्वदा बताया है अतः उस कथनके साथ इसका व्यभिचार प्राप्त होता है । तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिवाले जीव भी असंख्यात हैं और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिवाले जीव भी असंख्यात हैं । अतः अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी प्रवक्तव्य स्थितिवाले जीव अनन्त नहीं होनेसे इनका जघन्य काल यदि एक समय माना जाता है तो 'अनन्त नहीं होनेसे यह हेतु व्यभिचरित हो जाता है, क्योंकि सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिवाले जो कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिवालोंके विपक्ष हैं उनमें भी यह हेतु चला जाता है। वीरसेन स्वामी ने इस शंकाका जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि यद्यपि ये दोनों विभक्तिवाले जीव असंख्यात है फिर भी सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिवालोंका सर्वदा जाता है, क्योंकि सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिका एक जीवकी अपेक्षा जा जघन्य काल और उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ बत्तीस सागर बतलाया है उसे देखते हुए उसका सर्वदा पाया जाना सम्भव है। परन्तु यह बात अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्यस्थितिकी नहीं है क्योंकि एक जीवकी अपेक्षा काल बन Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारकाला ६६ * उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो। १३४. कारणं सुगमं । एवं जइवसहाइरियदेसामासियसुत्तस्थपरूवणं कादूण संपहि तेण सूचिदअत्थस्सुच्चारणमस्सिदूण कस्सामो। * १३५. कालाणुगमेण दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसे० । तत्थ ओघेण मिच्छत्तबारसक०-णवणोक० भुज-अप्पदर०-अवडि. केवचिरं ? सम्बद्धा। अणंताणु० एवं चेव । णवरि अवत्तव्य. केवचिरं ? जह• एगसमो, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । सम्मत्त-सम्मामि० अप्पदर० केवचिरं० १ सव्वद्धा। सेसपदवि० केवचिरं ? जह ऐगस०, उक्क. आवलि० असंखे०भागो। एवं तिरिक्ख०-कायजोगि०-ओरालिय०. णस०-चत्तारिक०-असंजद०-अचक्खु०-तिण्णिले० भवसि०-आहारि त्ति । १३६. आदेसेण णेरइएसुमिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० अप्पद०-अवढि० केव० ? सन्नद्धा । भुज० ज० एगस०, उक्क० श्रावलि. असंखे०भागो। अणंताणु०चउक्क० अप्पदर०-अवट्टि० मिच्छत्तभंगो। भुज०-अवत्तव्व० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे० इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय ही बतलाया है। अब यदि नाना जीव एक साथ अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्य स्थिति को प्राप्त हों और दूसरे समयमें अन्य जीव इस पदको न प्राप्त हों तो इसका जघन्य काल एक समय भी बन जाता है। यही कारण है कि अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्य स्थितिवालोंका प्रमाण असंख्यात होते हुए भी नाना जीवोंकी अपेक्षा भी इसका जघन्य काल एक समय बतलाया है। * उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ६ १३४. कारण सुगम है। इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यके देशामर्षक सूत्रके अर्थका कथन करके अब उसके द्वारा सूचित होनेवाले अर्थका उच्चारणाके आश्रयसे कथन करते हैं। $ १३५. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--ओघनिर्देश और आदेश निर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? सब काल है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भ है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? सब काल है। शेष पदस्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार तिर्यञ्च, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। ६१३६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कवाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? सव काल है। भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अल्पतर और अवस्थितस्थितिविभक्तिवाले जीवोंका भंग मिथ्यात्वके समान है। भुजगार और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यास्वकी Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ भागो। सभ्मत्त-सम्मामि० ओघं । एवं सव्वणिरय-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिं०तिरि०. पज्ज०-पंचिं०तिरि०जोणिणी-देव०-भवणादि जाव सहस्सार-पंचिंदिय-पंचि०पज०-तस-तसपञ्ज०-पंचमण०-पंचवचि०-वेउव्विय०-इत्थि०-पुरिस०-चक्खु-तेउ०-पम्म०-सण्णि त्ति । १३७. पंचिं तिरि०अपज० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० तिण्हं पदाणं णेरइयाणं भंगो । सम्मत्त०-सम्मामि० अप्पदर० केव० १ सव्वद्धा । एवं वियलिंदिय-पजत्तापञ्जत्त. पंचिं०अपज० बादरपुढविपज्जबादरआउपज्ज०-बादरतेउपज्ज० - बादरवाउपज्ज० बादरवणष्फदिपत्तेय'पज्ज०-तसअपज्ज-विहंगणाणि त्ति । अपेक्षा ओघके समान भंग है। इसी प्रकार सब नारकी, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, पचेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिमती, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेवाले, चक्षुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-नारकियोंके एक जीव की अपेक्षा मिथ्यात्व आदि २२ प्रकृतियोंकी अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका जो काल बतला आये हैं उसे देखते हुए यहाँ नाना जीवों की अपेक्षा उनका सर्वदा काल प्राप्त होता है अतः यहाँ उनका सर्वदा काल बतलाया है। किन्तु भुजगार स्थितिकी यह बात नहीं है। नाना जीवोंकी अपेक्षा भी यदि इसके उपक्रम कालका विचार किया जाता है तो उसका जघन्य प्रमाण एक समय और उत्कृष्ट प्रमाण प्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है इसलिये यहाँ इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्कके पदोंका भी यथायोग्य विचार कर लेना चाहिये। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिवाले जीव नरकमें भी सर्वदा पाये जाते हैं। अब रहे शेष पवाले जीव सो उनका उपक्रम कालके अनुसार पाया जाना सम्भव है। ओघमें भी यही बात है। अतः सम्य. क्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पदोंके कालको ओघके समान बतलाया। आगे जो और मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है, अतः उनके कथनको सामान्य नारकियोंके समान बतलाया। ६१३७. पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकपायोंके तीन पदवाले जीवोंका भंग नारकियोंके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है? सब काल है। इसी प्रकार विकलेन्द्रिय और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, त्रस अपर्याप्त और विभंगज्ञानी जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व आदि २६ प्रकृतियोंके अल्पतर आदि तीन पदोंका काल नारकियोंके समान बन जाता है इसलिये यहाँ इनके कथनको नारकियोंके समान बतलाया है । यहाँ अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्य स्थिति नहीं होती यह स्पष्ट ही है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी एक अल्पतर स्थिति ही होती है। साथ ही यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीव नियमसे पाये जाते हैं, इसलिये इसका काल सर्वदा बतलाया है। आगे जो और मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी यह व्यवस्था बन जाती है अत: उनके कालको पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्तकोंके समान बतलाया है । १ ता. प्रतौ 'अपज्ज.' इति पाठः । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारकालो १३८, मणुस० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० रइयभंगो। अणंताणु०चउक्क एवं चेव । णवरि अवत्त० केव० १ जह० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया। सम्मत्त०. सम्मामि० अप्पदर० केव० ? सव्वद्धा । भुजगार-अवद्विद-अवत्तव्याणं केव० ? जह० एगस०, उक० संखे० समया । एवं मणुसपज्जत्त-मणुसिणीणं । णवरि जम्मि आवलि. असंखे०भागो तम्मि संखेज्जा समया । मणुस अपज्ज० मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोक० भुज०-अप्पद०-अवडि० सम्मत्त-सम्मामि० अप्प० के० ? ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । णवरि भुज० आवलि० असंखे०भागो। १३६. आणदादि जाव उवरिमगेवज्जो त्ति मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० अप्पदर० सव्वद्धा । अणंताणु० चउक्क० अवत्त० ओघ । सम्मत्त-सम्मामि० भुजगार० अवढि०. अवत्तव्व० ज० एगसमओ, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। अप्पदर० सव्वद्धा । एवं सुकले० । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ट० अठ्ठावीसंपय० अप्पद० सव्वद्धा। एवमाभिणि.. ६१३८. सामान्य मनुष्योंमें मिथ्या त्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका भंग नारकियोंके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? सब काल है । भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्या समय है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि जहाँ आवलीका असंख्यातवाँ भाग काल है वहाँ संख्यात समय काल कहना चाहिये। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। किन्तु इतनी विशेषता है कि भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ-मनुष्योंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिवाले जीव संख्यात ही अतः इनमें उक्त विभक्तिवालोंका उत्कृष्ट काल संख्यात समय बतलाया है। यही बात सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिवालोंके सम्बन्धमें जान लेना चाहिये। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी तो संख्यात ही होते हैं, अतः मूलमें सामान्य मनुष्योंमें जिन स्थितिविभक्तिवालोंका आवली के असंख्यातवें भाग काल बतलाया है वहाँ भी इनके संग्ख्यात समय काल जानना चाहिये । लभ्यपर्यातक मनुष्योंका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है अत: यहाँ सब प्रकृतियोंके सम्भव पदोका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण बतलाया । किन्तु भुजगार स्थितिका उपक्रम काल ही आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः इसकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण बतलाया। $ १३६. आनत कल्पसे लेकर उपरिम गवेयकतकके देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अलातर स्थितिविभक्तियाले जीवोंका सब काल है। किन्तु अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा कहा Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ धवलास हिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ सुद० - ओहि ०. ०-- मण पज्ज० - संजद ० - सामाइय - छेदो ० - परिहार ० - संजदासंजद ० - ओहिदंस ०सम्मादि० खइय० - वेदद्य ० दिट्ठि त्ति । - १४०. इंदि मिच्छत्त सोलसक० णवणोक० सव्वपदाणमोघं । सम्मत्त०सम्मामि० अप्पद० केव० १ सव्वद्धा । एवं बादरेइं दिय- सुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्त- बादरपुढविअपज्ज० - सुहुम पुढ विपज्जत्तापज्जत - बादरआउअपज्ज० - सुहुमआउपज्जत्तापज्जत्तचादरतेउअपज्ज०- सुहुमते उपज्जत्तापज्जत - बादरवाउअपज्ज० - सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्तवफादि- णिगोद- बादरसुहुमपज्जत्तापज्जत्त - बादरवणष्फ दिपत्तेयसरीरअपज्ज० - ओरालिय मिस्स ० म दि० सुद० - मिच्छादि० असणि त्ति । है । इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवों के जानना चाहिए। अनुदिशने लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है । इसी प्रकार अनि भिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ – आनतादिकमें मिध्यात्व आदि २६ प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थिति ही होती है। अतः वहाँ इसका सर्वदा काल बन जाता है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीकी वक्तव्य स्थिति भी होती है सो उपक्रम कालके अनुसार इसका यहाँ भी ओघ के समान काल बतलाया है। अब रहीं सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियाँ सो इनके यहाँ चारों पद बन जाते हैं । उनमें से तीन पदोंका तो उपक्रम काल के अनुसार जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण बतलाया है । और अल्पतर स्थितिवालोंका सर्वदा सद्भाव पाया जाता है इसलिये इसका सर्वदा काल बतलाया है । शुक्ललेश्या में यह व्यवस्था बन जाती है, अतः उसमें सब प्रकृतियों के सम्भव पदोंके कालको पूर्वोक्त प्रमाण कहा है। अनुदिशादिमें तो सब प्रकृतियों की एक अल्पतर स्थिति ही होती है, परन्तु वहाँ सब प्रकृतियोंका सर्वदा सद्भाव पाया जाता है इसलिये वहाँ अल्पतर स्थितिका सर्वदा काल बतलाया है । आभिनिबोधिकज्ञानी आदि जो और मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार बतलानेका कारण यह है कि उनमें भी अनुदिशादिकके समान व्यवस्था प्राप्त होती है । $ १४०. एकेन्द्रियों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके सब पदोंका भंग ओघके समान है | सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरस्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? सब काल है । इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय और इन दोनोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक और इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक और इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपति, सूक्ष्मायिक और इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक और इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, वनस्पति, निगोद तथा इन दोनोंके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रताज्ञानी, मिध्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ — ओघ में मिथ्यात्व आदि २६ प्रकृतियों के भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदोंका जो काल कहा है वह एकेन्द्रियोंकी मुख्यतासे ही बतलाया है अतः यहाँ उक्त प्रकृतियों के उक्त पदों के कालको ओघ के समान कहा । तथा एकेन्द्रियों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका एक अल्पतर Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] ट्ठिदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारकालो $ १४१. आहार० सव्वपयडी० अप्पद० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवमवगद.. अकसा०-सुहुम०-जहाक्खादे त्ति । आहारमिस्स० सवपयडी० अप्पद० जहण्णुक० अंतोमु० । वेउव्वियमिस्स० मणुसअपज्जत्तभंगो । अभव छव्वीसपयडी० मदि०भंगो । $ १४२. उवसम० सव्वपयडो० अप्पद० ज० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे०. भागो । एवं सम्मामिच्छाइद्विस्स वि । सासण० सव्वपयडी० अप्पद० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । कम्मइय०-अणाहारि० ओरालियमिस्स०-भंगो। णवरि सम्मत्त-सम्मामि० अप्पद० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। ____ एवं कालाणुगमो समत्तो। पद ही होता है और यहाँ उनका सदा सद्भाव पाया जाता है अतः यहाँ अल्पतर पदका सर्वदा काल कहा है। आगे बादर एकेन्द्रिय आदि जो बहुत सी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है, अतः उनके कालको एकेन्द्रियोंके समान कहा है। ६१४१. आहारककाययोगियोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतरस्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिए। आहारकमिश्रकाययोगियोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पनर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। वैक्रियिकमिनकाययोगियोंमें मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान भंग है। अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा मत्यज्ञानियोंके समान भंग है। विशेषार्थ-आहारककाययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा इसमें सब प्रकृतियोंका एक अल्पतर पद ही होता है। यही कारण है कि यहाँ सब प्रकृतियोंके अल्पतर पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त बतलाया है। इसी प्रकार अपगतवेद आदि मार्गणाओंमें भी समझना चाहिये। किन्तु आहारकमिश्रका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही है, अतः यहाँ सब प्रकृतियोंके अल्पतर पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त बतलाया है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगका नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातधे भागप्रमाण है । लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंका भी इतना ही काल है अतः वैक्रियिकमिश्रकाययोगका भंग लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंके समान बतलाया है। अभव्य मत्यज्ञानी ही होते हैं, अतः इनका भंग मत्यज्ञानियोंके समान बतलाया है । ६१४२. उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि के भी जानना चाहिए। सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। कार्मणकाययोगी और अनाहारकोंमें औदारिकमिश्रकाययोगियोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ-उपशम सम्यग्दृष्टियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यात भागप्रमाण है अतः यहाँ सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका काल उक्त प्रमाण बतलाया है। इसी प्रकार सम्यग्मिध्यादृष्टियोंके भी जानना चाहिये। किन्तु सासादन Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे * अंतरं । $ १४३. सुगमं, अहियार संभालणफलतादो । * सम्मत्त-सम्मामिच्छ्रत्ताणं भुजगार अवत्तव्वद्विदिविहत्तियंतरं केवचिरं कालादो होदि ? S १४४. एदं पि सुगमं । * जहरणेण एगसमत्रो । १४५. कुदो ? सम्मत-सम्मामिच्छत्ताणं भुजगारमवत्तव्वं च काढूण सम्मत्तं पडिवज्जमाणजीवाणं जह० एगसमय मे तंतरुवलंभादो । * उक्कस्सेण चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे । $ १४६. सामण्णेण सम्मत्तग्गहणंतर कालो चडवीसं अहोरत्तमेतो त्ति पृव्वं परुविदो । संपहि अवत्तव्वभावेण सम्मत्तग्गहणंतरकालो वि तत्तिओ चेवे त्ति कथमेदं जुज्जदे ?ण एस सम्यग्दृष्टियों का जघन्य काल एक समय है, अतः यहाँ जघन्य काल एक समय बतलाया है । उत्कृष्ट काल पूर्ववत् है । कार्मणकाययोग और अनाहारक जीवोंका सर्वदा काल है। यही बात औदारिकमिश्रकी है, अतः यहाँ सब प्रकृतियोंके सम्भव पदका काल औदारिकमित्र के समान बन जाता है । किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिवालोंके काल में विशेषता है। बात यह है कि एक जीवकी अपेक्षा कार्मणकाययोग और अनाहारक अवस्थाका उत्कृष्ट काल तीन समयसे अधिक नहीं है और सम्यक्त्व तथा सम्यामिध्यात्वकी सत्तावाले जीव असंख्यात होते हुए भी स्वल्प हैं । अब यदि उपक्रम कालकी अपेक्षा विचार किया जाता है तो यहाँ आवलिके असंख्यातवें भागसे अधिक काल नहीं प्राप्त होता । अतः यहाँ उक्त दोनों प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है । इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ । * अब अन्तरानुगम का अधिकार है । ६ १४३. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि इसका फल अधिकारका सम्हालनामात्र है । * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल कितना है ? $ १४४. यह सूत्र भी सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है । [ हिदिविहत्ती ३ १४५. क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार और अवक्तव्य के साथ सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समयमात्र पाया जाता है । विशेषार्थ - सम्यग्दर्शन के प्राप्त होनेके प्रथम समय में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अवक्तव्य स्थिति होती है । अब यदि प्रथम और तीसरे समय में बहुत से जीव उक्त पदों के साथ सम्यग्दर्शनको प्राप्त हुए और दूसरे समय में नहीं हुए तो उक्त पदोंका जघन्य अन्तर काल एक समय प्राप्त हो जाता है। यह उक्त सूत्रका भाव है । * उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिन रात है । § १४६. शंका - पहले सामान्य से सम्यक्त्व के ग्रहणका अन्तरकाल चौबीस दिन रात कहा अब सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अवक्तव्यस्थितिविभक्तिके साथ सम्यक्त्व ग्रहणका अन्तर Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारअंतरं दोसो; सादिरेयचउवीसअहोरत्तमेत्तरस्स भुजगार-अवत्तव्वविदिविहत्तीणं परूवणादो । * अवढिदहिदिविहत्तियंतरं केवचिरं कालादो होदि ? १४७. सुगमं। * जहरणेण एगसमत्रो। $ १४८. एदं पि सुगम। * उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेजदिभागो। $ १४६. कुदो ? सम्मत्तद्विदीदो समयुत्तरमिच्छत्तहिदिसंतकम्मं मोत्तण सेसहिदिसंतकम्मेहि संखे०सागरोवमसहस्समेत्तेहि सम्मत्तं पडिवज्जमाणाणं अंगुलस्स असंखे०भागमेत्तरस्स संभवं पडि विरोहाभावादो। संखेज्जसागरोवमसहस्समेत्तमुक्कस्संतरमिदि अभणिय अंगुलस्स असंखे०भागमेत्तमिदि किमहूं वुच्चदे ? ण, पुणो पुणो दुसमउत्तरादिद्विदीसु ट्ठाइदूण सम्मत्तं पडिवज्जमाणाणं जीवाणं बहुअमंतरमुवलब्भदि त्ति अंगुलस्स असंखे०भागमेत्ततरुवएसादो'। एकेकिस्से द्विदीए असंखे लोगमेतद्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि अस्थि । तेसु अंतरिय असंखे०लोगमेत्तंतरपमाणपरूवणा किण्ण कोरदे ? ण, ट्ठिदिअंतरे काल भी उतना ही कहा जा रहा है सो यह कैसे बन सकता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ भुजगार और अवक्तव्य स्थितिविभक्तियोंका अन्तरकाल केवल चौबीस दिनरात न कहकर साधिक चौबीस दिन रात कहा है। * अवस्थित स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल कितना है ? $ १४७. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है। ६१४८. यह सूत्र भी सुगम है । तात्पर्य यह है कि यह पद भी सम्यग्दर्शनको ग्रहण करनेके प्रथम समयमें हो सकता है। अब यदि नाना जीवोंने इस पदके साथ पहले और तीसरे समयमें सम्यग्दर्शनको प्राप्त किया और दूसरे समयमें नहीं किया तो इसका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हो जाता है। * उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ६१४६. क्योंकि सम्यक्त्वकी स्थितिसे मिथ्यात्वके एक समय अधिक स्थितिसत्कर्मको छोड़कर संख्यात हजार सागर प्रमाण शेष स्थितिसत्कर्मके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंके अंगुलके असंख्यातवें भागमात्र अन्तरके होनेमें कोई विरोध नहीं आता है। शंका-उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार सागरप्रमाण है ऐसा न कहकर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है ऐसा किसलिये कहा है ? समाधान-नहीं, क्योंकि सम्यक्त्वकी स्थितिसे मिथ्यात्वकी दो समय अधिक आदि स्थितियोंके द्वारा पुनः पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंके बहुत अन्तर पाया जाता है, इसलिये अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तर कहा है। शंका-एक एक स्थितिके असंख्यात लोकप्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान होते हैं । अतः उन सबका अन्तर कराने पर अन्तरका प्रमाण असंख्यात लोक प्राप्त होता है इसलिये यहाँ असंख्यात लोक प्रमाण अन्तरकालकी प्ररूपणा क्यों नहीं की? १ ता०प्रतौ'रुवलंभादो' इति पाठः । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ परूविजमाणे पयदहिदि मोत्तण अण्णविदीहि सम्मत्तं पडिवज्जमाणाणं ट्ठिदिअंतरुवलंमादो। परिणामंतरे' पुण परूविज्जमाणे असंखेज्जलोगमेत्तमंतरं होदि, परिणामाणमसंखेज्जलोगपमाणत्तवलंभादो । ण च द्विदिवियप्पा असंखे०लोगमेत्ता अत्थि, जेण तदंतरमसंखेज्जलोगमेत्तं होज्ज । किं च, ण परिणामभेदेण णियमेण द्विदिबंधभेदो; असंखे०. लोगमेचट्ठिदिवंधज्झवसाणट्ठाणेहि एकिस्से चेव द्विदीए बंधुवलंभादो। तदो द्विदिबंधउझवसाणट्ठापेसु अंतराविदे वि अंतरमंगुलस्स असंखे०भागमेत्तं चेव होदि त्ति । समाधान नहीं, क्योंकि स्थितिके अन्तरका कथन करनेपर प्रकृत स्थितिको छोड़कर अन्य स्थितियोंके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंके स्थितिका अन्तर प्राप्त होता है। किन्तु परिणामोंके अन्तरकी अपेक्षा कथन करनेपर असंख्यात लोकप्रमाण अन्तर होता है, क्योंकि परिणाम असंख्याल लोकप्रमाण पाये जाते हैं। परन्तु स्थितिविकल्प असंख्यात लोकप्रमाण नहीं हैं, जिससे स्थित्यन्तर असंख्यात लोकप्रमाण होवे । दूसरी बात यह है कि परिणामभेदसे नियमतः स्थितिबन्धमें भेद नहीं होता है, क्योंकि असंख्यात लोकप्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसायप्रमाण स्थानोंके द्वारा एक ही स्थितिका बन्ध पाया जाता है। अतः स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंका अन्तर कराने पर भी स्थित्यन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है। यही कारण है कि यहाँ असंख्यात लोकप्रमाण अन्तरकालकी प्ररूपणा नहीं की। विशेषार्थ- यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। सो इनमेंसे जघन्य अन्तरकाल एक समय तो स्पष्ट ही है। अब रही उत्कृष्ट अन्तरकालकी बात सो इसका खुलासा करते हुए वीरसेन स्वामीने स्वयं दो शंकाएँ उठाई हैं। पहली शंका तो यह है कि जब स्थितिके कुल विकल्प संख्यात हजार सागर प्रमाण हैं तब उत्कृष्ट अन्तरकाल संख्यात हजार सागर प्रमाण होना चाहिये। बात यह है कि जो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिसे मिथ्यात्वकी एक समय अधिक स्थितिवाला जीव सम्यग्दर्शनको प्राप्त होता है उसके सम्यग्दर्शनको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें उक्त दोनों प्रकृतियोंकी अवस्थित स्थितिविभक्ति होती है। यदि इससे अधिक स्थितिवाला जीव सम्यग्दर्शनको प्राप्त होता है तो उसके अवस्थित स्थितिविभक्ति नहीं होती। अब यदि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी एक बार अवस्थित स्थितिके बाद जीव सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी स्थितिसे मिथ्यात्वकी दो समय आदि अधिक स्थितिके साथ निरन्तर सम्यग्दर्शनको प्राप्त होते रहें तो स्थितिके जितने विकल्प हैं उतनी बार ऐसा हो सकता है तदनन्तर अवश्य ही सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित स्थिति प्राप्त हो जायगी। अतएव अवस्थित स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल संख्यात हजार सागरसे अधिक नहीं प्राप्त होना चाहिये। यह पहली शंका है जिसका वीरसेनस्वामीने जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि जो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीव मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वको प्राप्त होते हैं उनमें दो समय अधिक आदि स्थितियोंके साथ सम्यक्त्वको जीव पुनः पुनः प्राप्त होते रहते हैं इसलिये अवस्थित स्थितिका अन्तर काल संख्यात हजार सागर प्रमाण प्राप्त न होकर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। दूसरी शंकाका भाव यह है कि एक एक स्थितिके स्थितिबन्धाध्यक्सायस्थान असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं। तथा कुल स्थितिविकल्प संख्यात हजार सागर प्रमाण होते हैं। अब यदि सब स्थितियोंके बन्धके योग्य स्थितिबन्धाध्यवसाय १ आ.प्रतौ-मंतरेण' इति पाठः । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपडिभुजगारअंतरं * अप्पदरहिदिविहत्तियंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ६१५०. सुगम । * पत्थि अंतरं । $ १५१. कुदो? सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसंतकम्मियाणं अप्पदरवावदाणं विरहाभावादो । * सेसाणं कम्माणं सव्वेसिं पदाणं' णत्थि अंतरं । $ १५२. अणंतेसु एइंदिएसु भुजगार-अप्पदर-अवहिदाणं सव्वकालं संभवादो। * णवरिअणंताणुबंधीणं अवत्तवहिदिविहत्तियंतरं जहणणेण एगसमओ। $ १५३. कुदो, अणंताणुबंधिविसंजोइदसम्माइट्ठीणं मिच्छत्तं गदपढमसमए संभवादो। * उक्कस्सेण चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे। $ १५४. कुदो ? सम्मत्तं पडिवज्जमाणाणमंतरेण मिच्छत्तं पडिवज्जमाणाणमंतरस्स समाणत्तादो। एवं जइवसहमुहविणिग्गयदेसामासियचुण्णिसुत्तत्थपरूवणं कादण संपहि स्थानोंका अन्तर कराया जाता है तो वह असंख्यातलोकप्रमाण प्राप्त होता है इसलिये यहाँ अवस्थित स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण न कहकर असंख्यात लोकप्रमाण कहना चाहिये। इस शंकाका वीरसेन स्वामीने दो प्रकारसे उत्तर दिया है। पहले उत्तरका भाव यह है कि यहाँ परिणामोंका अन्तर नहीं दिखाना है किन्तु स्थितियोंका अन्तर दिखाना है। दूसरी बात यह है कि परिणामोंमें भेद होनेसे कर्मस्थितिमें भेद होनेका कोई नियम नहीं है, क्योंकि असंख्यातलोकप्रमाण परिणामोंके द्वारा एक ही स्थितिबंध पाया जाता है। * अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल कितना है ? $ १५०. यह सूत्र सुगम है। * अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। $ १५१. क्योंकि अल्पतर स्थितिविभक्तिको प्राप्त सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वसत्कर्मवाले जीवोंका विरह नहीं पाया जाता है। * इसी प्रकार शेष कर्मों के सब पदोंका अन्तरकाल नहीं है। ६ १५२. क्योंकि अनन्त एकेन्द्रियोंमें शेष सभी कर्मोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तियाँ सदा पाई जाती हैं। * किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धियोंकी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है। ६ १५३. क्योंकि जिन सम्यग्दृष्टियोंने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दी है उनके मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें ही अवक्तव्य स्थितिविभक्ति पाई जाती है। इसलिये इसका जघन्य अन्तरकाल एक समय बन जाता है। * उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिन रात है। ६१५४. क्योंकि सम्यक्स्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंके अन्तरकालके साथ मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंका अन्तरकाल समान है। इस प्रकार यतिवृषभ आचायेके मुखसे निकले हुए देशामर्षक चूर्णिसूत्रों के अर्थका कथन करके अब उसके द्वारा सूचित होनेवाले अर्थका कथन करनेके लिये १ आ.प्रतौ 'सध्वेसि कम्माणं पदाणं' इति पाठः । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ तेण सूचिदत्थपरूवणद्वमुच्चारणाणुगमं कस्सामो।) $ १५५. अंतराणुगमेण दुविहो-णिदेसो ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्तबारसक० णवणोक० तिण्णि पदाणं णत्थि अंतरं । अणंताणु०चउक्क० एवं चेव । णवरि अवत्तव्व० जह० एगसमओ, उक० चउवीस अहोरत्ते सादिरेगे। सम्मत्त-सम्मामि० अप्पदर० णत्थि अंतरं । भुज० ज० एगस०, उक्क० चउवीस अहोरत्ते सादिरेगे । एवमवतव्वस्स वि वत्तव्वं; विसेसाभावादो। अवढि० ज० एगसमओ, उक्क० असंखे०लोगा। कुदो ? ट्ठिदिबंधज्झवसाणहाणेसु असंखे०लोगमेत्तेसु अंतराविदे तदुवलंभादो। चुण्णिसुत्तेण एदस्स विरोहो किण्ण होदि ? होदि चेव, किं तु जाणिय जहा अविरोहो होदि तहा वत्तव्वं । एवं तिरिक्ख० कायजोगि०-ओरालि०-णवूस०-चत्तारिक०-असंजद०-अचक्खु०. तिण्णिले०-भवसि०-आहारि ति।। उच्चारणाका अनुगम करते हैं $ १५५. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है.-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारहकषाय और नौ नोकषायोंके तीन पदोंका अन्तरकाल नहीं है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कका इसीप्रकार जानना। किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एकसमय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिनरात है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिका अन्तरकाल नहीं है । भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिनरात है। इसी प्रकार अवक्तव्यस्थितिविभक्तिका भी कहना चाहिये। क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यातलोकप्रमाण है। शंका-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित स्थितिविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यातलोकप्रमाण क्यों है ? समाधान—क्योंकि असंख्यात लोकप्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंका अन्तर करानेपर वह अन्तरकाल प्राप्त होता है। शंका-इस कथनका चूर्णिसूत्र के साथ विरोध क्यों नहीं होता है। समाधान-विरोध तो होता ही है किन्तु जानकर जिस प्रकार अविरोध हो उस प्रकार कथन करना चाहिये। ___इसीप्रकार तिर्यंच, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना। विशेषार्थ-- यद्यपि चूर्णिसूत्रकारने सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी अवस्थित स्थितिविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है परन्तु यहाँ उच्चारणाके अभिप्रायानुसार वह अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण बतलाया गया है। सो यद्यपि इन दोनों कथनोंमें विरोध तो है फिर भी ऐसा मालूम होता है कि चूर्णिसूत्रकार स्थितिविकल्पोंके अन्तरका मूल कारण स्थितिबन्धके कारणभूत परिणामोंको नहीं स्वीकार करके उक्त कथन करते हैं और उच्चारणाचार्य स्थितिबन्धके विकल्पोंके अन्तरका कारण परिणामोंको स्वीकार करके उक्त कथन करते हैं। यही कारण है कि यहाँ इन दोनों प्ररूपणाओंमें मतभेद दिखलाई देता है। यदि यह निष्कर्ष ठीक है तो इसे विवक्षाभेद कहा जा सकता है । वीरसेन स्वामीने इस मतभेदका उल्लेख कर जो Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिवत्तीय उत्तरपयडिभुजगारअंतरं $ १५६. आदेसेण य रइएसु मिच्छत्त- सोलसक०-णवणोक० भुज० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । सेस० ओघं । एवं सव्वणेरइय-पंचिंदियतिरिक्ख तिय-मणुस्सतिय-देव० भवणादि जाव सहस्सार ० - पंचिंदिय-पंचिं ० पज्ज० -तस-तसपज्ज० - पंचमण० - पंचवचि०वेउब्विय०-इत्थि०-पुरिस० - चक्खु ० - ते उ० पम्म० -सणि त्ति । पंचिदियतिरिक्खअपञ्ज० मिच्छत्त- सोलसक० - णवणोक० तिण्णि पदा णिरओघं । सम्म० सम्मामि० अप्प० ओघं । एवं सव्वविगलिंदिय-पंचिं ० अपज्ज० - बादरपुढ विपज्ज०- बादरआउपज्ज० -बादरतेउपज्ज०बादरवाउपज्ज० - बादरवणफदिपत्तेय० पज्ज० तसअपज० - विहंगणाणि त्ति । मणुस अपज० मिच्छत्त-सोलसक॰-णवणोक० तिष्णिपदा० सम्मत्त सम्मामि० अप्पद ० ज ० एस ०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । एवं वेउब्वियमिस्स० । णवरि उकस्संतरं बारस मुहुत्ता | इसमें सामंजस्य बिठानेकी सूचना की है उसका रहस्य यही प्रतीत होता है । इस प्रकार इन दोनों मतभेदों का वास्तविक कारण क्या होना चाहिए इसका विचार किया । $ १५६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायों की भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । शेष कथन ओघ के समान है। इसी प्रकार सब नारकी, पंचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिक, मनुष्यत्रिक, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, चतुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके जानना । पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके तीन पदोंका भंग सामान्य नारकियोंके समान है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरस्थितिविभक्तिका भंग ओघ के समान है । इसी प्रकार सब विकले - न्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, त्रसअपर्याप्त और विभंगज्ञानी जीवोंके जानना । मनुष्य अपर्याप्तकों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके तीन पदोंको तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त है । विशेषार्थ — नारकियों में मिथ्यात्व आदि २६ प्रकृतियोंकी भुजगार स्थिति विभक्तिके अन्तर में ही विशेषता है शेष सब कथन ओघ के समान है । विशेषताका उल्लेख ओघमें किया ही है । कुछ और मार्गणाएँ हैं जिनमें यह प्ररूपणा बन जाती है, अतः उनके कथनको सामान्य नारकियों के समान बतलाया है । जैसे प्रथमादि नरकके नारकी आदि। पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका एक अल्पतर पद ही होता है । परन्तु यहाँ ये दोनों प्रकृतियाँ निरन्तर पाई जाती हैं अतः यहाँ इन दोनों प्रकृतियोंके अल्पतर पदका अन्तरकाल नहीं पाया जाता । ओसे भी यही बात प्राप्त होती है अतः इस कथनको ओघ के समान बतलाया है । शेष कथन सामान्य नारकियों के समान है यह स्पष्ट ही है । सब विकलेन्द्रिय आदि कुछ और मार्गणाएँ हैं जिनमें यह प्ररूपणा बन जाती है अतः उनके कथनको पंचेन्द्रियतिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान बतलाया है । मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है । इसका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्के असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसलिये यहाँ सब प्रकृतियोंके अपने अपने सम्भव पदोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्तप्रमाण बतलाया है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोग में ७६ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ ६१५७. आणदादि जाव उवरिमगेवजो ति अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्व० सम्मत्त०सम्मामि० भुज० अप्पदर०-अवद्विद०-अवत्तव्व० ओघ । सेसपयडि. अप्पदर० णत्थि अंतरं । एवं सुक्क० । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठ० सव्वपय० अप्पदर० णत्थि अंतरं । एवमाभिणि-सुद०-ओहि० मणपञ्ज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद०. ओहिदंस०-सम्मादि०-खइय० वेदय दिहि त्ति । $ १५८. एइंदिएसु सव्वपयडी० सव्वपदाणं णत्थि अंतरं । एवं बादरसुहुमेइंदियपजतापजत्त-बादरपुढविअपज्ज०- सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-बादरआउअपज्ज-सुहुमाउ पज्जत्तापज्जत्त-बादरतेउअपज्ज०-सुहुमतेउपज्जत्तापज्जत्त - बादरवाउअपज्ज०-सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणफदि० सुहुमवणप्फदि-बादरणिगोद०-सुहुमणिगोदपज्जत्तापज्जत्तबादरवणप्फदिपत्तयअपज्ज-ओरालियमिस्स०मदि०-सुद०-मिच्छादि० असण्णि त्ति । जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकमिश्रकाययोगका उत्कृष्ट अन्तरकाल बारह मुहूर्त है इसलिये यहाँ सब,पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल बारह मुहूर्त बतलाया है। १५७. आनत कल्पसे लेकर उपरिम अवेयकतकके देवोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्ति तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका अन्तर ओघके समान है। तथा शेष प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवोंके जानना। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना- संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना। विशेषार्थ-आनतसे लेकर उपरिम प्रैवेयकतकके देवोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अल्पतर और अवक्तव्य ये दो पद, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके चारों पद तथा शेष प्रकृतियोंका एक अल्पतर पद ही प्राप्त होता है। यहाँ सब प्रकृतियोंका अल्पतर पद तो सदा पाया जाता है इसलिये इसका अन्तरकाल नहीं बतलाया। अब रहे पूर्वोक्त शेष पद सो इनका ओघके समान अन्तरकाल यहाँ भी बन जाता है। कारण स्पष्ट है । शुक्ललेश्यामें भी यह व्यवस्था प्राप्त होती है इसलिये इसके कथनको आनतादिकके समान बतलाया है। अनुदिशादिकमें सम्यग्दृष्टि जीव ही होते हैं, अतः उनके सब प्रकृतियोंका निरन्तर एक अल्पतर पद ही होता है इसलिये इसका अन्तरकाल नहीं कहा। आगे आमिनिबोधिकज्ञानी आदि और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी एक अल्पतर पद ही होता है, अतः उनका कथन अनुदिश आदिके समान जानने की सूचना की है। ६ १५८. एकेन्द्रियोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंका अन्तरकाल नहीं है। इसीप्रकार बादर एकेन्द्रिय नथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर जलकायिक तथा उनके अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक तथा उनके अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वायुकायिक तथा उनके अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पति कायिक, सूक्ष्म वनस्पति कायिक, बादर निगोद और सूक्ष्म निगोद तथा इन सबके पर्याप्त और Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ गा० २२] विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारअंतरं $ १५६. आहार-आहारमिस्स० सव्वपयडी० अप्पदर० जह० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । एवमकसा०-जहाक्खादसंजदे ति । कम्मइय० ओरालियमिस्सभंगो । णवरि सम्मत्त०-सम्मामि० अप्पद० ज० एगसमओ, उक० अंतोमु० । एवमणाहारीणं । १६०. अवगद० मिच्छत्त-सम्मत्त सम्मामि०-अट्टक० अप्प० ज० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं । एवमट्टणोकसायाणं । पुरिस०-चदुसंज. अप्पद० ज० एगस०, उक० छम्मासा । सुहुम० लोभसंज० अवगदवेदभंगो । दंसणतिय एकारसक०-णवणोक० अकसायभंगो। अभवसि छव्वीस पयडीणं मदि०भंगो।। अपर्याप्त, बादर वनस्पति कायिक प्रत्येकशरीर और उनके अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंका प्रमाण अनन्त है इसलिये उनमें मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोंके यथाम्भव पदोंका अन्तरकाल नहीं प्राप्त होता। यद्यपि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीव असंख्यात ही हैं फिर भी इनका यहाँ एक अल्पतर पद ही है अतः इसका भी अन्तर काल नहीं प्राप्त होता। बादर एकेन्द्रिय आदि मूलमें और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी यही व्यवस्था प्राप्त होती है। १५६. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। इसी प्रकार अकषायी और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिए। कार्मणकाययोगी जीवोंमें औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। तथा इन योगोंमें सब प्रकृतियोंका एक अल्पतर पद ही होता है। इसलिये इन दोनों योगोंमें सब प्रकृतियोंके अल्पतर पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण कहा है। अकषायी और यथाख्यातसंयत जीवोंके सब प्रकृतियोंका अल्पतर पद उपशम श्रेणिमें ही प्राप्त होता है और उपशम श्रेणिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्तप्रमाण है अतः इन दोनों मार्गणाओंमें सब प्रकृतियों के अल्पतर पदका अन्तरकाल पूर्वोक्त प्रमाण बतलाया है। कार्मणकाययोगमें औदारिकमिश्रकाययोगसे जो विशेषता है वह सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंके सम्बन्धमें है। बात यह है कि कार्मणकाययोगका प्रत्येक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है। अब यदि नाना जीवोंकी अपेक्षा भी विचार किया जाता है तो इसमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है जो औदारिकमिश्रकाययोगमें नहीं प्राप्त होता। यही कारण है कि यहाँ जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है। अनाहारक अवस्था कार्मणकाययोगकी अविनाभाविनी है इसलिये इनका कथन भी कार्मणकाययोगियोंके समान बतलाया है। ६१६०. अपगतवेदी जीवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और आठ कषायके अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। इसी प्रकार आठ नोकषायोंके अल्पतर पदका अन्तर काल जानना चाहिए। पुरुषवेद और चार संज्वलनके अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें लोभसंज्वलनका भङ्ग अपगतवेदी जीवोंके समान है। तीन दर्शनमोहनीय, ग्यारह कषाय और नौ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ६१६१. उवसम० सव्वपयडी० अप्पदर० ज० एगस०, उक्क० चउवीस अहोरत्ते सादिरेगे। सासण-सम्मामि० सव्वपयडि. अप्प० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। एवमंतराणुगमो समत्तो। १६२. भावाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघे० आदेसे० । ओघेण' सव्वपयडिसव्वपदाणं को भावो ? ओदइओ भावो। ण उवसंतकसायअप्पदरेण वियहिचारो, तत्थ वि . .. नोकषायका भङ्ग अकषायी जीवोंके समान है। अभव्य जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। विशेषार्थ-अवगतवेदमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और आठ कषायोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल उपशम श्रेणिमें ही प्राप्त होता है । तथा उपशमश्रेणिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। इसलिये अवगतवेदमें उक्त प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्तप्रमाण बतलाया है। आठ नोकषायोंका अन्तरकाल क्षपकश्रेणिमें भी बन जाता है पर यह यथासम्भव नपुंकवेद और स्त्रीवेदकी अपेक्षा क्षपकश्रेणि पर चढ़ हुए अपगतवेदी जीवोंके ही प्राप्त होता है। पर क्षपकणिकी अपेक्षा ऐसे अपगतवेदियोंका वही अन्तरकाल है जो उपशमश्रेणिका पूर्वमें बतलाया है। इसलिये आठ नोकषायों के अल्पतर पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्तप्रमाण कहा है। अब रहा पुरुषवेद और चार संज्वलनोंका अल्पतरपद सो यह पुरुषवेदसे अपगतवेदी हुए जीवोंके भी होता है। तथा क्षपकणिकी अपेक्षा ऐसे जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीनासे अधिक नहीं है। अतः उक्त प्रकृतियों के अल्पतर पदका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना बतलाया है। सूक्ष्मसम्पराय संयममें लोभ संज्वलनका सत्त्व क्षपकश्रेणिमें भी है, अतः इसका अन्तरकाल अपगतवेदियों के समान बतलाया। किन्तु शेष प्रकृतियोंका सत्त्व उपशमश्रेणिमें ही होता है, इसलिये इनका अन्तरकाल अकषाथियोंके समान बतलाया है। ६१६१. उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन रात है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टियोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। विशेषार्थ-उपशम सम्यक्त्वका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस दिन रात है, इसलिये इनमें सब प्रकृतियोंके अल्पतर पदका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उस्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिन रात बतलाया है । सासादन सम्यक्त्वका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। यही कारण है कि इसमें सब प्रकृतियोंके अल्पतर पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्तप्रमाण कहा है। ___ इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। ६ १६२. भावानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघसे सब प्रकृतियोंके सब पदोंका कौन भाव है ? औदायिक भाव है। यदि कहा जाय कि इस १ ता०प्रतौ 'ओघेण' इति पाठो नास्ति । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ गा० २२ ] द्विदिवत्तीए उत्तरपयडिभुजगारसष्णियासो ाणावरणादीनमुदयदसणादो । जेण विणा जंण होदि तं तस्से ति ववहारदंसणादो । एवं दव्वं जाव अणाहारए ति । एवंभावाणुगमो समत्तो । * सरिणयासो | १६३. सुगममेदं अहियार संभालणहेउत्तादो' । * मिच्छत्तस्स जो भुजगारकम्मंसियो सो सम्मत्तस्स सिया अप्पदरकम्मसि सिया कम्मसि । S १६४. जदि सम्मत्तस्स संतकम्ममत्थि तो मिच्छत्तभुजगारकम्मं सियम्मि सम्मतस्स णियमा अपदरट्ठिदिविहत्ती होदि; पढमसमयसम्मादिहिं मोत्तणण्णत्थ भुजगारअवट्ठिद-अवत्तत्व्वाणं सम्मत्तगोयराणमभावादो । जदि अक्रम्मंसिओ तो णत्थि सण्णियासो, संतेण असंतस्स सण्णियास विरोहादो । * एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि । तरह उपशान्तकषाय जीवके अल्पतरपदके साथ व्यभिचार हो जायगा, क्योंकि वहाँ पर उपशम भाव पाया जाता है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि वहाँ पर भी ज्ञानावरणादि कर्मोंका उदय देखा जाता है । तथा जो जिसके बिना न हो वह उसका है ऐसा व्यवहार भी देखा जाता है । इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । विशेषार्थ---उपशान्तकषाय गुणस्थान में मोहनीयका उपशम होनेसे इस अपेक्षासे उपशम भाव है, फिर भी वहाँ मोहनीयके अल्पतर पदका औदयिक भाव कहा गया है । यद्यपि वीरसेन स्वामी ने यहाँ अन्य ज्ञानावरणादि कर्मोंके उदयको स्वीकार कर अल्पतर पदके औदयिक भावका समर्थन किया है फिर भी मोहनीयका उदय न होनेसे मोहनीयके अवान्तर भेदोंके अल्पतर पदका औदयिक भाव कैसे बनेगा यह विचारणीय है । मालूम पड़ता है कि अन्यत्र सर्वत्र मोहनीयका उदय देखकर यहाँ भी उसका उपचार किया गया है। कारणका निर्देश वीरसेन स्वामीने स्वयं किया है । इस प्रकार भावानुगम समाप्त हुआ । * अब सन्निकर्षानुगमका अधिकार है । $ १६३. यह सूत्र सुगम है; क्योंकि इसका फल अधिकारकी सम्हाल करनामात्र है । * जो मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिसत्कर्मवाला है वह कदाचित् सम्यक्त्वकी अल्पतरस्थितिसत्कर्मवाला है और कदाचित् सम्यक्त्वसत्कर्म से रहित है । $ १६४. यदि सम्यक्त्वकर्मका अस्तित्व है तो मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिके होने पर सम्यक्त्वकी नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्ति होती है; क्योंकि सम्यग्दृष्टि के प्रथम समयको छोड़कर अन्यत्र सम्यक्त्व प्रकृतिके भुजगार अवस्थित और अवक्तव्य पद नहीं होते हैं । यदि सम्यक्त्व सत्कर्म से रहित है तो सन्निकर्ष नहीं होता, क्योंकि सत्के साथ असत्का सन्निकर्ष माननेमें विरोध आता है। * इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका भी सन्निकष जानना चाहिए । १ ता० आ० प्रत्योः - संभालठ्ठहे उत्तादो इति पाठः । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला सहिदे कसाय पाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ $ १६५, जहा सम्मत्तेण सण्णियासो कदो, तहा सम्मामिच्छत्तेण वि कायव्वो; विसेसाभावादो । ८४ * सेसाणं ऐदव्वो । $ १६६. सेसाणं कम्माणं सण्णियासो जाणिदूण णेदव्वो' । तं जहा - मिच्छत्तस्स जो भुजगारविहत्तिओ सो सोलस कसाय-णवणोकसायाणं सिया भुजगारविहत्तिओ सिया अप्पदरविहत्तिओ सिया अवट्ठिदविहत्तिओ । एवं मिच्छत्तअवट्ठिदस्स वि वतव्वं । मिच्छत्त० अप्पदरस्स जो विहत्तिओ तस्स सम्मत्तट्ठिदिसंतकम्मं सिया अस्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि तो सिया अप्पदरविहत्तिओ सिया भुजगारविहत्तिओ सिया अवदिवित्तिओ सिया अवत्तव्वविहत्तिओ । एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि सणयासो काव्वो । बारसक साय-णवणोकसायाणं सिया भुजगारविहत्तिओ सिया अप्पदरवि० सिया अवदिवि० । एवमर्णताणुबंधिचउक्काणं । णवरि सिया अवत्तव्यविहत्तिओ सिया अविहतिओ वि । $ १६५. जिस प्रकार सम्यक्त्वके साथ सन्निकर्ष किया उसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व के साथ भी करना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । * शेष कर्मोका सन्निकर्ष यथायोग्य जानना चाहिये । $ १६६. शेष कर्मोंका सन्निकर्ष जानकर कथन करना चाहिये। इसका खुलासा इस प्रकार हैजो मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिवाला है वह सोलह कषाय और नौ नोकपायोंकी कदाचित् भुजगार स्थितिविभक्तिवाला है, कदाचित् भल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है और कदाचित् अवस्थित स्थितिविभक्तिवाला है । इसी प्रकार मिध्यात्व की अवस्थित स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा भी कथन करना चाहिये | जो मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है उसके सम्यक्त्व स्थितिसत्कर्म कदाचित् कदाचित् नहीं है । यदि है तो वह मिध्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला जीव सम्यक्त्वकी कदाचित् अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है, कदाचित् भुजगार स्थितिविभक्तिवाला है कदाचित् अवस्थित स्थितिविभक्तिवाला है और कदाचित् अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाला है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका भी सन्निकर्ष कहना चाहिये । बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी कदाचित् भुजगारस्थितिविभक्तिवाला है, कदाचित् अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है और कदाचित् अवस्थित स्थितिविभक्तिवाला है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्कका सन्निकर्षं जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि वह इस अपेक्षा कदाचित् अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाला है और कदाचित् अनन्तानुबन्धचतुष्कसे रहित है । 1 विशेषार्थ – सन्निकर्षसंयोगका नाम है । प्रकृतमें यह विचार किया है कि किस प्रकृतिकी किस स्थिति रहते हुए तदन्य प्रकृतिकी कौन-सी स्थिति हो सकती है। पहले मिथ्यात्वको मुख्य मानकर उसकी भुजगार आदि स्थितियोंके साथ अन्य प्रकृतियोंकी भुजगार आदि स्थितियोंका संयोग बतलाया गया है। यथा - मिथ्यात्वकी भुजगार स्थिति में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व है भी और नहीं भी है। मिथ्यात्वकी भुजगार स्थिति मिथ्यात्व गुणस्थान में होती है । अब १ ता० प्रतौ सूत्रमिदं नोपनिबद्धम् । २ ता० प्रतौ सेसाणं कम्माणं सण्णियासो जाणिदूण णेदव्वो इत्ययं टीकांशः सूत्रत्वेनोपनिबद्धः । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपडिभुजगारसण्णियासो १६७. सम्मत्तस्स जो भुजगारविहत्तिओ सो · मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसायाणं णियमा अप्पदरविहत्तिओ। सम्मामिच्छत्तस्स णियमा भुजगारविहत्तिओ । एवं जिस मिथ्यादृष्टिने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वी उद्वेलना कर दी है उसके मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिके रहते हुए इन दोनोंका सत्त्व नहीं होता। और जिसने उद्वेलना नहीं की है उसके सत्त्व होता है। किन्तु मिथ्यात्व गुणस्थानमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी एक अल्पतर स्थिति ही होती है, क्योंकि इन दोनों प्रकृतियोंकी शेष स्थितियाँ सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके प्रथम समयमें ही होती हैं । इसलिये सिद्ध हुआ कि मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिके समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका यदि सत्त्व है तो एक अल्पतर स्थिति होती है। अव रहे सोलह कषाय और नौ नोकषाय सो मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिके समय इनकी भुजगार,अल्पतर और अवस्थित ये तीनों स्थितियाँ सम्भव हैं क्योंकि किसी एक कर्मका जितना स्थितिबन्ध होता है तदन्य कर्मका आबाधाकाण्डकके भीतर न्यूनाधिक रूपसे बन्ध होता रहता है। इसलिये मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिके समय सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित ये तीनों पद सम्भव हैं। इस प्रकार मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिकी अपेक्षा सन्निकर्षका विचार किया। मिथ्यात्वकी अवस्थित स्थितिको मुख्य मानकर भी सन्निकर्ष पहलेके समान ही प्राप्त होता है इसलिये उसका अलगसे निर्देश नहीं करते हैं । अब रही मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिको मुख्य मानकर विचार करनेकी बात सो इसके रहते हुए सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अस्तित्व है और नहीं भी है। जिसने उद्वेलना कर दी है उसके नहीं है शेषके है । पर ऐसे जीवके मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिके रहते हुए सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर भुजगार अवस्थित और अवक्तव्य ये चारों स्थितियाँ सम्भव हैं। इनमें से भुजगार अवस्थित और अवक्तव्य तो सम्यक्त्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें ही होते हैं। अल्पतर पद सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्ट किसीके भी होता है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित ये तीनों पद होते हैं, क्योंकि मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिके समय उक्त प्रकृतियोंके तीन पद होने में कोई बाधा नहीं आती। तथा अनन्तानुबन्यी चतुष्क है भी और नहीं भी है। जिसने विसंयोजना कर दी है उसके नहीं है शेषके है। यदि है तो इसके भुजगार प्रादि चारों पद सम्भव हैं । कारण स्पष्ट है । उक्त विशेषताओंका ज्ञापक कोष्ठक मिथ्यात्व सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व भुजगार ( में ) | अवस्थित (में) | अल्पतर ( में ) नहीं भी हैं। । नहीं भी हैं नहीं भी हैं यदि हैं यदि हैं तो अल्प- | यदि हैं तो अल्प तो चारों पद तर पद तर पद भुजगार, अल्तर | भुजगार, अल्पतर | नहीं है यदि है व अवस्थित व अवस्थित ___ तो चारों पद अनन्तानुबन्धी १२ कषाय और ह कषाय भुजगार, अल्पतर | भुजगार, अल्पतर | भुजगार, अल्पतर । व अवस्थित I व अवस्थित । व अवस्थित ६१६७. जो सम्यक्त्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अल्पतरस्थितिविभक्तिवाला है। तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे भुजगार Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ सम्मत्तस्स अवडिद-अवत्तव्वाणं पि सण्णियासो कायव्यो। णवरि सम्मत्तस्स जो अबाहिदविहत्तिओ सो सम्मामिच्छत्तस्स वि णियमा अवद्विदविहत्तिओ। जो सम्मत्तस्स अबत्तव्वविहत्तिओ सो सम्मामिच्छत्तस्स सिया भुजगारविहत्तिओ सिया अवत्तव्यविहत्तिओ। सम्मत्तस्स जो अप्पदरविहत्तिओ सो मिच्छत्त-सोलसक० णवणोकसायाणं सिया भुज० सिया अप्पद० सिया अवट्टि विहत्तिओ। अणंताणु० चउक्क० अवत्तव्वस्स सिया विहत्तिओ । सम्मामि० णिय. अप्पदरविहत्तिओ । णवरि मिच्छत्त-सम्मामि० -अणंताणु०४ सिया अविहत्तिओ वि । एवं सम्मामिच्छत्तस्स' वि सण्णियासो कायव्यो। णवरि सम्मामि० जो अप्पदरसंतकम्मिओ सो सम्मत्तस्स सिया संतकम्मिओ । सम्मामिच्छत्तस्स जो अवत्तव्यविहत्तिओ सो सम्मत्तस्स णियमा अवत्तव्यविहत्तिओ। स्थितिविभक्तिवाला है। इसी प्रकार सम्यक्त्वके अवस्थित और अवक्तव्य पदोंका भी सन्निकर्प करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि जो सम्यक्त्वकी अवस्थितस्थितिविभक्तिवाला है वह सम्यग्मिथ्यात्वकी भी नियमसे अवस्थितस्थितिविभक्तिवाला है। तथा जो सम्यक्त्वकी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाला है वह सम्यग्मिथ्यात्वकी कदाचित् भुजगार स्थितिविभक्तिवाला है और कदाचित् अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाला है। तथा जो सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी कदाचित् भुजगार स्थिातविभक्तिवाला है, कदाचित अल्पतरस्थितिविभक्तिवाला है और कदाचित् अवस्थित स्थितिविभक्तिवाला है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी कदाचित् अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाला भी है और सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। किन्तु इतनी विशेषता है कि वह जीव कदाचित् मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके सत्कमसे रहित भी है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा भी सन्निकर्ष करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि जो सम्बग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है वह कदाचित् सम्यक्त्वसत्कर्मवाला है और कदाचित् उससे रहित है। तथा जो सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाला है वह नियमसे सम्यक्त्वकी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाला है। विशेषार्थ-अब सम्यक्त्वके भुजगार आदि पदोंको मुख्य मानकर संयोगका विचार करते है । सम्वक्त्वक भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्यपद सम्यक्त्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें होते हैं। किन्तु इस समय मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका एक अल्पतर पद ही होता है क्योंकि विशुद्धिके कारण उक्त प्रकृतियोंकी उत्तरोत्तर अल्प स्थिति हाती जाती है । अतः सिद्ध हुआ कि सम्यक्त्वके उक्त तीन पदोंमें मिथ्यात्व सोलह कषाय और नौ नो कषायोंका एक अल्पतर पद होता है। अब रही सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति सो इसका वही पद होता है जो सम्यक्त्वका होता है। अर्थात् सम्यक्त्वके भुजगारमें सम्यग्मिथ्यात्वका भुजगार पद होता है । सम्यक्त्वके अवस्थित पदमें सम्यग्मिथ्यात्वका अवस्थितपद होता है और सम्यक्त्वके अवक्तव्य पदमें सम्यग्मिथ्यात्वका अवक्तव्य पद होता है। किन्तु इसका एक अपवाद है। बात यह है कि सम्यक्त्वकी उद्वेलना हो जानेपर भी सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व बना रहता है। अब यदि ऐसे जीवने सम्यक्त्वको प्राप्त किया तो उसके सम्यक्त्वक अवक्तव्य पदमें सम्यग्मिथ्यात्वका भुजगार पद भी बन जाता है। इसलिये सिद्ध हा कि सम्यक्त्वके अवक्तव्य पदमें सम्यग्मिथ्यात्वके अवक्तव्य और भुजगार ये दो पद होते हैं। अब १ ता० प्रती सम्मत्तसम्मा- मिच्छ स्स इति पाठः । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारसणियासो रही सम्यक्त्वके अल्पतर पदको मुख्य मानकर सन्निकर्षके विचार करनेकी बात सो ऐसी अवस्थामें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके सब पद सम्भव हैं कारण स्पष्ट है। किन्तु सम्यग्मिथ्यात्वका एक अल्पतर पद ही होता है । तथा जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना और मिथ्यात्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणा कर ली है उसके सम्यक्त्वका अल्पतरपदके रहते हुए उक्त प्रकृतियोंका अभाव भी होता है, क्योंकि सम्यक्त्वकी क्षपणा सबके अन्त में होती है, इसलिये सम्यक्त्वके रहते हुए भी इनका अभाव हो जाता है । इस प्रकार सम्यक्त्वको मुख्य मानकर सन्निकर्षका विचार किया। अब यदि सम्यग्मिथ्यात्वको मुख्य मानकर सन्निकका विचार किया जाता है तो यही स्थिति प्राप्त होती है। किन्तु कुछ विशेषता है। बात यह है कि सम्यक्त्वकी उद्वेलना पहले हो जाती है और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना उसके बाद होती है। तथा ऐसे समयमें दोनों प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थिति ही होती है । अतः सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थिति के समय सम्यक्त्वकी सत्ता होती भी है और नहीं भीहोती है। यदि सत्ता होती है तो अल्पतर स्थिति ही पाई जाती है। तथा जिसने सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर ली है उसके सम्यक्त्व की उद्वेलना पहले हो जाती है, अतः सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्य स्थितिमें सम्यक्त्वकी नियमसे अवक्तव्य स्थिति होती है। अब सम्यक्त्वको मुख्य मानकर उक्त विशेषताओंका ज्ञापक कोटक देते हैं सम्यक्त्व भुजगार अवस्थित प्रवक्तव्य अल्पतर भुजगार या सम्यग्मिथ्यात्व नहीं है, यदि है भुजगार अवस्थित अवक्तव्य तो अल्पतर नहीं है यदि है तो मिथ्यात्व अल्पतर अल्पतर अल्पतर भुजगार, अल्पर और अवस्थित नहीं है, यदि है तो अनन्तानुबन्धी अल्पतर अल्पतर अल्पतर चारों पद १२ कषाय और अल्पतर भुजगार, अल्पतर अल्पतर अल्पतर ६ नोकषाय ___ और अवस्थित अब सम्यग्मिथ्यात्वको मुख्य मानकर उक्त विशेषताओंका ज्ञापक कोष्टक देते हैं सम्यग्मिथ्यात्व भुजगार अवस्थित अवक्तव्य अल्पतर सम्यक्त्व भुजगार अवस्थित अवक्तव्य मिथ्यात्व अल्पतर अल्पतर अल्पतर नहीं है यदि है तो अल्पतर नहीं है यदि है तो तीनी पद नहीं है, यदि है तो ___ चारों पद अनन्तानुबन्धी अल्पतर अल्पतर अल्पतर १२ कषाय और ६ नोकषाय अल्पतर अल्पता अल्पतर तीनों पद -- - - Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ १६८. अणंताणुकोध० जो भुजगारविहत्तिओ सो मिच्छत्त-पण्णारसक० णवणोकसायाणं सिया भुजगारविहत्तिओ सिया अप्पदरविहत्तिओ सिया अबढिदविहत्तिओ। समत्त-सम्मामिच्छत्तागि सिया अस्थि सिया णस्थि । जदि अत्थि णियमा अप्पदरविहत्तिओ। एवमवद्विदस्स वि वत्तव्यं । अणंताणु०कोध० अवत्तव्यस्स जो विहत्तिओ सो मिच्छत्तबारसक०-णवणोकसायाणं णियमा अप्पदरविहत्तिओ। तिण्हं कसायाणं णियमा' अवत्तव्यविहत्तिओ । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं णियमा अप्पदरविहत्तिओ। अणंताणु०कोध० जो अप्पदरविहत्तिओ सो मिच्छत्त-पण्णारसक०-णवणोकसायाणं सिया भुज० अप्पदर० अवडिदविहत्तिओ। सम्म०-सम्मामि० सिया विह० सिया अविह० । जइ विहत्तिओ सिया भुज० अप्पद० सिया अवढि० सिया अवत्तव्यविहत्तिओ। एवमणंताणु०माण माया-लोहाणं । एवं बारसक० णवणोकसायाणं। णवरि एदेसिमप्प० विह० मिच्छ०-अणंताणु ४ अविहत्तिओ वि। अणंताणु०४ अवत्तव्व० मिच्छत्तणेच णेदव्वं । एवं च खवगोवसमं सेढिविवक्खमकादण वुत्तं। तधिवक्खाए पुण अण्णो वि विसेसो अत्थि सो जाणिय णेदव्यो। ६१६८. अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जो भुजगार स्थितिविभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, पन्द्रह कषाय और नौ नोकषायोंकी कदाचित् भुजगारस्थितिविभक्तिवाला है, कदाचित् अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है और कदाचित् अवस्थित स्थितिविभक्तिवाला है। इसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व कदाचित हैं और कदाचित् नहीं हैं। यदि हैं तो वह उनकी नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। इसी प्रकार अवस्थित स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा भी कथन करना चाहिये। अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जो अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी नियमसे अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाला है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। जो अनन्तानुबन्धी क्रोधकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, पन्द्रह कषाय और नौ नोकषायोंकी कदाचित् भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाला है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी कदाचित् स्थितिविभक्तिवाला है और कदाचित् नहीं है। यदि है तो कदाचित् भुजगार स्थितिविभक्तिवाला, कदाचित् अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला, कदाचित् अवस्थित स्थितिविभक्तिवाला और कदाचित् श्रवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाला है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभकी अपेक्षा जानना चाहि प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क की अविभक्ति भी होती है और इनके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका भंग मिथ्यात्वके समान जानना चाहिये। इस प्रकार क्षपक और उपशमश्रेणीकी विवक्षा न करके यह कथन किया है। उनकी विवक्षा करने पर तो और भी विशेषता है सो जानकर कहना चाहिये। विशेषार्थ—पहले मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोंको मुख्य मानकर सन्निकर्षका विचार किया। इसी प्रकार अपनी अपनी विशेषताको जानकर अनन्तानुबन्धी आदि प्रकृतियोंको मुख्य मानकर १ ता. प्रतौ -याणं पि णियमा इति पाठः । For Private & Personal Use Olly Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारसणियासो १६६. आदे० णेरइय० एवं चेव । णवरि सम्मामि० अप्प० विह० मिच्छ. णिय० अस्थि । एवं पढमाए। विदियादि जाव सत्तमा त्ति एवं चेव । णवरि सम्म अप्प० मिच्छ०-सम्मामि० णिय० अस्थि । बारसक०-णवणोक० अप्प० मिच्छ० णिय० अत्थि । तिरिक्ख०-पंचिंतिरिक्खतिय-देवा भवणादि जाव सहस्सार त्ति णारयमंगो। णवरि जोणिणि-भवण-वाण०वेंतर-जोदिसियाणं विदियपुढविभंगो। मणुसतियसन्निकर्षको घटित कर लेना चाहिये जो मूलमें बतलाया ही है। यहाँ केवल उन विशेषताओंका ज्ञापक कोष्ठक दिया जाता है ___ अब अनन्तानुवन्धी कषायको मुख्य मानकर सन्निकर्षका कोष्टक देते हैंअनन्तानुबन्धी भुजगार अवस्थित अल्पतर अवक्तव्य क्रोध अनन्तानुबन्धी । भुजगार, अवस्थित अल्पतर अवक्तव्य मानआदि अल्पतर और अव. भुज० और अल्प. भुज० और अव० १२ कषाय नौ नोक. भुज० अल्प० । भुज० अल्प० भुज० अल्प और अल्पतर और मिथ्यात्व और अव० । और अव० अवस्थित नहीं हैं यदि हैं। नहीं हैं यदि हैं नहीं हैं यदि हैं तो सम्यक्त्वसम्यग्मि. अल्पतर - तो अल्पतर तो अवस्थित भुज० अल्प० अव० अब १२ कषाय और हनोकषायोंको मुख्य मानकर सन्निकर्षका कोष्ठक देते हैं-- १२ कषाय और नोकषाय भुजगार अल्पतर अवस्थित | नहीं है यदि है तो अनन्तानुबन्धी भुज० अल्प० अव० भुज० अल्प अव० भुज० अल्प० अव० प्रवक्तव्य मिथ्यात्व नहीं है यदि है तो भुज० अला. अव० भुज० अल्प० अव० भुज० अल्प० अव० ० सम्यक्त्व, सम्य- नहीं हैं यदि हैं तो नहीं हैं यदि हैं तो नहीं हैं यदि हैं तो म्मिथ्यात्व अल्पतरभुज० अल्प० अव० अल्पतर ६१६६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व नियमसे है। इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक भी इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व नियमसे हैं। बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व नियमसे है। तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तियचत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर सहस्त्रार स्वर्ग तकके देवोंके Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ पंचिंदिय-पंचिं०पज-तस-तसपज०-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालिय०-उविय-तिण्णिवेद०-चत्तारिक०-असंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-पंचले०-भवसि०-सण्णि.. आहारि ति मूलोघभंगो । णवरि वेउव्विय किण्हणील-काउ० पढमपुढविभंगो । वेउवि०किण्ह-णील० सम्म०-सम्मामि० विदियपुढविभंगो।। ६ १७०. पंचिंतिरिक्खअपजत्ताणं जोणिणिभंगो। णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छनारकियोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि तिर्यंचयोनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके दूसरी पृथिवीके समान भंग है। मनुष्यत्रिक, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, बस पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि पाँच लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके मूलोघके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि वैक्रियिककाययोगी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले जीवोंके पहली पृथिवीके समान भंग है । इसमें भी वैक्रियिककाययोगी, कृष्णलेश्यावाले और नीललेश्यावाले जीवोंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग दूसरी पृथिवीके समान है। विशेषार्थ-पहले जो ओघ प्ररूपणा बतलाई है वह नारकियोंमें घट जाती है। किन्तु एक विशेषता है वह यह कि ओघसे सम्यग्मिध्यात्वकी अल्पतर स्थितिमें मिथ्यात्व है और नहीं है यह बतलाया है वह व्यवस्था यहाँ लागू नहीं होती; क्योंकि क्षायिकसम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके समय ओघ प्ररूपणामें उक्त व्यवस्था घट जाती है पर नारकी जीवोंके क्षायिकसम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति सम्भव नहीं। नरकमें या तो क्षायिकसम्यग्दर्शन होनेके बाद जीव उत्पन्न हो सकता है या कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न हो सकता है। अतः नरकमें सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिमें मिथ्यात्व नियमसे है। तथा इसके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित ये तीनों पद भी सम्भव हैं। यह ओघ प्ररूपणा पहले नरककी अपेक्षासे बतलाई है; क्योंकि यह विशेषता वहीं घटित होती है। द्वितीयादि नरकोंमें दो अपवादोंको छोड़कर और सब पूर्वोक्त कथन बन जाता है। बात यह है कि द्वितीय आदि नरकोंमें कृतकृत्यवेदकसम्यम्हाष्ट उत्पन्न नहीं होता, अतः वहाँ सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिके समय मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व नियमसे हैं। उसमें भी इस अवस्थामें मिथ्यात्वके भुजगार आदि तीनों पद सम्भव हैं और सम्यग्मिथ्यात्वका एक अल्पतर पद ही होता है। तथा उक्त नरकोंमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि नहीं उत्पन्न होता। अतः वहाँ बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतर स्थितिके समय मिथ्यात्व नियमसे है। तथा इसके तीनों पद भी सम्भव हैं। आगे मूलमें सामान्य तिर्यश्च आदि कुछ ऐसी मार्गणाएँ बतलाई हैं जिनमें सन्निकर्षकी प्ररूपणा सामान्य नारकियों के समान घटित होती है। किन्तु तियंञ्चयोनिमती आदि कुछ ऐसा मार्गणाएँ हैं जिनमें सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते हैं । अत: उनमें दूसरे नारकियों के समान सन्निकर्ष प्राप्त होता है। अतः इनके कथनको सामान्य नारकी या दूसरे नरकके नारकियों के समान जानना चाहिये। तथा मनुष्यत्रिक आदि कुछ ऐसी भी मार्गणाएं हैं जिनमें ओघ प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, अतः उनके कथनको ओघके समान जानना चाहिये। तो भी चार मार्गणाओंमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि कापोतलेश्या कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके भी प्राप्त होती है इसलिये इसमें पहली पृथिवीके समान कथन बन जाता है और वैक्रियिककाययोग, कृष्ण तथा नील लेश्यामें कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती, इसलिये इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कथन दूसरी पृथिवीके समान प्राप्त होता है। ६१७०. पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्तक जीवोंके तिर्यश्चयोनिनीके समान भंग है। किन्तु Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारसण्णियासों ६१ ताणं भुजगार०-अवढि०-अवत्तव्व० णत्थि । अप्पदरमेकं चैव अस्थि । अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्वं णत्थि। एवं मणुसअपज०-सव्वेइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिं०अपज०-सव्वपंचकाय-तसअपज०-ओरालिमिस्स-वेउव्वियमिस्स-कम्मइय० मदि०-सुद०-विहंग०. मिच्छादि०-असण्णि०-अणाहारि त्ति । णवरि ओरालियमिस्स-वेउव्वियमिस्स० कम्मइय०-अणाहारीसु विसेसो जाणियव्यो । ६१७१. आणदादि जाव णवगेवजो त्ति मिच्छत्तस्स जो अप्पदरविहत्तिओ सो बारसकसाय-णवणोकसायाणं णियमा अप्पदरविहत्तिओ। अणंताणु०चउक्क० सिया अस्थि सिया णत्थि । जदि अस्थि सिया अप्पदरविहत्तिओ सिया अवत्तव्वविहत्तिओ। सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणि सिया अत्थि सिया णत्थि । जदि अस्थि सिया भुजगार० सिया अप्पदर० सिया अवत्तव्य० [सिया अवविद] विहत्तिओ । एवं बारसकसायाणवणोकसायाणं। मिच्छ०सम्म० सम्मामि०-अणंताणु० चउक्क० सिया अस्थि । इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य ये तीन पद नहीं हैं। केवल एक अल्पतर पद हैं। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कका प्रवक्तव्य पद नहीं है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तक, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, सब पाँचों स्थावरकाय, त्रस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, ताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिथ्याष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना । किन्तु इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें विशेष जानना चाहिये। विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्तकोंके सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं होती इसलिये इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य ये तीन पद सम्भव नहीं किन्तु एक अल्पतर पद ही होता है। और इसीलिये इनके अनन्तानुवन्धीका अवक्तव्यपद नहीं होता। शेष कथन योनिमती तिर्यश्चोंके समान है यह स्पष्ट ही है । मनुष्य लब्धपर्याप्तक आदि कुछ और मार्गणाएँ हैं जिनमें यह अवस्था बन जाती है, अतः इनके कथन को पञ्चेन्द्रियतियश्च लब्ध्यपर्याप्तकों के समान बतलाया है। किन्तु औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, कार्मणकाययोग और अनाहारक अवस्थामें विशेषके जाननेकी सूचना की है सो इसका इतना ही मतलब है कि इन मार्गणाओंमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि जीव भी उत्पन्न होते हैं, अतः इनमें पहली पृथिवीके समान भंग बन जाता है। ६१७१. आनतसे लेकर नौ ग्रैवेयकतकके देवोंमें जो मिथ्यात्वकी अल्पतरस्थितिविभक्तिवाला है वह बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। इसके अनन्तानुबन्धी चतुष्क कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं हैं। यदि हैं तो उसकी अपेक्षा यह कदाचित् अल्पतरविभक्तिवाला और कदाचित् अवक्तव्यस्थितिभक्तिवाला होता है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं हैं। यदि हैं तो इनकी अपेक्षा कदाचित् भुजगार स्थितिविभक्तिवाला, कदाचित् अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला कदाचित् अवक्तव्य और कदाचित् अवस्थित स्थितिविभक्तिवाला होता है। इसी प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षामें सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धा चतुष्क कदाचित् हैं। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहती ३ $ १७२. सम्मत्तस्स जो अप्पदरडिदिविहत्तियो सो मिच्छत्त बारसकसाय-णवणोकसायाणं णियमा अप्पदरट्ठिदिविहत्तिओ । गवरि मिच्छत्तं सिया अस्थि । अनंताणु०चक्क० सिया अत्थि । जदि अत्थि सिया अप्पदरविहत्तिओ सिया अवत्तव्यविहत्तिओ । सम्मामिच्छत्तस्स सिया विहत्तियो । जदि विहत्तिओ णियमा अप्पदर विहत्तिओ । सम्मत्तभुजगारस्स जो वित्तिओ मिच्छत्त-सोलसक० णवणोक० अप्पदर० णियमा विहत्तिओ । सम्मामिच्छत्तस्स भुजगारस्स णियमा विहत्तिओ । एवमवत्तव्यस्स वि सण्णियासो कायव्वो । णवरि सम्मामिच्छत्तस्स सिया भुजगारविहत्तिओ सिया अवत्तव्यविहत्तिओ । सम्मामिच्छत्तस्स सम्मत्तभंगो | णवरि सम्मत्तं सिया अत्थि । अप्पदरविहत्तियम्मित्ति वत्तव्वं । सम्मामिच्छत्तस्स अवत्तव्यविहत्तिओ सम्मत्तस्स णियमा अवत्तव्यविहत्तिओ । $ १७३. अनंताणु कोध० अप्प ० जो विहत्तिओ सो मिच्छत्त-पण्णा रस कसाय-णवणोकसायाणमप्पद ० णियमा विहत्तिओ । सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणि सिया अत्थि । जदि अस्थि सिया ज० विह० सिया अप्प ० विहत्तिओ सिया अवत्तव्यविहत्तिओ' [सिया अवट्ठिदविहतिओ] अणंताणु० कोध ० जो अवत्तव्यविहत्तिओ सो मिच्छत्त-वारसक० णवणोक० णियमा ६२ O $ १७२. सम्यक्त्वकी जो अल्पतरस्थितिविभक्तिवाला है वह मिध्यात्व, बारह कषाय और कषायोंकी नियम से अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है । किन्तु इतनी विशेषता है कि कदाचित् मिथ्यात्व है । अनन्तानुबन्धी चतुष्क कदाचित् है । यदि है तो उसकी अपेक्षा यह जीव कदाचित् अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला और कदाचित् अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाला है । सम्यग्मिथ्यात्व कदाचित् है यदि है तो उसकी अपेक्षा नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है । जो सम्यक्त्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है । सम्यग्मिध्यात्वकी नियम से भुजगार स्थितिविभक्तिवाला है। इसी प्रकार अवक्तव्यपदका भी सन्निकर्ष करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि यह कदाचित् सम्यग्मिथ्यात्व की भुजगार स्थितिविभक्तिवाला है और कदाचित् अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाला है । सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सम्यक्त्व के समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्तिवाले के सम्यक्त्व कदाचित् है ऐसा कहना चाहिये और जो सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्य विभक्तिवाला है वह सम्यक्त्वकी नियमसे अवक्तव्य विभक्तिवाला है । $ १७३. जो अनन्तानुबन्धी क्रोधकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, पन्द्रह कषाय भौर नौ नोकषायोंकी नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्व कदाचित् हैं । यदि हैं तो इनकी अपेक्षा यह जीव कदाचित् भुजगार स्थितिविभक्तिवाला, कदाचित् अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला और कदाचित् अवक्तव्य और कदाचित् अवस्थित स्थितिविभक्तिवाला है । जो अनन्तानुबन्धी क्रोधकी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाला जीव है वह मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियम से अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला होता । अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी नियमसे अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाला होता है । सम्यक्त्व और सम्य १. ता• प्रतौ सिया भवत्तम्बविहतिओ इति वृत्तकोष्ठान्तर्गतः पाठः । • Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०२२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपडिभुजगारसण्णियासो अप्पदरविहत्तिओ । तिण्हं कसायाणं णियमा अबत्तव्यविहत्तिओ। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं णियमा अप्पदरविहत्तिओ । एवं तिण्हं कसायाणं । एवं सुक्क० । ६१७४. अणुदिसादि जाव सबढे तिमिच्छत्तस्स जो अप्पदरविहत्तिओ सो सेससत्तावीसपयडीणं णियमा अप्प०विह० । णवरि अणताणु० अविहत्तिओ वि । सम्मत्तस्स जो अप्पदरविहत्तिओ तस्स मिच्छत्त-सम्मामि०-अणंताणु०-चउक्क० सिया अस्थि । जदि अत्थि णियमा तेसिमप्पदरविहत्तिओ । बारसक० णवणोकसायाणं णियमा अप्पदरविहत्तिओ । सम्मामि० जो अप्पदरविहत्तिओ तस्स मिच्छत्तभंगो । एवमणंताणु०चउक्कस्स। णवरि एकम्मि णिरुद्धे सेसतियं णियमा अस्थि । अपच्चक्खाणकोध० जो अप्पदरविहत्तिओ तस्स मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० सिया अस्थि । जदि अस्थि णियमा अप्प०विहत्तिओ। एकारसक०-णवणोकसायाणं णियमा अप्प०विहत्तिओ। एवमेकारसक०-णवणोकसायाणं । आहार-आहारमिस्स०-आमिणि-सुद०-ओहि०. मणपज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद०-ओहिदंस०-सम्मादिहि-वेदय० दिट्ठीणमणुदिसभंगो । णवरि विसेसो जाणिय वत्तव्यो । १७५. अवगदवेदेसु जो मिच्छत्तस्स अप्पदरविहत्तिओ सो सम्मत्त०-सम्मामि०. बारसक०-णवणोक० णियमा अप्पद विहत्तिओ। एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं । ग्मिथ्यात्वकी नियमसे अल्पतरस्थितिविभक्तिवाला होता है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी अपेक्षा कहना चाहिये । इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिए। ६ १७४. अनुरिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें जो मिथ्यात्वकी अल्पतरस्थितिविभक्तिवालाहै वह शेष सत्ताईस प्रकृतियोंकी नियमसे अल्पतरस्थितिविभक्तिवाला होता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अभाव भी होता है। सम्यक्त्वकी जो अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है उसके मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्क कदाचित् है। यदि हैं तो उनकी अपेक्षा नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। तथा बारह कषाय और नौ नोकपायोंकी अपेक्षा नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। जो सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है उसके मिथ्यात्वके समान भंग है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि एक प्रकृतिके रहते हुए शेष तीन नियमसे हैं। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जो अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है उसके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुक कदाचित् हैं। यदि हैं तो उनकी अपेक्षा नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। तथा ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा नियमसे अल्पतरस्थितिविभक्तिवाला है। इसी प्रकार ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके अनुदिशके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि विशेष जानकर कहना चाहिये। १७५. अपगतवेदियोंमें जो मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है वह सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। इसी Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ अपच्चक्खाणकोह० जो अप्प०विहत्तिओ तस्स मिच्छत्त०-सम्मत्त०-सम्मामि० सिया अस्थि । जदि अस्थि णियमा अप्प०विहत्तिओ। एक्कारसक०-णवणोकसायाणं णियमा अप्प०विहत्तिओ। एवमेक्कारसक०-णवणोकसायाणं । णवरि चदुसंजल०-सत्तणोक० सण्णियासविसेसो जाणियव्यो । अकसा०-सुहुम०-जहाक्खाद० अवगद०भंगो । १७६. खइयसम्मादिट्ठी जो अपञ्चक्खाणकोध० अप्प०विहत्तिओ सो एकारसक०-णवणोक. णियमाअप्प०विहत्तिओ। एवमेक्कारसक०-णवणोकसायाणं । [णवरि विसेसो जाणियव्वो।] उवसम० मिच्छत्तस्स जो अप्पदरविहत्तिओ सो सम्मत्त-सम्मामि०बारसक०-णवणोक० णियमा अप्पद विहत्तिओ। अणंताणु०चउक्क० सिया अस्थि । जदि अस्थि णियमा अप्प०विहत्तिओ। एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं । अणंताणु०कोध० जो अप्प. विहत्तिओ सो सेससत्तावीसं पयडी० णियमा अप्प०विहत्तिओ। एवमणंताणु०माण-माया. लोहाणं । अपचक्खाण कोध० अप्प० जो विहत्तिओ सो मिच्छ० सम्म०-सम्मामि०. एकारसक०-णवणोक० अप्प० णियमा विहत्तिओ। अणंताणु०चउक्क० सिया अस्थि । जदि अत्थि णियमा अप्प०विहत्तिओ। एवमेकारसक०-णवणोकसायाणं। एवं सम्मामि० । सासण. जो मिच्छत्तस्स अप्पदरविहत्तिओ सो सेससत्तावीसपयडीणं प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा जानना चाहिए। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जो अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है उसके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व कदाचित् हैं। यदि हैं तो उनकी अपेक्षा नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। तथा ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। इसी प्रकार ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि चार संज्वलन और सात नोकषा योंका सन्निकर्षविशेष जानना चाहिये। अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयतोंके अवगतवेदियोंके समान भंग है। ६१७६. क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें जो अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है वह ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। इसी प्रकार ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए । परन्तु चार संज्वलन और सात नोकषायोंका सन्निकर्ष विशेष जानना चाहिये। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें जो मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है वह सम्यक्त्व, सम्याग्मथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। अनन्तानुबन्धीचतुष्क कदाचित् हैं। यदि हैं तो उनकी अपेक्षा नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है । इसीप्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा जानना चाहिए। अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जो अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है वह शेष सत्ताईस प्रकृतियोंकी नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभकी अपेक्षा जानना चाहिए। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जो अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मि थ्यात्व, ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। अनन्तानुबन्धी चतुष्क कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं हैं। यदि हैं तो इनकी अपेक्षा नियमसे अल्पतरस्थितिविभक्तिवाला है। इसीप्रकार ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें जो मिथ्यात्वकी अल्पतर Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिदिविहत्तीए उत्तरयरिअप्पा बहुअं ६५ णियमा अप० विहत्तिओ । एवं सेससत्तावीसं पयडीणं पुध पुत्र सण्णियासो कायव्वो । अभव० छव्वीसं पय० असणि० भंगो । एवं सणियासाणुगमो समत्तो । * अपबहुत्रं । १७७. सुगममेदं । * मिच्छुत्तस्स सव्वत्थोवा भुजगारद्विदिविहन्तिया । १७८. कुदो ? अद्धासंकिलेसक्खएण' दुसमयसंचिदत्तादो । एइंदिएहिंतो विगलसगलिदिएप्पजिय भुजगारं कुणमाणजीवा अत्थि, किं तु ते अप्पहाणा; जगपदरस्स असंखेज्जदिभागपमाणत्तादो । * अवद्विदद्विदिविहत्तिया असंखेज्जगुणा । १७९. को गुणगारो १ अंतोमुहुत्तं संखेज्जावत्तियमेत्तं । कुदो ? एगट्ठिदिबंध कालस्स उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तपमाणत्तादो । एगट्ठिदिबंधस्स उक्कस्सकालो बहुओ ण संभवदित्ति संखेज्जसमयमेत्तो द्विदिबंधकालो घेप्पदि त्तिण वोत्तु जुत्तं; मूलग्गसमासं कादुण अद्धिय डिदिबंधमज्झिमद्धाए गहिदाए विसंखेज्जावलियमेत्तस्स अवदिट्ठिदिबंध कालस्सुवलंभादो । एत्थ अवट्टिदजीव पमाणाणयणं वुच्चदे । तं जहा – एक्कम्मि समए जदि अणंतो जीवरासी स्थितिविभक्तिवाला है वह शेष सत्ताईस प्रकृतियोंकी नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है । इसीप्रकार शेष सत्ताईस प्रकृतियों की अपेक्षा अलग अलग सन्निकर्ष करना चाहिये | अभव्यों में छब्बीस प्रकृतियों का भंग असंज्ञियोंके समान है । इसप्रकार सन्निकर्षानुगम समाप्त हुआ । * अब अल्पबहुत्वानुगमका अधिकार है । $ १७७. यह सूत्र सुगम है । * मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । $ १७८. क्योंकि अद्धाक्षय और संक्लेशक्षय के केवल दो समयों में जितने जीवोंका सञ्चय होता है उतने ही मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिवाले यहाँपर ग्रहण किये हैं । यद्यपि एकेन्द्रियों में से विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रियों में उत्पन्न होकर भुजगार स्थितिविभक्तिको करने वाले जीव होते हैं परन्तु वे यहाँपर अप्रधान हैं, क्योंकि वे जगप्रतर के असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं । * अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । § १७६. गुणकारका प्रमाण क्या है ? संख्यात आवलि प्रमाण अन्तर्मुहूर्त गुणकारका प्रमाण है, क्योंकि एक स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । यदि कहा जाय कि एक स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल बहुत संभव नहीं है, अतः संख्यात समयमात्र स्थितिबन्धकाल लेना चाहिये सो भी कहना युक्त नहीं है, क्योंकि स्थितिबन्धके मूल और अग्रकालको जोड़कर और आधा करके स्थितिबन्धके मध्यम कालके ग्रहण करने पर भी अवस्थित स्थितिबन्धकाल संख्यात आवलिप्रमाण प्राप्त होता है । अब यहाँ अवस्थित जीवोंका प्रमाण लानेकी विधि कहते हैं । वह इस प्रकार है १ ता० प्रतौ अद्धासंकिलेसक्खय इति पाठः । २ ता० आ० प्रत्योः बहुआणं इति पाठः । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ एगसमयसंचिदभुजगारमेत्तो लब्मदि तो अवट्ठिदकालम्मि केत्तियं लभामो ति पमाणेणिच्छागुणिदफले ओवडिदे अवद्विदविहत्तियरासी होदि, तेणेसो भुजगारविहत्तिएहितो असंखे गुणो। * अप्पदरहिदिविहत्तिया संखेजगुणा। १८०. कुदो ? अवद्विदहिदिबंधकालादो अप्पदरहिदिबंधकालस्स संखेज्जगुणत्तादो। किं कारणं ? एगद्विदीए पाओग्गहिदिबंधझवसाणट्ठाणेसु चेव अवद्विदद्विदिविहत्तिया परिणमंति, अण्णहा द्विदिवंधस्स अवढिदत्तविरोहादो । अप्पदरविहत्तिया पुण तत्तो हेडिमसव्वहिदीणं हिदिवंधज्झवसाणट्ठाणेसु परिणमंति तेण ते तत्तो संखेज्जगुणा । जदि अवद्विदविहत्तियाणमेगद्विदीए द्विदिबंधज्झवसाणट्टाणाणि चेव विसओ तो हेद्विमअसंखेज्जद्विदीणं द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणेसु परिणमंता अप्पदरविहत्तिया तत्तो असंखेज्जगणा किण्ण होंति ? ण, संखेज्जवारमप्पदरं कादण सइमवद्विदट्ठिदिबंधकरणादो। संते संभवे असंखेज्जवारमप्पदरहिदिसंतकम्मं किण्ण कुणदि ? साहावियादो । ण च सहावो पडिबोयणाजोग्गो अन्धवत्थावत्तीदो। जेत्तिओ एगहिदिबंधकालो सव्वुक्कस्सो अस्थि तत्तो एक समयमें यदि एक समय द्वारा संचित हुई भुजगार स्थितिबन्धरूप अनन्त जीवराशि प्राप्त होती है तो अवस्थित कालमें कितनी प्राप्त होगी इसप्रकार इच्छाराशिसे फलराशिको गुणित करके और उसमें प्रमाणराशिका भाग देनेपर अवस्थित स्थितिविभक्तिवाली जीवराशि प्राप्त होती है। अतः यह राशि भुजगार स्थितिविभक्तिवाली जीवराशिसे असंख्यातगुणी है यह सिद्ध हुआ। * अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगणे हैं। ६१८०. क्योंकि अबस्थितस्थितिबन्धके कालसे अल्पतर स्थितिबन्धका काल संख्यातगुणा है। इसका क्या कारण है । आगे इसे बताते हैं-एक स्थितिके योग्य स्थितिबन्धाध्यवसान स्थानोंमें ही अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव परिणमन करते रहते हैं, अन्यथा स्थितिबन्धके अवस्थित होने में विरोध आता है। परन्तु अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव उससे नीचेकी सभी स्थितियोंके योग्य स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंमें परिणमन करते रहते हैं अतः अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंसे संख्यातगुणे होते हैं। शंका-यदि अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव एक स्थितिके योग्य स्थितिबन्धाध्यवसान स्थानमें ही रहते हैं तो नीचेकी असंख्यात स्थितियोंके योग्य स्थितिबन्धाध्यवसान स्थानोंमें परिणमन करनेवाले अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंसे असंख्यातगुणे क्यों नहीं होते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि जीव संख्यातवार अल्पतर बन्धको करके एक बार अवस्थित स्थितिबन्धको करता है, अतः अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे नहीं होते हैं। शंका-संभव होते हुए जीव असंख्यातबार अल्पतर स्थितिसत्कर्मको क्यों नहीं करता है ? समाधान-ऐसा स्वभाव है । और स्वभाव दूसरेके द्वारा प्रतिबोध करनेके योग्य नहीं होता, अन्यथा अव्यवस्था प्राप्त होती है। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए उन्तरयटिअप्पाबहुअं संखेज्जगुणं कालं द्विदिसंतादो हेट्ठा भुजगार-अप्पदर-अवविदसरूवेण द्विदीओ बंधमाणो अधट्ठिदिगलणाए संतकम्मस्स अप्पदरं कादण पुणो तस्स अवद्विदं करेदि ति भणिदं होदि। काले संखेज्जगुणे संते जीवा वि संखेज्जगुणा चेव; अवट्ठिद-अप्पदरभावं समयं पडि पडिवज्जमाणजीवाणं समाणत्तादो। अप्पदरावट्ठिदाणि सव्वकालमत्थि ति अर्णतः कालसंचओ किण्ण घेप्पदे १ ण, अप्पदरमवद्विदं च पडिवण्णेगजीवो जाव अणप्पिदपदं ण गच्छदि तावदियमेत्तकालम्मि चेव संचयस्सुवलंभादो। ण च एगजीवो उकस्सेण अंतोमुहुतं मोत्तण अणंतकालमप्पदरमवाद्विदं वा कुणमाणो अत्थि; एगडिदिपरिणामाणमाणंतियप्पसंगादो । एगहिदीए डिदिबंधज्झवसाणट्ठाणमेत्तो अवडिदाढदिबंधकालो किण्ण होदि ? ण, एगस्स जीवस्स एगहिदीए द्विदिवंधज्झवसाणहाणेसु परिणमणकालो जहण्णेण एगसमयमेत्तो, उक्कस्सेण अंतोमुत्तमेत्तो चेवे त्ति परमगुरूवएसादो। * एवं पारसकसाय-णवणोकसायाणं । ६ १८१. जहा मिच्छत्तस्स अप्पाबहुअं परूविदं तहा बारसकसाय-णवणोकसायाणं परूवेदव्वं विसेसाभावादो । * सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा अवहिदहिदिविहत्तिया । एक स्थितिका जितना सर्वोत्कृष्ट बन्धकाल है उससे संख्यातगुणे कालतक स्थितिसत्त्वसे नीचे भुजगार, अल्पतर और अवस्थितरूपसे स्थितियोंका बन्ध करता हुआ यह जीव अधःस्थिति. गलनाके द्वारा सत्कर्मको अल्पतर करके पुनः उसे अवस्थित करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। जब कि काल संख्यातगुणा है तो जीव भी संख्यातगुणे ही होते हैं, क्योंकि अवस्थित और अल्पतर भावको प्रत्येक समयमें प्राप्त होनेवाले जीव समान है। शंका-अल्पतर और अवस्थितविभक्तियाँ सर्वदा पाई जाती हैं, अतः यहाँ अनन्तकालमें होनेवाला संचय क्यों नहीं लिया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि अल्पतर और अवस्थितपदको प्राप्त हुआ एक जीव जबतक अविवक्षित पदको नहीं प्राप्त होता है उतने काल में होनेवाले संचयका ही यहाँ महण किया है। और एक जीव उत्कृष्टरूपसे अन्तर्मुहूर्त कालको छोड़कर अनन्तकाल तक अल्पतर और अवस्थितपदको करता हुआ नहीं पाया जाता, अन्यथा एक स्थितिके परिणाम अनन्त हो जायंगे। शंका-एक स्थितिके योग्य स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंका जितना प्रमाण है अवस्थित स्थितिबन्धकाल उतना क्यों नहीं होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि एक जीवके एक स्थितिके योग्य स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंमें परिणमन करनेका जघन्यकाल एक समयमात्र और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है, ऐसा परमगुरुका उपदेश है। * इसी प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषायों का अल्पबहुत्व जानना चाहिए। ६१८१. जिस प्रकार मिथ्यात्वका अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषायोंका कहना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ..$ १८२. कुदो, समउत्तरमिच्छत्तहिदिसंतकम्मेणेव सम्मत्तं पडिवज्जमाणाणमवट्ठिदद्विदिविहत्तिसंभवादो । सम्मत्तहिदिसंतादो समयुत्तरमिच्छत्तहिदिसंतकम्मेण सम्मत्तं पडिवज्जमाणा सुट्ट थोवा । तं कुदो णव्वदे १ सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तभुजगार-अवत्तव्व हिदिविहत्तियाणमुक्कस्संतरं चउवीस अहोरत्ते सादिरेगे त्ति परूविय तेसिमवट्टियस्स अंगलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तंतरपरूवणादो। * भुजगारहिदिविहत्तिया असंखेज्जगुणा। १८३. को गणगारो ? आवलियाए असंखे०भागो। कुदो, सम्मत्तगद्विदीए णिरुद्धाए तत्तो समयुत्तरमिच्छत्तद्विदिसंतकम्मेणेव सम्मत्तं पडिवज्जमाणाणमवद्विदहिदिविहत्ती होदि । दुसमयुत्तरादिसेसासेसहिदिवियप्पेहि सम्मत्तं पडिवज्जमाणाणं भुजगारो चेव होदि । एवं सव्वसम्मत्तद्विदीओ अस्सिदृण भुजगार-अवहिदाणं विसयपरूवणाए कीरमाणाए भुजगारविसओ चेव बहुओ। किं च मिच्छत्तधुवहिदीदो हेट्ठा दुसययूणादिसम्मत्तहिदिसंतकम्मेण सम्मत्तं पडिवज्जमाणाणं भुजगारविहत्ती चेव । तेण अवडिदविहत्तिएहिंतो भुजगारविहत्तिया असंखेज्जगुणा। * अवत्तव्वहिदिविहत्तिया असंखेज्जगुणा । $ १८४. कुदो ? सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं संतकम्मेहि सह सम्मत्तं पडिवजमाण 8 १८२. क्योंकि मिथ्यात्वकी एक समय अधिक स्थितिसत्कर्मके साथ सम्यग्दर्शनको प्राप्त होनेवाले जीवोंके ही सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित स्थितिविभक्ति संभव है। - शंका-सम्यक्त्वकी स्थितिसत्त्वसे मिथ्यात्वकी एक समय अधिक स्थितिसत्कर्मके साथ सम्यग्दर्शनको प्राप्त होनेवाले जीव सबसे थोड़े हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिनरात है यह कहकर उन्हीं दोनों प्रकृतियोंकी अवस्थित स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है इससे जाना जाता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। * भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगणे हैं। ६१८३. गुणकार क्या है ? आवलिका असंख्यातवाँ भाग गुणकार है; क्योंकि सम्यक्त्वकी एक स्थितिके रहते हुए उससे मिथ्यात्वकी एक समय अधिक स्थितिसत्कर्मके साथ ही सम्यग्दर्शनको प्राप्त होनेवाले जीवोंके अवस्थित स्थितिविभक्ति होती है। तथा दो समय अधिक आदि शेष सम्पर्ण स्थितिविकल्पोंके साथ सम्यग्दर्शनको प्राप्त होनेवाले जीवोंके भुजगार स्थितिविभक्ति ही होती है । इस प्रकार सम्यक्त्वकी सब स्थितियोंके आश्रयसे भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंके विषयकी प्ररूपणा करने पर भुजगारका विषय ही बहुत प्राप्त होता है । दूसरे मिथ्यात्वकी ध्वस्थितिके नीचे सम्यक्त्वकी दो समय कम आदि स्थितिसत्कर्मके साथ सम्यग्दर्शनको प्राप्त होनेवाले जीवोंके भुजगार स्थितिविभक्ति ही होती है। अतः अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंसे भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। ., 8 अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। ६१८४ क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व सत्कर्मके साथ सम्यग्दर्शनको प्राप्त होनेवाले Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडि अप्पा बहु हह गा० २२ ] मिच्छादिट्ठीहिंतो णिस्संतकम्मियमिच्छादिट्ठीणं सम्मत्तं पडिवजमाणाणमसंखेञ्जगुणत्तादो । सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं द्विदिसंतकम्मे अणुव्वेल्लिदे किमहं बहुआ जीवा सम्मत्तं ण पडिवअंति ? ण, उब्वेल्लणकिरियाए पारद्वाए तं किरियं छंडिय विसोहिं गंतूण अधापमत्तादिकिरियंतराणं गच्छमाणजीवाणं बहुआणमसंभवादो । जेणे किस्से किरियाए 'खल्ली विल्लसंजोगेण किरियंतरं होदि तेण सम्मत्त - सम्मामिच्छत्तसंतकम्मेण सम्मत्तं पडिवजमाणेहिंतो उब्वेल्लिदसम्मत्त- सम्मामिच्छत्तसंतकम्मिया सम्मत्तं पडिवजमाणा असंखेजगुणा होंति । भुजगारं कुणमाणरासी पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमे तकालसंचिदो अवत्तव्वं कुणमाणरासी पुण अद्धपोग्गलपरियट्टसंचिदो तेण भुजगारविहत्तिएहिंतोअवत्तव्यविहत्तिया असंखेज्जगुणा त्ति वा वत्तव्वं । सम्मत्त सम्मामिच्छत्तसंतपच्छायदजीवा उवड्डपोग्गलपरियट्टसंचिदा अनंता अस्थि त्ति कुदो णव्वदे ? महाबंध म्मि वृत्तपय डिबंधप्पाबद्दुआदो । तं जहा - "छहं कम्माणं सव्वत्थोवा धुवबंधया । सादियबंधया अनंतगुणा । अबंधया अणंतगुणा । अणादियबंधया अणंतगुणा । अद्भुवबंधया विसेसाहिया त्ति एदेण सुत्तेण उवसंतचराण मिच्छादिट्ठीणमणंतगुणत्तं णव्वदे । सम्मत्तचराणं पुण मिध्यादृष्टि जीवोंसे सम्यग्दर्शनको प्राप्त होनेवाले सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व कर्म से रहित मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणे हैं । शंका-सम्यक्त्व और साम्यग्मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मकी उद्व ेलना किये बिना बहुत जीव सम्यक्त्वको क्यों नहीं प्राप्त होते हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि उद्व ेलनारूप क्रिया के प्रारम्भ हो जाने पर उस क्रियाको छोड़कर और विशुद्धिको प्राप्त होकर अधःप्रवृत्तादि रूप दूसरी क्रियाओं को प्राप्त होनेवाले बहुत जीवोंका होना संभव है। चूंकि जैसे खल्वाट पुरुषके शिरपर बेलका गिरना कदाचित् सम्भव है उसी तरह एक क्रिया के रहते हुए दूसरी क्रिया कचित् ही होती है, अतः सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व सत्कर्मके साथ सम्यग्दर्शनको प्राप्त होनेवाले जीवों से सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व सत्कर्मकी उद्व ेलना कर सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं । अथवा भुजगार स्थितिविभक्तिको करनेवाली जीवराशिका संचयकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है परन्तु अवक्तव्य स्थितिविभक्तिको करनेवाली जीवराशिका संचय काल अर्धपुद् गलपरिवर्तनप्रमाण है, इसलिये भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीवोंसे अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं ऐसा कहना चाहिये । शंका-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उद्व ेलना करके जो जीव अर्धपुद्गल परिवर्तन कालके भीतर संचित होते हैं वे अनन्त हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान - महाबन्ध में कहे गये प्रकृतिबन्ध सम्बन्धी अल्पवहुत्वसे जाना जाता है । जो इस प्रकार है-छह कर्मों के ध्रुवबन्धवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे सादिबन्धवाले जीव अनन्तगुणे हैं । इनसे अबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । इनसे अनादिबन्धवाले जीव अनन्तगुणे हैं । इनसे अध्रुवबन्धवाले जीव विशेष अधिक हैं । इस सूत्रसे जिन्होंने पहले उपशमसम्यक्त्व प्राप्त किया ऐसे मिध्यादृष्टि १ ता० प्रतौ खल्लविल्ल इति पाठः । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ मिच्छादिट्ठीणं धुवबंधएहितो अणंतगुणत्तं जुत्तीदो णव्वदे । तं जहा-वासपुधत्तमंतरिय जदि संखेज्जा उवसंतचरा मिच्छत्तं पडिवजमाणा लभंति तो उबड्डपोग्गलपरियभंतरे केसिए लभामो त्ति पमाणेणिच्छागुणिदफले ओवट्टिदे सादियबंधयाणं रासी होदि । संखेजावलियाओ अंतरिय जदि पलिदो० असंखे०भागमेत्ता सम्मादिद्विणो मिच्छत्तं पडिवजमाणा लब्भंति तो उवड्डपोग्गलपरियट्टम्मि किं लभामो त्ति पमाणेणिच्छागुणिदफले ओवट्टिदे सम्मत्तचरमिच्छादिद्विरासी होदि । एसो पुबिल्लरासीदो असंखेजगुणो; असंखेजगुणफलत्तादो। एसो च रासी सव्वकालमवद्विदो; चदुगदिणिगोदरासिं व आयाणुसारिवयत्तादो। णासिद्धो दिटुंतो; अट्टत्तरछस्सदजीवेसु चदुगदिणिगोदेहितो णिव्वाणं गदेसु णिचणिगोदेहितो चदुगदिणिगोदेसु एत्तिया चेव जीवा अट्ठसमयाहियछम्मासंतरेण पविस्संति ति परमगुरूवदेसादो। जदि ण पविस्संति तो को दोसो ? चदुगदिणिगोदाणमायवजियाणं सव्वयाणं खओ होज; असंखेजलोगमेत्तपोग्गलपरियट्टपमाणत्तादो। ते तत्तियमेत्ता त्ति कुदो णव्वदे ? जुत्तीदो। तं जहा-एकम्हि समए जदि असंखेजलोगमेत्ता पत्तेयसरीरा चदुगदिणिगोदसरूवेण पविसमाणा लब्भंति, तो जीव अनन्तगुणे होते हैं यह जाना जाता है। परन्तु जिन्होंने पहले सम्यक्त्वको प्राप्त किया ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव ध्रुवबन्धक जीवोंसे अनन्तगुणे हैं यह बात युक्तिसे जानी जाती है। जो युक्ति इस प्रकार है-वर्षपृथक्त्वके अन्तरालसे यदि संख्यात उपशान्तचर जीव मिथ्यात्वको प्राप्त होते हुए पाये जाते हैं तो उपाधपुद्गलपरिवर्तन कालके भीतर कितने जीव प्राप्त होते हैं इस प्रकार इच्छाराशिसे फलराशिको गुणित करके जो लब्ध भावे उसमें प्रमाणराशिका भाग देने पर सादिबन्धक जीवराशि प्राप्त होती है। तथा संख्यात प्रावलियोंके अन्तरालसे यदि पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वको प्राप्त होते हुए पाये जाते हैं तो उपार्धपुद्गलपरिवर्तन कालके भीतर कितने प्राप्त होंगे इस प्रकार इच्छाराशिसे फलराशिको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें प्रमाणराशिका भाग देनेपर सम्यक्त्वचर मिथ्यादृष्टि जीवराशि प्राप्त होती है । यह जीवराशि पूर्वोक्त जीवराशिसे असंख्यातगुणी है; क्योंकि इसका गुणनफल पूर्वोक्तराशिसे असंख्यातगुणा है। यह जीवराशि सर्वदा अवस्थित है, क्योंकि जिस प्रकार चतुर्गति निगोद जीवराशिका आयके अनुसार व्यय होता है उसी प्रकार इस राशिका भी आयके अनुसार ही व्यय होता है। यदि कहा जाय कि दृष्टान्त प्रसिद्ध है सो भी बात नहीं है क्योंकि चतुर्गतिनिगोदसे निकलकर छहसौ आठ जीवोंके मोक्षको चले जानेपर नित्यनिगोदसे उतने ही जीव छह महीना और आठ समयके अन्तरसे चतुर्गति निगोदमें प्रवेश करते हैं ऐसा परम गुरुका उपदेश है। शंका-यदि नित्यनिगोदसे उतने जीव चतुर्गतिनिगोदमें प्रवेश न करें तो क्या दोष है ? समाधान यदि उतने जीव प्रवेश न करें तो आयरहित और व्ययसहित होनेके कारण चतुर्गतिनिगोद जीवोंका क्षय हो जायगा, क्योंकि असंख्यात लोक प्रमाण पुद्गलपरिवर्तनके जितने समय हैं उतना चतुर्गति निगोद जीवोंका प्रमाण है । शंका-चतुगंतिनिगोद जीव इतने हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-युक्तिसे जाना जाता है। वह इस प्रकार है-एक समयमें यदि असंख्यात लोकप्रमाण प्रत्येकशरीर जीव चतुर्गतिनिगोदरूपसे प्रवेश करते हुए पाये जाते हैं तो ढाई पुद्गल Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिअप्पाबहुअं १०१ अड्डाइजपोग्गलपरियझेसु किं लभामो त्ति पमाणेणोवट्टिय फलेण गुणिदे असंखेजलोगमेत्तपोग्गलपरियट्टपमाणा चदुगदिणिगोदजीवा होति । एदे च अदीदकालादो अणंतगुणहीणा; तत्थाणंतपोग्गलपरियट्ठवलंभादो । १८५. तं जहा-अदीदकाले एयजीवस्स सव्वत्थोवा भावपरियट्टवारा । भवपरियदृणवारा अणंतगुणा । कालपरियदृवारा अणंतगुणा । खेत्तपरियट्टवारा अणंतगुणा। पोग्गलपरियहवारा अणंतगुणा। एदस साहणट्ठमप्पाबडुगं वुच्चदे । तं जहा-सव्वत्थोवो पोग्गलपरियट्टकालो । खेत्तपरियट्टकालो अणंतगुणो । कालपरियट्टकालो अणंतगुणो । भवपरियट्टकालो अणंतगुणो। मोवपरियट्टकालो अणंतगुणो त्ति । तदो सिद्धो दिलुतो । एदेहि अणंतसम्मत्तचरमिच्छादिट्ठीहितो पलिदोवमस्स असंखेजदिमागमेत्ता भुजगारं कुणमाणेहिंतो असंखेजगुणा अवत्तव्वं करेंति ति सिद्धं । * अप्पदरहिदिविहत्तिया असंखेजगुणा। १८६. को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो। केण कारणेण ? उज्वेल्लमाणमिच्छादिट्ठीहि सह सयलवेदगुवसमसासणसम्मामिच्छादिट्ठीणं गहणादो। अणंतोवड्डपोग्गलपरियट्टसंचिदरासीदो अवत्तव्वं कुणमाणा अप्पदरविहत्तिएहितो परिवर्तनोंमें कितने प्राप्त होंगे ? इस प्रकार इच्छाराशिको प्रमाणराशिसे भाजित करके जो लन्ध आवे उसमें फलराशिसे गुणित करने पर असंख्यात लोक पुद्गल परिवर्तनप्रमाण चतुर्गतिनिगोद जीव प्राप्त होते हैं। ये जीव अतीत कालसे अनन्तगुणे हीन हैं, क्योंकि अतीत कालमें अनन्त पुद्गल परिवर्तन प्राप्त होते हैं। ६१८५. खुलासा इस प्रकार है-अतीत कालमें एक जीवके भाव परिवर्तनवार सबसे थोड़े हुए हैं। इनसे भवपरिवर्तनवार अनन्तगुणे हुए हैं। इनसे काल परिवर्तनवार अनन्तगुणे हुए हैं। इनसे क्षेत्रपरिवर्तनवार अनन्तगुणे हुए हैं। इनसे पुद्गल परिवर्तनवार अनन्तगुणे हुए हैं । अब इसकी सिद्धिके लिये अल्पबहुत्वको कहते हैं। जो इस प्रकार है-पुद्गलपरिवर्तनका काल सबसे थोड़ा है। इससे क्षेत्र परिवर्तनका काल अनन्तगुणा है। इससे काल परिवर्तनका काल अनन्तगुणा है। इससे भव परिवर्तनका काल अनन्तगुणा हे। इससे भावपरिवर्तनका काल अनन्तगुणा है, इसलिये दृष्टान्तकी सिद्धि होती है। इस सम्यक्त्वचर अनन्त मिथ्यादृष्टि जीवराशिसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव और भुजगार स्थिति विभक्तिको करनेवाले जीवोंसे असंख्यातगुणे जीव अवक्तव्यस्थितिविभक्तिको करते हैं यह सिद्ध हुआ। * अल्पतरस्थितिविभक्ति करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । ६ १८६. शंका-गुणकारका प्रमाण क्या है ? समाधान-पावलीका असंख्यातवां भाग गुणकार का प्रमाण है। शंका-इसका क्या कारण है ? समाधान-क्योंकि यहाँ पर उद्वेलना करनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके साथ सभी वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका ग्रहण किया है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती३ असंखेजगुणा अणंतगुणा वा किण्ण होंति ? ण, आयाणुसारिवयणियमादो। * अणंताणुबंधीणं सव्वत्थोवा अवत्तव्वहिदिविहत्तिया । १८७. कुदो, पलिदोवमस्स असंखेजभागपमाणत्तादो। * भुजगारहिदिविहत्तिया अणंतगुणा । १८८. सधजीवरासीए असंखेजदिमागमेत्तजीवाणं भुजगारं कुणमाणाणमुवलंभादो। - * अवहिदहिदिविहत्तिया असंखेजगुणा । ६ १८६. कुदो? भुजगारहिदिविहत्तियसंचयणिमित्तदोसमएहितो अवद्विदहिदिविहत्तिजीवसंचयणिमित्तंतोमुहुत्तकालस्स असंखेजगुणत्तादो । * अप्पदरहिदिविहत्तिया संखेज्जगुणा । $ १६०. कुदो ? अवट्ठिदहिदिबंधकालं पेक्खिदूण अप्पदरहिदिसंतकालस्स संखेजगुणत्तादो । एवं चुण्णिसुत्तत्थं परूविय मंदमेहाविजणाणुग्गहट्टमुच्चारणाणुगमं कस्सामो। ६१६१. अप्पाबहुअं दुविहं-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-बारसक.. णवणोक० सव्वत्थोवा मुज० । अवट्टि० असंखे०गुणा । अप्प० संखे०गुणा । अणताणु०. शंका-उपाधे पुद्गलपरिवर्तनके द्वारा संचित हुई अनन्त राशिमेंसे अवक्तव्य स्थितिविभक्तिको करनेवाले जीव अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंसे असंख्यातगुणे या अनन्तगुणे क्यों नहीं होते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि आयके अनुसार व्ययका नियम है। * अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। ६ १८७. क्योंकि ये पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। * भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। १८. क्योंकि सब जीव राशिके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव भुजगार स्थितिविभक्तिको करते हुए पाये जाते हैं। * अवस्थितस्थितिभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। $ १८६. क्योंकि भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके संचयका निमित्त दो समय है और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके संचयका निमित्त अन्तर्मुहूर्त काल है जो कि दो समयसे असंख्यातगुणा है, अतः भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीवोंसे अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे है। - * अल्पतरस्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। ६ १६०. क्योंकि अवस्थित स्थितिबन्धके कालको देखते हुए अल्पतर स्थितिसत्त्वका काल उससे संख्यातगुणा है । इस प्रकार चूर्णिसूत्रोंके अर्थका कथन करके अब मन्दबुद्धि जनोंके अनुग्रहके लिये उच्चारणाका अनुगम करते हैं ६ १९१. ओघ और आदेशके भेदसे अल्पबहुत्व दो प्रकारका है। उनमें से ओघ की अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगारस्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] ट्ठिदिविहत्तीए उत्तरपयडिअप्पा बहुअं १०३ चक्क० सव्वत्थोवा अवत्तव्व० । भुज० अनंतगुणा । सेस० मिच्छत्तभंगो । सम्मतसम्मामि० सव्वत्थोवा अवत्तव्यट्ठिदिविहत्तिया । कुदो, सम्मत्त सम्मामिच्छत्तसंतकम्मियमिच्छादिट्ठीणमसंखेजदिभागो सम्मत्त सम्मामिच्छत्तसंतकम्मेण सह सम्मत्तं पडिवअमाणरासी होदि । तस्स वि असंखेज्जदिभागो सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लिय उवड्डपोग्गलपरिय भमदि । एदेण कमेण उवडपोग्गलपरियदृभंतरे संचिदणंतजीवरासीदो जेण संचयाणुसारेण वओ होदि तेण अवत्तव्यट्ठिदिविहत्तिया थोवा । ण च चुण्णिसुत्तेण सह विरोहो; पृधभूदाइरियउवदेसमवलंचिय अवड्डाणादो | अवडि० असंखेजगुणा । भुज० असंखेज्जगुणा । अप्प ० असंखेजगुणा । एवं तिरिक्ख० कायजोगि०- ओरालि ०- बुंस०चत्तारिक ० - असंजद ० - अचक्खु ० - तिणिले० - भवसि ० - आहारिति । O $ १९२. आदेसेण णेरइएस एवं चैव । णवरि अणंताणु सव्वत्थोवा अवत्तव्व ० । ज० असंखे० गुणा । एवं सव्वणेरइय- पंचिदियतिरिक्खतिय ० -देव-भवणादि जाव सहस्सार ० पंचिंदिय ० - पंचि ० पञ्ज० तस-तसपज० - पंचमण ० - पंचवचि ० वे उब्वि ० - इत्थि ०पुरिस ० चक्ख० तेउ०- पम्म० सणि ति । $ १९३. पंचि०तिरिक्खअपज० मिच्छत्त- सोलसक० णवणोकसाय० णिरयभंगो । संख्यातगुणे हैं । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इसे भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। शेष भंग मिथ्यात्व के समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अपेक्षा अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं; क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व सत्कर्म वाले मिध्यादृष्टियों के असंख्यातवें भागप्रमाण जीवराशि सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्व सत्कर्मके साथ सम्यक्त्व को प्राप्त होती है । तथा इसके भी असंख्यातवें भागप्रमाण जीवराशि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके उपार्धपुद्गल परिवर्तनकाल तक घूमती है । इस क्रमसे उपार्धपुद्गल परिवर्तन कालके भीतर संचित हुई अनन्त जीवराशिमें से चूँकि संचयके अनुसार व्यय होता है, इसलिये अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव थोड़े हैं । इस कथनेका चूर्णिसूत्र के साथ विरोध भी नहीं आता है, क्योंकि यह कथन पृथग्भूत आचार्यके उपदेशका अवलम्ब लेकर अवस्थित है । इनसे अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यंच, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, असंयत, अचक्षु दर्शनवाले, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । • $ १९२. आदेशकी अपेक्षा नारकियों में इसी प्रकार अर्थात् ओघ के समान ही जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार सब नारकी, पंचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिक, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, चतुदर्शनवाले, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और संज्ञी जीवों के जानना चाहिए। - १६३. पंचेन्द्रियतिर्येच अपर्याप्तकों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायका भंग Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ मवरि अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्वं गस्थि । सम्मत्त-सम्मामि० अप्पाबहुअं णत्थि; एगपदत्तादो। एवं मणुसअपज०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज०-सव्वपंचकाय०-तसअपज०-ओरालियमिस्स०-वेउ०मिस्स-कम्मइय०-तिण्णिअण्णाण-मिच्छा. दिष्टि-असण्णि० अणाहारि ति । ६१६४. मणुस० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक०-सम्मत्त-सम्मामि० ओघं । णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त० अवत्त० थोवा । अवढि० संखे गुणा। भुज० संखे०गुणा । अप्पदर. असंखे०गुणा । अथवा सम्म०-सम्मामि० अवढि० थोवा। भुज० संखे० गुणा। अवत्तव्व० संखे०गुणा । अप्पद० असंखे० गुणा । अणंताणु०चउक्क० णिरओघभंगो। मणुसपज०-मणुसिणीसु एवं चेव । णवरि जम्मि असंखेजगुणं तम्मि संखेजगुणं कायव्वं । ६ १९५. आणदादि जाव उवरिमगेवज्जो त्ति अणंताणु०चउक्क० सव्वत्थोवा अव. त्तव्व० । अप्पदर० असंखेज्जगुणा । सम्मत्त० सम्मामि० ओघं । चुण्णिसुत्ते आणदादिसु सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं अवविद विहत्ती णत्थि । एत्थ पुण उच्चारणाए अत्थि । एदं नारकियोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अवक्तव्यपद नहीं है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि यहाँ इन दो प्रकृतियोंका एक अल्पतरपद ही पाया जाता है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकजेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सब पांचों स्थावरकाय, त्रस अपर्याप्त, औदारिक मिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्नकाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारकोंके जानना चाहिए। ६१६४. मनुष्योंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, नौ नोकषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। अथवा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा अवस्थितस्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग सामान्य नारकियोंके समान है। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि जहाँ असंख्यातगुणा है वहाँ संख्यातगुणा कहना चाहिये । ६१९५ प्रानतकल्पसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देवोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। चूर्णिसूत्रके अनुसार आनतादिकमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थिस्थितिविभक्ति नहीं है। परन्तु यहाँ उच्चारणामें है। सो जानकर इसकी संगति बिठा लेना चाहिये । यहां शेष प्रकृतियोंका अल्पवहुस्व नहीं है, Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ गा०२२] पदणिक्खेको जाणिदूण घडावेदव्वं । सेसपयडीणं णत्थि अप्पाबहुअं; एयपदत्तादो । एवं सुकले। अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठ० सव्वपयडि० अप्पाबहुअं णत्थि; एगपदत्तादो। एवमाहार०आहारमिस्स०-अवगद०-अकसा०-आभिणि-सुद०-ओहि०मणपज्ज०-संजद०-सामाइयछेदो०-परिहार-सुहुम० जहाक्खाद-संजदासंजद०-ओहिदंस०-सम्मादि०-खइय०-वेदय०. उवसम०-सासण-सम्मामिच्छादिष्टि ति । अभव० छब्बीसं पयडीणं मदि०भंगो। एवमप्पाबहुगाणुगमे समत्ते भुजगाराणुगमो समत्तो। पदणिक्खेवो * एत्तो पदणिक्खेवो। ६१६६. सुगममेदं; भुजगारविसेसो पदणिक्खेवो एत्तो अहिकओ दडव्वो त्ति अहियारसंभालणफलत्तादो। कथं भुजगारविसेसो पदणिक्खेवो ति णासंकणिज्जं; तत्थ परूविदाणं चेव भुजगारादिपदाणं वड्डि-हाणि-अवठ्ठाणसणं कादूग जहण्णुकस्सविसेसेण विसेसिदूणेत्थ परूवणादो। * पदणिक्खेवे परूवणा सामित्तमप्पाबहुअं । $ १६७. एदं सुत्तं पदणिक्खेवत्थाहियारपमाणेण सह तण्णामाणि परूवेदि । एल्थ क्योंकि उनका एक पद है। इसी प्रकार शुक्ललेश्यामें जानना चाहिए। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि एक पद है। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी,अकषायी,आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनसंयत, परिहारविशुद्धसंयत, सूक्ष्मसम्परायसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। इस प्रकार अल्पवहुत्वके समाप्त होने पर भुजगारानुगम समाप्त हुआ। पदनिक्षेप * यहाँसे पदनिक्षेपानुगमका अधिकार है। ६१६६. यह सूत्र सुगम है। भुजगार विशेषको पदनिक्षेप कहते हैं। जिसका यहाँसे अधिकार है। इस प्रकार अधिकारकी सम्हाल करना इस सूत्रका फल है। शंका-भुजगारविशेषका नाम पदनिक्षेप कैसे है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि भुजगार अनुयोगद्वारमें कहे गये भुजगार आदि पदोंकी ही वृद्धि, हानि और अवस्थानरूप संज्ञा करके तथा उन्हें जघन्य और उत्कृष्ट विशेषणसे विशेषित करके उनका यहाँ कथन किया गया है। * पदनिक्षेपमें प्ररूपणा, स्वामित्व अल्पबहुत्व ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं। $ १६७. यह सूत्र पदनिक्षेपके अधिकारोंकी संख्याके साथ उनके नामोंका कथन करता है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ परूवणा-सामित्ताणं विवरणं ण लिहिदं; सुगमत्तादो। . १९८. संपहि उच्चारणमस्सिदूणं तेसिं विवरणं कस्सामो-पदणिक्खेवे तस्थ इमाणि तिणि अजिंओगद्दाराणि-समुक्त्तिणा सामित्तमप्पाबहुअं चेदि । तत्थ समु. कित्तणा दुविहा-जह• उक० । उक० पयदं। दुविहो णिदेसो-ओघे० आदेसे० । ओघेण सव्वपयडीणमथि उक्क० वड्डी हाणी अवहाणं च । एवं चदुसु गदीसु । णवरि पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुस अपज० सम्मत्त-सम्मामि० अस्थि उक० हाणी। आणदादि जाव उवरिमगेवजो त्ति छव्वीसपयडीणमत्थि उक० हाणी। सम्म०-सम्मामि० अस्थि उक० वड्डी हाणी । अवठ्ठाणं णत्थि । अणुदिसादि जाव सव्वढे ति अट्ठावीसपय० अस्थि उक० हाणी । एवं णेदव्बं जाव अणाहारए त्ति । एवं जहण्णं पिणेदव्वं । चूर्णिसूत्र में प्ररूपणा और स्वामित्वका विशेष व्याख्यान निबद्ध नहीं किया है, क्योंकि उनका व्याख्यान सुगम है। १९८. अब उच्चारणाका आश्रय लेकर उनका व्याख्यान करते हैं-पदनिक्षेपमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पवहुस्व। उनमेंसे समुत्कीर्तना दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमें से उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघ और आदेश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान है। इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना। किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि है। आनतकल्पसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि और हानि है। अवस्थान नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक कथन करना चाहिये । इसी प्रकार जघन्य वृद्धि आदिको भी जानना चाहिये। . विशेषार्थ-यहाँ भुजगार विशेषको पदनिक्षेप कहा है । इसका यह तात्पर्य है कि पहले जो भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पद बतलाये हैं उनकी क्रमसे वृद्धि, हानि और अवस्थित संज्ञा करके और उनमें जघन्य और उत्कृष्ट भेद करके कथन करना पदनिक्षेप कहलाता है। यहाँ पदसे वृद्धि आदि रूप पदोंका ग्रहण किया है और उनका जघन्य तथा उत्कृष्टरूपसे निक्षेप करना पदनिक्षेप कहलाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस अधिकारकी यतिवृषभ आचार्यने केवल तीन अधिकारों द्वारा कथन करनेकी सूचना की है। वे तीन अधिकार प्ररूपणा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व हैं। इसके कालादि और अधिकार क्यों नहीं स्थापित किये गये इस प्रश्नका उत्तर देना कठिन है। बहुत सम्भव है परम्परासे इन तीन अधिकारों द्वारा ही इस अनुयोगद्वारका वर्णन किया जाता रहा हो । षट्खण्डागममें भी इस अधिकारका उक्त तीन अनुयोगद्वारोंके द्वारा वर्णन किया गया है। यतिवृषभाचार्यने यहाँ नामनिर्देश तो तीनोंका किया है परन्तु वर्णन केवल अल्पबहुत्वका ही किया है। फिर भी उच्चारणामें इन सबका वर्णन है। वीरसेन स्वामीने उसके अनुसार उन अनुयोगद्वारोंका खुलासा किया है। प्ररूपणा अनुयोगद्वारका खुनासा करते हुए जो यह बतलाया है कि ओघसे सब प्रकांतयोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान है सो इसका यह भाव है कि जिस कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होनेके पूर्व समयमें जितनी जघन्य स्थिति सम्भव हो, उसके रहते हुए भी तदनन्तर समयमें संक्लेश आदि अपने अपने कारणों के अनुसार वह जीव उस कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिको Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] पदणिक्खेवे सामित्त - $ १६६. सामित्तं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च। उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओपेण आदेसेण च । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-सोलसक० उक्क० वड्डी कस्स ? अण्णदरस्स जो चउट्ठाणियजवमज्झस्स उवरिमंतोमुहत्तं अंतोकोडाकोडिडिदिं बंधमाणो अच्छिदो, पुण्णाए द्विदिबंधगद्धाए उकस्ससंकिलेसं गदो तदो उक्कस्सहिदी पबद्धा तस्स उक्क० वड्डी । तस्सेव से काले उक्कस्समवट्ठाणं । उक. हाणी कस्स? अण्णद० उकस्सद्विदिसंतकम्मम्मि उकस्स. द्विदिखंडयं पाढंतस्स उक्क० हाणी । णवणोक० उक० वड्डी कस्स० ? अण्णद० तप्पा ओग्गजहण्णढिदिसंतकम्मिएण उकस्सकसायद्विदीए पडिच्छिदाए तस्स उक० वड्डी। तस्सेव से काले उक्क० अवट्ठाणं । उक्क० हाणी कस्स ? अण्णद० उक्क० द्विदिसंतकम्मम्मि जेण उक्करसहिदिकंड ओ पादिदो तस्स उक० हाणी। सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० वड्डी maram प्राप्त हो सकता है। उदाहरणार्थ मिथ्यास्वकी अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरकी स्थितिवाला जीव भी संक्लेशके कारण तदनन्तर समयमें सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त हो सकता है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सागरपृथक्त्व स्थितिवाला जीव भी तदनन्तर समयमें अन्तर्मुहूर्तकम संत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिको प्राप्त हो सकता है। इसी प्रकार यथायोग्य अन्य कर्मोंकी उत्कृष्ट वृद्धि जानना चाहिये । यह उत्कृष्ट वृद्धि हुई। इसके बाद जो अवस्थान होता है उसे वृद्धिसम्बन्धी उत्कृष्ट अवस्थान कहते हैं। इसी प्रकार उत्कृष्ट काण्डकघातका विचार करके उत्कृष्ट हानि और हानिसम्बन्धी उत्कृष्ट अवस्थान जान लेना चाहिये । ये उत्कृष्ट वृद्धि आदि तीनों पद चारों गतियोंके जीवोंके सम्भव हैं। किन्तु पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्यअपर्याप्त जीवोंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उक्त पदों में से एक उत्कृष्ट हानि ही होती है। पानतादिकमें २६ प्रकृतियोंका एक अल्पतर पद है इसलिये २६ प्रकृतियोंको केवल उत्कृष्ट हानि होती है। किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतर पद सम्भव हैं अतः इन दो प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अवस्थानके विना दो पद होते हैं । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंके २८ प्रकृतियोंका एक अल्पतर पद ही सम्भव है इसलिये एक उत्कृष्ट हानि होती है । इसीप्रकार जहाँ भुजगार आदि जितने पद बतलाये हों उनका विचार करके अन्य मार्गणाओंमें भी ये उत्कृष्ट वृद्धि आदि पद जान लेना चाहिये। इसप्रकार प्ररूपणा अनुयोगद्वारका कथन समाप्त हुआ। १६. स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमें से उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-मोघ और आदेश । उनमें से ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो कोई एक जीव चतुःस्थानिक यवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक अन्तःकोडाकोडी सागरप्रमाण स्थितिको बाँधता हुआ अवस्थित है। पुन: स्थितिबन्धकालके पूर्ण होनेपर उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ और तदनन्तर उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। तथा उसके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उत्कष्ट हानि किसके होती है ? जिसने उस्कृष्ठ स्थितिसत्कर्मके रहते हुए उत्कृष्ट स्थितिखण्डका घात किया है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? नौ नोकषायोंकी तत्यायोग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मवाले जिस जीवने कषायकी उत्कृष्ट स्थितिको नौ नोकषायरूपसे स्वीकार किया है उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। तथा उसी जीवके तदनन्तर समयमें उस्कृष्ट भवस्थान होता है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जिस जीवने उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मके रहते हुए उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकका घात किया है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। सम्यक्त्व. और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ कस्स० १ अण्णदरस्स वेदगसम्मत्तपाओग्गजहण्णढिदिसंतकम्मियमिच्छादिट्टिणा मिच्छत्तुकस्सहिदि बंधिदण हिदिघादमकाऊण अंतोमुहुत्तेण सम्मत्ते पडिवण्णे तस्स पढमसमयवेदगसम्मादिहिस्स उक्क० वड्डी । उक० हाणी कस्स० १ अण्णद० उक्कस्सहिदिसंतकम्मम्मि उकस्सद्विदिकंडगे हदे तस्स उकस्सहाणी । उक्क० अवट्ठाणं कस्स० १ अण्णद० जो सम्मत्तहिदिसंतादो समयुत्तरमिच्छत्तहिदिसंतकम्मिओ तेण समत्ते पडिवण्णे तस्स पढमसमयसम्मादिद्विस्स उक्कस्समवट्ठाणं । एवं चदुसु गदीसु । णवरि पंचिंतिरि० अपज.. मणुसअपज० छन्वीसपयडीणमुक्क० वड्डी कस्स० १ अण्णद० तप्पाओग्गजहण्णहिदिसंतकम्मिएण तप्पाओग्गउकस्सद्विदीए पबद्धाए तस्स उक्कस्सिया वड्डी । तस्सेव से काले उकस्समवट्ठाणं । उक्क० हाणी कस्स० ? अण्णदरस्स मणुस्सो मणुस्सिणी पंचिंदियतिरिक्खजोणिओ वा उकस्सहिदि घादयमाणो अपजत्तएसु उववण्णो तेण उक्कत्सटिदिकंडए हदे तस्स उक० हाणी। सम्मत्त०-सम्मामि० उक० हाणी कस्स ? अण्णद० मणुस्सो मणुस्सिणी पंचिंतिरि०जोणिणीओ वा सम्मत्त०-सम्मामि० उक्कस्सद्विदिकंडयं घादयमाणो अपजत्तएसुववण्णो तेण उक्कस्सद्विदिकंडए हदे तस्स उक्क० हाणी । २००. आणदादि जाव उवरिमगेवजो त्ति छव्वीसं पयडीणमुक्क०हाणी कस्स ? अण्णद० पढमसम्मत्ताहिमुहेण पढमट्टिदिखंडए हदे तस्स उक० हाणी। सम्मत्तसम्मामि० उक० वड्डी कस्स ? अण्णद० जो वेदगसम्मत्तप्पाओग्गसम्मत्तजहण्णद्विदि वृद्धि किसके होती है ? वेदकसम्यक्त्वके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मवाले जिस मिथ्यादृष्टि जीवने मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके और स्थितिघात न करके अन्तर्मुहूर्तकालमें सम्यक्त्वको प्राप्त किया उस वेदकसम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? उत्कृष्ट स्थिति सत्कर्मके रहते हुए जिस जीवने उस्कृष्ट स्थितिकाण्डकका घात किया उसके उत्कृष्ट हानि होती है । उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? सम्यक्त्वके स्थितिसत्कर्मसे मिथ्यात्वकी एक समय अधिक स्थितिसत्कर्मवाला जो जीव सम्यक्त्वको प्राप्त होता है उस सम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इसी प्रकार चारों गतियों में जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तियश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंको उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मवाले जिस जीवने तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिका बग्ध किया उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। तथा उसीके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उस्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो मनुष्य, मनुष्यनी या पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिवाला जीव उत्कृष्ट स्थिति. का घात करता हुमा अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ और वहाँ उसने उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकका घात किया उसके उत्कृष्ट हानि होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो मनुष्य, मनुष्यनी या पंचेन्द्रिय तियच योनिवाला जीव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यास्वका घात करता हुआ अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ और वहाँ उसने उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकका घात किया उसके उत्कृष्ट हानि होती है। ६२००. आनतकल्पसे लेकर उपरिम अवेयकतकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? प्रथम सम्यक्त्वके अभिमुख जिस जीवने प्रथम स्थितिकाण्डकका घात कर दिया है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ गा० २२] पदणिक्खेवे सामित्तं संतकम्मिओ मिच्छत्तस्स तप्पाओग्गुकस्सहिदिसंतकम्मिओ वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो तस्स उक० वड्डी। उवसमसम्मत्तं चरिमफालीए सह पडिवजंतम्मि उक्कस्सिया वड्डी किण्ण दिञ्जदे ? ण; तिण्णि वि करणाणि कादूण उवसमसम्मत्तं पडिवजमाणस्स डिदिकंडयपादेण घादिय दहरीकयहिदिम्मि उक्कस्सहिदीए अभावादो। उक्क० हाणी कस्स ? अण्णद० अणंताणु०चउकं विसंजोएंतेण पढमे द्विदिकंडए हदे तस्स उक. हाणी। २०१. अणुदिसादि जाव सव्वट्ठ त्ति अट्ठावीसपयडी० उक० हाणी कस्स ? अण्णद० अणंताणु०चउक० विसंजोएंतेण पढमट्टिदिखंडए हदे तस्स उक्कस्सिया हाणी । एवं जाणिदृण णेदव्वं जाव अणाहारए त्ति । ६२०२. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो--ओघे० आदेसे० । ओघेण छव्वीसं पयडीणं जह० वड्डी कस्स ? अण्णद० समयणुक्कस्सहिदि बंधिय जेणुकस्सद्विदी' पबद्धा तस्स जह० वड्डी । ज० हाणी कस्स ? अण्णद० उक्कस्सहिदि बंधमाणेण जेण समयूणुकस्सट्टिदी पबद्धा तस्स जह० हाणी। एगदरस्थ अवट्ठाणं । सम्मत्त-सम्मामि० बह० वड्डी कस्स ? अण्णद० जो पुव्वुप्पण्णादो सम्मत्तादो मिच्छत्तस्स दुसमयुत्तरहिदि वेदकसम्यक्त्वके योग्य सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति सत्कर्मवाला और मिथ्यात्वकी तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मवाला जो जीव वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। शंका-जो सम्यक्त्व प्रकृतिकी अन्तिम फालिके साथ उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है उसे उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी क्यों नहीं बतलाया ? समाधान-नहीं, क्योंकि तीनों ही करणोंको करके उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जिस जीवने स्थितिकाण्डकघातके द्वारा दीर्घ स्थितिका घात करके उसे ह्रस्व कर दिया है उसके उत्कृष्ट स्थिति नहीं पाई जाती है। ___ उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाले जिस जीवने प्रथम स्थितिकाण्डकका घात कर दिया है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। ६२०१. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करनेवाले जिस जीवने प्रथम स्थितिकाण्डकका घात कर दिया है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। इसी प्रकार जानकर अनाहारक मार्गणातक ले जाना चाहिये। ६२०२. अब जघन्य स्वामित्वका प्रकरण है-उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघ और आदेश। उनमें से ओघकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर जिसने उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है उसके जघन्य वृद्धि होती है। जघन्य हानि किसके होती है ? उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जिस जीवने एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया उसके जघन्य हानि होती है । तथा किसी एक जगह अवस्थान होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो पहले प्राप्त सम्यक्त्वकी स्थिति से मिथ्यात्वकी दो समय अधिक स्थितिको बाँधकर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ उसके जघन्य वृद्धि १ ता. आ. प्रत्योः बंधिय जो अणुक्कस्सहिदी इति पाठः । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जयधवला सहिदे कसायपाहुडे • [ द्विदिविहती ३ बंधिय सम्मत्तं पडिवण्णो तस्स जह० वड्डी । जह० हाणी कस्स १ अण्णद० गलमाणअट्ठदिस्स । अट्ठास्स उकस्सभंगो । एवं चदुसु गदीसु । णवरि पंचिं० तिरि० अपज० मणुस अपजत्तरसु सम्मत्त० सम्मामि ० जह० हाणी कस्स १ अण्णद० गलमाण अध द्विदिस्स | ६ २०३. आणदादि जाव णवगेवजा त्ति छन्वीसं पयडीणं जहणिया हाणी कस्स १. अण्णद • गलमाणअधट्ठिदिस्स । सम्मत्त० - सम्मामि० जह० वड्डी कस्स ? अण्णद० जो मिच्छत्तं गंतूण एगमुव्वेल्लणकंडयमुच्वेल्लेण पुणो सम्मत्तं पडिवण्णो तस्स पढ़मसमयसम्माइट्ठिस्स सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं जह० वड्डी । जह० हाणी कस्स १ गलमाणअध डिस्सि | अणुद्दिसादि जाव सव्वडे ति अट्ठावीसपयडीणं जह० हाणी कस्स ? अष्णद • गलमाणअधट्ठिदिस्स । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारए ति । * अप्पा बहुए पयदं । ९ २०४ संपहि पत्तावसरमप्पाबहुअं परूवेमित्ति भणिदं होदि । * मिच्छुत्तस्स सव्वत्थोवा उक्कस्सिया हाणी । २०५. कुदो ? जत्तियमेतद्विदीओ उकस्सेण वड्डिदूण बंधदि । पुणो कंडयघादेण उकस्सेण घादयमाणस्स तत्तियमेत्तट्ठिदीणं घादणसत्तीए अभावादो । तं कुदो णव्वदे १ होती है । जघन्य हानि किसके होती है ? जिसके प्रति समय अधःस्थिति गल रही है ऐसे किसी जीवके जघन्य हानि होती है । जघन्य अवस्थानका भंग उत्कृष्ट के समान है। इसी प्रकार चारों गतियों में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जधन्य हानि किसके होती है ? जिसके अधः स्थिति ग़ल रही है उसके जघन्य हानि होती है । $ २०३. अनतकल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयकतकके देवों में छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य हानि किसके होती है ? जिसके प्रति समय अधःस्थिति गल रही है उसके जघन्य हानि होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और एक उद्वेलनाकाण्डककी उद्व ेलना करके पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है उस सम्यग्दृष्टि के प्रथम समय में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धि होती है । जघन्य हानि किसके होती है ? जो प्रति समय अधःस्थितिको गला रहा है उसके जघन्य हानि होती है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवों में अट्ठाईस प्रकृतियों की जघन्य हानि किसके होती है ? जिसके प्रति समय अधःस्थिति गल रही है उसके जघन्य हानि होती है। इसी प्रकार जानकर अनाहारक मार्गणातक कथन करना चाहिये । * अब अल्पबहुत्वका प्रकरण है । २०४. अब अवसर प्राप्त अल्पबहुत्वानुगमका कथन करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य हैं । * मिध्यात्वकी उत्कृष्ट हानि सबसे थोड़ी है। ६ २०५. क्योंकि यह जीव जितनी स्थितिको उत्कृष्टरूप से बढ़ाकर बाँधता है, काण्डकघात के द्वारा उत्कृष्ट रूपसे घात करते हुए उस जीवके उतनी स्थिति के घात करने की शक्ति नहीं पाई जाती हैं। तात्पर्य यह है कि एक बार में जितनी स्थिति बढ़ाकर बांधता है उतनी स्थितिका एक बार में घात नहीं होता । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] पदणिक्वेवे अप्पाबहुवे १११ एदम्हादो चेव अप्पाबहुगादो। _. * उकस्सिया वड्डी अवहाणं च सरिसा विसेसाहिया । । .६ २०६. केत्तियमेत्तण ? उक्कस्सियाए वड्डीए उकस्सहाणिं सोहिय सुद्धसेससंखेजसागरोवमहिदिमेत्तेण । वड्डिअवठ्ठाणाणं कथं सरिसत्तं ? 'पुव्वविदीओ पेक्खिदूण जेहि द्विदिविसेसेहि द्विदीए बड्डी होदि तेसिं द्विदिविसेसाणं वड्डि त्ति सणा। जेहि हिदिविसेसेहि वड्दूिण हाइदूण वा अवचिट्ठदि तेसिं वड्डिद-हाइदद्विदिविसेसाणमवद्वाणमिदि जण सण्णा तेण वड्डि-अवट्ठाणाणं सरिसत्तं ण विरुज्झदे ।। * एवं सव्वकम्माणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवज्जाणं । २०७. जहा मिच्छत्तस्स अप्पाबहुअं परूविदं तहा सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवजाणं सव्वकम्माणमप्पाबहुअं परूवेदव्वं विसेसाभावादो। जासु पयडीसु विसेसो अस्थि तस्स विसेसस्स परूवणमुत्तरसुत्तं 'भणदि। . * णवरि णवंसयवेद-अरदि--सोग-भय-दुगुंछाणमुक्कस्सिया वड्डी अवठाणं थोवा। ६ २०८. कुदो, पलिदो० असंखे भागेणब्भहियबीससागरोवमकोडाकोडिपमाणत्तादो। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-इसी अल्पबहुत्वसे जाना जाता है। * उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान ये दोनों समान होते हुए विशेष अधिक हैं। २०६. कितने अधिक हैं ? उत्कृष्ट वृद्धि मेंसे उत्कृष्ट हानिको घटाकर जो संख्यात सागर स्थिति शेष रहती है तत्प्रमाण अधिक हैं। शंका-वृद्धि और अवस्थान समान कैसे हो सकते हैं ? समाधान-पहलेकी स्थितियोंको देखते हुए जिस स्थिति विशेषकी अपेक्षा स्थिति की वृद्धि हो उन स्थितिविशेषोंकी चूकि वृद्धि यह संज्ञा है। तथा जिन स्थिति विशेषोंकी अपेक्षा बढ़कर या घट कर स्थिति स्थित रहती है उन बढ़ी हुई या घटाई हुई स्थितियोंकी चूंकि अवस्थान यह संज्ञा है इसलिये वृद्धि और अवस्थानके समान होनेमें कोई विरोध नहीं आता है। .... * इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर सब कर्मोका अल्पबहुत्व जानना चाहिए। ६२०७. जिसप्रकार मिथ्यात्वके अल्पबहुत्वका कथन किया उसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष सब कर्मों के अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। तथा जिन प्रकृतियोंमें विशेषता है उनकी विशेषताके कथन करने के लिये मागेके सूत्रको कहते हैं.. * किन्तु इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, और जुगुप्साकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान थोड़ा है। ६ २०८. क्योंकि इनकी वृद्धि और अवस्थानका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागसे , आ. प्रतौ पुध हिदीभो इति पाठः । २ आ, प्रतौ भणिदं इति पाठः । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जयधवलासहिदेकसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ तं जहा–कसाएसु उकस्सद्विदि बंधमाणेसु णqसयवेदअरदिसोगभयदुगुंछोणं णियमेष बंधो होदि। होंतो वि एदासि पयडोणं द्विदिबंधो उकस्सेण वीसंसागरोवमकोडाकोडिमेत्तो होदि । जहण्णेण समयणाबाहाकंड एणणवीसंसागरोवमकोडाकोडिमेत्तो; एत्थ उक्कस्सव ड्डि-अवट्ठाणेहिं अहियारत्तादो। एगावाहाकंडएणूणवीसंसागरोवमकोडाकोडि मेत्तहिदि पंच णोकसाया बंधावेदव्वा । एवं बंधिय पुणो बंधावलियादिकंतकसायद्विदीए पंचणोकसाएसु संकंताए पलिदोवमस्स असंखे०भागेणब्महियवीसंसागरोवमकोडाकोडिमेत्ता वड्डी अबढाणं च होदि तेणेसा थोवा । * उक्कस्सिया हाणी विसेसाहिया ।। ६२०९. कुदो ? हेट्ठा अंतोकोडाकोडिं मोत्तूण उवरिम-किंचूणचालीससागरोवमकोडाकोडिमेतहिदीणं कंडयघादेण घावलंभादो। केत्तियमेत्तेण विसेसाहिया ? अंतो. कोडाकोडीए ऊणवीसंसागरोवमकोडाकोडिमेत्तेण । इत्थिपुरिसहस्सरदीणमेस कमो पत्थि; उक्कस्सट्ठिदिबंधकाले तासि बंधामावादो। पडिहग्गद्धाए अंतोकोडाकोडिमेत्तहिदि बंधमाणचदुणोकसायाणमुवरि बंधावलियादिकंतकसायुक्कस्सहिदीए संकंतिसंभवादो। * सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवमुक्कस्समवहाणं । २१०. कुदो ? एगसमयत्तादो। अधिक बीस कोड़ाकोड़ी सागर है। खुलासा इस प्रकार है-कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होते हुए नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जगुप्साका नियमसे बन्ध होता है। बन्ध होता हुआ भी इन प्रकतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध वीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होता है और जघन्य स्थिति वन्ध एक समयकम एक आवाधाकाण्डकसे न्यून बीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण होता है। प्रकृतमें उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थानका अधिकार है अतः पांच नोकषायोंका स्थितिबन्ध एक बाधाकाण्डक कम बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण कराना चाहिये । इस प्रकार बन्ध कराके पुनः बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिके पाँच नोकषायोंमें संक्रान्त कराने पर चूकि पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण वृद्धि और अवस्थान होता है इसलिये यह थोड़ी है। * उत्कष्ट हानि विशेष अधिक है। ६२०९. क्योंकि नीचे अन्तःकोड़ाकीड़ी प्रमाण स्थितिको छोड़कर कुछ कम चालीस कोड़ा. कोड़ी प्रमाण उपरिम स्थितियोंका काण्डकघातके द्वारा घात पाया जाता है। शंका-कितनी अधिक है ? समाधान-अन्तःकोड़ाकोड़ी कम बीस कोड़ाकोड़ी सागर अधिक है। किन्तु स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिका यह क्रम नहीं है, क्योंकि उस्कृष्ट स्थिति बन्धके समय इन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता है। अतः प्रतिभग्नकालके भीतर अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थितिको लेकर बंधनेवाली चार नोकषायोंके ऊपर बन्धावलिसे रहित कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण देखा जाता है। * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे थोड़ा है। ६२१०. क्योंकि उसका प्रमाण एक समय है। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] पदणिक्खेवे अप्पा बहुअं * उक्कस्सिया हाणी असंखेज्जगुणा । $ २११ कुदो १ अंतोकोडाकोडीए ऊणसत्तरिसागरोवमकोडाको डिपमाणत्तादो । * उक्कस्सिया वड्डी विसेसाहिया । $ २१२. सागरोवमेण सागरोवमपुधत्तेण वा ऊणसत्तरिसागरोवमकोडा कोडिपमाणत्तादो | सागरोवमेण सागरोवमपृधत्तेण वा ऊणत्तस्स किं कारणं १ बुच्चदे -- एइंदिएस ठाइदूण' जेण सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लिदाणि सो तेसिं सागरोवममेत्तट्ठि दिसंते सेसे वेदगसम्मत्तपाओग्गो जदि तसकाइए अच्छिदूण उब्वेल्लदि तो सागरोवमपुधत्ते सम्मत्त सम्मामिच्छत्तट्ठि दिसंते सेसे वेदगपाओग्गो होदि तेणेत्तिएण ऊणसत्तरिसागकडकडदी उकवड्डी होदि । एत्थ पुण एगसागरोवमेणूणुक सदी व्वा; उक्कसवड्डीए अहियारादो । $ २१३. संपहि चुण्णिसुत्तमस्सिदृण अप्पाचहुअपरूवणं करिय विसेसावगमणट्ठमेत्थ उच्चारणाणुगमं कस्सामो । अप्पा बहुअं दुविहं -- जहण्णमुक्कस्तं च । उक्कस्सए पयदं । दुविहो णि० - ओघे० आदेसे० । तत्थ ओघेण छव्वीसं पयडीणं सव्वत्थोवा उक्कस्सिया हाणी । बड्डी अवाणं च विसेसाहिया । एदस्स आइरियस्स अहिप्पारण कसारसु उकस्सट्ठिर्दि बंधमाणे पंचणोकसायाणमुक्कस्सट्ठिदिबंधणियमो णत्थि हाणीदो वड्डी विसेसाहिया ११३ * उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणी है । २११. क्योंकि इसका प्रमाण अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है । * उत्कृष्ट वृद्धि विशेष अधिक है । सागर है । २१२. क्योंकि इसका प्रमाण एक सागर या सागरपृथक्त्व कम सत्तर कोड़ाकोड़ी शंका- — सत्तर कोड़ीकोड़ी सागरमेंसे जो एक सागर या सागरपृथक्त्व कम किया है सो इसका क्या कारण है ? समाधान - जिसने एकेन्द्रियोंमें रहकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना की है वह उनकी एक सागर प्रमाण स्थितिके रहते हुए वेदकसम्यक्त्वके योग्य होता है। और यदि त्रसकायिकों में रहकर लेना की है तो वह सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी सागर पृथक्त्व प्रमाण स्थिति के रहने पर वेदकसम्यक्त्वके योग्य होता है, अतः इतनी स्थिति कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट वृद्धि होती है । परन्तु यहाँ पर एक सागर कम उत्कृष्ट स्थिति लेनी चाहिये, क्योंकि यहाँ उत्कृष्ट वृद्धिका अधिकार है । ६ २१३. इस प्रकार चूर्णिसूत्र के आश्रय से अल्पबहुत्वका कथन करके अब उसका विशेष ज्ञान कराने के लिये यहाँ पर उच्चारणाका अनुगम करते हैं । अल्पबहुत्व दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उनमें से उत्कृष्ट का प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि सबसे थोड़ी है । उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान विशेष अधिक हैं। उच्चारणाचार्य के अभिप्रायानुसार कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति बँधते समय पाँच नोकषायोंकी उत्कृष्टि स्थितिके बन्धका नियम नहीं है । अन्यथा पाँच - नोकषायों के १ आ० प्रतौ हाइदूण इति पाठः । १५ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविद्दत्ती ३ ० ति पंचणोकसायाणमप्पा बहुअण्णहाणुत्रवत्ती दो । सम्मत - सम्मामिच्छत्त० सव्वत्थोवा | उक० अवट्ठाणं । उक्क • हाणी असंखे ० गुणा । उक्क० वड्डी विसेस | ० | एवं चदुसु गदीसु । नवरि पंचिदियतिरिक्खअपज्ञ्ज० मणुस्सअपञ्ज० छन्वीसं पयडीणं सव्वत्थोवा उक्क० वड्डी अवट्ठाणं च । उक्क० हाणी संखे० गुणा । सम्मत्त सम्मामि० णत्थि अप्पा बहुअं; एगपदतादो । एवं सव्वविगलिंदिय-पंचिदियअपज ० -तस अपज० - असण्णि त्ति । $ २१४. आणदादि जाव उवरिमगेवजा त्ति छव्वीसं पयडीणमप्पाबहुअं णत्थि; एगपदत्तादो । सम्मत्त० - सम्मामि० सव्वत्थोवा उक्क० हाणी । उक्क० वड्डी संखेजगुणा । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्टे त्ति णत्थि अप्पा बहुगं; एगपदत्तादो । ९ २१५. इंदियाणुवादेण एइंदिएस छब्बीसं पयडीणं सव्वत्थोवा वड्डी अवट्ठाणं च | हाणी असंखे० गुणा । एइंदियाणं सत्थाणवड्डि-अवट्ठाणविवक्खाए एदमप्पा बहुअं परूविदं । परत्थाणविवक्खाए पुण णवणोकसासु विसेसो अत्थि सो जाणियच्चो । सो अत्थो जहासंभवमण्णत्थ वि जोजेयव्वो । सम्मत्त सम्मामि० णत्थि अप्पा बहुअं । एवं सव्वेइंदिय सव्वपंचकायाणं । $ २१६. पंचिंदिय-पंचिं ०पजत्तएसु मूलोघभंगो। एवं तस तसपज ०० पंचमण०पंचवचि० - कायजोगि ० - ओरालिय० - वे उव्त्रिय ० - तिण्णिवेद ० - चत्तारिकसाय - असंजद० अल्पबहुत्व हानिसे वृद्धि विशेष अधिक है यह नहीं बन सकता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे थोड़ा है। इससे उत्कृष्ट हानि श्रसंख्यातगुणी है। इससे उत्कृष्ट वृद्धि विशेष अधिक है । इसी प्रकार चारों गतियों में जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थिति सबसे थोड़ी है। इससे उत्कृष्ट हानि संख्यातगुणी है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि यहाँ उसका एक अल्पतर पद ही पाया जाता है । इसी प्रकार सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिए । § २१४. आनतकल्पसे लेकर उपरिम ग्रैवेयकतक के देवों में छब्बीस प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि यहाँ पर इन प्रकृतियोंका एक अल्पतर पद ही पाया जाता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि सबसे थोड़ी है । इससे उत्कृष्ट वृद्धि संख्यातगुणी है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि यहाँपर सभी प्रकृतियोंका एक अल्पतर पद ही पाया जाता है । ६ २१५. इन्द्रियमार्गणा के अनुवाद से एकेन्द्रियोंमें छब्बीस प्रकृतियों की वृद्धि और अवस्थान सबसे थोड़ा है। इससे हानि असंख्यातगुणी है । एकेन्द्रियोंकी स्वस्थान वृद्धि और अवस्थानकी विवक्षासे यह अल्पबहुत्व कहा है । परस्थानकी विवक्षासे तो नौ नोकषायों के अल्पबहुत्व में विशेषता है जो जानना चाहिये । इस अर्थ की यथासम्भव अन्यत्र भी योजना करनी चाहिये । यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पबहुत्व नहीं है । इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय और सब पाँचों स्थावर काय जीबोंके जानना चाहिए । · $ २१६. पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें मूलोघके समान भंग है । इसी प्रकार त्रस, त्रसपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचतुदर्शनवाले, कृष्णादि पाँच Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] पदणिक्खेवे अप्पाबहुअं ११५ चक्खु-अचक्खु०-पंचले०-भवसि०-सण्णि-आहारि ति । २१७. ओरालियमिस्स० सव्वत्थोवा छन्वीसं पयडीणं उक्क० वड्डी अवठ्ठाणं च । उक० हाणी संखे० गुणा। सम्मत्त-सम्मामि० णत्थि अप्पाबहुगं। एवं वेउव्वियमिस्स०-कम्मइय०-अणाहारि त्ति । आहार-आहारमिस्स० अट्ठावीसपयडीणं णस्थि अप्पाबहुगं; एगप्पदरपदत्तादो । एवमवगद०-अकसा०-आभिणि-सुद०-ओहि० मणपज्ज०संजद०-समाइय-छेदो०-परिहार० सुहुम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद०-ओहिदंस०-सुकले०सम्मादि०-वेदगसम्मादि०-उवसम-सासण-सम्मामिच्छादिहि त्ति । णवरि आमिणि. सुद०-ओहि०-संजद०-सामाइय-छेदो०-संजदासंजद-ओहिदंस०-सुक्कले० सम्मादि०वेदगसम्मादिट्ठीसु सम्मत्त-सम्मामि० सव्वत्थोवमवट्ठाणं । हाणी असंखेगुणा । वड्डी विसेसाहिया त्ति किण्ण वुच्चरे ? ण, अप्पिदमग्गणाए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं वड्डि. अवट्ठाणाभावादो । णवरि सुकलेस्सिएसु तेसिं सव्वत्थोवा उकस्समवट्ठाणं । हाणी असंखे०. गुणा । वड्डी विसेसा० । २१८. मदि-सुदअण्णा० छव्वीसपयडीणं मूलोघभंगो । सम्मत्त-सम्मामि० णत्थि अप्पाबहुगं । एवं विहंग-मिच्छादिहि ति । अभविय० छब्बीसं पयडीणं मूलोघं । खइय. लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। ६२१७. औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान सबसे थोड़ा है। इससे उत्कृष्ट हानि संख्यातगुणी है। यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पबहुत्व नहीं है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । आहारककाययोगी और आहाकरमिश्रकाययोगी जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि यहाँ इनका एक अल्पतर पद है । इसी प्रकार अपगतवेदी, अषायी, भाभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धि संयत, सूक्ष्मसांपरायिकसयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्य ग्मिध्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। शंका-आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अवस्थान सबसे थोड़ा है। इससे हानि असंख्यातगुणी है तथा इससे वृद्धि विशेष अधिक है ऐसा क्यों नहीं कहा है ? समाधान-नहीं, क्योंकि विवक्षित मार्गणाओंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी वृद्धि और अवस्थानका अभाव है। किन्तु इतनी विशेषता है कि शुक्ललेश्यावाले जीवों में उक्त दो प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे थोड़ा है। इससे हानि असंख्यातगुणी है तथा इससे वृद्धि विशेष अधिक है। ६२१८. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका अल्पबहुस्व मूलोषके समान है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पबहुत्व नहीं है। इसी प्रकार विभंगज्ञानी और मियादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंका अल्पबहुस्व मूलोघके Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ एक्कवीसपयडीणं णत्थि अप्पाबहुअं । एवमुक्कस्सप्पाबहुगाणुगमो समत्तो । ... * जहरिणया वड्री जहरिणया हाणी जहणणमवहाणं च सरिसाणि । __$२१९. कुदो, एगसमयत्तादो। तेण कारणेण णत्थि अप्पाबहुअं। संपहि एवं चुण्णिसुत्तं देसामासियं तेणेदेण सूचिदत्थाणुगमणद्वमुच्चारणं भणिस्सामो। $ २२०. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण । ओघे० अट्ठावीसं पयडीणं जहणिया वड्डी हाणी अवट्ठाणं च तिण्णि वि सरिसाणि । एवं सव्वणिरय०तिरिक्ख०-पंचिंतिरिक्ख०-पंचिंतिरि०पज०-पंचिंतिरि०जोणिणि-मणुस-मणुसपज०. मणुसिणी-देव-भवणादि जाव सहस्सार०-पंचिंदिय-पंचिं०पज०-तस-तसपज्ज०-पंचमण.. पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-वेउब्धिय-तिण्णिवे०-चत्तारिकसाय-असंजद०चक्खु०-अचक्खु०-पंवले०-भवसि०-सण्णि-आहारि त्ति । पंचिं०तिरि०अपज एवं चेव । णवरि सम्मत्त-सम्मामि० णत्थि अप्पाबहुगं; जहण्णहाणिमेत्तत्तादो। एवं मणुसअपज०. सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिं० अपज०-सव्वपंचकाय-तसअपज०-ओरालियमिस्स.. वेउव्वियमि०-कम्मइय-तिण्णिअण्णाण-मिच्छादि-असण्णि-अणाहारि त्ति । $२२१. आणदादि जाव उवरिमगेवजो त्ति छव्वीसं पयडीणं णत्थि अप्पाबहुगं; एगपदत्तादो। सम्मत्त०-सम्मामि० सव्वत्थोवा जह० हाणी। जह० वड्डी असंखे०. समान है । क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में इक्कीस प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व नहीं है। इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्वानुगम समाप्त हुआ। * जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान समान हैं। ६२१६. क्योंकि इनका प्रमाण एक समय है। इसलिये इनमें परस्पर अल्पबहुत्व नहीं है। यह चूर्णिसूत्र देशामर्षक है, इसलिये इससे सूचित होनेवाले अर्थका अनुसरण करनेके लिये अव उच्चारणका कथन करते हैं ६२२०. जघन्य अल्पबहुत्वका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओपनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमें से ओघकी अपेक्षा अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान ये तीनों ही समान हैं। इसी प्रकार सब नारकी, तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यश्च, पंचेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यश्च योनिमती, मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी, देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्त्रार कल्पतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि पाँच लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त जीवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि इनकी यहाँ जघन्य हानि मात्र पाई जाती है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सब पाँचों स्थावरकाय, त्रस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। ६२२१. आनतकल्पसे लेकर उपरिम ग्रैवेयकतकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व नहीं है; क्योंकि इनका यहाँ एक पद पाया जाता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य हानि Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूवणा १६७ गुणा । कुदो, तप्पाओग्गुव्वेल्लणकंडयमेतत्तादो। एवं सुकलेस्सिएसु । णवरि तिरि०. मणुस्सेसु सुक्कलेस्सिएसु सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णमवट्ठाणं पि संभवदि। $ २२२. अणुदिसादि जाव सबट्टसिद्धि त्ति अट्ठावीसपयडीणं णस्थि अप्पाबहुगं । एवमाहार०-आहारमिस्स०-अवगद०-अकसा० आभिणि०-सुद०-ओहि०मणपज०-संजद'. सामाइय-छेदो०-परिहार०-सुहुम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद०-ओहिदंस०-सम्मादि०. खइय०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामि०दिहि ति। अभविय० छव्वीसं पयडीणं जहण्णवडि-हाणि-अवट्ठाणाणं णत्थि अप्पाबहुगं; समाणत्तादो । एवमप्पाबहुए समत्ते पदणिक्खेवाणुगमो समत्तो। वड्डो * एत्तो वड्डी। ६ २२३. एत्तो पदणिक्खेवादो उवरि वड्ढेि भणामि त्ति भणिदं होदि । का वड्डी णाम ? पदणिक्खेवविसेसो वड्डी । तं जहा-पदणिक्खेवे उक्क० वड्डी उद्ध० हाणी उक्कस्समवट्ठाणं च परविदं ताणि च वडि-हाणि-अवट्ठाणाणि एगसरूवाणि ण होंति, अणेगसरूवाणि त्ति जण जाणावेदि तेण पदणिक्खेवविसेसो वड्डि ति घेत्तव्यं । सबसे थोड़ी है। इससे जघन्य वृद्धि असंख्यातगुणी है, क्योंकि उसका प्रमाण तत्प्रायोग्य उद्वतनकाण्डकमात्र है। इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवोंमे जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्च और मनुष्य शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अवस्थान भी सम्भव है। ६ २२२. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व नहीं है । इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, आभिनि बोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी. सम्यग्दृष्टि. क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना । अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतितियोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान नहीं होनेसे अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि ये तीनों समान हैं। इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त होनेपर पदनिक्षेपानुगम समाप्त हुआ। वृद्धि * अब यहां से वृद्धि का कथन करते हैं । २२३. इसके अर्थात पदनिक्षेपके अनन्तर अब वृद्धिका कथन करते हैं। यह इस सूत्रका तात्पर्य है। शंका-वृद्धि किसे कहते हैं ? समाधान--पदनिक्षेपविशेषको वृद्धि कहते हैं। खुलासा इस प्रकार है-पदनिक्षेपमें उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थानका कथन किया। किन्तु वे वृद्धि, हानि और अवस्थान एकरूप न होकर अनेकरूप हैं यह बात बँकि इससे जानी जाती है, अतः पदनिक्षेप विशेषको वृद्धि कहते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। १ ता• प्रतौ मणपज. [ संजदा ] संजद आ० प्रतौ मणपज० संजदासंजद० इति पाठः । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ २२४. एत्थ ड्डिहाणीणमत्थपरूवणाए कीरमाणाए तत्थ ताव तासिं सरूवं बुच्चदे | तत्थ वड्डी दुविधा — सत्थाणवड्डी परत्थाणवड्डी चेदि । तत्थ एगजीव समास मस्सिद्ण हिदीगंजा वड्डीसा सट्टाणवड्डी णाम । तं जहा- चदुण्हमेइं दियाणमप्पप्पणो जहण्णबंधस्सुवरि समयुत्तरादिक्रमेण जाव तेसिं चेव उक्कस्सबंधो त्ति ताव णिरंतरं बंधमाणाणमसंखेअदिभागवड्डी चैव होदि । कुदो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं चेव वीचाराणाणं तत्थुवलंभादो । हेट्ठा ओदरिदूण बंधमाणाणं पि एक्का चेव असंखेजभागहाणी होदि । बेइं दियतेइं दिय- चउरिंदिय असणपंचिंदिय-पजत्ता पत्ताणमडण्णं पि जीवसमासाणमपष्पणो जहण्णबंध पहुडि समयुत्तरादिकमेण जाव तेसिमुक्कस्सबंधो त्ति ताव बंधमाणा - मसंखेजभागवड्डी संखेजभागवड्ढि त्ति एदाओ दो चैव वड्डीओ होंति; एदेसु अडसु जीवसमासे पलिदो ० संखे ० भागमे तवीचार | णुवलंभादो । पुणो उकस्सबंधादो समयूणादिकमेण हेट्ठा ओसरिदूण बंधमाणाणमसंखेज भागहाणी संखेज्जभागहाणी च होदि । सण्णिपंचिंदियपञ्जत्तापजत्ताणं दोन्हं पि जीवसमासाणमप्पप्पणो जहण्णबंधप्पहुडि जाव सकस्सबंधोति ताव समयुत्तरादिकमेण बंधमाणाणमसंखेजभागवड्डी संखेज भागवड्डी गुणवत्ताओ तिण्णि बड्डीओ होंति । पुणो हेट्ठा ओसरिदूण बंधमाणाणमसंखेजभागहाणी संखेजभागहाणी संखेजगुणहाणि त्ति एदाओ तिण्णि हाणीओ होंति । वरि सष्णिपंचिदियपजत्तएस केसिं चि कम्माणमसंखेज्जगुणवड्डी असंखेजगुणहाणी च होदि । ११८ $ २२४. यहाँपर वृद्धि और हानि की अर्थप्ररूपणा करनेपर पहले उनका स्वरूप कहते हैं । इन दोनोंमेंसे वृद्धि दो प्रकारकी है - स्वस्थानवृद्धि और परस्थानवृद्धि । उनमें से एक जीवसमास के आश्रय से स्थितियोंकी जो वृद्धि होती है वह स्वस्थान वृद्धि है । यथा - चार एकेन्द्रियोंके अपने अपने जघन्य बन्धके ऊपर एक समय अधिक आदिके क्रम से लेकर जबतक उन्हीं का उत्कृष्टबन्ध होता है तबतक निरन्तर बन्धवाले उन कर्मोंकी असंख्यात भागवृद्धि ही होती है, क्योंकि वहाँपर पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण वचारस्थान पाये जाते हैं । तथा उत्कृष्टस्थिति से नीचे उतरकर बंधवाले कर्मों की भी एक असंख्यात - भागहानि ही होती है । दोइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्त और इनके अपर्याप्त इन आठों ही जीवसमासोंके भी अपने अपने जघन्यबन्धसे लेकर एक समय अधिक आदिके क्रमसे उत्कृष्टबन्ध तक बंधनेवाले कर्मोंकी असंख्यात भागवृद्धि और संख्यातभागवृद्धि ये दोनों ही वृद्धियां होती हैं; क्योंकि इन आठ जीवसमासोंमें पल्य के संख्यातवें भागप्रमाण वीचारस्थान पाये जाते हैं । पुनः उत्कृष्टबन्ध से एक समय कम आदि क्रमसे नीचे उतरकर बंधनेवाले कर्मोंकी असंख्यातभागहानि और संख्यात भागहानि होती है । संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त इन दोनों जीवसमासोंके अपने अपने जघन्यबन्धसे लेकर अपने अपने उत्कृष्टबन्ध तक एक समय अधिक आदि के क्रमसे बंधनेवाले कर्मोंकी असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि ये तीन वृद्धियां होती हैं । पुनः नीचे उतरकर बंधनेवाले कर्मों की असंख्यात भागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि ये तीन हानियां होती हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में किन्हीं कर्मोंकी असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानि होती है । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] डिपरूपणा ११६ विशेषार्थ — जीवसमास चौदह हैं । इसमें से प्रत्येकमें जो अपनी अपनी जघन्य स्थिति लेकर अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति तक वृद्धि होती है उसे स्वस्थानवृद्धि कहते हैं । और अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति से लेकर जो अपनी अपनी जघन्य स्थिति तक हानि होती है उसे स्वस्थान हानि कहते हैं । इसी प्रकार नीचेके जीवसमासको ऊपर के जीवसमासमें उत्पन्न कराने पर जो स्थिति में वृद्धि होती है उसे परस्थानवृद्धि कहते हैं और ऊपरके जीवसमासको नीचे के जीवसमासमें उत्पन्न कराने पर जो स्थितिमें हानि होती है उसे परस्थान हानि कहते हैं। इनमें से पहले किस जीवसमास में कितनी स्वस्थानवृद्धि और स्वस्थान हानि सम्भव है इसका विचार करते हैं। मोहनीयके २८ भेद हैं। उन सबकी अपेक्षा एक साथ ज्ञान करना सम्भव नहीं इसलिये पहले मिध्यात्वकी अपेक्षा विचार करते हैं। पर कहाँ कौन-सी हानि और वृद्धि होती है इसका ज्ञान होना तब सम्भव है जब हम प्रत्येक जीवसमासमें जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिको जान लें । अतः पहले प्रत्येक जीवसमासमें जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिका विचार किया जाता है - सामान्यतः यह नियम है कि एकेन्द्रियके एक सागरप्रमाण, द्वीन्द्रियके पच्चीस सागर प्रमाण, त्रीन्द्रियके पचास सागरप्रमाण, चौइन्द्रियके सौ सागरप्रमाण और असंज्ञी पंचेन्द्रियके एक हजार सागरप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । तथा एकेन्द्रियके अपनी उत्कृष्ट स्थिति में से पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम कर देने पर और शेषके अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिमेंसे पल्यका संख्यातवाँ भाग कम कर देने पर जो स्थिति शेष रहती है वह अपना अपना जघन्य स्थितिबन्ध है । एकेन्द्रियके चार भेद हैं। तथा जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा उनके आठ भेद हो जाते हैं। अब प्रत्येककी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति लानेके लिये उनकी निम्न प्रकार से स्थापना करो । १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ बा. प. उ. सू. प. उ. बा. अ. उ. सू. अ. उ. सू. अ. ज. बा. अ. ज. सू. प. ज. बा. प. ज. ४ २८ १ २ १४ ६८ १९६ आशय यह है कि एकेन्द्रियकी उत्कृष्ट स्थिति से लेकर जघन्य स्थिति तक मध्यके जितने विकल्प हैं उसके ३४३ खण्ड करो। बादर पर्याप्तकके स्थिति के ये सब खण्ड पाये जाते हैं । सूक्ष्म पर्याप्त के उत्कृष्ट स्थितिकी तरफके १६६ और जघन्य स्थितिकी तरफके ६८ खण्ड छूट जाते हैं । बादर अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिकी तरफके २२४ और जघन्य स्थितिकी तरफके ११२ खण्ड छूट जाते हैं । तथा सूक्ष्म अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिकी तरफके २२८ और जघन्य स्थितिकी तरफके ११४ खण्ड छूट जाते हैं । द्वन्द्रियके दो भेद हैं । तथा जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा उसके चार भेद हो जाते हैं । अब प्रत्येककी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त करनेके लिये उनकी निम्न प्रकार से स्थापना करो— १ द्वी० प० उ० २ द्वी० अ० उ० ३ द्वी० अ० ज० ४ १ २ आशय यह है कि द्वीन्द्रियकी उत्कृष्ट स्थिति से लेकर जघन्य स्थिति तक कुल स्थिति के जितने विकल्प हैं उनके सात खण्ड करो । द्वीन्द्रियपर्याप्तक के ये सब खण्ड सम्भव हैं। पर द्वीन्द्रिय उत्कृष्ट स्थितिकी ओरके चार खण्ड और जघन्य स्थितिकी ओरके दो खण्ड छूट जाते अपर्याप्त हैं । त्रीन्द्रिय आदिके द्वीन्द्रियके समान ही विवेचन करना चाहिये । ४ द्वी० प० ज० इससे स्पष्ट है कि एकेन्द्रियोंके सब भेदों में अपने अपने जघन्य स्थितिबन्धसे अपना अपना उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक है और द्वीन्द्रियादिके अपने अपने जघन्य Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ स्थितिबन्धसे अपना अपना उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्यका संख्यातवाँ भाग अधिक है । इतने विवेचन के बाद कहाँ कौनसी हानि और वृद्धि होती है इसका विचार करते हैं एकेन्द्रिय सम्बन्धी चार जीवसमासों में से प्रत्येकके जब अपने जघन्य स्थितिबन्धसे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक है या उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे जघन्य स्थितिबन्ध पल्यका असंख्यातवाँ भाग हीन है तो यहाँ वृद्धि में असंख्यात भागवृद्धि और हानिमें असंख्यात भागद्दानि ही सम्भव हैं; क्योंकि यहाँ जघन्य स्थिति में एक एक समय स्थिति के बढ़ाने पर या उत्कृष्ट स्थिति में से एक एक समय स्थिति के घटाने पर असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानि ही होती है । पर इन जीवसमासोंके कुल स्थिति विकल्प भी अपनी अपनी स्थिति के असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, अतः जघन्यसे उत्कृष्ट या उत्कृष्टसे जघन्य स्थितिबन्धके होने पर भी क्रमसे असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानि ही होती हैं। इस प्रकार एकेन्द्रियके वृद्धिमें असंख्यात भागवृद्धि और हानिमें असंख्यात भागहानि ही सम्भव हैं । तथा द्वीन्द्रियादिकके अपने अपने जघन्य स्थितिबन्धसे अपना अपना उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पत्यका संख्यातवाँ भाग अधिक है। तथा उत्कृष्ट स्थितिबन्ध से जघन्य स्थितिबन्ध पल्यका संख्यातवाँ भाग हीन है, अतः यहाँ वृद्धि में असंख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागवृद्धि ये दो वृद्धियाँ सम्भव हैं और हानिमें असंख्यातभागहानि और संख्यातभागहानि ये दो हानियाँ सम्भव हैं। अपनी अपनी स्थितिके असंख्यातवें भागवृद्धि होने तक असंख्यात भागवृद्धि और हानि होने तक असंख्यात भागहानि होती है । तथा जब अपनी अपनी स्थिति के संख्यातवें भागकी वृद्धि या हानि होने लगती है तब संख्यात भागवृद्धि या संख्यात भागहानि होती है। यहाँ तक एकेन्द्रियादि जीवसमासों में कहाँ कितनी वृद्धि और हानि होती हैं इसका विचार किया । अब संज्ञी पंचेन्द्रियके विचार करते हैं । सामान्यतः संज्ञी पंचेन्द्रियोंके मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्राप्त होती है और जघन्य स्थितिबन्ध एक अन्तर्मुहूर्त होता है । पर यह जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणी में ही होता है । वैसे यदि एकेन्द्रियादिक जीव संज्ञियोंमें उत्पन्न होते हैं तो विग्रहगतिमें असंज्ञी पंचेन्द्रियके योग्य स्थितिबन्ध होता है और शरीर ग्रहण करनेके बाद संज्ञीके योग्य कमसे कम अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर स्थितिका बन्ध होता है। तथा यदि संज्ञी पंचेन्द्रिय संज्ञियों में उत्पन्न होता है तो उसके कमसे कम अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिबन्ध नियमसे होता है । अब इनके उत्तर भेदों में जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त करने के लिये उनकी निम्न प्रकार से स्थापना करोसंज्ञी प० ज० संज्ञी अ० ज० संज्ञी अ० उ० संज्ञी प० उ० आशय यह है कि संज्ञी पर्याप्तकी जघन्य स्थिति अन्तःको कोड़ी सागर से संज्ञी अपर्याप्तककी जघन्य स्थिति संख्यातगुणी अधिक है । इसी प्रकार उत्तरोत्तर आगे आगे भी जानना चाहिये । इससे इतना स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ अपने अपने जघन्य स्थितिबन्धसे अपना अपना उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा अधिक है और अपने अपने उत्कृष्ट स्थितिबन्ध से अपना अपना जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन है इसलिये यहाँ प्रत्येक भेदमें असंख्यात भागवृद्धि, संख्य । तभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि ये तीन वृद्धियाँ तथा असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि और संख्यात गुणानि ये तीन हानियाँ बन जाती हैं। इनका विशेष खुलासा मूलमें किया ही है तथा हम भी आगे लिखे अनुसार खुलासा करनेवाले हैं अतः यहाँ विशेष नहीं लिखा गया है। तथा संज्ञीपर्याप्तों में से किसी किसी जीव के किसी किसी कर्मकी असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानि भी होती है । जैसे जब किसी जीवके सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति पल्यके असख्यातवें भाग के भीतर शेष रह जाती है और तब वह जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो उसके सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके प्रथम समय में सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्व की असंख्यातगुणवृद्धि होती है । इसीप्रकार अनिवृत्तिकरण में दूरावकृष्टिकी प्रथमस्थिति कांडकघातकी अन्तिम फालिके पतन १२० Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] डिपरूवणा $ २२५. संपहि परत्थाणवड्डी उच्चदे || का परत्थाणवड्डी ? एइंदियादिहेडिमजीवसमासाओ उवरिमजीवसमासासु उत्पाइदे जा हिदीणं वड्डी सा परत्थाणवड्डी णाम । $ २२६. संपदि सत्थाणवड्डीए ताव णिरंतरवड्डिपरूवणं कस्सामो । तं जहासणिपंचिंदियपजत्तो मिच्छत्तस्स सव्वज हण्णिय मंतोकोडाको डिमेतट्ठिदिं बंधमाणो अच्छिदो तेण समयुत्तरजहण्णट्ठिदीए पबद्धाए असंखेजभागबड्डी होदि । पुणो तिस्से को भागो ? धुवट्ठी | दुसमयुत्तरादिट्ठिदीए पत्रद्धाए वि असंखेजभागवड्डी चैव होदि । तिस्से को पडिभागो ! पुव्वभागहारस्स दुभागो | तिसमयुत्तरजहण्णट्ठिदीए पबद्धाए' वि असंखेजभागवड्डी चैव होदि; तिस्से भागहारो पुव्वभागहारस्स तिभागो । तस्स को पडिभागो! वढिवाणि । एवं चत्तारि पंच-छ-सत्तट्ठादिकमेण वढावेदव्वं जाव धुवट्ठिदीए उवरि घुट्ठिी पलिदोवमसलागमेतद्विदीओ वडिदाओ ति । तासु वड्डिदासु वि असंखेजभागवड्डी चेव होदि; तक्काले धुवट्ठिदिभागहारस्स पलिदोवमपमाणत्तादो । पुणो तदुवरि एगसमयं वड्डदूण बंधमाणस्त वि असंखेज भागवड्डी चैव होदि । कुदो, तत्थ होने पर असंख्यातगुणहानि होती है। क्योंकि दूरापकृष्टि संज्ञावाली स्थिति के प्रथम स्थितिकांड कसे लेकर ऊपर की सब स्थितिकांडकोंकी घातकर शेष रही हुई सब स्थिति असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है । इस प्रकार संज्ञीपर्याप्तकके चार वृद्धियाँ और चार हानियाँ होती हैं तथा संज्ञी अपर्याप्तक के तीन वृद्धियाँ और तीन हानियाँ होती हैं यह निश्चित होता है । 1 § २२५. अब परस्थानवृद्धिका कथन करते हैं। शंका- परस्थानवृद्धि किसे कहते हैं ? १२१ समाधान — एकेन्द्रियादिक नीचेके जीवसमासोंको ऊपरके जीवसमासोंमें उत्पन्न करानेपर जो स्थितियोंकी वृद्धि होती है उसे परस्थानवृद्धि कहते हैं । ६ २२६. अब पहले स्वस्थानवृद्धिसंबन्धी निरन्तरवृद्धिका कथन करते हैं जो इस प्रकार हैजो संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव मिथ्यात्वकी सबसे जघन्य अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिको बांधकर अवस्थित है पुनः उसके एक समय अधिक जघन्य स्थितिका बन्ध होनेपर असंख्यात भागवृद्धि होती है। इसका क्या प्रतिभाग है ? ध्रुवस्थिति । दोसमय अधिक आदि स्थितिका बन्ध होनेपर भी असंख्यात भागवृद्धि ही होती है। इसका क्या प्रतिभाग है ? पूर्व भागहार अर्थात् ध्रुवस्थितिका दूसरा भाग प्रतिभाग है। तीन समय अधिक जघन्यस्थितिका बन्ध होनेपर भी असंख्यात भागवृद्धि ही होती है । इसका भागहार पूर्व भागहारका तीसरा भाग है । इस तीसरे भागको प्राप्त करने के लिये क्या प्रतिभाग है ? वृद्धिके अङ्क इसका प्रतिभाग है । इसी प्रकार चार, पाँच, छह, सात और आठ आदि के क्रम से ध्रुवस्थितिके ऊपर एक ध्रुवस्थितिमें पल्योंकी जितनी शलाकाएँ हों उतनी स्थितिकी वृद्धि होनेतक ध्रुवस्थितिको बढ़ाते जाना चाहिये । इतनी स्थितियोंके बढ़ जानेपर भी असंख्यात भागवृद्धि ही होती है; क्योंकि उस समय ध्रुवस्थितिका भागहार एक पल्य है । पुनः इसके ऊपर एक समय बढ़ाकर बाँधनेवाले जीवके भी असंख्यात भागवृद्धि ही होती है, क्योंकि यहाँपर ध्रुव 9 १ ता० प्रतौ पढिबढाए इति पाठः । १६ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ धुवहिदीए किंचूणपलिदोवममेत्तभागहारत्तादो। एवं समयुत्तरदुसमयुत्तरादिकमेण वड्ढावेदव्वं जाव दुगुणपलिदोवमसलागाओ वड्विदाओ त्ति । तत्थ वि असंखेजभागवड्डी चेव होदि । कुदो, धुवद्विदीए पलिदोवमस्स दुभागमेत्तभागहारत्तादो । एवं गंतूण पलिदोवमसलागमेत्तपढमवग्गमूलाणि वड्डिदूण बंधमाणस्स वि असंखेजभागवड्डी चेव होदि; तत्थ धुवद्विदीए पलिदोवमपढमवग्गमूलभागहारत्तादो। एवं धुवहिदिमागहारो कमेण विदियवग्गमूलं तदियवग्गमूलं चउत्थवग्गमूलं च होदण पंचमवग्गमूलादिकमेण जहण्णपरित्तासंखेज पत्तो। ताधे वि असंखेजभागवड्डी चेव । पुणो एवं बड्डिदूणच्छिदद्विदीए उवरिमेगसमयं कड्डिदण बंधमाणस्स छेदभागहारो होदि । एसो छेदभागहारो केत्तियमेतमद्धाणं गंतूण फिदि त्ति वुत्ते वुच्चदे। जहण्णपरित्तासंखेजेण धुवहिदि खंडिय पुणो तत्थ एगखंडे उक्कस्ससंखेजेण खंडिदे तत्थ जत्तियागि रूवाणि रूवूणाणि तत्तियाणि रूवाणि जाव वड्दिण बंधदि ताव छेदभागहारो होदि। संपुण्णेसु वडिदेसु छेदभागहारो फिट्टदि; धुवद्विदीए उक्कस्ससंखेजमेत्तभागहारस्स जादत्तादो। - $ २२७. संपहि छेदभागहागे असंखेजसंखेजभागवड्डीसु कत्थ णिवददि ? ण ताव असंखेजभागवड्डीए; जहण्णपरित्तासंखेजादो हेहिमसंखाए असंखेजत्ताभावादो। भावे वा जहण्णपरित्तासंखेजस्स जहण्णविसेसणं फिट्टदि ; तत्तो हेट्टा वि असंखेजस्स संभवादो। ण संखेजभागवड्डीए; उकस्ससंखेजादो उवरिमसंखाए संखेजत्तविरोहादो। अविरोहे वा स्थितिका भागहार कुछ कम पल्य है। इसी प्रकार एक समय अधिक, दो समय अधिक आदि क्रमसे एक ध्रुवस्थितिके पल्योंसे दूनी शलाकाओंकी वृद्धि होने तक स्थितिको बढ़ाते जाना चाहिये । यहाँ पर असंख्यातभागवृद्धि ही होती है; क्योंकि यहाँपर ध्रवस्थितिका भागहार पल्यका द्वितीय भाग है। इसी प्रकार आगे जाकर पल्योपमकी जितनी शलाकाएं हैं उतने प्रथम वर्गमूलप्रमाण स्थितिको बढ़ाकर बांधनेवाले जीवके भी असंख्यातभागवृद्धि ही होती है। क्योंकि वहाँपर ध्रवस्थितिका भागहार पल्योपमका प्रथम वर्गमूल है। इस प्रकार ध्रवस्थितिका भागहार क्रमसे द्वितीय वर्गमूल, तृतीय वर्गमल और चतुर्थ वर्गमल होता हा पांचवाँ वर्गमल आदि क्रमसे जघन्य परीतासंख्यातको प्राप्त होता है। वहाँ पर भी असंख्यातभागवृद्धि ही होती है । पुनः इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुई स्थितिके ऊपर एक समय बढ़ाकर बाँधनेवाले जीवके छेदभागहार होता है। यह छेदभागहार कितने स्थान जाकर समाप्त होता है ऐसा पूछनेपर कहते हैं-जघन्य परीतासंख्यातका ध्रवस्थितिमें भाग देनेपर जो एक भाग प्राप्त हो उसे उत्कृष्ट संख्यातसे भाजित करनेपर वहाँ जितनी संख्या प्राप्त हो एक कम उतने अंकप्रमाण स्थितिको बढ़ाकर बांधने तक छेदभागहार होता है और संपूर्ण अंकप्रमाण बढ़ाकर स्थितिको बांधनेपर छेदभागहार समाप्त होता है; क्योंकि यहाँ ध्रवस्थितिका उत्कृष्ट भागहार उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण हो जाता है। ६२२७. अब छेदभागहारका असंख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागवृद्धि इन दोनोंमें से किसमें समावेश होता है ? असंख्यात भागवृद्धि में तो होता नहीं, क्योंकि जघन्य परीतासंख्यातसे नीचे की संख्या असंख्यात नहीं हो सकती। यदि वह असंख्यात मान ली जाय तो जघन्यपरीतासंख्यातका असंख्यात यह विशेषण नष्ट होता है, क्योंकि उसके नीचे भी असंख्यातकी संभावना मान ली गई। तथा संख्यातभागवृद्धिमें भी उसका समावेश नहीं होता, क्योंकि उत्कृष्ट संख्यातसे Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूवणा १२३ उक्स्ससंखेजस्स उकस्सविसेसणं फिट्टदि; तत्तो उवरिं पि संखेजस्स संभवुवलंभादो ति अवत्तव्ववड्डीए णिवददि । कधमवत्तव्वदा ? संखेज्जासंखज्जसंखाहिंतो पुधभूदत्तादो । संखज्जासंखेज्जाणंतेहिंतो जदि पुधभूदा तो संखा चेव ण होदि । अध होदि तो अव्वावी तिविहसंखाववहारो ति ? ण ताव संखज्जासंखेज्जाणंतेहिंतो पुधभूदा संखा णत्थिः तिण्हं संखाणं विच्चालेसु अणंतवियप्पसंखाए उवलंभादो । ण संखासण्णा अव्याविणी, दव्वाट्ठिय. गए अवलंबिज्जमाणे तेसिं सव्वेसि पि अणंतंसाणं एगरूवम्मि पविट्ठाणं भेदोभावेण असंखेज्जाणतेसु चेव पवेसादो । एत्थ पुण णइगमणए अविलंबिज्जमाणे संखेज्जासंखेज्जागंतावत्तव्वभेएण चउव्विहा संखा होदि। कुदो दव्वट्ठियपज्जवट्ठियणयविसयमवलंबिय णइगमणयसमुप्पत्तीदो । संपहि उक्कस्ससंखेजे भागहारे जादे संखेजभागवड्डीए आदी जादा। ६२२८. एत्तो पहुडि छेदभागहारो समभागहारो च होद्णुवरि गच्छदि जाव धुवद्विदिभागहारो एगरूवं जादो त्ति । पुणो तकाले संखेजगुणवड्डी होदि; धुवट्ठीदीए उवरि धुवट्ठीदीए चेव बंधेण वड्डिदसणादो। एत्तो पहुडि जाव उकस्सद्विदिं वडिदूण ऊपरकी संख्याको संख्यात मानने में विरोध आता है । यदि उसे संख्यात मान लिया जाय तो उत्कृष्ट संख्यातका उत्कृष्ट यह विशेषण नष्ट होता है; क्योंकि उसके ऊपर भी संख्यातकी संभावना है। अतः छेदभागहारका अवक्तव्य वृद्धिमें समावेश होता है। शंका-यह संख्या अवक्तव्य कैसे है ? समाधान-संख्यात और असंख्यातसे पृथग्भूत होनेके कारण यह संख्या अवक्तव्य है। शंका-संख्यात, असंख्यात और अनन्तसे यदि यह संख्या पृथग्भूत है तो वह संख्या ही नहीं है । और यदि वह संख्या है तो तीन प्रकारका संख्याव्यवहार अव्यापी होजाता है । समाधान-संख्यात, असंख्यात और अनन्तसे पृथग्भूत संख्या नहीं है यह बात नहीं है, क्योंकि तीन प्रकारकी संख्याके अन्तरालमें अनन्त विकल्पवाली संख्या पाई जाती है। पर इससे संख्या यह संज्ञा अव्याप्त भी नहीं होती है, क्योंकि द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन करनेपर वे सभी अनन्त अंश एकमें प्रविष्ट हैं अतः भेद नहीं होनेसे उनका असंख्यात और अनन्तमें ही समावेश हो जाता है। परन्तु यहाँ पर नैगमनयका अवलम्ब लेने पर संख्यात, असंख्यात, अनन्त और अवक्तव्यके भेदसे संख्या चार प्रकारकी है क्योंकि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयके विषयका अवलम्ब लेकर नैगमनय उत्पन्न हुआ है । इस प्रकार उत्कृष्ट संख्यात भागहार हो जाने पर संख्यातभागवृद्धिका प्रारम्भ हुआ। ६२२८. यहाँसे लेकर छेदभागहार और समभागहार होकर आगे तबतक जाता है जबतक ध्रुव स्थितिका भागहार एकरूपको प्राप्त होता है । अर्थात् ध्रुवस्थितिके ऊपर ध्रुवस्थितिकी वृद्धि होने तक उक्त भागहारकी प्रवृत्ति होती है । पुनः उस समय संख्यातगुणवृद्धि होती है, क्योंकि यहाँ ध्रुव स्थतिके ऊपर ध्रुवस्थितिकी ही बन्धरूपसे वृद्धि देखी जाती है। इससे आगे स्थितिमें उत्तरोत्तर वृद्धि करते Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ बंधदि ताव संखेजगुणवड्डी चेव होदि । असंखेजगुणवड्डी मिच्छत्तस्स किण्ण होदि ? ण, धुवट्ठीदीए पलिदोवमस्स असंखेजदिभागपमाणत्तप्पसंगादो । ण च धुवद्विदी तत्तियमेत्ता अत्थि; तिस्से अंतोकोडाकोडिसागरोवमपमाणत्तादो। एसाधुवहिदी असंखेजस्वेहि गुणिदमेत्ता बंधेण किण्ण वड्ढदि ? ण, उक्कस्सहिदीए असंखेजसागरोवमपमाणत्तप्पसंगादो । ण च एवं तहोवदेसामावादो। हुए उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध तक संख्यातगुणवृद्धि ही होती है। शंका-मिथ्यात्वकी असंख्यात गुणवृद्धि क्यों नहीं होती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणवृद्धि मानने पर ध्रुवस्थिति पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होती है । परन्तु ध्रुवस्थिति इतनी तो है नहीं, क्योंकि वह अन्त:कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण है। शंका-इस ध्रुवस्थितिमें बन्धरूपसे असंख्यातगुणी वृद्धि क्यों नहीं होती है ? समाधान नहीं, क्योंकि इसप्रकार वृद्धि मानने पर उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात सागरप्रमाण हो जायगी। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि इस प्रकारका उपदेश नहीं पाया जाता है। विशेषार्थ- यहाँ यह बतलाया है कि ध्रुवस्थितिके ऊपर एक समय, दो समय आदि स्थितियोंके बढ़ने पर कहाँ तक असंख्यातभागवृद्धि होती है, कहाँ से संख्यातभागवृद्धिका प्रारम्भ होता है और कहाँ से संख्यातगुणवृद्धि चालू होती है। जबतक स्थिति विवक्षित स्थितिके असंख्यातवें भाग प्रमाण तक बढ़ती है तब तक असंख्यातभागवृद्धि होती है। इसके आगे संख्यातभागवृद्धि होती है जो विवक्षित स्थितिके दूने होनेके पूर्वतक होती है। तथा जब विवक्षित स्थिति दूनी या इससे अधिक बढ़ती है तब संख्यातगुणवृद्धि होती है। विशेष खुलासा इस प्रकार है ऐसा जीव लो जिसने पहले समय में ध्रुवस्थितिका बन्ध किया था। किन्तु दूसरे समयमें उसने ध्रवस्थितिसे एक समय अधिक ध्रुवस्थितिका बन्ध किया नो पिछले समयके बन्धसे यह बन्ध असंख्यातवें भाग अधिक हुआ। अतः यहाँ असंख्यातभागवृद्धि हुई। यहाँ भागहारका प्रमाण ध्रुवस्थिति है; क्योंकि ध्रुवस्थितिका ध्रुवस्थितिमें भाग देनेपर एक प्राप्त होता है। अब एक ऐसा जीव लो जिसने पिछले समयमें ध्रुवस्थितिका बन्ध किया और अगले समयमें दो समय अधिक ध्रुवस्थितिका बन्ध किया तो पिछले समयके बन्धसे यह बन्ध भी असंख्यातवें भाग अधिक हुआ, क्योंकि दो यह ध्रुवस्थितिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, अतः यहाँ असंख्यातभागवृद्धि हुई। यहाँ दोके प्राप्त करनेके लिये भागहारका प्रमाण ध्रुवस्थितिका आधा हो जाता है। अब एक ऐसा जीव लो जिसने पिछले समयमें ध्रवस्थितिका बन्ध किया और अगले समयमें तीन समय अधिक ध्रुवस्थितिका बन्ध किया तो पिछले समयके बन्धसे यह बन्ध भी असंख्यातवें भाग अधिक हुश्रा; क्योंकि तीन यह संख्या भी ध्रुवस्थितिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अतः यहाँ भी असंख्यात. भागवृद्धि हुई। यहाँ वृद्धिरूप अंक तीनके प्राप्त करनेके लिये भागहारका प्रमाण ध्रुवस्थितिका तीसरा भाग हो जाता है। इसी प्रकार पिछले समयमें ध्रुवस्थितिका तथा अगले समयमें चार, पाँच समय आदि अधिक ध्रुवस्थितिका बन्ध कराने पर भी असंख्यातभागवृद्धि ही होती है, क्योंकि यहाँ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूबणा १२५ भागहारका प्रमाण ध्रुवस्थितिका चौथा भाग, पाँचवाँ भाग आदि प्राप्त होता है। अब मान लो एक जीव ऐसा है जिसने पिछले समयमें ध्रुवस्थितिका बन्ध किया और अगले समयमें ध्रवस्थितिमें जितने पल्य हों उतने समय अधिक ध्रवस्थितिका बन्ध किया तब भी असंख्यात भागवद्धि ही प्राप्त होती है। क्योंकि यहाँ भागहारका प्रमाण पल्य है। इसी प्रकार उत्तरोत्तर पिछले समयमें बँधनेवाली ध्रुवस्थितिसे अगले समयमें बंधनेवाली स्थितिमें एक एक समय बढ़ाते जाओ और उनका भागहार प्राप्त करते जाओ। ऐसा करते करते भागहारका प्रमाण जघन्य परीतासंख्यात प्राप्त होगा। अर्थात् पिछले समयमें किसीने ध्रुवस्थितिका बन्ध किया और अगले समयमें इतनी अधिक स्थितिका बन्ध किया जो, ध्रुवस्थितिमें जघन्य परीतासंख्यातका भाग देनेपर जितना लब्ध प्राप्त हो, उतनी अधिक है तो भी असंख्यातभागवृद्धि ही होती है। इस प्रकार यहाँ तक असंख्यातभागवृद्धिका क्रम चालू रहा । अब इसके आगे भागहारमें यदि एक और कम हो जाय तो संख्यातभागवृद्धि प्राप्त होवे । किन्तु पूर्वोक्त बढ़ी हुई स्थितिमें एक समय आदि स्थितिके बढ़नेसे भागहारमें एककी कमी न होकर वह बटोंमें प्राप्त होता है। किन्तु इसकी परीतासंख्यात और उत्कृष्ट संख्यात इनमेंसे किसीमें भी गणना नहीं की जा सकती है, क्योंकि उत्कृष्ट संख्यातमें एकके मिलाने पर जघन्य परीतासंख्यात होता है, या जघन्य परीतासंख्यातमेंसे एकके घटाने पर उत्कृष्ट संख्यात होता है ऐसा नियम है। किन्तु यहाँ पर जघन्य परीतासंख्यातमेंसे पूरा एक न घटकर उत्तरोत्तर एकके अंशोंकी कमी होती गई है अतः इसे अवक्तव्यभागवृद्धि कहते हैं। किन्तु इसका यह मतलब नहीं कि यह नगणना संख्याके बाहर है। यदि द्रव्यदृष्टिसे विचार किया जाता है तो वे सब अंश उत्कृष्ट संख्यातके ऊपर प्राप्त होनेवाले एकके हैं अतः उनका अन्तर्भाव जघन्य परीतासंख्यातमें हो जाता है। और यदि पर्यायदृष्टिसे विचार किया जाता है तो वे सब अंश एकसे कथञ्चित् भिन्न हैं इसलिये उनका जघन्य परीतासंख्यातमें अन्तर्भाव नहीं होता। जब अन्तर्भाव हो जाता है तब तो उनका भेदरूपसे विचार नहीं किया जाता है। और जब अन्तर्भाव नहीं होता तब उनकी अवक्तव्य संज्ञा रहती है। प्रकृतमें वृद्धिका विचार चला है अतः उसकी अवक्तव्यवृद्धि यह संज्ञा हो जाती है। ध्रुवस्थितिमें जघन्य परीतासंख्यातका भाग देनेसे जो प्राप्त हो उसमें उत्कृष्ट संख्यातका भाग दो और जो प्राप्त हो उसमें से एक कम कर दो ऐसा करनेसे जितने विकल्प प्राप्त होते हैं उतने विकल्प होने तक अवक्तव्य भागवृद्धिका क्रम चालू रहता है। अर्थात् पूर्वोक्त बढ़ी हुई स्थितिमें स्थितिके इतने समय बढ़ जाने तक अवक्तव्यभागवृद्धि होती है। यहाँ सर्वत्र पिछले समयमें ध्रवस्थितिका बन्ध कराना चाहिये और अगले समयमें एक एक समय अधिक स्थितिका बन्ध कराना चाहिये ; क्योंकि जैसा कि पहले बतला आये हैं तदनुसार ध्रुवस्थितिकी अपेक्षा ही यहाँ असंख्यातभागवृद्धि आदिका विचार किया जा रहा है। इस क्रमसे स्थितिमें एक एक समयके बढ़ाने पर जब छेदभागहार समाप्त हो आता है तब संख्यात भागवृद्धि प्राप्त होती है। और जब संख्यातभागवृद्धि समाप्त हो जाती है तब संख्यातगुणवृद्धि प्राप्त होती है। संख्यातगुणवृद्धिका पहला विकल्प प्राप्त होने पर ध्रुवस्थिति दूनी हो जाती है । अर्थात् पहले समयमें जब कोई ध्रुवस्थितिका बन्ध करता है और अगले समयमें उससे दूनी स्थितिका बन्ध करता है तो यह जघन्य संख्यातगुणवृद्धि होती है, क्योंकि पहले समयमें बँधी हुई स्थितिसे अगले समयमें बधनेवाली स्थिति दुनी हो जाती है। इस प्रकार अब आगे सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर स्थितिके प्राप्त होने तक संख्यातगुणवृद्धि ही होती जाती है। इतने विचारसे इतना निश्चित होता है कि ध्रुवस्थितिको माध्यम मानकर असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि ये तीन वृद्धियाँ ही प्राप्त होती हैं। अब इस विषयको उदाहरण देकर स्पष्ट किया जाता है-नीचे उदाहरणमें जहाँ...'इस प्रकार चिन्ह हैं वहाँ मध्यके विकल्प छोड़ दिये हैं ऐसा समझना चाहिये। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ S २२९. अथवा पलिदोवमं धुवट्ठिदिं च दो एदूण' गणिय सत्यम्मि अणिउणसिस्ससंबोहणङ्कं पलिदोवमस्स संखेज मागवड्डीए जादा धुवट्टिदीए संखेज भागवड्डी होदि मानलो - ध्रुवस्थिति पल्य ११५२ १४४ उत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट संख्यात ५ पहले समय में बाँधी हुई स्थिति ११५२ ११५२ ११५२ ११५२ ११५२ ११५२ ११५२ ११५२ ११५२ १९५२ ११५२ ११५२ ११५२ ११५२ ११५२ ११५२ ... ११५२० अगले समय में बाँधी हुई स्थिति ११५३ १९५४ ११५५ ११६० १२४८ ... १२८० १२८१ १२८२ १२८३ .... १२६५ १२६६ १२६७ १३४४ १७२८ २३०४ ३४५६ प्रथम वर्गमूल १२ भागहार ध्रुवस्थिति ध्रु० स्थि० का आधा तीसरा भा० 55 .... १४४, पल्य १२, पल्यका प्र. व. मू. .... ६, ज० परीता सं० ૮૪૩ उत्कृ० संख्यात 939 १४५ ६ २ परीता संख्यात ६ २ गुणकार "" 33 वृद्धि असंख्यात भा० पृ० 55 95 33 :: "" अवक्तव्य भा० वृ० 33 33 404 57 संख्यात भा० वृ० "" 33 " ११५२ ११५२० १० ९ २२६. अथवा पल्य और ध्रुवस्थिति इन दोनोंको लेकर शास्त्र में अनिपुण शिष्यों के सम्बोधन करनेके लिये पल्यकी संख्यातभागवृद्धि के होनेपर ध्रुवस्थितिकी संख्यातभागवृद्धि होती १. ता. प्रतौ ढोएडूण इति पाठः । संख्या० गु० वृ० 22 " Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ गा० २२]] वडिपरूवणा त्ति णियमणिराकरणदुवारेण पुणरुत्तदोसमजोएदूण पुणरवि सत्थाणवड्डिपरूवणं कस्सामो। तं जहा-पलिदोवमं हविय पुणो तस्स हेट्ठा मागहारो त्ति संकप्पिय अण्णम्मि पलिदोवमे ठविदे पलिदोवमं पेक्खिय लद्धरूवे वड्ढाविदे असंखेजभागवड्डी होदि । पुणो धुवद्विदि त्ति संखेजपलिदोवमाणि ठविय तेसिं हेट्ठा भागहारो त्ति संकप्पिय धुवहिदीए ठविदाए धुवहिदि पडुच्च असंखेजभागवड्डीए आदी होदि । दुसमयुत्तरहिदि बंधमाणाणं पि असंखेजभागवड्डी चेव होदि; पलिदोवमस्स पलिदोवमदुभागमागहारत्तादो । एवं तिण्णिचत्तारि-पंचआदिसरूवेण वड्डमाणेसु धुवहिदीए अभंतरे पलिदोवमसलागमेत्तसमएम बंधेण वड्विदेसु पलिदोवमं धुवाद्विदिं च पेक्खिदण असंखेजभागवड्डी चेव होदि: पलिदोवमस्स धुवद्विदिपलिदोवमसलागोवट्टिद'पलिदोवमभागहारत्तादो धुवट्ठिदीए पलिदोवम. भागहारत्तादो। एवं रूवुत्तरादिकमेण वडिरुवाणि गच्छमाणाणि आवलियंपाविय पुणो कमेण पदरावलियं पाविय पुणो जधाकमेण पलिदोवमपढमवग्गमूलं पत्ताणि ताधे वि पलिदोवमं धुवट्टिदिं च पेक्खिदण असंखेजभागवड्डी चेवः पलिदोवमस्स पलिदोवमपढमवग्गमूलभागहारत्तादो धुवाद्विदीए धुवढिदिपलिदोवमसलागगुणिदपलिदोवमपढमवग्गमूल. भागहारत्तादो । एवं गंतूण जहण्णपरित्तासंखेजमादि कादण जाव पलिदोवमपढमवग्गमूलं ति एदेसिमसंखेज्जाणं वग्गाणमण्णोण्णब्भासे कदे जत्तिया समया तत्तियमेत्तं धुवट्ठिदीए उवरि वड्डिदण बंधमाणस्स वि पलिदोवमं धुवहिदि च पेक्खिद्ग असंखेजभागवड्डी है इस नियमके निराकरण द्वारा पुनरुक्त दोषको नहीं गिनते हुए दूसरी बार भी स्वस्थानवृद्धिका कथन करते हैं। जो इस प्रकार है-पल्यको स्थापित करके पुनः उसके नीचे भागहाररूपसे एक दूसरे पल्यके स्थापित कर देने पर पल्यको देखते हुए लब्ध एकके बढ़ाने पर असंख्यातभागवृद्धि होती है। पुनः यह ध्रवस्थिति है ऐसा जानकर संख्यात पल्योंकी स्थापना करके और उसके नीचे यह भागहार है ऐसा संकल्प करके ध्रवस्थितिके स्थापित करने पर ध्रुवस्थितिको देखते हुए लब्ध एकके बढ़ाने पर असंख्यातभागवृद्धिका प्रारम्भ होता है। दो समय अधिक स्थितिको बाँधनेवाले जीवोंके भी असंख्यातभागवृद्धि ही होती है, क्योंकि यहाँ पर पल्योपमका भागहार पल्योपमका द्वितीय भाग है । इसी प्रकार पल्योपममें तीन, चार पाँच आदिके बढ़ाने पर तथा ध्रुवस्थितिमें जितने पल्य हों उतने समयोंके बन्धरूपसे ध्रवस्थितिमें बढ़ानेपर पल्य और ध्रुवस्थितिको देखते हुए असंख्यातभागवद्धि ही होती है क्योंकि ध्रवस्थितिमें जितने पल्य हैं उनका भाग पल्यमें देनेपर जो लब्ध आवे उतना यहाँ पल्यका भागहार होता है और ध्रवस्थितिका भागहार एक पल्य होता है। इस प्रकार एक अधिक आदिके क्रमसे वृद्धिके अंक आगे जाकर एक आवलीप्रमाण हो जाते हैं। पुनःप्रतरावलिप्रमाण हो जाते हैं। पुनः यथाक्रमसे पल्योपमके प्रथम वर्गमूलको प्राप्त होते हैं। तब उस समय भी पल्योपम और ध्रवस्थितिको देखते हुए असंख्यातभागवद्धि ही होती है क्योंकि यहाँ पल्यका भागहार पल्यका प्रथमवर्गमूल है और ध्रुवस्थितिका भागहार ध्रुवस्थितिमें जितने पल्य हों उनसे पल्यके प्रथम वर्गमूलको गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतना है । इस प्रकार वृद्धि करते हुए जघन्य परीतासंख्यातसे लेकर पल्यके प्रथमवर्गमूल तक इन असंख्यात वाँका परस्पर गुणा करनेपर जितने समय प्राप्त हों उतने समय ध्रुवस्थितिके ऊपर बढ़ाकर बाँधनेवाले जीवके भी पल्य और ध्रुवस्थितिको देखते हुए असंख्यातभागवृद्धि होती है; क्योंकि यहाँ पल्यका भागहार जघन्य परीता १. भा-प्रतौ वहिद इति पाठः । - Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ होदि; पलिदोवमस्स जहण्णपरित्तासंखेजभागहारत्तादो धुवद्विदीए धुवहिदिपलिदोवमसलागगुणिदजहण्णपरित्तासंखेजभागहारत्तादो। एदिस्से विदीए उवरि एगसमयं वड्डिदूण बंधमाणाणं पलिदोवमं धुवहिदि च पेखिदूण छेदभागहारो होदि । तं जहा-जहण्ण. परित्तासंखेनं विरलेदण पलिदोवमं समखंडं कादण दिण्णे एकेकस्स रूवस्स वड्डिपमाणं पावदि। संपहि एदिस्से उवरि एगसमयं वडिवण बंधमाणस्स भागहारमिच्छामो त्ति एगरूवधरिदं विरलेदूण एगरूवधरिदमेव समखंडं कादूण दिण्णे एकेकस्स रूवस्स एगेगरूवपरिमाणं पावदि । पुणो एत्थ एगरूवधरिदं घेत्तण उवरिमविरलणाए एगेगरूवधरिदम्मि दृविदे इच्छिदवड्डिपमाणं होदि एगरूवपरिहाणी च लब्भदि । एवं होदि त्ति कादृण हेट्टिमविरलणं स्वाहियं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणो लब्भदि तो जहण्णपरित्तासंखेञ्जविरलणाए केवडियरूवपरिहाणिं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए जं लद्धं तं जहण्णपरित्तासंखेजम्मि सरिसच्छेदं कादूण सोहिदे सेसमुक्कस्ससंखेजमेत्तरूवाणि एगरूवस्स असंखेजा भागा च पलिदोवमस्स धुवद्विदीए उवरि वडिरूवाणं भागहारो होदि । एसो पलिदोवमस्स छेदभागहारो । संपहि धुवट्टिदिछेदभागहारपरूवणा वि एवं चेव कायव्वा । णवरि पलिदोवमछेदभागहारम्मि ज्झीयमाणएगरूवंसादो धुवद्विदिछेदभागहारम्मि ज्झीयमाणअंसो संखेजगुणो' होदि; पलिदोवमभागहारस्स अंस संख्यात है और ध्रुवस्थितिका भागहार एक ध्रवस्थितिमें जितने पल्य हों उनसे जघन्य परीतासंख्यातको गुणित करने पर जितना लब्ध आवे उतना है। पुनः इस स्थितिके ऊपर एक समय बढ़ाकर बन्ध करनेवाले जीवोंके पल्य और ध्रु वस्थितिको देखते हुए छेदभागहार होता है । जो इस प्रकार है-जघन्य परीतासंख्यातका विरलन करके और उस पर पल्यको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर एक एक रूपके प्रति वृद्धिका प्रमाण प्राप्त होता है। अब पूर्वोक्त बढी हई स्थितिके ऊपर एक समय बढ़ाकर बांधनेवालेका भागहार लाना इष्ट है इसलिये एक रूपके ऊपर रखी गई संख्याका विरलन करके और एक रूपके ऊपर रखी गई संख्याको ही समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर एक एकके प्रति एक एक प्राप्त होता है। पुनः यहाँ एक रूपके ऊपर रखी गई संख्याको लेकर उपरिम विरलनमें एक रूपके ऊपर रखी गई संख्यामें मिला देने पर इच्छित वृद्धिका प्रमाण प्राप्त होता है और एक रूपकी हानि प्राप्त होती है। ऐसा होता है ऐसा समझकर अधस्तन विरलनमें एक अधिक जाने पर यदि एकरूपकी हानि प्राप्त होती है तो जघन्य परीतासंख्यातरूप विरलनमें कितने रूपोंकी हानि प्राप्त होगी इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे इच्छाराशिको गुणित करके और उसमें प्रमाण राशिका भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे जघन्य परीतासंख्यातमेंसे उसके समान छेद करके घटा देने पर जो शेष रहे वह उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण और एक रूपका असंख्यात बहुभाग होता है जो कि पल्यप्रमाण ध्रुवस्थितिके ऊपर बढ़ी हुई संख्याका भागहार होता है। यह पल्यका छेद भागहार है। ध्रुवस्थितिके छेदभागहारका कथन भी इसी प्रकार करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि पल्यके छेदभागहारमें क्षीण होनेवाले एक रूपके अंशोंसे ध्रवस्थितिके छेदभागहारमें क्षीण होनेवाले अंश संख्यातगुणे होते हैं, क्योंकि पल्यके भागहारके जो भा. प्रतौ असंखेजगुणो इति पाठः । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूवणा १२६ भागहारादो धुवट्ठिदिभागहारस्स जो अंसो तन्भागहारस्स संखेजगुणहीणत्तुवलंमादो । एवं समयं पडि छेदभागहारे होदण गच्छमाणे धुवढिदिभागहारम्मि एंगरूवे परिहीणे धुवद्विदीए समभागहारो होदि । तकाले पलिदोवमस्स पुण छेदभागहारो चेव; पलिदोवमभागहारम्मि ज्झीयमाणअंसादोधुवट्ठिदिभागहारम्मि झीयमाणअंसस्स संखेजगुणत्तादो। पुणो समयुत्तरं वड्डिदूण बंधमाणाणं वड्डीए आणिजमाणाए पलिदोवमधुवहिदीए' छेदभागहारो होदि। ___ २३०. एवं छेदसमभागहारेसु धुवट्ठिदीए होदूण गच्छमाणेसु धुवट्ठिदिभागहारम्मि जाव धुवट्टिदिपलिदोवमसलागमेत्तरूवाणं रूवूणाणं परिहाणी होदि ताव पलिदो. वमस्स छेदमागहारो चेव । संपुण्णेसु परिहीणेसु पलिदोवमस्स धुवट्ठिदीए च समभागहारो होदि । तकाले पलिदोवमं पेक्खिद्ण संखेजभागवड्ढी, पलिदोवममुक्कस्ससंखेजेणखंडिणेगखंडस्स धुवद्विदीए उवरि बड्डिदत्तादो। धुवहिदि पेक्खि दूण पुण असंखेज्ज. भागवड्डी; धुवहिदीए उकस्ससंखेजगुणिदधुवट्टिदिपलिदोवमसलागभागहारत्तादो। तदो जम्मि पदेसे पलिदोवमं पेखिद्ण संखेजभागवड्डी होदि तम्हि चेव पदेसे धुवहिदि पेक्खिदूण संखेजभागवड्डी होदि त्ति णियमो णत्थि त्ति घेत्तव्वं । एवमुवरि पि समउत्तरादिकमेण वड्ढावेदव्वं । णवरि सव्वत्थ धुवट्टिदिभागहारम्मि धुवट्ठिदिपलिदोवमसलागभेत्तरूवेसु परिहीणेसु पलिदोवमभागहारम्मि एगरूवं परिहायदि त्ति घेत्तव्वं । अंशका भागहार है उससे ध्रुवस्थितिके भागहारका जो अंश है उसका भागहार संख्यातगुणा हीन पाया जाता है। इस प्रकार एक एक समयके प्रति छेदभागहार होता हुआ तब तक चला जाता है जब जाकर ध्रुवस्थितिके भागहारमें एक रूपकी हानि होकर ध्र वस्थितिका समभागहार प्राप्त होता है। परन्तु उस समय पल्यका छेदभागहार ही होता है; क्योंकि पल्यके भागहारमें क्षीण होनेवाले अंशसे ध्र वस्थितिके भागहारमें क्षीण होनेवाला अंश संख्यातगुणा होता है । पुनः एक समय स्थितिको बढ़ाकर बाँधनेवाले जीवोंकी वृद्धिके लाने पर पल्य और ध्र वस्थितिका छेदभागहार होता है। ६२३०. इस प्रकार ध्रुवस्थितिके छेदभागहार और समभागहार होते हुए चले जानेपर जब जाकर ध्रवस्थितिके भागहारमें ध्रुवस्थितिके जितने पल्य हों उनमेंसे एक कम रूपोंकी हानि होती है सबतक पल्योपमका छेदभागहार ही होता है । तथा पूरे रूपोंकी हानि होने पर ध्रु वस्थिति और पल्योपमका समभागहार होता है। उस समय पल्योपमको देखते हुए संख्यातभागवृद्धि होती है; क्योंकि यहाँ पल्योपमके उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण खण्ड करके उनमेंसे एक खण्ड प्रमाण संख्याकी ध्रुवस्थितिके ऊपर वृद्धि हुई है। परन्तु ध्रुवस्थितिको देखते हुए असंख्यातभागवृद्धि है; क्योंकि यहाँ ध्रुवस्थितिका भागहार ध्रवस्थितिमें जितने पल्योंका प्रमाण हो उनसे उत्कृष्ट संख्यातको गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतना है। अतः जिस स्थानपर पल्योपमको देखते हुए संख्यातभागवृद्धि होती है उसी स्थानपर ध्रवस्थितिको देखते हुए संख्यातभागवृद्धि होती है ऐसा नियम नहीं है ऐसा ग्रहण करना चाहिये। इसी प्रकार ऊपर भी एक समय अधिक आदि क्रमसे स्थितिको बढ़ाना चाहिये। किन्त इतनी विशेषता है कि सर्वत्र ध्र वस्थितिके भागहारमें एक ध्रु वस्थितिमें जितने पल्य हों उतने रूपोंके कम होनेपर पल्योपमके भागहारमें एक रूपकी हानि होती है ऐसा ग्रहण करना चाहिये। १ भा. प्रतौ -हिदीणं इति पाठः । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ६२३१. जत्थ पलिदोवमभागहारो जहण्णपरित्तासंखेजस्स अद्धमेत्तो होदि तत्थ वि धुवढिदिवविभागहारो असंखेजो होदि; धुवद्विदिपलिदोवमसलागाणमद्धेण गुणिद. जहण्णपरित्तासंखेजपमाणत्तादो । पलिदोवमस्स भागहारे जहण्णपरित्तासंखेजस्स तिभागमेत्ते जादे वि धुवहिदीए वड्डिरूवाणं भागहारो असंखेनं चेव; धुव द्विदिपलिदोवमसला. गाणं तिभागेण गुणिदजहण्णपरित्तासंखेजपमाणत्तादो । पलिदोवमवडिरूवभागहारे जहण्णपरित्तासंखेजस्स चदुब्भागमेत्ते जादे वि धुवट्टिदीए कड्डिरूवाणं भागहारो असंखेजं चेव; धुवटिदिपलिदोवमसलागाणं चदुब्मागेण गुणिदजहण्णपरित्तासंखेजपमाणत्तादो । धुवढिदिपलिदोवमसलागाहि खंडिदजहण्णपरित्तासंखेज्जे वड्विरूवागमणं पडि पलिदोवमस्स भागहारे जादे वि धुवद्विदिभागहारो असंखेज चेव; जहण्णपरित्तासंखेजपमाणत्तादो। संपहि एत्तियमद्धाणं जाव पावेदि ताव धुवट्ठिदि पेक्खिदूण असंखेजभागवड्डी पलिदोवर्म पेक्खिदूण पुण असंखेजमागवड्डी संखेजभागवड्डी च जादा। पुणो एवं वड्डिदणच्छिदद्विदीए उवरि एगसमयं वडिदण बंधमाणाणं पलिदोवमधुवद्विदीणं छेदभागहारो होदि । एवं छेदभागहारो होदण गच्छमाणो जाव धुवद्विदीए समभागहारो ण होदि ताव धुवहिदि पेक्खिदण असंखेजभागवड्डी चेव होदि। पलिदोवमं पेक्खिण पुण संखेजभागवड्डी दव्वट्टियणयालंबणादो । पञ्जवट्ठियणए पुण अवलंबिजमाणे धुवटिदिभागहारस्स अवत्तव्व प्रमाण ६२३१. तथा जहाँपर पल्योपमका भागहार जघन्य परीतासंख्यातसे आधा होता है वहाँपर भी ध्रवस्थितिकी वृद्धिका भागहार असंख्यात होता है. क्योंकि यहाँ ध्र वस्थितिके एक ध्र वस्थितिमें जितने पल्य हों उनके आधेसे जघन्य परीतासंख्यातको गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतना है । पल्योपमका भागहार जघन्य परीतासंख्यातका तीसरा भाग होनेपर भी ध्रु वस्थितिके बढ़े हुए रूपोंका भागहार असंख्यात ही होता है, क्योंकि एक ध्रु वस्थितिमें जितने पल्य हों उनके तीसरे भागसे जघन्य परीतासंख्यातको गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतना यहाँ ध्र वस्थितिके ऊपर बढ़े हुए रूपोंका भागहार है। पल्मोपमके ऊपर बढ़े हुए रूपोंका भागहार जघन्य परीतासंख्यातका चौथा भाग होनेपर भी ध्रवस्थितिमें बढ़े हुए रूपोंका भागहार असंख्यात ही है, क्योंकि एक ध्रुवस्थितिमें पल्योंका जितना प्रमाण हो उसके चौथे भागसे जघन्य परीतासंख्यातको गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतना यहाँ ध्रुवस्थितिमें बढ़े हुए रूपोंका भागहार है। तथा बढ़े हुए रूपोंकीभी अपेक्षा पल्यका भागहार एक ध्रुवस्थितिमें जितनी पल्यशलाका हों उनसे जघन्य परीतासंख्यातके खण्डित कर देनेपर जितना लब्ध आवे उतना हो जानेपर भी ध्रुवस्थितिका भागहार असंख्यात ही होता है; क्योंकि यहाँपर ध्रुवस्थितिका भागहार जघन्य परीतासंख्यात प्राप्त होता है। इसप्रकार इतने स्थान जबतक प्राप्त होते हैं तबतक ध्रुवस्थितिको देखते हुए असंख्यातभागवृद्धि होती है। परन्तु पल्योपमको देखते हुए असंख्यातभागवृद्धि होती है और संख्यातभागवृद्धि होती है। पुनः इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुई स्थितिके ऊपर एक समय बढ़ाकर बांधनेवाले जीवोंके पल्योपम और ध्रुवस्थितिका छेदभागहार होता है। इसप्रकार छेदभागहार होकर जाता हुआ जबतक ध्रुवस्थितिका सम भागहार नहीं होता है तबतक ध्रुवस्थितिको देखते हुए असंख्यातभागवृद्धि ही होती है। परन्तु पल्योपमको देखते हुए संख्यातभागवृद्धि होती है, पर यह असंख्यातभागवृद्धि द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षासे जानना चाहिये । परन्तु पर्यायाथिकनयका अवलम्ब करनेपर ध्रुवस्थितिके भागहारकी Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०.२२ ] डा . १३१ बड्डी होदि । तत्थ अंसं मोत्तूण अंसीणमभावादो । संपहि केदरं गंतूण धुवट्टिदीए समभागहारो होदि । उवरिमविरलणाए एगरूवधरिदमुक्कस्स संखेजेण खंडेदूण तत्थ एगखंड रूवणं जाव वड्डदि ताव छेदभागहारो संपुण्णे' वडिदे समभागहारो । तावे ध्रुव डिदि पेक्खिदूण संखेज भागवड्डीए आदी जादा । कुदो, धुवट्ठिदिवड्डिभागहारो उक्कस्ससंखे पत्तोति । $ २३२. एवं पुणो वि उवरि छेदसरूवेण भागहारो गच्छमाणो जहण्णपरित्तासंखेजस्स अद्धमेत्तो धुवट्ठिदिभागहारो जादो ताघे पलिदोवमस्स भागहारो दुगुणिदधुवडिदिपलिदोवमसला गोवट्टिदजहण्णपरित्तासंखेज मेतो होदि । धुवट्ठिदिभागहारे जहण्णपरित्तासंखेज्जस्स तिभागे संते तिगुणपलिदोवमसलागाहि खंडिदजहण्णपरित्तासंखेअं पलिदोवमस्स भागहारो होदि । धुवट्ठिदिभागहारे जहण्णपरित्तासंखेअस्स चदुब्भागे संते चदुग्गुणघुवट्ठिदिपलिदोवमसलागोवट्टिदजहण्णपरित्तासंखेअं पलिदोवमभागहारो होदि । धुवट्ठिदिलिदोवमसलागाहि खंडिदजहण्णपरित्तासंखेने धुवडिदिभागहारे संते पलिदोवमस्स धुवट्ठिदिपलिदोवमसलागाणं वग्गेण खंडिदजहण्णपरित्तासंखेज्जभागहारो होदि । एवं भागहारो हीयमाणो जाधे पलिदोवमस्स दोरूबमेतो जादो ताघे दुगुणधुवट्ठिदिपलिदोवमसलागाओ धुवट्ठिदिभागहारो होदि । जाधे पलिदोवमभागहारो एगरूवं जादो, ताधे धुवट्ठिदिलिदोवमसलागाओ धुवट्ठिदिभागहारो होदि । संपहि पलिदोवम अवक्तव्यवृद्धि होती है; क्योंकि वहाँपर अंशको छोड़कर अंशीका अभाव है । अब कितनीदूर जाकर ध्रुवस्थितिका समभागहार प्राप्त होता है इसे बतलाते हैं- उपरिम विरलनमें एक रूपके प्रति जो संख्या प्राप्त है उसे उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करके जो एक खण्ड लब्ध आवे एक कम उसकी जबतक वृद्धि हो तबतक छेदभागहार होता है और पूरेकी वृद्धि होनेपर समभागहार होता है । उस समय ध्रुवस्थितिको देखते हुए संख्यातभागवृद्धिकी आदि हुई; क्योंकि यहाँपर ध्रुवस्थितिके वृद्धिरूपों का भागहार उत्कृष्ट संख्यातको प्राप्त हुआ । ९ २३२. इस प्रकार फिर भी ऊपर छेद और समानरूपसे भागहार जाता हुआ जब ध्रुवस्थितिका भागहार जघन्य परीतासंख्यातका आधा होता है तब पल्योपमका भागहार एक ध्रुवस्थितिमें जितनी पल्यशलाकाएं हों उनके दूनेप्रमाणसे जघन्य परीतासंख्यातको भाजित करनेपर जो लब्ध उतना होता है। ध्रुवस्थितिके भागहार के जघन्य परीता संख्यातके तीसरे भागप्रमाण होनेपर एक ध्रुवस्थितिकी तिगुनी पल्यशलाका ओंसे जघन्य परीतासंख्यातको भाजित करके जो लब्ध आवे उतना पल्योपमका भागहार होता है । ध्रुवस्थितिके भागहार के जघन्य परीतासंख्यातके चौथे भागप्रमाण होनेपर ध्रुवस्थितिकी चौगुनी पल्यशलाकाओंसे भाजित जघन्य परीतासंख्यातका जितना प्रमाण हो उतना पल्योपमा भागहार होता है । ध्रुवस्थितिका भागहार ध्रुवस्थितिकी पल्योपम शलाकाओं से भाजित जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण होनेपर पल्योपमका भागहार ध्रुवस्थितिकी पल्यशलाकाओं के वर्गसे जघन्य परीतासंख्यातको भाजित करनेपर जितना लब्ध आवे उतना होता है । इस प्रकार घटता हुआ पल्योपमका भागहार जहाँपर दो अंक प्रमाण होता है वहाँपर ध्रुवस्थितिका भागहार ध्रुवस्थितिकी दुगुनी पल्यशलाकाप्रमाण होता है । तथा जहाँ पर पल्योंपमका भागहार एक अंक प्रमाण होता है वहाँपर ध्रुवस्थितिका भागहार ध्रुवस्थितिकी पल्यशलाकाप्रमाण होता है । १ ता• प्रतौ संपुष्णो इति पाठः । २ आ० प्रतौ छेदसमरूवेण इति पाठः । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ भागहारे गट्टे धुवट्ठिदिभागहारो समयृणादिकमेण झीयमाणो जाघे धुवडिदिप लिदोवमसलागाणमद्धमेत्तो जादौ ताधे पलिदोवमस्स गुणगारो तिण्णि रूवाणि होति । जाधे धुवट्ठिदिभागहारो तप्पलिदोवमसलागाणं तिभागमेत्तो जादो ताधे पलिदोवमगुणगारो चत्तारि रुवाणि । जाधे धुवट्ठिदिभागहारो तप्पलिदोवमसलागाणं चदुब्भागमेत्तो जादो ता पलिदोवमगुणगारो पंचरूवाणि । एवं गंतूण जाधे धुवट्ठिदिभागहारो दोरुवाणि ताधे पलिदोवमगुणगारो धुवट्ठिदिपलिदोवमसलागाणमद्धं रूवाहियं होदि । जाधे धुवट्ठदिभागहारो एगरूवं जादो ताधे पलिदोवमगुणगारो रूवाहियाओ धुवट्ठिदिपलिदोवमसलागाओ । तकाले धुवट्ठिदीए संखेजगुणवड्डीए आदी जादा । एत्तो उवरि संखेजगुणबड्डी चैव होण सव्वत्थ गच्छदि जाव सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीणं चरिमसमओ ति । एवं मिच्छत्तस्स तिन्हं वड्डीणं सत्थाणेण अत्थपरूवणा कदा | 1 आगे पल्योपमके भागहारके नष्ट हो जानेपर ध्रुवस्थितिका भागहार एक समयक्रम आदि क्रमसे नष्ट होता हुआ जहाँ वह ध्रुवस्थितिकी पल्यशलाकाओं का आधा भागप्रमाण होता है वहाँ पल्योपमका गुणकार तीनअंक प्रमाण होता है । जहाँपर ध्रुवस्थितिका भागहार ध्रुवस्थितिकी पल्यशलाका ओंका तीसरा भागप्रमाण होता है वहाँपर पल्यका गुणकार चार अकप्रमाण होता है । जहाँपर ध्रुवस्थितिका भागद्दार ध्रुवस्थितिकी पल्यशलाकाओं का चौथाभागप्रमाण होता है वहाँपर पल्यका गुणकार पाँच प्रमाण होता है । इसप्रकार जाकर जिस समय ध्रुवस्थितिका भागहार दो अंकप्रमाण होता है उस समय पल्योपमका गुणकार ध्रुवस्थितिकी पल्यशलाकाओं के अर्धभागप्रमाणसे रूपाधिक होता है । र्थात ध्रुवस्थिति में जितने पल्योपमोंकी संख्या हो उस संख्याको आधा करके उसमें एक जोड़ देने से रूपाधिक पल्यशलाकाओं के अर्धभाग प्रमाण आता है। तथा जिस समय ध्रुवस्थितिका भागहार एक अंक प्रमाण हो जाता है उस समय पल्योपमका गुणकार ध्रुवस्थितिकी रूपाधिक पल्यशलाकाप्रमाण हो जाता है । यहाँ से ध्रुवस्थितिकी संख्यातगुणवृद्धिका प्रारम्भ होता है । यहाँ से ऊपर सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरका अन्तिम समय प्राप्त होने तक सर्वत्र संख्यातगुणवृद्धि ही होकर जाती है । इस प्रकार मिथ्यात्वकी तीन वृद्धियोंकी स्वस्थानकी अपेक्षा अर्थप्ररूपणा की । विशेषार्थ — संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव पहले समय में ध्रुवस्थितिका बन्ध करके यदि अगले समय में बढ़ी हुई किसी भी स्थितिका बन्ध करता है तो उसके वहाँ असंख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यात गुणवृद्धि इनमें से कोई एक वृद्धि ही सम्भव है यह बात पहले बतलाई जा चुकी है । अव यहॉ पर पल्य और ध्रुवस्थिति इन दोनोंको रखकर यदि उत्तरोत्तर समान वृद्धि की जाती है अर्थात् अब पल्थ में एक अंककी वृद्धि करते हैं तब ध्रुवस्थितिमें भी एक अंककी वृद्धि होती है, जब पल्य दो अंककी वृद्धि करते हैं तब ध्रुवस्थितिमें भी दो अंककी वृद्धि होती है और जब पल्यमें तीन आदि अंकोंकी वृद्धि करते हैं तब ध्रुवस्थितिमें भी उतने ही स्थितिविकल्पों की वृद्धि होती है तो कहाँ कौनसी वृद्धि होती है इसका विचार किया गया है । यह तो सुनिश्चित है कि ध्रुवस्थिति पयसे संख्यातगुणी होती है, क्योंकि अन्तःकोड़ा कोड़ी सागरप्रमाण ध्रुवस्थितिमें संख्यात पल्य प्राप्त होते हैं, अतः पल्यके एक आदिकी वृद्धि होने पर भागहारका जितना प्रमाण होता है ध्रुवस्थितिमें उतनी वृद्धि होने पर भागहारका प्रमाण उससे संख्यातगुणा होता है । जैसे पल्य में एककी वृद्धि करने पर वृद्धि के भागहारका प्रमाण पल्य है; क्योंकि पल्यमें पल्यका भाग देनेसे एक प्राप्त होता है । अब यदि ध्रुवस्थितिमें एककी वृद्धिकी जाती है तो वहाँ वृद्धि के भागहारका प्रमाण ध्रुवस्थिति प्राप्त होता है जा Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूवणा पूर्वोक्त भागहारसे संख्यातगुणा है। यहाँ संख्यातसे ध्रुवस्थितिमें जितने पल्य हों उतने संख्यात लेना चाहिये। इस व्यवस्थाके अनुसार दोनोंकी असंख्यातभागवृद्धि एक साथ समाप्त न होकर पल्यकी असंख्यातभागवृद्धि पहले समाप्त हो जाती है और ध्रुवस्थितिकी असंख्यातभागवृद्धि उससे संख्यात स्थान आगे जाकर समाप्त होती है, क्योंकि पल्यमें वृद्धिका संख्यातरूप भागहार संख्यात स्थान पहले प्राप्त हो जाता है और ध्रुवस्थितिमें वृद्धिका संख्यातरूप भागहार संख्यात स्थान आगे जाकर प्राप्त होता है। इसी प्रकार पल्यमें संख्यात स्थान पहले संख्यातगुणवृद्धिका प्रारम्भ हो जाता है किन्तु ध्वस्थितिमें संख्यात स्थान आगे जाकर संख्यातगुणवृद्धिका प्रारम्भ होता है। अब आगे इसी विषयको स्पष्ट रूपसे समझनेके लिये उदाहरण प्रस्तुत करते हैं पल्यकी अपेक्षा पल्यका प्रमाण १४४, ज० असंख्यात ९, उ० संख्यात ८. क्रमांक पल्य बढ़े हुए स्थान भागहार १४५ पल्य १४६ पल्यका आधा वृद्धि | असं० भा०६० १४४ १४४ १५२ १८ हसे ११ १४४ १५६ १३ से १५ १६ १४४ १४४ १४४ १४४ ... १४४ ६, परीतासं० ८ छेदभागहार प्रवक्तव्यभागवृद्धि ८ उ० संख्यात | संख्यातभागवृद्धि १६२ ११६ . १७५ m संख्यातभागवृद्धि १६२ ४ n . 0 . . . . . ४ १४४ २०८ १२८ १४४ २७२ १४४ २८८ गुणकार संख्यातगुणवृद्धि १४४ ... २८८ ५४४ ४३२ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ध्रुवस्थितिकी अपेक्षा ध्रुवस्थितिका प्रमाण ११५२ ध्रुवस्थिति ८ पल्य = ११५२ 33 क्रमांक १ ८ ९ से ११ १३ से १५ १६ १७ १८ १६ ३१ ४८ ६४ १२८ १४४ ... २८८ ... ... ,, www. ११५२ ... ११५२ ११५२ ११५२ "" ११५२ १९५२ ११५२ ११५२ ११५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ११५२ बढ़ी हुई स्थिति ११५३ ११५४ ११६० ११६४ ... १९६ १९६६ ११७० ११७१ ११८३ १२०० १२१६ १२८० १२६६ १४४० भागद्दार ध्रुवस्थिति ध्रुवस्थितिकाआधा १४४ ९६ ७२ ६७१ ६४ ६०११ ३७५६ २४ १८ ε C ४ [ द्विदिविहत्ती ३ वृद्धि अ० भा० वृ० 33 "" 139 ... - " "" "" "3 = = = = ... ... संख्यात भागवृद्धि ११५२ ११५२ २३०४ २ गुणकार संख्यात गुणवृद्धि इन दोनों संदृष्टियों के देखनेसे विदित होता है कि जहाँ पल्य में १४४ अंककी वृद्धि होनेपर संख्यातगुणवृद्धि प्रारम्भ हो जाती है वहाँ ध्रुवस्थिति में १४४ अंककी वृद्धि होनेपर संख्यातभागवृद्धिका ही प्रारम्भ होता है। कारण यह है कि पल्यका प्रमाण अल्प है और ध्रुवस्थितिका प्रमाण पल्यके प्रमाणसे संख्यातगुणा है, इसलिए जितने स्थान आगे जाकर पल्यका प्रमाण दूना होता है, ध्रुवस्थितिको दूना करनेके लिए उससे अधिक स्थान आगे जाना पड़ता है । इसी प्रकार अर्थसंदृष्टिमें भी जानना चाहिए । "" Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] afgपरूपणा १३५ $ २३३. संपहि तस्सेव मिच्छत्तस्स परत्थाणेण तिष्णं वड्डीणमत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा - एइंदिएण पंचिदियसंतकम्मं घादिय बीइंदियादीणं तप्पा ओग्गजहण्णबंधस्स ट्ठा एमएणणं काढूण पुणो बीइंदियादिसु उप्पजिय एगसमयं वड्डिण बद्धे असंखेजभावड्डी होदि; वडिदेगसमयस्स णिरुद्धद्विदीए असंखेजदिभात्तादो । पुणो तमेव पंचिदिदि बीइंदियादितप्पा ओग्गजहण्णडिदिबंधादो विसमयणं घादिय बीइंदियादिसु उप्पण्णपढमसमवि असंखेजभागवड्डी चेव होदि । कुदो ? ऊणीकददोसमयाणं चेव बंघेण वडिदत्तादो | एवं तिसमयादिकमेण ऊणिय णेदव्वं जाव पंचिदियसंतकम्मं बीईदियादीणं तप्पा ओग्गजहण्णबंधादो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण जहा ऊणं होदि तहा घादिय वेइंदियादिसुप्पण्णस्स वि असंखेज्जभागवड्डी चेव होदि । संपहि एत्तो उवरि समयुरादिकमेण ऊणिय णेदव्वं जाव असंखेज्जभागवड्डीए दुचरिमवियप्पो ति । $ २३४. संपहि चरिमवियप्पं वत्तइस्लामो | बीइंदियाणं तप्पा ओग्गजहणट्ठिदिबंधं जहण परित्ता संखेज्जेण खंडिय तत्थेगखंडेणूणं बेइंदियादीणं तप्पाओग्गजहण्ण डिदिबंघेण जहा सरिसं होदि तहा पंचिंदियट्ठिदिसंतकम्मं घादिय बेइंदियादिसु उप्पण्णपढमसमए असंखेज्जभागवड्डी होदि । एसा असंखेज्जभागवड्डी सव्वपच्छिमा; एत्तो उवरि संखेज्ज - भागवड्डीए विसयत्तादो । एवं बेइंदियादीणं पि पंचिदियट्ठिदिं घादयमाणाणं सगसग § २३३. अब परस्थानकी अपेक्षा उसी मिध्यात्वकी तीन वृद्धियोंकी अर्थप्ररूपणा करते हैं । जो इस प्रकार है - जिस एकेन्द्रियने पंचेन्द्रिय सत्कर्मको घातकर द्वीन्द्रियादिके योग्य जघन्य बन्धके नीचे स्थितिको एक समय कम किया पुनः उसके द्वीन्द्रियादिक में उत्पन्न होकर एक समय बढ़ाकर स्थिति के बाँधने पर असंख्यात भागवृद्धि होती है; क्योंकि वहाँ पर जो एक समयकी वृद्धि हुई है वह निरुद्ध अर्थात् सत्ता में स्थित पूर्व स्थितिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । पुनः किसी एक एकेन्द्रिय जीवने उसी पंचेन्द्रियकी स्थितिको द्वीन्द्रियादिके योग्य जघन्य स्थितिबन्धसे दो समय कम करके उसका घात किया और द्वीन्द्रियादिकमें उत्पन्न हुआ तो उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें भी असंख्यात भागवृद्धि ही होती है; क्योंकि कम किये गये दो समयोंकी ही यहाँ बन्धके द्वारा वृद्धि हुई है । इसी प्रकार तीन समय आदिके क्रमसे कम करके ले जाना चाहिये । कहाँ तक ले जाना चाहिये आगे इसीको बतलाते हैं- कोई एकेन्द्रिय जीव पंचेन्द्रियके योग्य सत्कर्मको द्वीन्द्रिय के योग्य जघन्य स्थितिबन्धसे पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग जिस प्रकार कम हो उस प्रकार घात करके द्वीन्द्रियादिकमें उत्पन्न हुआ तो उसके भी असंख्यात भागवृद्धि ही होती है । अब इसके ऊपर असंख्यात भागवृद्धिका द्विचरमविकल्प प्राप्त होने तक एक समय अधिक आदिके क्रमसे कम करके ले जाना चाहिये | २३४. अब अन्तिम विकल्पको बतलाते हैं- द्वीन्द्रियोंके तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्ध में जघन्य परीता संख्यातका भाग दे, भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त हो उससे न्यून द्वीन्द्रियोंके तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्धके समान घात द्वारा पंचेन्द्रियोंके स्थितिसत्कर्मको कोई एकेन्द्रिय प्राप्त करके यदि द्वीन्द्रियों में उत्पन्न हो तो उसके प्रथम समय में असंख्यात भागवृद्धि होती है । यह सबसे अन्तिम असंख्यातभागवृद्धि है; क्योंकि इसके ऊपर । संख्यात भागवृद्धि होती है । इसी प्रकार पंचेन्द्रियों की स्थितिका घात करनेवाले द्वीन्द्रियादिकके भी, उन्हें अपने अपने उपरिम जीवों में Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ उवरिमजीवेसुप्पादिय असंखेज्जभागवड्डी वत्तव्वा । ____$२३५. संपहि संखेज्जभागवड्डी परत्थाणेण वुच्चदे ।तं जहा-एइंदियो पंचिंदियसंतकम्मं घादयमाणो बेइंदियादीणं तप्पाओग्गजहण्णबंधस्स हेट्ठा पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागमेत्तं धादिय बेइंदियादिसु उववण्णो तस्स पढमसमए संखेज्जभागवड्डी होदि; तप्पाओग्गजहण्णहिदिबंधे उक्कस्ससंखेज्जेण खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तसमयाणं वड्डिदंस. णादो। पुवधादिदसंतकम्मस्स हेट्ठा एगसमयं घादिय बेइंदियादिसुप्पज्जिय तत्तियं चेव वडिदण बद्ध संखेज्जभागवड्डी चेव होदि । एवं विसमयूण-तिसमयणादिकमेण णेदव्वं जाव बेइंदियादितप्पाओग्गजहण्णहिदिबंधादो हेट्ठा रूवृणतदद्धमेत्तेण पंचिंदियट्टिदिं घादिय बेइंदियादिसुप्पण्णपढमसमए तप्पाओग्गजहण्णहिदि बंधमाणस्स संखेज्जभागवड्डी चेव होदि । तप्पाओग्गजहण्णहिदिबंधस्स संपुण्णमद्धं जाव पावेदि ताव सण्णिपंचिंदियट्ठिदिसंतकम्मं किण्ण धादिदं ? ण, सगलमद्धमत्तं धादिय बेइंदियादिसुप्पज्जिय वड्डिदण बंधमाणस्स संखेज्जगुणवड्डीए समुप्पत्तीदो । एवं बेइंदियादीणं पि वत्तव्वं ।। ६२३६. संपहि संखेज्जगुणवड्डी उच्चदे। तं जहा–एइंदिओ पंचिंदियसंतकम्म घादयमाणो बेइंदियादिसुप्पज्जिय बज्झमाणजहण्णहिदिबंधादो हेट्ठा सगलमद्धमत्तं धादिय पुणो बेइंदियादिसुप्पण्णपढमसमए सव्वजहण्णहिदि बंधमाणस्स संखेज्जगुणवड्डी होदि । उत्पन्न कराके असंख्यातभागवृद्धि कहनी चाहिये । ६२३५. अब परस्थानकी अपेक्षा संख्यातभागवृद्धिको बतलाते हैं। जो इस प्रकार हैपंचेन्द्रियसत्कर्मका घात करनेवाला जो कोई एक एकेन्द्रिय जीव द्वीन्द्रियादिकके योग्य जघन्य बन्धके नीचे पल्योपमके संख्यातवें भागका घात करके द्वीन्द्रियादिकमें उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें संख्यातभागवृद्धि होती है, क्योंकि द्वीन्द्रियादिकके योग्य जघन्य स्थितिबन्धमें उत्कृष्ट संख्यातका भाग देनेपर जितने खण्ड प्राप्त हों उनमें से एक खण्डप्रमाण समयोंकी वहाँ वृद्धि देखी जाती है । तथा पहले घाते हुए सत्कर्मके नीचे एक समयका घात करके और द्वीन्द्रियादिकमें उत्पन्न होकर जो जीव उतनी स्थितिकी ही वृद्धि करके बन्ध करता है उसके संख्यात भागवृद्धि ही होती है। इसीप्रकार दो समय कम, तीन समयकम आदि क्रमसे ले जाना चाहिये। यह क्रम, द्वीन्द्रियादिकके योग्य जघन्य स्थितिबन्धसे नीचे एककम उनकी जघन्य आधी स्थिति प्राप्त होने तक चलता है। इसप्रकार पंचेन्द्रियकी स्थितिका घात करके जो एकेन्द्रिय द्वीन्द्रियादिकमें उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें द्वीन्द्रियादिकके योग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करते हुए संख्यातभागवृद्धि ही होती है। शंका-द्वीन्द्रियादिके योग्य जघन्य स्थितिबन्धके सम्पूर्ण आधा प्राप्त होनेतक संज्ञी पंचेन्द्रियके स्थिति सत्कमका घात क्यों नहीं कराया ? समाधान--नहीं, क्योंकि पूरी आधी स्थितिका घात करके जो एकेन्द्रिय द्वीन्द्रियादिकमें उत्पन्न होकर बढ़ा कर स्थिति बाँधता है उसके संख्यातगुणवृद्धि होती है। इसी प्रकार द्वीन्द्रियादिकके भी कहना चाहिये। २३६. अब संख्यातगुणवृद्धिका कथन करते हैं। जो इस प्रकार है-कोई एकेन्द्रिय पंचेन्द्रिय सत्कर्मका घात कर रहा है और ऐसा करते हुए उसने द्वीन्द्रियादिकमें उत्पन्न होकर जितना जघन्य स्थितिका बन्ध होता है उससे नीचे पूरी आधी स्थितिका घात किया पुनः उसने द्वीन्द्रिया Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूषणा १३७ पुणो एगसमयं हेट्ठा ओसरिय घादेदूण उप्पण्णस्स वि संखेज्जगुणवड्डी चेव होदि । पुणो एदेण कमेण ओसरिदृण सव्वजहण्णएइंदियट्ठिदिसंतकम्मेण बेइंदियादिसुप्पज्जिय तप्पा. ओग्गजहण्णद्विदिं बंधमाणस्स संखेज्जगुणवडी चेव होदि । एवं बेइंदियादीणं पि संखेज्जगुणवड्डिपरूवणा कायव्या। ६२३७. संपहि ढाणहाणिपरूवणा कीरदे । तं जहा-जहा वड्डी तहा हाणी । णवरि अप्पणो उक्कस्सद्विदीए असंखेज्जदिभागो जाव झीयदि ताव असंखेज्जभागहाणी ...................................................................... दिकमें उत्पन्न होकर प्रथम समयमें सबसे जघन्य स्थितिका बन्ध किया तब उसके संख्यातगृणवृद्धि होती है। पुनः एक समय नीचे उतर कर घात करके द्वीन्द्रियादिकमें उत्पन्न होनेवाले जीवके भी संख्यातगुणवृद्धि ही होती है । पुनः इसी क्रमसे नीचे उतर कर जिसके सबसे जघन्य एकेन्द्रिय स्थिति सत्कर्म है वह यदि द्वीन्द्रियादिकमें उत्पन्न होकर उनके योग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करता है तो उसके संख्यातगुणवृद्धि ही होती है। इसी प्रकार द्वीन्द्रियादिकके भी संख्यातगुणवृद्धिका कथन करना चाहिये। विशेषार्थ--नीचेके जीवसमासको ऊपरके जीवसमासमें उत्पन्न कराके जो स्थितिमें वृद्धि प्राप्त होती है उसे परस्थानवृद्धि कहते हैं। जैसे एकेन्द्रियको द्वीन्द्रियादिमें, द्वीन्द्रियको त्रीन्द्रियादिकमें, त्रीन्द्रियको चतुरिन्द्रियादिकमें, चतुरिन्द्रियको असंज्ञी आदि में और असंज्ञीको संज्ञीमें उत्पन्न करानेसे परस्थानवृद्धि प्राप्त होती है। इनमेंसे पहले एकेन्द्रियको द्वीन्द्रियमें उत्पन्न कराके यह वृद्धि प्राप्त की गई है। वैसे तो एकेन्द्रियके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागरसे अधिक नहीं होता। अब यदि ऐसा एकेन्द्रिय जीव है जिसके अपने स्थितिबन्धसे अधिक सत्त्व नहीं है तो उसको द्वीन्द्रियमें उत्पन्न कराने पर केवल संख्यातगुणवृद्धि ही प्राप्त होती है, क्योकि एकेन्द्रियकी उत्कृष्ट स्थितिसे द्वीन्द्रियकी जघन्य स्थिति भी कुछ कम पच्चीस गुनी है। किन्तु जो ऊपरकी पर्यायसे च्युत होकर एकेन्द्रिय होता है उसके अपने स्थितिवन्धसे अधिक स्थितिसत्त्व भी पाया जाता है। यह स्थितिसत्त्व किसी किसी एकेन्द्रियके अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर भी प्राप्त होता है। किन्तु यहाँ ऐसा स्थितिसत्त्व ग्रहण करना है जिससे एकेन्द्रियके द्वीन्द्रियमें उत्पन्न होनेपर असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि बन जावे। जिस एकेन्द्रियके द्वीन्द्रियकी जघन्य स्थितिसे एक समय कम दो समय कम आदि पल्यके असंख्यातवें भागकम तक स्थितिसत्त्व होता है उसके द्वीन्द्रियमें उत्पन्न होने पर असंख्यातभागवृद्धि होती है. क्योंकि यहाँ पर्व स्थितिसे असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिकी ही वृद्धि देखी जाती है। वीरसेन स्वामीने असंख्यात भागवृद्धिका अन्तिम विकल्प बतलाते हुए लिखा है कि द्वीन्द्रियकी जघन्य स्थितिमें परीतासंख्यातका भाग दो, भाग देने पर जो एक भाग आवे उतना द्वीन्द्रियकी जघन्य स्थितिमें से कम कर दो। बस जिस एकेन्द्रियके पंचेन्द्रियकी स्थितिका घात करते हुए इतनी स्थिति शेष रह जाय उसे द्वीन्द्रियमें उत्पन्न कराने पर असंख्यातभागवृद्धिका अन्तिम विकल्प प्राप्त होता है। एकेन्द्रियके द्वीन्द्रियमें उत्पन्न होने पर उसके असंख्यातभागवृद्धि कैसे प्राप्त होती है इसका यहाँ तक विचार किया। पन्चे. न्द्रियकी स्थितिका घात करनेवाले जो द्वीन्द्रियादिक त्रीन्द्रियादिकमें उत्पन्न होते हैं उनके भी पर्वोक्त प्रकारसे असंख्यातभागवृद्धि घटित कर लेनी चाहिये। आगे परस्थानकी अपेक्षा संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका कथन सुगम है अतः उसे मूलसे ही जान लेना चाहिये। २३७ अब स्थानहानिका कथन करते हैं। जो इस प्रकार है-जिस प्रकार वृद्धि होती है उसी प्रकार हानि होती है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी उत्कृष्ट स्थितिका असंख्यातवाँ भाग जब तक Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ होदि । तदो संखेज्जभागहाणी होदूण गच्छदि जाव तिस्से द्विदीए रूवूणमद्धं झीणं ति । तो सगले अर्द्ध घादिदे संखेज्जगुणहाणी होदि । एतो संखेज्जगुणहाणी चेव होतॄण गच्छदि जाव तथ्याओग्गधुवट्ठि दिसंतकम्मे त्ति । सम्मत्तं वेत्तूण पुण किरियाविरहिदो होण जाव अच्छदि ताव असंखेज्जभागहाणी चेव होदि । अनंताणुबंधिधिसंजोयणाए डिदिखंडएस पदमाणेसु संखेज्जभागहाणी अण्णत्थ असंखेज्जभागहाणी । दंसणमोहक्खवयस्स अपुव्वकरणपढमसमयप्प हुडिं जाव पलिदोवमट्ठि दिसंतकम्मे त्ति ताव द्विदिकंडयाणं चरिमफालीस पदमणिया सुसंखेज्जभागहाणी होदि; तम्मि अद्धाणे ट्ठिदिखंडयस्स पलिदो - वमसंखेज्जदिभागपमाणत्तादो । अण्णत्थ असंखेज्जभागहाणी चेव || अधट्ठिदिगलणाए संसारावस्था पुण द्विदिखंडयस्स नियमो णत्थि कत्थ वि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागायामाणं, कत्थव पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागायामाणं कत्थ वि संखेज्जसागरो - मायामाणं डिदिखंडयाणं संसारावत्थाए उवलंभादो । पलिदोवमट्ठिदिसंतकम्म पहुडि जाव दूराव किट्टी चेट्ठदि ताव ट्ठिदिकंडयचरिमफालीए पडमाणाए संखेज्जगुणहाणी हो । अण्णत्थ असंखेज्जभागहाणी अधडिदिगलणाए । का दूरावकिट्टी १ जत्थ घादिदसेसट्ठिदिसंतकम्मस्स संखेज्जेसु भागेसु घादिदेसु अवसेसडिदी पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेता होदि साट्ठिदी दूरावकिट्टी णाम । सा च एयवियप्प; सव्वे सिमणियट्टीण मेगसमए वट्टमाणाणं परिणामेसु समाणेसु संतेसु ट्ठिदिखंडयाणमस माणत्तंविरोहादो । क्षीण होता है तब तक असंख्यातभागहानि होती है । उसके बाद संख्यातभागहानि होकर तब तक जाती है। जब तक उस स्थितिकी एक कम आधी स्थिति क्षीण होती है । तदनन्तर पूरी आधी स्थिति क्षीण होने पर संख्यातगुणहानि होती है । तथा यहाँ से तत्प्रायोग्य ध्रुवस्थिति सत्कर्म प्राप्त होने तक संख्यात गुणहानि ही होकर जाती है । सम्यक्त्वकी अपेक्षा तो जबतक जीव क्रियासे रहित होकर रहता है। तबतक असंख्यातभागहानि ही होती है । अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना के समय स्थितिकाण्डकों के पतन होने पर संख्यातभागहानि होती है । तथा अन्यत्र असंख्यात भागहानि होती है | दर्शनमोहनी की क्षपणा करनेवाले जीवके अपूर्वकरणके प्रथम समय से लेकर जबतक पल्योपम प्रमाण स्थितिसत्कर्म रहता है तबतक स्थितिकाण्डकोंकी अन्तिम फालियोंका पतन होते समय संख्यात भागहानि होती है, क्योंकि उस स्थानमें स्थितिकाण्डक पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होता है । तथा अन्यन्त्र असंख्यातभागहानि ही होती है । अधःस्थितिगलनाके समय संसारावस्था में तो स्थितिकाण्डकघातका नियम नहीं है; क्योंकि संसारावस्था में कहीं पर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण आयामवाले, कहीं पर पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण आयामवाले, तथा कहीं पर संख्यात सागरप्रमाण आयाम वाले स्थितिकाण्डकोंकी उपलब्धि होती है । पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्म से लेकर जब तक दूरापकृष्टि प्राप्त होती है तबतक स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन होने पर संख्यातगुणहानि होती है । अन्यत्र अधः स्थितिगलना में असंख्यात भागहानि होती है । शंका — दूराव कृष्टि किसे कहते हैं ? समाधान -- जहाँ पर घात करके शेष रहे स्थितिसत्कर्मके संख्यात बहुभाग के घात होने पर अवशेष स्थिति पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण रह जाती है वह स्थिति दूरापकृष्टि कहलाती है और वह एक विकल्पवाली होती है; क्योंकि एक समय में विद्यमान सभी अनिवृत्तिकरणगुणस्थानवाले जीवोंके परिणामोंके समान रहते हुए स्थितिकाण्डकोंको असमान माननेमें विरोध आता है । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] वडवण १३६ २३८. पुणो एदिस्से दूराव किट्टीए पढमडिदिखंड यचरिमफालीए पडमाणाए असंखेज्जगुणहाणी होदि । कुदो, दूराव किट्टीसणिदट्ठिदीए पढमडिदिकंडय पहुडि उवरिमसव्वडिदिकंडयाणं घादिदसेस से सहिदीए असंखेज्जभागपमाणत्तादो । सम्बडिदिकंडयाणं पुण समयूणुकीरणद्धासु असंखेज्जभागहाणी चेव अधट्ठिदिगलणार । एवं दव्वं जाव मिच्छत्तस्स समयूणावलियमेत्तट्ठिदिसंतकम्मं चेट्टिदं ति । तदो असंखेज्जभागहाणी होण गच्छदि जावुक्कस्ससंखेज्जमेत्तट्ठिदिसंतकम्मं सेसं ति । तदो संखेज्जभागहाणी होदूण गच्छदि जाव मिच्छत्तस्स तिसमयकोलदोडिदिपमाणं सेसं ति । पुणो एगाए द्विदीए सम्मत्तस्वरि थिवुक्कसंकमेण संकंताए संखेज्जगुणहाणी होदि णिसेगे पडुच्च । कालं पहुच्च पुण संखेज्जभागहाणी चेव । एवं मिच्छत्तस्स सत्याणपरत्थाणेहि वड्डिहाणिपरूवणा कदा । एवं सोलसकसाय-णवणोकसायाणं वड्डिहाणिपरूवणा कायव्वा । ६२३८. पुनः इस दूरापकृष्टिकी प्रथम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन होने पर असंख्यातगुणहानि होती है; क्योंकि दूरापकृष्टि संज्ञावाली स्थिति के प्रथम स्थितिकाण्ड से लेकर ऊपर की सब स्थितिकाण्डकों की घातकर शेष रही हुई सब स्थिति असंख्यातवें भागप्रमाण होती है । सब स्थितिकाण्डकोंकी तो एक समय कम उत्कीरणाकालोंमें अधः स्थितिगलनाके द्वारा असंख्यात भागहानि ही होती है । जबतक मिथ्यात्वसम्बन्धी एक समयकम आवलिमात्र स्थितिसत्कर्म शेष रहे तबतक इसी प्रकार ले जाना चाहिये । तदनन्तर उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष रहने तक असंख्यातभागहानि होकर जाती है । तदनन्तर मिथ्यात्व की तीन समय कालवाली दो स्थितियोंके शेष रहने तक संख्यात भागहानि होकर जाती है । पुनः एक स्थितिके स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा सम्यक्त्वके ऊपर संक्रान्त होनेपर निषेकों की अपेक्षा संख्यातगुणहानि होती है । कालकी अपेक्षा तो संख्यात भागहानि ही होती है। इस प्रकार मिथ्यात्वकी वृद्धि और हानिकी स्वस्थान और परस्थानकी अपेक्षा प्ररूपणा की। इसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायकी वृद्धि और हानिका कथन करना चाहिये । विशेषार्थ - - वृद्धिका विचार करते समय जिस प्रकार यह बतला आये हैं कि किस जीव - समासमें किस स्थिति से कितनी स्थिति बढ़ने पर कौन सी वृद्धि प्राप्त होती है । उसी प्रकार हानिमें भी समझना चाहिये । किन्तु यहाँ विलोमक्रम से विचार करना चाहिये । अर्थात् उत्कृष्ट स्थिति से असंख्यातवें भाग के कम होने तक असंख्यात भागहानि होती है। इसके बाद संख्यात भागहानि होती है जो एक कम आधी स्थिति प्राप्त होने तक होती है । और इसके बाद तत्प्रायोग्य ध्रुवस्थिति के प्राप्त होने तक संख्यातगुणहानि होती है । पहले जिस प्रकार सर्वत्र ध्रुवस्थितिकी अपेक्षा वृद्धियोंका विचार कर आये हैं इसी प्रकार यहाँ पर उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा ही हानियोंका विचार किया है, यहाँ इतना विशेष समझना चाहिये । यह तो हानिविषयक सामान्य कथन हुआ । किन्तु सम्यग्दृष्टि जीवके हानिके कथनमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि सम्यग्दृष्टि जीवकी दो अवस्थाएँ होती हैं एक क्रियारहित और दूसरी क्रियासहित । सर्वत्र क्रियारहित अवस्थामें तो असंख्यात भागहानि ही होती है, क्योंकि वहाँ अधः स्थितिगलनाके द्वारा एक एक निषेकका ही गलन होता है । किन्तु क्रियासहित अवस्था में यदि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना हो रही है तो स्थितिकाण्डकों की अन्तिम फालिके पतन के समय संख्यात भागहानि होती है, क्योंकि उस समय पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण स्थिति का पतन होता है । अन्यत्र असंख्यात भागहानि ही होती है । और यदि दर्शनमोहनीयकी Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला सहिदे कसाय पाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ * मिच्छत्तस्स अत्थि असंखेज्जभागवड्डी हाणी, संखेज्ज भागवड्डी हाणी, संखेज्जगुणबड्डी हाणी, असंखेज्जगुणहाणी अवद्वाणं । ६ २३६. एदासि वड्डीणं हाणीणं च जहा पढमसुत्तम्मि देसामासियतेण सूचिदहाणिम्मि वड्डिहाणीणं सत्थाणपरत्थाणसरूवेण परूवण । कदा तहा एत्थ वि कायव्वा; विसेसाभावादो । तिब्व-तिव्वयर-तिब्बतमेहि द्विदिबंध ज्झवसाणङ्काणेहि ट्ठिदीए असंखेज्जभागवड्डी संखेज्जभागवड्डी संखेज्जगुणवड्डी च होदिति वदे । 'डिदिअणुभागे कसायादो कुणदि' त्ति सुत्तादो । ट्ठिदिखंडयाणं पुण णत्थि संभवो; णिकारणत्तादोत्ति ? ण, विसोही ट्ठिदिखंडयघादसंभवादो । का विसोही णाम ? जेसु जीवपरिणामेसु १४० क्षपणा कर रहा है तो अपूर्वकरण से लेकर प्रत्येक स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन के समय संख्यातभागहानि होती है जा पल्यप्रमाण स्थिति के शेष रहने तक चालू रहती है किन्तु जब स्थिति एक पल्य रह जाती है तब स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन के समय संख्यातगुणहानि होती है; क्योंकि यहाँ काण्ड कका प्रमाण संख्यात बहुभाग है । तथा दूरापकृष्टि संज्ञावली स्थितिके शेष रहने पर प्रथम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन के समय असंख्यातगुणहानि होती है; क्योंकि यहाँ असंख्यातगुणी स्थितिका घात हो जाता है । इसी प्रकार आगे भी एक समय कम श्रावलि - प्रमाण स्थिति शेष रहने तक जानना चाहिये । किन्तु इसके आगे उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण स्थितिके शेष रहने तक असंख्यातभागहानि होती है, क्योंकि यहाँ अधः स्थितिगलन के द्वारा एक एक निषेकका ही प्रति समय गलन होता है। इसके आगे संख्यात भागहानि होती है । यद्यपि यहाँ भी एक एक निषेकका ही गलन होता है पर यह एक एक निषेक विद्यमान स्थिति के संख्यातवें भागप्रमाण है, अतः यहाँ संख्यातभागहानि बन जाती है । किन्तु यह क्रम जिनकी स्थिति तीन समय है ऐसे दो निषेकों शेष रहने तक ही चालू रहता है । पर दो निषेकोंके शेष रहने पर उनमें से एक निषेकके स्तिक संक्रमणके द्वारा अन्य प्रकृतिमें संक्रान्त हो जाने पर संख्यातगुणहानि प्राप्त होती है; क्योंकि तदनन्तर समय में दो समय कालप्रमाण स्थितिवाला एक निषेक पाया जाता है। फिर भी यह संख्यातगुणहानि निषेकों की अपेक्षासे कही है। कालकी अपेक्षा से नहीं; क्योंकि कालकी अपेक्षासे तो वहाँ भी संख्या भागहानि ही है; क्योंकि तीन समयकी स्थितिवाले द्वितीय निषेकके दो समयकी स्थितिवाले बचे हुए अन्तिम निषेकमें संक्रान्त होने पर संख्या भागहानि ही प्राप्त होती है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि संसार अवस्था में कब कितनी हानि होती है ऐसा कोई नियम नहीं है । * मिध्यात्वकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि असंख्यातगुणहानि और अबस्थान होता है । २३६. जिस प्रकार पहले सूत्र में देशामर्षकरूपसे सूचित हुई हानिमें वृद्धि और हानिका स्वस्थान और परथानरूपसे कथन किया उसी प्रकार यहां भी इन वृद्धि और हानियोंका कथन करना चाहिये; क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । शंका तीव्र, तीव्रवर और तीव्रतम स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंसे स्थितिकी असंख्यात - भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि होती है ऐसा जाना जाता है; क्योंकि स्थिति और अनुभाग कषायसे होता है ऐसा सूत्रवचन है । परन्तु स्थितिकाण्डकों के होनेकी संभावना नहीं; क्योंकि उनके होनेका कोई कारण नहीं पाया जाता है ? समाधान -- नहीं, क्योंकि विशुद्धिसे स्थितिकाण्डकका घात होना संभव है । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] १४१ समुपपणे कसायाणं हाणी होदि, थिर-सुह-सुहग-साद- सुस्सुरादीणं सुहपयडीणं बंधो च ते परिणामा विसोही णाम । ताहिंतो द्विदिखंडयाणं घादो । किमवद्वाणं ? पुव्विल्लडिदिसंतसमाणदिणं बंधणमवाणं णाम । * एवं सव्वकम्माणं । $ २४०. जहा मिच्छत्तस्स तिविहा वड्डी चउव्विहा हाणी अवट्ठाणं च होदि तहा सव्वेसि पि कम्माणं । णवरि अणंताणुबंधिचउक्कस्स असंखेज्जगुणहाणी विसंजोएंतम्हि गेहिदव्वा । बारसकसाय-णवणोकसायाणं असंखेज्जगुणहाणी चारित्तमोहक्खवणाए 1 गेहिदव्त्रा । $ २४१, संपति सम्मत्तस्स असंखेज्जभागवड्डी उच्चदे । तं जहा - वेदगपाओग्गंतोकोडा कोडिमेतद्विदीए उवरि दुसमयुत्तरमिच्छत्तट्ठिदिं बंधिय पडिहग्गेण सम्मत्ते गहिदे असंखेज्जभागवड्डी होदि, मिच्छत्तम्मि वडिददोन्हं हिंदीणं गहिदसम्मत्तपढमसमए सम्मत्त- सम्मामिच्छत्तेसु संकंतत्तादो । इमं पढमवारणिरुद्धट्टिदीदो तिसमयुत्तर - चदुसमयुतरादिकमेण मिच्छत्तट्ठिदिं वड्डाविय सम्मत्तं गेण्हाविय सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमसंखेज्जभावड्डी पवेदव्वा । तत्थ अंतिम वियप्पो बुच्चदे -- णिरुद्धसम्मत्तट्ठिदिं जहण्णपरित्ता शंका -- विशुद्धि किसे कहते हैं । समाधान -- जीवोंके जिन परिणामों के होने पर कषायोंकी हानि होती है और स्थिर, शुभ, सुभग, साता और सुस्वर आदि शुभ प्रकृतियों का बन्ध होता है उन परिणामों का नाम विशुद्धि है । इन परिणामोंसे स्थितिकाण्डकों का घात होता है । शंका- अवस्थान किसे कहते हैं ? समाधान — पहलेका जो स्थितिसत्त्व है उसके समान स्थितियोंका बन्ध होना अवस्थान कहा जाता है । * इसी प्रकार सब कर्मोके जानना चाहिये । २४०. जिस प्रकार मिथ्यात्वकी तीन प्रकारकी वृद्धि, चार प्रकारकी हानि और अवस्थान होता है उसी प्रकार सभी कर्मों के जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्की असंख्यातगुणहानि विसंयोजना के समय ही ग्रहण करनी चाहिये । तथा बारह कषाय और नौ नोकषायों की संख्यातगुणहानि चारित्रमोहनीयकी क्षपणा के समय ग्रहण करनी चाहिये । २४१. अब सम्यक्त्वकी असंख्यात भागवद्धिका कथन करते हैं। जो इस प्रकार है - वेदक सम्यक्त्वके योग्य अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिके ऊपर दो समय अधिक मिध्यात्वकी स्थितिको बाँधकर प्रतिभग्न होकर सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर असंख्यात भागवृद्धि होती है; क्योंकि मिध्यात्वमें बढ़ी हुई दो स्थितियों का सम्यक्त्व के ग्रहण होनेके प्रथम समय में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक होता है। इस प्रकार प्रथमबार विवक्षित स्थिति से तीन समय अधिक और चार समय अधिक आदि क्रमसे मिध्यात्वकी स्थितिको बढ़ाकर और सम्यक्त्वको ग्रहण कराके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की असंख्यात भागवृद्धिका कथन करना चाहिये। उनमें अब अन्तिम विकल्पको कहते हैं - विवक्षित सम्यक्व की स्थितिको जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित करके जो खण्ड प्राप्त हों उनमें से एक खण्ड Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती . संखेज्जेण खंडिय तत्थ एगखंडमेत्तहिदीहि मिच्छत्तट्ठिदीओ बंधेण वड्डाविय सम्मत्तं घेत्तूणावद्विदमिच्छत्तहिदीसु सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु संकंतासु अपच्छिमा असंखेज्जभागवड्डी। ____ २४२. संपहि पढमवारणिरुद्धवेदगपाओग्गसम्मत्तसंतकम्मस्सुवरि समयुत्तरसंतकम्मियमिच्छादिद्धिं घेत्तण असंखेज्जभागवड्विपरूवणं कस्सामो। एदम्हादो णिरुद्ध हिदीदो मिच्छत्तहिदि दुसमयुत्तरं बंधिय सम्मत्ते गहिदे असंखेज्जभागवड्डी होदि । एवं तिसमयु. तरादिकमेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्तद्विदीओ मिच्छत्तम्मि वड्डाविय असंखज्जभागवड्डिपरूवणा कायव्वा । एवं विसमयुत्तर-तिसमयुत्तर-चदुसमयुत्तरादिकमेणब्भहियहिदिसंतकम्माणं णिरंभणं काऊण णेदव्वं जाव तप्पाओग्गअंतोमुहुत्तणूणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडि ति। एवं णीदे एगेगसम्मत्तसंतकम्मद्विदीए उवरि पलिदोवमस्स संखेज्जदिमागमेत्ता असंखज्जभागवडिवियप्पा लद्धा होति । एवमेत्तिया चेव असंखज्जभागवडिवियप्पा लब्भंति त्ति णावहारणं कायव्वं; कत्थ वि एग-दो-तिण्णि-संखज्ज-असंखज्जअंतोहुमुत्तादिवियप्पाणमुवलंभादो । एवमसंखेज्जभागवड्डिपरूवणा कदा। ६२४३. संपहि संखेज्जभागवड्विपरूवणा कीरदे । एगो वेदगपाओग्गसम्मत्तसंतकम्मिओ मिच्छादिट्ठी तत्तो उवरि तप्पाओग्गजहण्हं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागमत्तमिच्छत्तट्ठिदिं वड्डिद्ण बंधिय सम्मत्ते गहिदे संखेज्जभागवड्डी होदि। पुणो संपहि प्रमाण स्थितियोंके द्वारा मिथ्यात्वकी स्थितियोंको बन्धके द्वारा बढ़ाकर और सम्यक्त्वको ग्रहण करके बढ़ी हुई मिथ्यावकी स्थितियोंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रान्त होने पर उत्कृष्ट असंख्यातभागवृद्धि होती है। २४२. अब प्रथमबार विवक्षित वेदकसम्यक्त्वके योग्य सम्यक्त्वसत्कर्मके ऊपर एक समय अधिक सत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टिको ग्रहण करके असंख्यातभागवृद्धिका कथन करते हैं-इस विवक्षित स्थितिसे मिथ्यात्वकी दो समय अधिक स्थितिको बाँधकर सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर असंख्यातभागवद्धि होती है। इसी प्रकार तीन समय अधिक आदि क्रमसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंको मिथ्यात्व में बढ़ाकर असंख्यातभागवद्धिका कथन करना चाहिये। इस प्रकार तत्प्रायोग्य अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थिति प्राप्त होने तक दो समय अधिक, तीन समय अधिक और चार समय अधिक आदि क्रमसे स्थितिसत्कर्मोंको ग्रहण करके कथन करना चाहिये । इस प्रकार कथन करने पर सम्यक्त्व सत्कर्मकी एक एक स्थिति के ऊपर पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण असंख्यातभागवृद्धिके विकल्प प्राप्त होते हैं। इस प्रकार इतने ही असंख्यातभागवृद्धिके विकल्प प्राप्त होते हैं ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिये, क्योंकि कहीं पर एक, दो, तीन, संख्यात, असंख्यात और अन्तर्मुहूर्त आदि विकल्प पाये जाते हैं । इस प्रकार असंख्यातभागवृद्धिका कथन किया। .. ६२४३. अब संख्यातभागवृद्धिका कथन करते हैं-वेदकसम्यक्त्वके योग्य किसी एक सम्यक्त्वसत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टि जीवने उसके ऊपर पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण तत्प्रायोग्य मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिको बढ़ाकर बाँधा पुनः उसके सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर संख्यातभागवद्धि होती है । पुनः इस समय विवक्षित सम्यक्त्वके स्थिति सत्कर्मके ऊपर बढ़ी हुई मिथ्यात्वकी स्थिति Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०२२] वडिपरूवणा णिरुद्धसम्मत्तहिदिसंतकम्मस्सुवरि वड्डिदमिच्छत्तहिदि समयुत्तर-दुसमयुत्तरादिकमेण वड्डाविय सम्मत्तं घेत्तूण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताण संखेज्जमागवड्डि काऊण णेदव्वं जाव अप्पिदसम्मत्तहिदीए संखेज्जभागवड्डिवियप्पाणं दुचरिमवियप्पो त्ति । संपहि चरिमवियप्पो वुच्चदे-अप्पिदसम्मत्तद्विदीए उवरि तत्तियमेत्तं समयूणं बंधेण मिच्छत्ते वड्डाविय पडि. हग्गेण मिच्छाइट्टिणा सम्मत्ते गहिदे अप्पिदहिदीए अपच्छिमो संखेज्जभागवड्डिवियप्पो होदि । पुणो पढमवारणिरुद्धसम्मत्तसंतकम्मरसुवरि समयुत्तरसंतकम्मिएण मिच्छादिहिणा तप्पाओग्गजहणियं पलिदोवमस्स संखज्जदिभागमेत्तहिदि वड्डिदूण बंधिय पडिहग्गेण सम्मत्ते गहिदे संखेज्जभागवड्डी होदि। पुणो संपहियसम्मत्तसंतकम्मट्ठिदिमवट्ठिदं कादण मिच्छत्तहिदिं पुत्ववड्डिदहिदीदो समयुत्तरं वड्डाविय सम्भत्ते गहिदे विदिओ संखेजभागवड्डिवियप्पो होदि । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव एदिस्से वि णिरुद्धहिदीए संखज्जभागवड्विवियप्पा सव्वे समत्ता त्ति । एवमणेण विहाणेण पढमवारणिरुद्धसम्मत्तद्विदि दुसमयुत्तरादिकमेणब्महियं कादूण णेदव्वं जाव पलिदोवमस्स संखेज्जदिमागेणणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडि ति । एवं णीदे एगेगसम्मत्तसंतकम्मट्ठिदीए उवरि कत्थ वि संखज्जसागरोवममेत्ता, कत्थ वि संखेज्जपलिदोवममेत्ता, कत्थ वि असंखेज्जवस्स. मेत्ता, कत्थ वि संखेज्जवस्समेत्ता, कत्थ वि अंतोमुहुत्तमेत्ता, कत्थ वि संखेज्जसमयमेता संखेज्जभागवड्डि वियप्पा लद्धा होति । णवरि अग्गहिदिम्हि पलिदोवमस्स संखेज्जभाग. मेत्तहिदिविसेसेहि एक्को वि संखेज्जभागवड्डिवियप्पो ण लद्धो।। को एक समय अधिक दो समय अधिक आदि क्रमसे बढ़ाकर और सम्यक्त्वका ग्रहण कराक सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी संख्यातभागवृद्धि करते हुए सम्यक्त्वकी विवक्षित स्थितिके संख्यातभागवृद्धिसम्बन्धी विकल्पोंमेंसे द्विचरमविकल्पके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये। अब अन्तिम विकल्पको बतलाते हैं-सम्यक्त्वकी विवक्षित स्थितिके ऊपर बन्धके द्वारा मिथ्यात्वकी एक समय कम उतनी ही स्थिति और बढ़ाकर कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव प्रतिभग्न होकर सम्यक्त्वको ग्रहण करले तो उसके विवक्षित स्थितिका संख्यातभागवृद्धिसम्बन्धी उत्कृष्ट विकल्प होता है। पुन: पहलीबार विवक्षित सम्यक्त्वसत्कमके ऊपर एक समय अधिक सत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टि जीवने तत्प्रायोग्य पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण जघन्य स्थितिको बढ़ाकर बाँधा और प्रतिभन्न होकर सम्यक्त्वको ग्रहण किया तो उसके संख्यातभागवृद्धि होती है। पुनः इस समय जो सम्यक्त्व सत्कर्मकी स्थिति कही है उसे अवस्थित करके और मिथ्यात्वकी स्थितिको पहले बढ़ी हुई स्थितिसे एक समय और बढ़ाकर जो जीव सम्यक्त्वको ग्रहण करता है उसके संख्यातभागवृद्धिका दूसरा भेद होता है। इस प्रकार इस विवक्षित स्थितिके भी संख्यातभागवृद्धिसम्बन्धी सब भेदोंके समाप्त होने तक इसी प्रकार जानकर कथन करना चाहिये । इस प्रकार इस विधिके अनुसार पहलीबार विवक्षित सम्यक्त्वकी स्थितिको दो समय अधिक आदि क्रमसे अधिक करके पल्योपमके संख्यातवें भागसे कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्राप्त होने तक कथन करना चाहिये। इस प्रकार कथन करने पर सम्यक्त्वसत्कर्मकी एक एक स्थितिके ऊपर कहीं पर संख्यातसागर प्रमाण, कहीं पर संख्यात पल्यप्रमाण, कहीं पर असंख्यात वर्षप्रमाण, कहीं पर संख्यात वर्षप्रमाण, कहीं पर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण और कहीं पर संख्यात समय प्रमाण संख्यातभागवृद्धिके भेद प्राप्त होते हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि अग्र स्थितिमें पल्योपमके संख्यातवेभागप्रमाण स्थितिविशेषोंकी अपेक्षा संख्यातभागवृद्धिका एक भी विकल्प प्राप्त नहीं होता है। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ $ २४४. संपहि संखेज्जगुणवड्डी बुच्चदे । तं जहा - पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागमेत्तसम्मत्तडिदिसंतकम्मियमिच्छादिट्टिणा उवसमसम्मत्ते गहिदे संखेज्जगुणवड्डी होदि । एत्तो समयुत्तरादिकमेण सम्मत्त सम्मामिच्छत्तहिदीओ परिवाडीए वड्डाविय सम्मत्ते विसंखेज्जगुणवडीओ चेव होंति । एवं णेदव्वं जाव सागरोवमं सागरोवमपृधत्तं वा पत्तं ति । कुदो ? उवसमसम्मत्तपाओग्गाणं हिदीणमेत्तियाणं चेव संभवादो। एत्तो समयुत्तरसम्मत्त हिदिसंतकम्मियमिच्छादिहिणा वेद्गसम्मत्ते गहिदे संखेज्जगुणवड्डी होदि । एवं गंतूण मिच्छत्तधुवदीए अद्धमेत्तसम्मत्तट्ठिदिसंतकम्मेण धुवट्टिदिमेत्तमिच्छत्तट्ठिदीए वेद्गसम्मत्ते गहिदे संखेज्जगुणवड्डी होदि । एवं मिच्छत्तधुवट्ठिदीए णिरुद्वाए एत्तिओ वेव संखेज्जगुणवड्डिविसयो । पुणो पढमवारणिरुद्धसम्मत्तडिदिसंतं धुवं कारण पुव्वुत्तमिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मं समयुत्तरादिकमेण वड्डाविय वेदव्वं जाव सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तमिच्छत्तट्ठिदिं बंधिय पडिहग्गो होद्ण वेदगसम्मत्तं गहिदसमए सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं संखेज्जगुणवड्डि कादृण ट्ठिदो त्ति । पुणो पुव्विलसम्मत्तट्ठिदीदो समयुत्तरसम्मत्तट्ठिदिणिरंभणं काढूण पुव्वं व संखेञ्जगुणवड्डिवियप्पा अपरिसेप्ता वत्तव्वा । एवं दुसमयुत्तर- तिसमयुत्तर। दिकमेण सम्मतट्ठिदिसतं बडाविय णेदव्वं जाव सम्मत्तद्विदितं धुवट्टिदि पत्तं ति । ताघे मिच्छत्तधुवट्ठिदीदो दुगुणमिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मिएण वेदगसम्मत्ते १४४ $ २४४. अब संख्यातगुणवृद्धिका कथन करते हैं। जो इस प्रकार है - सम्यक्त्वकी पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिसत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा उपशमसम्यक्त्वके ग्रहण करने पर संख्यात गुणवृद्धि होती है । इसके आगे एक समय अधिक आदि क्रमसे सम्यक्त्व और सम्यforecast स्थितियोंको उत्तरोत्तर बढ़ाकर सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर भी संख्यातगुणवृद्धियाँ ही होती हैं । सम्यक्त्वकी एक सागर या एक सागरपृथक्त्व प्रमाण स्थिति के प्राप्त होने तक इसी प्रकार कथन करना चाहिये, क्योंकि उपशमसम्यक्त्वके योग्य इतनी स्थितियाँ ही सम्भव हैं। इसके आगे सम्यक्त्वकी एक समय अधिक स्थिति सत्कर्मवाले मिध्यादृष्टि जीवके द्वारा वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करने पर संख्यातगुणवृद्धि होती है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक समय प्रमाण स्थितिके बढ़ाने पर मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थिति से सम्यक्त्वकी आधी स्थिति सत्कर्मवाले जीवके द्वारा मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिप्रमाण स्थिति के साथ वेदक सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर संख्यातगुणवृद्धि होती है । इस प्रकार मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिके रहते हुए संख्यातगुणवृद्धिविषयक भेद इतने ही होते हैं । पुनः पहलीबार ग्रहण किये गये सम्यक्त्वके स्थितिसत्त्वको ध्रुव करके और पूर्वोक्त मिध्यात्वके स्थितिसत्कर्मको एक समय अधिक आदि क्रमसे बढ़ाकर वहाँ तक ले जाना चाहिये । जहाँ तक सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण मिथ्यात्वकी स्थितिको बाँधकर और प्रतिभम होकर वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करने के प्रथम समय में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की संख्यातगुणवृद्धि करके यह जीव स्थित हो । पुनः पहलेकी सम्यक्त्वकी स्थिति से एक समय अधिक सम्यक्त्वकी स्थितिको ग्रहण करके पहले के समान संख्या वृद्धि सब विकल्प कहना चाहिये । इस प्रकार दो समय अधिक, तीन समय अधिक आदि क्रमसे सम्यक्त्वके स्थितिसत्त्वको बढ़ाकर सम्यक्त्वका स्थितिसत्त्व ध्रुवस्थितिको प्राप्त होने तक लेजाना चाहिये । उस समय मिथ्यात्वकी ध्रवस्थिति से मिध्यात्वके दूने स्थितिसत्कर्मवाले जीवके Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०२२] वडिपरूवणाए समुकित्तणा १४५ गहिदे संखेजगुणवड्डी होदि । पुणो इमं मिच्छत्तधुवहिदिमेत्तसम्मत्तद्विदि धुवं कादूण दुगुणमिच्छत्तधुवट्ठिदिं समयुत्तरादिकमेण वड्डाविय णेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तमिच्छत्तट्टिदिसंतकम्म त्ति । पुणो समयुत्तरमिच्छत्तधुवट्ठिदिमेत्तसम्मत्तद्विदीए उवरि दुसमयाहियधुवहिदिमेत्तं वड्डिय वेदगसम्मत्ते गहिदे संखेजगुणवड्डी होदि । एवमप्पप्पणो णिरुद्धढिदिसंतकम्मस्सुवरि दुगुण-दुगुणकमेण मिच्छत्तहिदि बंधाविय वेदगसम्मत्ते गहिदे दुगुणवड्डी होदि । एवं णेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तूणसचरिसागरोवमकोडाकोडि त्ति । एवं णीदे मिच्छत्तधुवद्विदीए उवरि समयुत्तरादिकमेण जाव सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीणमद्धमेत्तद्विदीओ ति ताव एदाहि हिदीहि संखेजगुणवड्डिवियप्पालद्धा। पुणो उपरिमतदद्धमेत्तहिदीहि ण लद्धा । सम्मत्त'सम्मामिच्छत्ताणमसंखेजगुणहाणी दंसणमोहणीयक्खवणाए जहा मिच्छत्तस्स दूरावकिट्टिद्विदिसंतकम्मे सेसे असंखेञ्जगुणहाणी परूविदा तहा परूवेयव्वा; विसेसाभावादो। $२४५. संपहि असंखेजभागहाणो वुच्चदे । तं जहा--सम्मत्तं घेत्तण जाव किरियाए विणा वेछावट्टिसागरोवमाणि भवदि ताव अघट्टिदिगलणाए असंखेजमागहाणी होदि । दसणमोहक्खवणाए वि सव्वद्विदिकंडयाणं चरिमफालीणं पदणसमयं मोसण अण्णत्थ अघट्टिदिगलणाए असंखेजभागहाणी चेव । अथवा एवमसंखेजा भागहाणी वत्तव्वा । तं जहा--अंतोमुहुत्तणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तसम्मत्तहिदिसंतकम्मियद्वारा वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करने पर संख्यातगुणवृद्धि होती है। पुन: मिथ्यात्वकी ध्वस्थिति प्रमाण सम्यक्त्वकी इस स्थितिको ध्रव करके मिथ्यात्वकी दूनी ध्रुवस्थितिको एक समय अधिक आदि क्रमसे बढ़ाकर मिथ्यात्वकी अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिसत्कर्म प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये। पुनः मिथ्यात्वकी एक समय अधिक ध्रवस्थितिप्रमाण सम्यक्त्वकी स्थितिके ऊपर दो समय अधिक ध्रवस्थितिप्रमाण स्थितिको बढ़ाकर वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करने पर संख्यातगुणवृद्धि होती है । इस प्रकार अपने अपने विवक्षित हुए स्थितिसत्कर्मके ऊपर दुने दुने क्रमसे मिथ्यात्वको स्थितिका बन्ध कराके वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करने पर दुगुनी वृद्धि होती है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोडाकोड़ी सागर तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार ले जाने पर मिथ्यात्वकी ध्रवस्थितिके ऊपर एक समय अधिक आदि क्रमसे सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरकी आधी स्थितिके प्राप्त होने तक इन स्थितियों के द्वारा संख्यातगुणवृद्धिके भेद प्राप्त होते हैं। पुनः सम्यक्त्वकी आधी ऊपरकी स्थितियों के द्वारा संख्यातगुणवृद्धिके भेद नहीं प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें मिथ्यात्वकी दूरापकृष्टि स्थितिसत्कके शेष रहने पर असंख्यातगुणहानिका कथन किया उस प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्याकी असंख्यातगुणहानिका कथन करना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। ६२४५. अब असंख्यातभागहानिका कथन करते हैं-सम्यक्त्वको ग्रहण करके जब तक क्रियाके बिना एकसौ बत्तीस सागर काल होता है तवतक अधःस्थितिगलनाके द्वारा असंख्यात भागहानि होती है। दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समय भी सब स्थितिकाण्डकोंकी अन्तिम फालियोंके पतन समयको छोड़कर अन्यत्र अधःस्थितिगलनाके द्वारा असंख्यातभागहानि ही होती है। अथवा इस प्रकार असंख्यातभागहानिका कथन करना चाहिये। जो इस प्रकार है-सम्यक्त्वकी अन्तर्मुहूर्तकम सत्तरकोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिसत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टि जीवके पल्योपमके .. . ता. प्रतौ- मेत्तहिदिहीणलद्धसम्मत्त-इति पाठः । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ मिच्छाइडिणा पलिदोवमस्स असंखेजभागमेत्तद्विदिखंडयघादेण विणा अधढिदिगलणाए सम्मत्तहिदीए गलिदाए असंखेजभागहाणी जिरंतरं जाव धुवहिदि ति लब्भदि । कुदो ? णाणाजीवे अस्सिदण धुवद्विदीए ऊणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तहिदीणं अधहिदीए गलणुवलंभादो। धुवद्विदीदो उवरिमसव्वसम्मत्तद्विदीणं णाणाजीवुव्वेल्लणमस्सिदण असं. खेअभागहाणी किण्ण लब्भदे ? सुट्ट लब्भदि । को भणदि ण लब्भदि त्ति । किंतु मिच्छत्तधुवाद्विदीदो उरि सम्मत्तहिदिमुव्वेल्लमाणस्स पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तो चेव हिदिखंडओ पददि ति णियमो णत्थि । कुदो? विसोहीए पलिदोवमस्स संखेजभागमेत्ताणं संखेञ्जपलिदोवममेत्ताणं कत्थ वि संखेजसागरोवममेत्ताणं च द्विदिकंडयाणं पदणसंभवादो । सव्वेसिमुन्वेल्लणकंडयाणं पमाणं पलिदोवमस्स असंखेजभागमेत्तं चेवे ति आइरियवयणेण कधं ण विरोहो ? णत्थि विरोहो; पलिदोवमस्स संखेजभागहिदिकंडयप्पहुडि उवरि सव्वाद्विदिखंडयाणमुवेल्लणपरिणामण विणा विसोहिकारणत्तादो। ण च विसोहीए पदमाणहिदिकंडयाणमुव्वेल्लणपरिणामो कारणं होदि; अव्ववत्थावत्तीदो। ६२४६. सम्मत्तस्स उज्वेल्लणाए पारद्धाए पुणो सम्मत्तम्मि पदमाणढिकंडयपमाणं पलिदोवमस्स असंखेजभागमेत्तं चेवे त्ति के वि आइरिया भणंति, तण्ण घडदे, विसोहीए द्विदिखंडयघादेण मिच्छत्तस्स संखेजगुणहाणीए संतीए भिच्छत्तहिदिसंतकम्मादो सम्मत्तअसंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डकघातके बिना अधःस्थितिगलनासे सम्यक्त्वकी स्थितिके गलित होने पर ध्रुवस्थितिके प्राप्त होने तक निरन्तर असंख्यातभागहानि होती है, क्योंकि नाना जीवोंकी अपेक्षा ध्रुवस्थितिसे न्यून सत्तर कोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थितियोंकी अधःस्थितिगलना पाई जाती है। शंका-धवस्थितिसे ऊपरकी सम्यक्त्वकी सब स्थितियोंकी नाना जीवोंकी अपेक्षा उद्वेलना. का आश्रय लेकर असंख्यातभागहानि क्यों नहीं प्राप्त होती है ? समाधान-अच्छी तरहसे प्राप्त होती है। कौन कहता है कि नहीं प्राप्त होती है। किन्तु मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिके ऊपर सम्यक्त्वकी स्थितिकी उद्वेलना करनेवाले जीवके पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डकका ही पतन होता है ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि विशुद्धि के कारण कहीं पर पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण, कहीं पर संख्यात पल्यप्रमाण और कहीं पर संख्यात सागरप्रमाण स्थितिकाण्डकोंका पतन सम्भव है। शंका-'सभी उद्घलनाकाण्डकोंका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र ही है। प्राचार्योके इस वचनके साथ उपर्युक्त कथनका विरोध क्यों नहीं प्राप्त होता है ? समाधान-कोई विरोध नहीं है, क्योंकि पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डकसे लेकर ऊपरके सब स्थितिकाण्डक उद्वलनारूप परिणामोंसे न होकर विशुद्धिनिमित्तक होते हैं। यदि कहा जाय कि विशुद्धिके द्वारा पतनको प्राप्त होनेवाले स्थितिकाण्डकोंका उद्वलनापरिणाम कारण होता है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है। ६२४६. सम्यक्त्वकी उद्घलनाके प्रारम्भ होने पर तो सम्यक्त्वके पतनको प्राप्त होनेवाले स्थितिकाण्डकोंका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र ही होता है ऐसा कितने ही प्राचार्य कहते हैं परन्तु उनका यह कहना नहीं बनता है; क्योंकि ऐसा मानने पर विशुद्धिसे स्थितिकाण्डकघात ....... Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूवणाए समुक्कित्तणा १४७ हिदिसंतकम्मस्स संखेजगुणत्तप्पसंगादो। ण च एवमुवेल्लणसंकमेण मिच्छत्तस्सुवरि सम्मत्ते णिरंतरं संकममाणे सम्मत्तद्विदीदो मिच्छत्तद्विदीए संखेजगुणहीणत्तविरोहादो । तम्हा मिच्छत्तस्स डिदिखंडए पदंते सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं घादिदसेसमिच्छत्तहिदीदो उवरिमट्ठिदीणं णियमा घादो होदि त्ति घेत्तव्वं । एवं संते सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमेग. णिसे गमेत्तो वि द्विदिखंडओ होदि त्ति वुत्ते होदु णाम ण को वि एत्थ विरोहो। ___२४७. उव्वेल्लणाए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु मिच्छत्तधुवट्ठिदिपमाणं पत्तेसु वि एसो चेव कमो; विगलिंदियविसोहीहि घादिञ्जमाणमिच्छत्सद्विदिखंडयाणं पलिदोवमस्स संखेअभागायामाणमुवलंभादो। एइंदिएसु पुण उव्वेल्लमाणस्सेव विसुज्झमाणस्स वि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तो द्विदिखंडओ होदि । एइंदिएसु विगलिंदिएसु च संखेजगुणहाणी वि सुणिजदि, सा कुदो लब्भदे ? ण, सण्णिपंचिंदिएण आढत्तद्विदिखंडए एइंदियविगलिंदिएसु णियदमाणे तदुवलंभादो। एवमेइंदिए संखेजमागहाणी वि परत्थाणादो साहेयव्वा । तम्हा अंतोमुहुत्तणसत्तरिमादि कादण जाव सव्वजहण्णचरिमुवेल्लणकंडयं ति ताव णिरंतरमसंखेजभागहाणीए वियप्पा लब्भंति त्ति घेत्तव्वं । के द्वारा मिथ्यात्वकी संख्यातगुणहानिके होते हुए मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मसे सम्यक्त्वके स्थितिसत्कर्मको संख्यातगुणे होनेका प्रसंग प्राप्त होता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि उद्वलना संक्रमके द्वारा मिथ्यात्वके ऊपर सम्यक्त्वका निरन्तर संक्रमण होने पर सम्यक्त्वकी स्थितिसे मिथ्यात्वकी स्थितिको संख्यातगुणा हीन मानने में विरोध आता है । अतः मिथ्यात्वके स्थितिकाण्डकके पतन होने पर घात करनेके बाद शेष रही मिथ्यात्वकी स्थितिसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी ऊपरकी स्थितियोंका नियमसे घात है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। ऐसा होने पर सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वका एक निषेकप्रमाण भी स्थितिकाण्डक होता है ऐसा कहने पर आचार्यका कहना है कि रहा आओ इसमें कोई विरोध नहीं है। ६२४७. उद्घ लनाके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिप्रमाण प्राप्त होने पर भी यही क्रम होता है, क्योंकि विकलेन्द्रियोंकी विशुद्धिके द्वारा घातको प्राप्त होनेवाले मिथ्यात्वके स्थितिकाण्डकोंका आयाम पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण पाया जाता है। परन्तु एकेन्द्रियों में उद्घ लना करनेवालेके समान विशुद्धि को प्राप्त होनेवाले जीवके भी पल्योपमके असंख्यासवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डक होता है। शंका-एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियोंमें संख्यातगुणहानि भी सुनी जाती है, वह कैसे प्राप्त होती है ? समाधान नहीं, क्योंकि जिस संज्ञी पंचेन्द्रियने स्थितिकाण्डकका आरम्भ किया उसके एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होने पर एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियोंके संख्यातगुणहानि पाई जाती है। इसी प्रकार एकेन्द्रियमें परस्थानकी अपेक्षा संख्यातभागहानि भी साधना चाहिये। अतः अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरसे लेकर सबसे जघन्य अन्तिम उद्वलनाकाण्डकतक निरन्तर असंख्यातभागहानिके विकल्प प्राप्त होते हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिये। ६ विशेषार्थ-वैसे तो सर्वत्र सम्यक्त्व प्रकृतिकी उत्तरोत्तर हानि ही होती है किन्तु वेदक सम्यक्त्व या उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके उसकी वृद्धि भी देखी जाती है । यहाँ पहले Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ २४८. संपहि संखेभागहाणी वुच्चदे । तं जहा - अंतो मुहुत्तूणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडीणं संखेज्जभागमेते सव्वजहण्णडिदिखंडए हदे संखेज्जभागहाणी होदि । एवं समयुरादिकमेण द्विदिखंडए णिवदमाणे संखेजभागहाणी चेव होदि । एवं दव्वं जाव अंतीमुडुत्तणस तरिस गरोवमकोडाकोडीणं समयुणद्धमेतद्विदीओ एकसराहेण घादिदाओ ति । एवं समयाहियअंतो मुहुत्तूणसत्तरिसागरोवम कोडाको डिडिदि पि णिमिदूण संखेजभागहाणिपरूवणा कायव्वा । एवं हेमिसव्वद्विदीणं समयाविरोहेण णिरूंभणं काढूण संखेज्जभागहाणिपरूवणा कायन्त्रा । दंसणमोहक्खवणाए वि अपुव्वकरणपढमसमय पहुडि जान पलिदोवमट्ठि दिसंतकम्मं चेट्ठदि ताव एत्यंतरे पदमाण द्विदिकंडयाणं चरिमफालीसु णिवदमाणासु सव्वत्थ संखेज्जभागहाणी होदि; एत्थ णिवदमाणद्विदिकंडओ पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागमेत्तो चेवेति नियमादो । $ २४६. संपहि संखेजगुणहाणी वुच्चदे । तं जहा - दंसणमोहक्खवणाए पलिदो १४८ वृद्धिका विचार क्रमप्राप्त है सम्यक्त्वकी स्थिति में चार वृद्धियाँ होती हैं, असंख्यातवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धि । यह नियम है कि जिसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति कमसे कम पृथक्त्व सागरसे एक या दो समय आदि अधिक होती है वह जीव यदि सम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो नियमसे वेदकसम्यक्त्वको ही प्राप्त होता है । साथ ही यह भी नियम है कि ऐसे जीवके मिथ्यात्वकी स्थिति नियमसे अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर होती है । पहले हमें असंख्यात भागवृद्धिका विचार करना है । किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरसे नीचे उपर्युक्त सब स्थितिविकल्पों में असंख्यात भागवृद्धि सम्भव नहीं । हाँ मिध्यात्वकी ध्रुवस्थितिके नीचे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविकल्पों में असंख्यात - भागवृद्धि हो सकती है, क्योंकि यदि कोई जीव मिध्यात्वकी इस स्थिति के साथ वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होता है और उस समय सम्यक्त्वकी स्थिति एक समयसे लेकर पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण कम है तो असंख्यात भागवृद्धि ही होगी । § २४८. अब संख्यातभागहानिका कथन करते हैं। जो इस प्रकार है - अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितियोंके संख्यातवें भागप्रमाण सबसे जघन्य स्थितिकाण्डक घात होने पर संख्यात भागहानि होती है । इसी प्रकार एक समय अधिक आदि क्रमसे स्थितिकाण्डकके घात होने पर संख्यातभागहानि ही होती है। इसी प्रकार अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरकी एक समय कम अर्धप्रमाण स्थितियों का एक साथ घात प्राप्त होनेतक कथन करना चाहिये । इसी प्रकार एक समय अधिक अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिके रहते हुए भी संख्यात भागहानिका कथन करना चाहिये । इसी प्रकार नीचेकी सब स्थितियोंको यथाप्रमाण ग्रहण करके संख्यातभागहानिका कथन करना चाहिये | दर्शनमोहनीय की क्षपणाके समय भी अपूर्वकरण के प्रथम समय से लेकर पल्यप्रमाण स्थितिसत्कर्मके रहने तक इस अन्तराल में पतनको प्राप्त होनेवाले स्थितिकाण्डकोंकी अन्तिम फालियोंका पतन होने पर सर्वत्र संख्यातभागहानि होती है; क्योंकि यहाँ पर जिन स्थितिकाण्डकोंका पतन होता है उनका प्रमाण पल्य के संख्यातवें भागमात्र ही है ऐसा नियम है । ६ २४६. अब संख्यातगुणहानिको कहते हैं । जो इस प्रकार है - दर्शनमोहनीय की क्षपणा में Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ गा०२२] वडिपरूवणाए समुक्कित्तणा वमहिदिसंतकम्मप्पहुडि जाव दूरावकिट्टिहिदिसंतकम्मं चेदि ताव एत्थ अंतरे पदमाणद्विदिखंडयाणं चरिमफालीसु णिवदमाणासु सव्वत्थ संखेजगुणहाणी होदि।संसारावत्थाए विसोहीए द्विदिखंडए घादिजमाणे समयाविरोहेण सव्वत्थ संखेजगुणहागी सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं वत्तव्वा । २५०. संपहि असंखेज्जगुणहाणी वुच्चदे । तं जहा-दसणमोहक्खवणाए दावकिट्टि. हिदिसंतकम्मे चेट्ठिदे तत्तो उवरि जाणि हिदिकंडयाणि पदंति तेसिं सव्वेसि पि चरिमफालोसु णिवदमाणासु असंखेज्जगुणहाणी चेव होदि । कुदो १ साहावियादो । सव्वुक्कस्सचरिमुव्वे. लणचरिमफालीए णिवदिदाए वि असंखेज्जगुणहाणी होदि। पुणो अण्णेगेण जीवेण इमाए सव्वुक्कस्सचरिमुव्वेल्लणफालियाए समयूणाए पादिदाए असंखेज्जगुणहाणी होदि । एवं दुसमयूण-तिसमयणादिकमेण णेदव्वं जाव सबजहण्णुव्वेल्लणचरिमफालिं पादिय असंखेज्जगुणहाणि कादण द्विदो त्ति। एवं कदे समय॒णसव्वजहण्णुव्वेल्लणचरिमफालिं सव्वुक्कस्सउव्वेल्लणचरिमफालियाए सोहिदे सुद्धसेसम्मि पलिदो० असंखे०भागम्मि जत्तिया समया तत्तियमेत्ता असंखेज्जगुणहाणिवियप्पा उम्वेल्लणाए लद्धा होति । ६२५१ संपहि अवढिदस्स परूवणा कीरदे । तं जहा–वेदगपाओग्गअंतोकोडाकोडिसागरोवमट्ठिदिसंतकम्मस्सुवरि समयुत्तरं मिच्छत्तहिदि बंधिदण सम्मत्ते गहिदे अवद्विदं होदि । पुणो पुव्वुत्तद्विदीदो समयुत्तरसम्मत्तहिदिसंतकम्मियसम्मादिहिणा मिच्छत्तं गंतूण पल्यप्रमाण स्थितिसत्कर्मसे लेकर दूरापकृष्टि स्थितिसत्कर्मतक इस अन्तराल में पतनको प्राप्त होनेवाले स्थितिकाण्ड कोंकी अन्तिम फालियोंके पतन होने पर सर्वत्र संख्यातगुणहानि होती है । तथा संसारावस्थामें विशुद्धिके द्वारा स्थितिकाण्डकका घात करने पर यथाअगम सर्वत्र सम्यक्त्व और सम्मग्मिथ्यात्वकी संख्यातगुणहानि कहनी चाहिये । १५०. अब असंख्यातगुणहानिका कथन करते हैं। जो इस प्रकार है-दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें दूरापकृष्टिप्रमाण स्थितिसत्कर्मके शेष रहने पर इसके आगे ऊपर जितने स्थितिकाण्डकोंका पतन होता है उन सबकी अन्तिम फालियोंका पतन होते समय असंख्यातगुणहानि ही होती है। क्योंकि ऐसा स्वभाव है। सबसे उत्कृष्ट अन्तिम उद्वलनाकाण्डककी अन्तिम फालिके पतनके समय भी असंख्यातगुणहानि होती है। पुनः किसी एक अन्य जीवके द्वारा सबसे उत्कृष्ट अन्तिम उर लनाकाण्डककी एक समय कम अन्तिम फालिका पतन करनेपर असंख्यातगुणहानि होती है। इस प्रकार दो समय कम तीन समय कम आदि क्रमसे लेकर सबसे जघन्य उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन होने तक कथन करना चाहिये, क्योंकि इनके पतनमें भी असंख्यातगुणहानि होती है । इस प्रकार करने पर एक समय कम सबसे जघन्य उद्वेलनाकी अन्तिम फालिको सबसे उत्कृष्ट उद्वलनाकी अन्तिम फालिमें से घटाने पर शेष रहे पल्योपमके असंख्यातवें भागमें जितने समय हों उद्वेलनामें असंख्यातगुणहानिके उतने विकल्प प्राप्त होते हैं। ६२५१. अब अवस्थितका कथन करते हैं। जो इस प्रकार है-वेदकसम्यक्त्वके योग्य अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर स्थितिसत्कर्मके ऊपर एक समय अधिक मिथ्यात्वकी स्थितिको बाँधकर सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर अवस्थित होता है। पुनः पूर्वोक्त स्थितिसे सम्यक्त्वकी एक समय अधिक स्थितिसत्कर्मवाले सम्यग्दृष्टिके द्वारा मिथ्यात्वमें जाकर और मिथ्यात्वकी एक समय अधिक Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती मिच्छत्तहिदि समयुत्तरं बंधिय सम्मत्ते गहिदे अवट्ठिदं होदि । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडि त्ति ।। ___* णवरि अणंताणुबंधीणमवत्तव्वं सम्मत्तसम्मामिछत्ताणमसंखेजगुणवड्डी अवत्तव्वं च अस्थि । * २५२. अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइदसम्मादिट्ठिणा मिच्छत्ते गहिदे अवत्तव्वं होदि, पुव्वमविजमाणढिदिसंतसमुप्पत्तीदो । अवत्तव्वसद्देण भण्णमाणस्स कधमवत्तव्वत्तं ? ण, वड्डि हाणि-अवट्ठाणाणमभावेण भुजगार-अप्पदर-अवढिदसद्देहि ण वुच्चदि त्ति अवत्तव्वत्त. भुवगमादो। ६२५३ संपहि सम्मत्तस्स असंखेजगुणवड्डी वुच्चदे। तं जह-सव्वजहण्णढिदिचरिमुव्वेल्लणकंडयसंतकम्मियमिच्छाइटिणा उवसमसम्मत्ते गहिदे असंखेजगुणवड्डी होदि । पुणो एदस्स चरिमुव्वेलणकंडयस्सुवरि समयुत्तरादिकमेण जे द्विदा पलिदोवमस्स असंखेजमागमेत्ता चरिमफालिवियप्पा तेहि सह पढमसम्मत्तं गण्हमाणाणं तत्तिया चेव असंखेजगुणवड्डिवियप्पा । एवमुवरि पि असंखेजगुणवड्डिवियप्पा वत्तव्वा । तत्थ सव्वपच्छिमवियप्पो वुच्चदे। तं जहा-सवजहण्णमिच्छत्तहिदि जहण्णपरित्तासंखेजेण खंडिय तत्थ एगखंडमेत्तसम्मत्तहिदिसंतकम्मिएण मिच्छादि ट्ठिणा सव्वजहण्णमिच्छत्तस्थितिको बाँधकर सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर अवस्थित होता है। इसी प्रकार अन्तमुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर स्थिति तक जानकर कथन करना चाहिये । * किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीका अव्यक्तव्य पद होता है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगणवृद्धि और अव्यक्तव्यस्थितिविभक्ति होती है। ६२५२. जिस सम्यग्दृष्टिने अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना की है उसके मिथ्यात्वके ग्रहण करने पर अवक्तव्यस्थितिविभक्ति होती है, क्योंकि सम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीका स्थितिसत्त्व अविद्यमान था वह अब यहाँ पर उत्पन्न हो गया। शंका-जो अवक्तव्य शब्दके द्वारा कहा जा रहा है वह अवक्तव्य कैसे हो सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि वृद्धि, हानि और अवस्थान न पाये जानेके कारण इसे भुजगार अल्पतर और अवस्थित शब्दोंके द्वारा नहीं कह सकते, अतः इसमें अवक्तव्यभाव स्वीकार किया गया है। ६२५३. अब सम्यक्वकी असंख्यातगुणवृद्धिका कथन करते हैं। जो इस प्रकार है-सबसे जघन्य अन्तिम उद्वलनाकाण्डक स्थितिसत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टिके द्वारा उपशमसम्यक्त्वके ग्रहण करने पर असंख्यातगुणवृद्धि होती है । पुनः इस अन्तिम उद्वलना काण्डकके ऊपर एक समय अधिक आदि क्रमसे पल्योपमके असंख्यात बहुभाग जो अन्तिम फालिके भेद अवस्थित हैं उनके साथ प्रथमोपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करनेवाले जीवोंके उतने ही असंख्यातगुणवृद्धिके भेद होते हैं। इसी प्रकार ऊपर भी असंख्यातगुणवृद्धिके भेद कहना चाहिये। उनमेंसे सबसे अन्तिम भेद कहते हैं । जो इस प्रकार है-मिथ्यात्वकी सबसे जघन्य स्थितिको जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित करके जो एक खण्ड प्राप्त हो उतनी जिसके सम्यक्त्वकी स्थिति है और जिसके मिथ्यात्वकी सबसे जघन्य स्थिति Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ गा० २२] वडिपरूवणाए समुक्त्तिणा ट्ठिदिसंतकम्मिएण पढमसम्मत्ते गहिदे एत्थतणचरिमअसंखेजगुणवड्डी होदि । एवमुवसमसम्मत्तपाओग्गमिच्छत्तद्विदीणं पादेकं णिरुंभणं कादूण परूविदे असंखेजगुणवड्डिवियप्पा लद्धा होति । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तणिस्संतकम्मिएण सादियमिच्छाइट्ठिणा अणादियमिच्छाइट्टिणा वा पढमससम्मत्ते गहिदे अवतव्वं होदि। कुदो, पुव्वमविजमाणहिदि. संतुष्पत्तीदो। $ २५४. एवं चुण्णिसुत्तमस्सिदूण समुक्त्तिणपरूवणं करिय संपहि उच्चारणमस्सिदुण भणिस्सामो । वड्डिविहत्तीए तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि-समुक्कित्तणादि जाव अप्पाबहुए त्ति । समुक्त्तिणाए पयदं । दुविहो णिदेसो-ओधे० आदेसे० । ओघेण मिच्छत्तबारसक०-णवणोकसायाणं अत्थि तिण्णिवडि-चत्तारिहाणि-अवडिदाणि । एवमणंताणु०चउक्क० । णवरि अवत्तव्वं पि अस्थि । सम्मत्त-सम्मामि० चत्तारिखड्डि-चत्तारि हाणि अवद्विद-अवत्तव्याणि अस्थि । एवं मणुसतिय-पंचिंदिय-पंचि०पज० तस-तसपज०. पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-तिण्णिवेद-चत्तारिक०-चक्खु०-अचक्खु०. भवसि०-सण्णि-आहारि त्ति । ६२५४. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त-बारसक० णवणो० अत्थि तिण्णिवड्डी तिण्णिहाणि अवट्ठाणं च । असंखे गुणहाणी णस्थि; दंसणचरित्तमोहाणं खवणाभावादो। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमत्थि चत्तारि वड्डी चत्तारि हाणी अवढि अवत्तब्वं च । अणं सत्तामें है ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवके प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर इस स्थान सम्बन्धी अन्तिम असंख्यातगुणवृद्धि होती है। इसी प्रकार उपशमसम्यक्त्वके योग्य मिथ्यात्वकी स्थितियोंको अलग अलग ग्रहण करके प्ररूपण करने पर असंख्यातगुणवृद्धिके भेद प्राप्त होते हैं। जिसने सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्वस्थितिसत्कर्मको निःसत्त्व कर दिया है ऐसे सादि मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा या अनादि मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर अवक्तव्य भंग होता है। क्योंकि पहले इनकी सत्ता नहीं थी किन्तु अब हो गई है। ६२५४. इस प्रकार चूर्णिसूत्रके आश्रयसे समुत्कीर्तनाका कथन करके अब उच्चारणाके आश्रयसे समुत्कीर्तनाका कथन करते हैं-वृद्धिविभक्तिमें समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक तेरह अनुयोगद्वार होते हैं। उनमेंसे समुत्कीर्तनाका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी तीन वृद्धियाँ चार हानियाँ और अवस्थानपद होते हैं। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसका प्रवक्तव्य भंग भी होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धियाँ, चार हानियाँ अवस्थान और अवक्तव्य होते हैं । इसी प्रकार मनुष्यत्रिक पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, तीनों वेदवाले, चारों कषायवाले, चक्षुदशनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। ६२५४. आदेशानर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी तीन वृद्धियाँ, तीन हानियाँ और अवस्थान हैं। असंख्यातगुणहानि नहीं है क्योंकि वहाँ दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपणा नहीं होती। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धियाँ, चार Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती३ ताणु०चरकः अस्थि तिण्णिवड्डी चत्तारिहाणी अवट्ठि० अवत्तव्वं च । एवं सव्वणेरइय-तिरिक्ख०-पंचिंदियतिरिक्ख०-पंचिंतिरि०पज्ज०-पंचिं०तिरि०जोणिणि-देव.. भवणादि जाव सहस्सार०-वेउन्वि०कायजोगि-तिण्णिलेस्सिया ति। पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज. छव्वीसपयडीणमस्थि तिण्णिवड्डी तिण्णिहाणी अवडाणं च । सम्म०सम्मामि० अत्थि चत्तारिहाणी । एवं मणुसअपज्ज०-पंचिं०अपज्ज-तसअपज्जत्ते त्ति । ६ २५५. आणदादि जाव उवरिमगेवज्जे त्ति मिच्छत्त०-बारसक० णवणोक० अस्थि असंखेज्जभागहाणीसंखेज्जभागहाणी। सम्मत्त०-सम्मामि० अत्थि चत्तारिवड्डी चत्तारिहाणी अवत्तव्वं च। अवट्ठाणं णत्थि, सम्मत्तहिदीदो समयुत्तरमिच्छत्तहिदिसंतकम्मेण सम्मत्तग्गहणाभावादो । अणंताणु०चउक्क० अत्थि चत्तारिहाणो अवत्तव्वं च । अणुद्दिसादि जाव सबट्टसिद्धि त्ति मिच्छत्त सम्मामि०-बारसकसा०-णवणोक० अस्थि असंखेजभाग हानियाँ, अवस्थान और अवक्तव्य हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी तीन वृद्धियाँ, चार हानियाँ, अवस्थान और अवक्तव्य हैं। इसी प्रकार सब नारकी, तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमती, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, वैक्रियककाययोगी, और तीन लेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिए। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों में छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धियाँ, तीन हानियाँ और अवस्थान हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्य. ग्मिथ्यात्वकी चार हानियाँ हैं । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। - विशेषार्थ-ओघसे मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोंकी जितनी वृद्धियाँ, हानियाँ व अवस्थान आदि बतलाये हैं वे सब सामान्य मनुष्य आदि मूलमें कही गई मार्गणाओंमें सम्भव हैं, अत: उनके कथनको ओघके समान कहा है, क्योंकि उक्त मार्गणाओंमें दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपणा सम्भव है। किन्तु सामान्य नारकी आदि कुछ ऐसी मागणाएँ हैं जिनमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी उदलना पाई जानेसे इन छह प्रकृतियोंका कथन ओघके समान बन जाता है किन्तु शेष बाईस प्रकृतियोंकी एक असंख्यातगुणहानि नहीं पाई जाती, क्योंकि उक्त मार्गणाओंमें दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपणा नहीं होती। पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तक आदि कुछ ऐसी मार्गणाएँ हैं जिनमें सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती; अतः इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी एक भी वृद्धि और अवस्थान नहीं होता किन्तु उद्वलनाकी प्रधानतासे चारों हानियाँ बन जाती हैं। तथा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना और दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीयकी क्षपणा नहीं होती इसलिये यहाँ शेष २६ प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानि भी नहीं होती। किन्तु शेष हानि, वृद्धि और अवस्थान बन जाते हैं। ६२२५. आनतकल्पसे लेकर उपरिम अवेयकतकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानि और संख्यातभागहानि है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धियाँ, चार हानियाँ और अवक्तव्य हैं। अवस्थान नहीं है, क्योंकि यहाँ पर सम्यक्त्वकी स्थितिसे एक समय अधिक मिथ्यात्वकी स्थिति सत्कर्मवाला जीव सम्यक्त्वको ग्रहण नहीं करता है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी चार हानियाँ और अवक्तव्य हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानि Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वहिपरूवणाए समुक्त्तिणा १५३ हाणी संखेन्जमागहाणी । सम्मत्त० अत्थि असंखेजमागहाणी संखेजभागहाणी संखेन्जगुणहाणी च । अणंताणु०चउक्क० अस्थि चत्तारि हाणी। - ६२५६. इंदियाणुवादेण एइंदिय-बादरसुहमपञ्जत्तापजत्ताणं मिच्छत्त-सोलसक.. णवणोक० अस्थि असंखेजभागवड्डी। सेसबड्डीओ णत्थि । कुदो ? आवलियाए असंखेजदिभागमेतआवाहट्ठाणपमाणण्णहाणुववत्तीदो। असंखेजभागहाणी संखेजभागहाणी संखेजगुणहाणि त्ति अत्थि तिणि हाणीओ। संखेजभागहाणि-संखेजगुणहाणीणं कथं संभवो ? ण एस दोसो; संखेज्जभागहाणि-संखेजगुणहाणीओ कुणमाणसण्णिपंचिंदिएसु असमत्तहिदिकंडयउकीरणद्धेसु एइंदिएसु पविट्ठसु तासि दोण्हं हाणीणं तत्थुवलंभादो । और संख्यातभागहानि हैं। सम्यक्त्वकी असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि है । तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी चार हानियाँ हैं । विशेषार्थ-आनतादिकमें स्थितिसत्त्वसे हीन स्थितिका ही बन्ध होता है इसलिये यहाँ मिथ्यात्व आदि २२ प्रकृतियोंकी वृद्धि तो सम्भव ही नहीं हाँ हानि अवश्य होती है फिर भी यहाँ मिथ्यात्व आदिकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरसे अधिक नहीं होती, इसलिये उक्त २२ प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि और संख्यातभागहानि ये ही दो हानियाँ सम्भव हैं। इनमें से असंख्यातभागहानि तो अधःस्थितिगलनाकी अपेक्षा प्राप्त होती है और संख्यातभागहानि क्वचित् स्थितिकाण्डकघातकी अपेक्षा प्राप्त होती है। अब रहीं छह प्रकृतियाँ। सो यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वलना, सम्यक्त्वकी प्राप्ति और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना ये सब कुछ सम्भव हैं अतः यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चारों वृद्धियाँ, चारों हानियाँ, अवक्तव्य तथा अनन्तानुबन्धीकी चारों हानियाँ और अवक्तव्य बन जाते हैं। किन्तु अवस्थान किसीका नहीं बनता, क्योंकि जो बँधनेवाली २६ प्रकृतियाँ हैं उनका बन्ध तो स्थितिसत्त्वसे उत्तरोत्तर कम ही होता है, अतः इनका अवस्थान नहीं बनता और जो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियाँ हैं सो इनका अवस्थान तब बने जब सम्यक्त्व या सम्यग्यिथ्यात्वकी स्थितिसे मिथ्यात्वकी एक समय अधिक स्थितिवाला जीव सम्यक्त्वको ग्रहण करे पर यहाँ ऐसा सम्भव नहीं। परन्तु यतिवृषभाचार्य के मतसे अवस्थान सम्भव है। आनतादिकमें मिथ्यात्व आदि २२ प्रकृतियोंकी दो हानियोंका जिस प्रकार कथन किया उसी प्रकार अनुदिशादिकमें भी करना चाहिये। किन्तु यहाँ सब जीव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं अतः सम्यग्मिथ्यात्वकी भी यहाँ हानियाँ ही प्राप्त होती हैं जो मिथ्यात्वके समान जानना चाहिये। अब रहीं शेष पाँच प्रकृतियाँ सो यहाँ कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि भी उत्पन्न होते हैं और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना भी होती है, अतः सम्यक्त्वकी असंख्यातगुणहानिके सिवा शेष तीन हानियाँ और अनन्तानुबन्धीकी चारों हानियाँ बन जाती हैं। ६२५६. इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रिय तथा उनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि है। शेष वृद्धियाँ नहीं हैं, क्योंकि आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण आवाधास्थानका प्रमाण अन्यथा बन नहीं सकता है । हानियोंमें असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि ये तीन हानियाँ हैं। शंका-यहाँ संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि कैसे सम्भव है ? समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जो संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिको कर रहे हैं तथा जिन्होंने स्थितिकाण्डकघातके उत्कीरणकालको समाप्त नहीं किया है ऐसे पंचेन्द्रियों के २० Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ जेण ततिओ द्विदिकंडओ अणुभागक्खंडओ वा पादेदुमाढतो तेण एइंदिएस वि गदस्स तस्स णिच्छण पदेदव्वमिदि कुदोवगम्मदे ? परमगुरूवएसादो । एइंदिएस पुण डिदि - कंदयायामो पलिदो० असंखेज्जभागमे तो चेव । एदं कुदो णव्वदे ? एइंदियाणं पलिदो० असंखेजभागमे तवीचारड्डाणपरूवणादो । सष्णिपंचिंदियपच्छायदएइंदिओ छब्वीसहं कम्माणमंतोमुडुत्तणसण्णिसंबंधि उकस्स डि दिसंत कम्मिओ संखेज्जभागहाणि-संखेजगुणहाणीओ कण करेदि १ ण, एइंदिएसु संखेजभागहाणि संखेज गुणहाणीणं कारणभूदविसो भावाद । तं कुदो णव्वदे ? तत्थ संखेज भागवड्डि-संखेजगुणवड्डीणं कारण भूदसंकिलेसाणमभावादो | संकिलेसाभावो विसोहीए अमावस्स कथं गमओ ! ण, सव्वत्थ पडिओगीसु एकस्साभावे अवरस्स वि अभावुवलंभादो डिदिहदसमुप्पत्तियकालस्स पलिदो ० असंखेज्जभागपमाणत्तण्णहाणुववत्तीदो वा संखेज्जभागहाणि संखेज्जगुणहाणीणं तथाभावो मदे | तीहि वि पयारेहि ट्ठिदिखंडए घादिदे एसो कालो लब्भदि त्ति एकेन्द्रियों में उत्पन्न होने पर वहाँ ये दोनों हानियाँ बन जाती हैं । शंका- जिसने उतने स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डका पतन करनेके लिये आरम्भ किया है उस जीव एकेन्द्रियों में भी चले जाने पर उस स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकका पतन होना ही चाहिये यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान - परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है । परन्तु एकेन्द्रियोंमें स्वस्थानकी अपेक्षा स्थितिकाण्डकका आयाम केवल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान — क्योंकि एकेन्द्रियोंके वीचारस्थान पल्यके असंख्यातवें भागमात्र कहे हैं, इससे जाना जाता है कि एकेन्द्रियों में स्थितिकाण्डकका आयाम पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण है । शंका- — जो संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यायसे आकर एकेन्द्रिय हुआ है और जिसके छब्बीस कर्मो का अन्तर्मुहूर्तकम संज्ञीसम्बन्धी उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म है वह संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिको क्यों नहीं करता है ? - समाधान — नहीं, क्योंकि एकेन्द्रियोंमें संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिकी कारणभूत विशुद्धियों का अभाव है । शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? - समाधान — क्योंकि वहाँ पर संख्यात भागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि के कारणभूत संक्लेशका अभाव है । शंका-संक्लेशका अभाव विशुद्धि के अभावका गमक कैसे हो सकता है ? समाधान — नहीं, क्योंकि सर्वत्र प्रतियोगियोंमें एकका अभाव होने पर दूसरेका भी अभाव पाया जाता है। अथवा स्थितिहतसमुत्पत्तिक काल पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण अन्यथा बन नहीं सकता है, इससे जाना जाता है कि एकेन्द्रियों में संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानिका अभाव है । तीनों ही प्रकारों से स्थितिकाण्डकका घात करने पर यह काल प्राप्त होता है ऐसी आशंका नहीं कर नी १ ता• प्रतौ तं कुदो णन्त्रदे संकिलेसाभावो इति पाठः । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] पिरूवणाए समुत्तिणा संकणिज्जं एगभवदीए असंखेज्जभागहाणिकंडयवारेहिंतो संखेज्जभागहाणि-संखेज्जगुणहाणिकंड वाराणं संखेज्जदिभागत्तादो । एदं कुदो णव्वदे १ एगभवट्ठिदीए सव्वत्थोवा संखेज्जगुणहाणिकंडयवारा, संखेज्जभागहाणिकंडयवारा संखेज्जगुणा, असंखेज्जभागहाणिकंडवारा संखेज्जगुणा ति अप्पाबद्दुआदो णव्वदे । एदमप्पा बहुअम सिद्धमिदि ण वत्तव्वं; उवरि भण्णमाणजीव अप्पाच हुएण सिद्धत्तादो । ९ २५७, पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागमेत्तेगट्ठि दिकंडयस्स जदि संखेज्जावलियमेत्तो किंड उकीरणकालो लब्भदि तो संखेज्जपलिदोवमाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओट्टिदाए संखेज्जावलियमेत्तो द्विदिहदसमुप्पत्तियकालो होदि । ण च एत्तिओ कालो इच्छिज्जदि पदरावलियाए उवरिमसंखाए पलिदोवमादो हेट्टिमाए तप्पाओग्गाए' पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागत्तन्भुवगमादो | असंखेज्जभागहाणिकंडओ ण पहाणो, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण कालेण असंखेज्जभागकंडएण जा हिदी हम्मदि तिस्से संखेज्जभागहाणिकंडएण एगसमए घादुवलंभादो । तम्हा एइंदिओ असंखेज्जभागहाणि चैव कुणदि त्ति घेत्तव्वं । एदमत्थपदं सव्वएइंदिएसु वत्तव्वं । 1 I $ २५८. एदेसिं पयडीणमवड्डाणं पि अस्थि, एइंदिएस समट्ठिदिबंधसंभवादो | सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमत्थि चत्तारि हाणीओ । संखेज्जभागहाणि संखेज्जगुणहाणीणं चाहिये, क्योंकि एक भवस्थिति में असंख्यात भागहानिके जितने काण्डकबार होते हैं उनसे संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि काण्डकों के बार संख्यातवें भागप्रमाण हैं । शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान — एक भवस्थिति में संख्यातगुणहानि काण्डकबार सबसे थोड़े हैं । इनसे संख्यातभागहानिकाण्डकबार संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यात भागहानिकाण्डकबार संख्यातगुणे हैं, इस अल्पबहुत्व से जाना जाता है । यह अल्पबहुत्व असिद्ध है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आगे कहे जानेवाले जीव अल्पबहुत्वसे यह सिद्ध है । ६ २५७. पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण एक स्थितिकाण्डकका यदि संख्यात आवलिप्रमाण स्थितिकाण्डक - उत्कीरणाकाल प्राप्त होता है तो संख्यात पल्योंका कितना उत्कीरणाकाल प्राप्त होगा इस प्रकार त्रैराशिक द्वारा फलराशिसे इच्छाराशिको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें प्रमाणराशिका भाग देने पर संख्यातावलिप्रमाण स्थितिहतसमुत्पत्तिक काल प्राप्त होता है । परन्तु प्रकृत में इतना काल इष्ट नहीं है, क्योंकि यहाँ प्रतरावलिसे ऊपर की संख्या और पल्यके नीचेकी तत्प्रायोग्य संख्याको पल्यका असंख्यातवाँ भाग स्वीकार किया है। यदि कहा जाय कि यहाँ असंख्यात भागहानिकाण्डक प्रधान नहीं है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा असंख्यातभागकाण्डकरूपसे जो स्थिति घाती जाती है उसका संख्यातभागहानिकाण्डकके द्वारा एक समय में घात पाया जाता है। इसलिये एकेन्द्रिय असंख्यात भागहानिको ही करता है ऐसा ग्रहण करना चाहिये | यह अर्थपद सब एकेन्द्रियोंमें कहना चाहिये । १५५ २५८. एकेन्द्रियों में इन उपर्युक्त प्रकृतियोंका अवस्थान भी है, क्योंकि एकेन्द्रियों में समान स्थितिका बन्ध सम्भव है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियाँ हैं । यहाँ संख्यात भाग १. तः प्रतौ पलिदोषमाणाणं इति पाठः । २ ता० प्रतौ तप्पा ओग्गादो इति पाठः । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती पुव्वं व अत्थपरूवणा कायवा। णवरि उव्वेल्लणाए वि उदयावलियाए उक्स्ससंखेज्जमेत्तणिसेगेसु सेसेसु संखेज्जभागहाणी लब्भदि । तिसमयकालदोणिसेगेसु सेसेतु संखेज्जभागहाणी होदूण पुणो संखेज्जगुणहाणी होदि; से काले दुसमयकालेगणिसेगुवलंभादो । एवं सव्वपंचकायाणं । $२५९. सव्वविगलिंदिएसु मिच्छत्त-सोलसक० णवणोक० अत्थि असंखेज्जभागवड्डी संखेज्जभागवड्डी च; पलिदो० संखेज्जभागमेत्तवीचारहाणाणं तत्थुवलंभादो। एइंदियाणं विगलिंदिएसुप्पण्णाणं पढमसमए संखेज्जगुणवड्डी किण्ण लब्भदि ? ण, वियलिंदियट्ठिदिं पेक्खिद्ण वियलिंदियहिदिवड्डीए संखज्जगुणत्ताणुवलंभादो। परत्थाणविवक्खाए णोकसायाणमेत्थ संखज्जगुणवड्डीए' वि लब्भदि सा एत्थ ण विवक्खिया ।। २६०. असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी संखज्जगुणहाणि ति अस्थि तिण्णि हाणीओ। सत्थाणे दो चेव हाणीओ होति । संखज्जगुणहाणी पुण सण्णिपंचिदिएसु पारद्धहिदिकंडयउकीरणद्धाए अभंतरे चेव विगलिदिएसुप्पण्णेसु लब्भदि । एदेसि कम्माणमवट्ठाणं पि अत्थि। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमेइंदियभंगो। एवमसण्णीणं। णवरि संखेज्जगुणवड्डी वि अत्थि; एइंदियाणं विगलिदिएसुप्पण्णाणं तदुवलंभादो । हानि और संख्यातगुणहानिकी अर्थप्ररूपणा पहलेक समान करनी चाहिये । किन्तु इतना विशेषता है कि उद्वलनाके समय भी उदयावलिमें उत्कृष्ट संख्यात निषेकोंके शेष रहने पर संख्यातभागहानि प्राप्त होती है। तथा तीन समय काल स्थितिवाले दो निषेकोंके शेष रहने तक संख्यातभागहानि होकर पुनः संख्यातगुणहानि होती है। क्योंकि तदनन्तर समयमें दो समय कालप्रमाण स्थितिवाला एक निषेक पाया जाता है । इस प्रकार सब पाँचों स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिए। ६२५६. सव विकलेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागवृद्धि है; क्योंकि वहाँ पर पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण वीचारस्थान पाये जाते हैं। शंका जो एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें संख्यातगुणवृद्धि क्यों नहीं पाई जाती है ? समाधान नहीं, क्योंकि विकलेन्द्रियोंकी स्थितिको देखते हुए एकेन्द्रियोंसे विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होने पर विकलेन्द्रियोंकी स्थितिमें जो वृद्धि होती है उसमें संख्यातगुणापना नहीं पाया जाता है। परस्थानकी विवक्षासे नोकषायोंकी यहाँ पर संख्यातगुणवृद्धि भी प्राप्त होती है पर उसकी यहाँ विवक्षा नहीं है। २६०. हानियोंमें असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि ये तीन हानियाँ होती हैं। परन्तु स्वस्थानमें दो ही हानियाँ होती हैं। संख्यातगुणहानि तो, जो संज्ञी पंचेन्दिय प्रारम्भ किये गये स्थितिकाण्डक उत्कीरणाकालके भीतर ही विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुए हैं उनके ही, पाई जाती है। इन उपयुक्त कौंका अवस्थान भी है। तथा सम्यक्त्व और सभ्यग्मिथ्यात्वका भंग एकेन्द्रियों के समान है। इसी प्रकार असंज्ञियोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके संख्यातगुणवृद्धि भी है; क्योंकि जो एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके वह पाई जाती है। १ ता. प्रतौ संखेज्जे वड़ी [ए] इति पाठः । २ ता०प्रतौ गुणवट्ठी अस्थि इति पाठः : Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] faणा समुत्तिणा १५७ $ २६१. ओरालियमस्सकायजोगीणं पंचिंदियति रिक्ख अपज्जत्तभंगो । एवं वेउव्वियमिस्स ० - कम्मइय० - अणाहारि ति । सण्णीसु विग्गहगदीप उप्पण्णवियलिंदियाणं व सणी विग्गहगदी उप्पण्णसण्णीणं पि विदियविग्गहे संखेज्जगुणवड्डी णत्थि त्तिण वत्तन्वं कम्मइय-जोगे महाबंध म्मि पठिदसंखेज्जगुणवड्डीए विसयाभावेण अभावाबत्तीदो विशेषाथ - एकेन्द्रियों में जघन्य स्थितिबन्ध से उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्यके श्रसंख्यातवें भागसे अधिक नहीं होता, इसलिये इनमें मिध्यात्व आदि २६ प्रकृतियोंकी एक असंख्यात भागवृद्धि ही होती है । यही कारण है कि यहाँ अन्य वृद्धियों का निषेध किया । किन्तु हानियाँ तीन होती हैं । यहाँ असंख्यात - भागहानिका पाया जाना तो सम्भव है पर संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका पाया जाना कैसे सम्भव है ? इसका वीरसेन स्वामीने यह समाधान किया है कि जो संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव उक्त प्रकृतियोंकी संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि कर रहे हैं वे स्थितिकाण्डकके उत्कीरण काल के भीतर मरकर यदि एकेन्द्रियों में उत्पन्न हो जाँय तब भी उनकी उस स्थितिकाण्डकके घात होने तक वह क्रिया चालू रहती है, अतः एकेन्द्रियोंमें भी उक्त प्रकृतियोंकी संख्यातभागहानि और संख्याबन जाती है । किन्तु स्वयं एकेन्द्रिय जीव संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका प्रारम्भ नहीं करते, क्योंकि उनके इनके योग्य विशुद्धि नहीं पाई जाती। चूँकि इनके संख्यात भाग वृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि के कारणभूत संक्लेश परिणाम नहीं पाये जाते हैं इसलिये मालूम होता है कि इनके संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानिके कारणभूत विशुद्धिरूप परिणाम भी नहीं पाये जाते हैं । दूसरे इनके स्थितिहतसमुत्पत्तिक काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण बतलाया है इससे भी मालूम होता है कि इनके संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानि नहीं होती । अन्य इन्द्रियवाले जीवों की स्थितिका घात करके एकेन्द्रियके योग्य स्थितिके उत्पन्न करनेमें जितना काल लगता है वह एकेन्द्रियका स्थितिहतसमुत्पत्तिक काल कहा जाता है । कदाचित् यह कहा जाय कि असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानि इन तीनों प्रकारोंसे स्थिति हतसमुत्पत्तिक काल उक्त प्रमाण प्राप्त हो जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि एक भवस्थिति में जितने असंख्यात भागहानि काण्डकबार होते हैं उसमें संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानि काण्डकबार उनके संख्यातवें भागप्रमाण होते हैं । फल यह होता है कि यदि संख्यात भागहानिके द्वारा संख्यात पल्य प्रमाण स्थितिका घात किया जाता है तो उसमें कुल संख्यात आवलिप्रमाण काल लगता है अब कि यह काल पल्यके असंख्यातवें भागरूपसे विवक्षित नहीं है । किन्तु पल्यका असंख्यातवाँ भाग काल प्रतरावलि से ऊपरका काल कहलाता है अतः सिद्ध हुआ कि एकेन्द्रिय जीव स्वयं संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका प्रारम्भ नहीं करते हैं । एकेन्द्रियोंके उक्त प्रकृतियोंका अवस्थान भी होता है, क्योंकि पूर्व समय के स्थितिसत्त्वके समान इनके दूसरे समय में स्थितिबन्ध देखा जाता है । अब रहीं सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियाँ, सो इनकी यहाँ चारों हानियाँ पाई जाती हैं । इनके कारणका खुलासा मूल में किया ही है । पाँचों स्थावरकायिक जीवोंके भी इसी प्रकार समझना चाहिये | विकलेन्द्रिय और असंज्ञीके किस कर्मकी कितनी हानि और वृद्धि होती हैं इसका खुलासा भी मूलसे हो जाता है, अतः यहाँ उसका निर्देश नहीं किया है । २६१. दारिक मिश्रकाययोगियों के पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों के समान भंग है । इसी प्रकार वैक्रियिक/मश्रकाययोगी, कार्मणका ययोगी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। जिस प्रकार विकलेन्द्रियके विग्रहगति से संज्ञियों में उत्पन्न होने पर संख्यातगुणवृद्धि सम्भव है उस प्रकार जो संज्ञी विग्रहगति से सज्ञियों में उत्पन्न हुए हैं उनके दूसरे विग्रह में संख्यातगुणवृद्धि नहीं होती है ऐसा नहीं Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ farrenate जो बंधो सो ट्टिदिसंतादो हेट्ठा चेवे त्ति णासंकणिज्जं, बद्धणिरयाउआणं पच्छा तिव्वविसोही हिदिघादं काढूण अपज्जत्तट्ठिदिबंधादो संखेज्जगुणहाणी कयट्ठिदीणं णिरएसुध्वज्जिय विदियविग्गहे अपज्जत्तजोगुक्कस्सकसायं गयाणमुक्कस्सट्ठिदिबंधस्स जहणविदितादो संखेज्जगुणत्तं पडि विरोहाभावादो । आहार-आहारमिस्स० मिच्छत्तसम्मत-सम्मा मि० सोलसक० णवणोक० अत्थि असंखेज्जभागहाणी | जहाक्खाद० - सासण० दिट्ठि त्ति । एवमकसा० ९ २६२. अवगद्० मिच्छत्त० सम्मत्त सम्मामिच्छत्त० अस्थि असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी च । एवमट्टकसायाणं इत्थि - णवुंसयवेदाणं च । अंतरकरणे कदे उवसमसेढिम्म मोहणीयस्स ट्ठिदिघादो णत्थि । एत्थ एत्थुच्चारणाए पुण अस्थि' त्ति भणिदं तं जाणिय वत्तव्वं । सत्तणोकसाय-चदुसंजलणाणमत्थि असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी च । कहना चाहिये, क्योंकि ऐसा मानने पर महाबन्धमें जो कार्मण काययोगमें संख्यातगुणवृद्धि कही है उसका फिर कोई विषय न रहनेसे प्रभाव हो जायगा । यदि कहा जाय कि विग्रहगति में जो बन्ध होता है वह स्थितिसत्त्वसे नीचे ही होता है सो ऐसी आशंका भी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि जिन्होंने पहले नरकायुका बन्ध किया है और पीछेसे जिन्होंने तीव्र विशुद्धिके कारण स्थितिघात करके अपनी कर्मस्थितिको अपर्याप्तकोंके स्थितिबन्ध से संख्यातगुणा हीन कर दिया है और जो नरकमें उत्पन्न होकर दूसरे विग्रहमें अपर्याप्त योगके रहते हुए उत्कृष्ट कषायको प्राप्त हो गये हैं उनके उस समय उत्कृष्ट स्थितिबन्ध जघन्य स्थितिसत्त्व से संख्यातगुणा होता है इसमें कोई विरोध नहीं है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाय योगी जीवोंमें मिथ्यात्व सम्यक्त्व, सम्यग्मि ध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यात भागहानि है । इसी प्रकार अकषायी, यथाख्यातसंयत और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों के जानना चहिए । § २६२. अवगतवेदियों में मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानि और संख्यातभागहानि है । इसी प्रकार आठ कषाय, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जानना चाहिए । अन्तरकरण करने पर उपशमश्रेणी में मोहनीयका स्थितिघात नहीं होता । परन्तु यहाँ इस उच्चारणा में तो है ऐसा कहा है सो उसका समझ कर कथन करना चहिए। सात नोकषाय और चार संज्वलनोंकी असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानि है विशेषार्थ — ऐसा नियम है कि दर्शनमोहनीयका उपशम हो जाने पर भी अपवर्तन और संक्रमण होता रहता है अतः अपगतवेदी जीवके तीन दर्शनमोहनीयकी स्थितिकी असंख्यात भागहानि और संख्या भागहानि बन जाती हैं। मध्यकी आठ कषायोंकी तो क्षरकश्रेणिके सवेदभाग में ही क्षपणा हो जाती है किन्तु उपशमश्रेणिमें इनकी अवेदभाग में उपशमना होती है इसलिये अपगतवेदी इनकी स्थितिकी भी असंख्यात भागहानि और संख्यात भागहानि ये दो हानियाँ बन जानी चाहिये | किन्तु इस विषय में दो मत हैं । चूर्णिसूत्रकारका तो यह मत है कि उपशमश्रेणिमें अन्तरकरण हो जाने पर मोहनीयका स्थितिकाण्डकघात नहीं होता। वीरसेन स्वामीने इसका यह कारण बतलाया है कि यदि उपशमश्रेणिमें अन्तरकरणके बाद मोहनीयका स्थितिकाण्डकघात मान लिया जाय तो उपशमनाके क्रमानुसार नपुंसकवेदसे स्त्रीवेद आदिकी उत्तरोत्तर संख्यातगुणी हीन स्थिति १ ता० प्रतौ एत्थुच्चारणाए अस्थि इति पाठः । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०२२] वडिपरूवणाए समुक्कित्तणा ६२६३. मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणि-विभंगणाणीसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० अस्थि तिमिवड्डी तिण्णिहाणी अवट्ठाणं च । अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्वं गत्थि, पुव्विल्लसमए अण्णाणाभावादो। सम्मत्त-सम्मामि० अस्थि चत्तारि हाणीओ। एवं मिच्छाइट्ठी। ६२६४. आमिणि-सुद०-ओहि० मिच्छत्त०-सोलसक०-णवणोक० असंखेज्ज. भागहाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी असंखेज्जगुणहाणि त्ति अस्थि चत्तारि हाणीओ। सम्मत्त०-सम्मामि० अस्थि चत्तारि हाणीओ । चत्तारिवड्डि-अवत्तव्बावट्ठाणाणि णस्थि: पुचिल्लसमए तिण्हं णाणाणमभावादो। एवं मणपज्ज०.संजद ०-सामाइयछेदो०-ओहिदंस० सुकलेठ-सम्मादिहि त्ति । णवरि सुक्कले० सम्म०-सम्मामि० चत्तारिवड्डि-अवट्ठा०-अवत्तव्व० अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्वं च अस्थि । ___६२६५. परिहार० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणताणुबंधिचउक्काणं अस्थि हो जायगी जो इष्ट नहीं है, क्योंकि उपशम हो जाने पर सबकी समान स्थिति होती है ऐसा नियम है। अतः चूर्णिसूत्रकारके मतानुसार अपगतवेदीके आठ कषायोंकी संख्यातभागहानि न होकर एक असंख्यातभागहानि ही प्राप्त होती है। किन्तु यहाँ इनकी दो हानियाँ बतलाई हैं इससे मालूम होता है कि उच्चारणाचार्य अन्तकरणके बाद भी मोहनीयका स्थितिकाण्डकघात मानते हैं। नपुंसकवेद और स्त्रीवेदके विषयमें भी इसी प्रकार समझना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है इन दोनोंकी उक्त दो हानियाँ क्षपक अपगतवेदीके भी बन जाती हैं। यहाँ अनन्तानुबन्धी तो है ही नहीं अतः उसका तो विचार ही नहीं है। अब शेष रहीं सात नोकषाय और चार संज्वलन ये ग्यारह प्रकृतियाँ सो इनमें असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि ये तीन हानियाँ बन जाती हैं । यह कथन क्षपकश्रेणिकी मुख्यतासे किया है । उच्चारणाचार्यके मतसे उपशमश्रेणिमें अपगतवेदीके इनकी असंख्यातभागहानि और संख्यातभागहानि ये दो हानियाँ ही प्राप्त होती हैं। किन्तु चूर्णिसूत्रकारके मतसे एक असंख्यातभागहानि ही प्राप्त होती है। ६२६३. मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और विभंगज्ञानियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी तीन वृद्धियाँ, तीन हानियाँ और अवस्थान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्यभंग नहीं है, क्योंकि पूर्व समयमें अज्ञानका अभाव है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियाँ हैं । इसी प्रकार मिथ्यादृष्टियोंके जानना चाहिए। ६२६४. श्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्रतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि ये चार हानियाँ हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियाँ है। चार वृद्धियाँ, अवक्तव्य और अवस्थान नहीं हैं, क्योंकि पूर्व समयमें तीन ज्ञानोंका अभाव है। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धियाँ, अवस्थान और अवक्तव्य तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अवक्तव्य हैं। $ २६५. परिहारविशुद्धिसंयतोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ चत्तारि हाणी । बारसक०-णवणोक० अत्थि असंखेज्जमागहाणी संखेज्जभागहाणी च । एवं संजदासंजद० । असंजद० मिच्छत्त० अत्थि तिण्णि वड्डी चत्तारि हाणीओ अवट्ठाणं च । सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० मूलोघं। बारसक०-णवणोक० अत्थि तिणि वड्डी तिण्णि हाणी अवठ्ठाणं च । एवं तेउ०-पम्म० । सुहुमसंप० मिच्छत्तसम्मत्त-सम्मामि० अत्थि असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभाणी । बारसक०-णवणोक० अस्थि असंखेज्जभागहाणी । णवरि लोभसंजल० संखज्जभागहाणी संखगुणहाणी च अस्थि । २६६. अभवि० छव्वीसं पयडीणमत्थि तिणि वड्डी तिणि हाणी अवट्ठाणं च । वेदगसम्माइट्टी० आमिणियोहियभंगो । णवरि बारसक० णवणोक० असंखेज्जगुणहाणी णथि । खइय० एकवीसपयडीणमत्थि असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी असंखेज्जगुणहाणी च । उवसम० अट्ठावीसपयडीणमस्थि असंखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी । अणंताणु० दोहाणीओ च। सम्मामि० अस्थि अट्ठावीसपयडीणमसंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी च । एवं समुकित्तणा समत्ता । ६२६७. सामित्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघे० आदेसे० । ओघेण छव्वीसं पयडीणं तिण्णि वड्डी अवठ्ठाणं च कस्स ? अण्णदरस्स मिच्छादिहिस्स । तिणि हाणी कस्स ? अण्णद० सम्माइडिस्स मिच्छाइटिस्स वा । असंखेज्जगुणहाणी कस्स ? अण्णद० सम्मा wwwwwwwmarria चतुष्ककी चार हानियाँ हैं। बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानि और संख्यातभागहानि है। इसी प्रकार संयतासंयतोंके जानना चाहिए । असंयतोंमें मिथ्यात्वकी तीन वृद्धियाँ, चार हानियाँ और अवस्थान हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मलोधके समान है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी तीन वृद्धियाँ तीन हानियाँ और अवस्थान हैं। इसी प्रकार पीत और पद्मलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिए। सूक्ष्मसांपरायिकसंयतोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि और संख्यातभागहानि है। तथा बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानि है। किन्तु इतनी विशेषता है कि लोभसंज्वलनकी संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि है। ६२६६. अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धियाँ, तीन हानियाँ और अवस्थान हैं। वेदकसम्यग्दृष्टियोंका भंग अभिनिबोधिकज्ञानियोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातगुणहानि नहीं है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस प्रकृतियोंकी असंख्यात. भागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि और संख्यातभागहानि है। तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी शेष दो हानियाँ हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि हैं। __ इस प्रकार समुत्कीर्तनानुगम समाप्त हुआ। ६२६७. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धियाँ और अवस्थान किसके होते हैं ? किसी एक मिथ्यादृष्टिके होते हैं। तीन हानियाँ किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्या Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] डिपरूवणाए सामित्तं १६१ 1 इस्स । वरि अणताणु ० चउक • अवत्तव्वं कस्स ? मिच्छाइट्ठिस्स पढमसमय संजुत्तस्स । सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं चत्तारि वड्डी अवट्ठाणमवत्तव्वं च कस्स ? अण्णद० पढमसमयसम्माइट्ठस्स । चत्तारि हाणी० कस्स १ अण्णद० सम्माइट्ठिस्स मिच्छाइट्ठिस्स वा । एवं मणुस तिय- पंचिदिय - पंचिं ० पज्ज० - तस-तसपज्ज० - प ० - पंचमण० - पंचवचि ० - कायजोगिओरालि० - तिण्णिवेद- चत्तारिक ० चक्खु ० - अचक्खु ० - भवसि ० सण्णि आहारिति । O $ २६८. आदेसेण पोरइएसु मिच्छत्त- बारसक० णवणोक० ओघं । णवरि असंखेज्ज - गुणहाणी णत्थि । सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणमोघं । णवरि असंखेज्जगुणहाणी मिच्छाइस चैव । अनंताणु ० चउक्क० सव्वपदाणमोघं । एवं सव्वणेरइय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख- पंचिं० तिरि०पज्ज० - पंचिं० तिरि० जोणिणि देव० भवणादि जाव सहस्सार० 1 दृष्टि होती हैं। असंख्यातगुणहानि किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टिके होती है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्य किसके होता है ? जो सम्यग्दृष्टि मिथ्यात्व में जाकर अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होता है उस मिध्यादृष्टि के प्रथम समय में होता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की चार वृद्धियाँ, अवस्थान और अवक्तव्य किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि के प्रथम समय में होते हैं । चार हानियाँ किसके होती हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होती हैं। इसी प्रकार मनुष्यत्रिक, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस त्रसपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, तीनों वेदवाले, चारों कषायवाले, चतुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य, संज्ञी और आहारकों के जानना चाहिए । विशेषार्थ - स्वामित्व अनुयोगद्वार में वृद्धि और हानि आदिका कौन स्वामी है इसका विचार किया है । यह तो सुनिश्चित है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर सम्यग्दृष्टिके शेष प्रकृतियों की स्थिति में वृद्धि नहीं होती । उसमें भी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी वृद्धि सम्यदृष्टि प्रथम समय में ही होती है । अतः यह निश्चित हुआ कि २६ प्रकृतियोंकी तीन वृद्धियाँ और अवस्थान मिथ्यादृष्टिके ही होते हैं । किन्तु हानियाँ सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टि दोनोंके सम्भव हैं । उसमें भी असंख्यातगुणहानि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयके क्षपणा में ही होती है, अतः निश्चित हुआ कि तीन हानियाँ सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टि दोनोंके होती हैं । किन्तु संख्यातगुणहानि सम्यग्दृष्टिके ही होती है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्य भी होता है । जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर दी है वह जब नीचे जाता है तभी अनन्तानुबन्धीका अवक्तव्य होता है । यही कारण है कि जो मिथ्यात्व के प्रथम समय में अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होता है उसके अनन्तानुबन्धीका अवक्तव्य बतलाया। अब रही सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति सो जैसा कि पहले बतलाये हैं कि इनकी वृद्धियाँ सम्यग्दृष्टि के प्रथम समय में ही सम्भव हैं तदनुसार चार वृद्धियाँ अवस्थान और अवक्तव्य तो सम्यग्दृष्टिके प्रथम समय में ही होते हैं। हाँ चारों हानियाँ मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनोंके होती हैं I ६२६८. आदेशकी अपेक्षा नारकियों में मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका कथन शोध के समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ असंख्यातगुणहानि नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कथन ओधके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि मिध्यादृष्टिके ही होती है । तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सब पदोंका भंग ओघ के समान है । इसी प्रकार सब नारकी, तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्येच पर्याप्त, पचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, वैक्रियिक काययोगी, असंयत और २१ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती३. वेउन्वियकायजोगि-असंजद-पंचलेस्सा ति। णवरि असंजद-तेउ-पम्म० मिच्छ० असंखेज्जगुणहाणी ओघं। ६२६९. पंचिं०तिरि०अपज्ज. अट्ठावीसं पयडीणं सव्वपदा कस्स ? अण्णद० । एवं मणुसअपज्ज०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय अपज्ज०-सव्वपंचकाय-तसअपज्ज०-तिण्णिअण्णाण-अभवसि० मिच्छादि० असण्णि ति । णवरि अभव० छव्वीसं पयडिआलावो कायब्वो। ६ २७०. आणदादि जावणवगेवज्जोत्ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखज्जभागहाणी संखेज्जमागहाणी कस्स ? अण्णद० सम्माइट्ठिस्स मिच्छाइहिस्स वा । अणं. ताणु०चउक० एवं चेव । णवरि संखेज्जगुणहाणी असंखेज्जगुणहाणी च कस्स १ सम्माइटिस्स । अवत्तव्वमोघं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं चत्तारि वड्डी अवत्तव्वं कस्स ? अण्णद० पढमसमयसम्माइद्विस्स । तिण्णि हाणी कस्स ? सम्माइद्विस्स मिच्छाइद्विस्स वा । असंखेज्जगुणहाणी कस्स ? अण्णद० मिच्छाइहिस्स । णवरि सम्मामिच्छत्तस्स संखेज्जगुणहाणी मिच्छाइद्विस्स चेव । ६ २७१. अणुदिसादि जाव सव्वट्ठसिद्धि त्ति अट्ठावीसं पयडीणं सव्वपदा कस्स ? सम्माइटिस्स । एवमाहार०-आहारमिस्स०-अवगद०-अकसा०-आभिणि-सुद०-ओहि.. मणपज्ज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-सुहुमसांपराय-जहाक्खाद-संजदासंजद० marwarimaanmar. पाँच लेश्यवाले जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंयत, पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानि ओघके समान है। ६२६६. पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्तकोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पद किसके होते हैं ? अन्यतरके होते हैं। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सब पाँचों काय, त्रस अपर्याप्त, तीनों अज्ञानी, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंका आलाप कहना चाहिये । ६२७०. आनत कल्पसे लेकर नौ अवेयकतकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानि और संख्यातभागहानि किसके होती हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होती हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका कथन इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि किसके होती हैं ? सम्यग्दृष्टिके होती हैं। प्रवक्तव्यका भंग ओघके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धियाँ और अवक्तव्य किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें होते हैं। तीन हानियाँ किसके होती हैं ? सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होती हैं। असंख्यातगुणहानि किसके होती है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टिके होती है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी संख्यातगुणहानि मिथ्यादृष्टिके ही होती है। ६२७१, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पद किसके होते हैं ? सम्यग्दृष्टिके होते हैं। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी,श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी,मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०२२] वडिपरूवणाए सामित्त १६३ ओहिदंस०-सम्मादि०-खइय०-वेदय०-उवसमसम्मादिहि ति। णवरि अप्पप्पणो पय० पदविसेसो जाणियव्यो। ६ २७२. ओरालियमिस्स० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० तिण्णिवड्डी अवठ्ठाणं च कस्स ? अण्ण० मिच्छाइद्विस्स । असंखेज्जभागहाणी' कस्स ? अण्णद० सम्माइहिस्स मिच्छाइद्विस्स वा। संखेज्जमागहाणी संखेज्जगुणहाणी च कस्स ? अण्णद० मिच्छाइहिस्स । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं चत्तारि हाणीओ कस्स ? अण्णद० मिच्छाइडिस्स । गवरि सम्मत्तस्स असंखेज्जगुणहाणिवज्जाओ तिण्णि हाणीओ सम्मामि० असंखेज्जभागहाणी च सम्मादिद्विस्स वि होति । एवं वेउव्वियमिस्स-कम्मइय-अणाहारि त्ति । ६२७३. सुकले० असंखेज्जभागहाणि-संखेज्जमागहाणि-संखेज्जगुणहाणीओ मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० विसयाओ कस्स ? अण्णद० मिच्छादिहिस्स सम्मादिहिस्स वा । असंखेज्जगुणहाणी कस्स ? सम्माइद्विस्त । अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्ब० ओघ । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं चत्तारि वड्डी अवट्ठाणं अवत्तव्वं च कस्सी पढमसमयसम्माइद्विस्स। चसारि हाणीओ कस्स ? मिच्छाइहिस्स सम्माइहिस्स वा। सासण० अट्ठावीसं पयडीणमसंखेज्जभागहाणी कस्स ? अण्णद० । सम्मामि० अट्ठावीसपयडीणं तिण्णि हाणीओ कस्स ? सम्मामिच्छाइद्विस्स । एवं सामिचाणुगमो समत्तो। अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी प्रकृतियोंके पदविशेष जानना चाहिए। २७२. औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी तीन वृद्धियाँ और अवस्थान किसके हैं ? अन्यतर मिथ्याष्टिके हैं। असंख्यातभागहानि किसके है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्याष्टिके है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि किसके हैं ? अन्यतर मिथ्याष्टिके हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियाँ किसके हैं ? अन्यतर मिथ्यादृष्टिके हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी असंख्यातगुणहानिको छोड़कर शेष तीन हानियाँ तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि सम्यग्दृष्टिके भी होती है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। ६२७३. शुक्ललेश्यावालोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायविषयक असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि किसके होती हैं ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टिके होती हैं। असंख्यातगुणहानि किसके होती है ? सम्यग्दृष्टिके होती है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अवक्तव्यभंग ओघके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धियाँ, अवस्थान और प्रवक्तव्य किसके होते हैं ? सम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें होते हैं। चार हानियाँ किसके होती हैं ? मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टिके होती हैं। सासादनसम्यग्दृष्टियों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि किसके होती है ? अन्यतरके होती है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी तीन हानियाँ किसके होती हैं ? सम्यग्मिथ्यादृष्टिके होती हैं। इस प्रकार स्वामित्वानुगम समाप्त हुआ। १ ता. प्रतौ असंखेजगुणहाणी इति पाठः । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ___ * एगजीवेण कालो। $ २७४. एगजीवसंबंधिकालो चुचदि त्ति भणिदं होदि । * मिच्छत्तस्स तिविहाए वड्डीए जहरणेण एगसमओ। ६ २७५. तं जहा-अद्धाक्खएण संकिलेसक्खएण वा अप्पणो संतकम्मस्सुवरि एगसमयं वड्डिदण बंधिय विदियसमए अप्पदरे अवट्ठाणे वा कदे असंखेज्जभागवड्डि. संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जगुणवड्डीणं कालो' जहण्णेण एगसमओ होदि । . * उक्कस्सेण बे समया । ६ २७६. तं जहा-एइंदिओ एगहिदि बंधमाणो अच्छिदो, तदो तिस्से विदोए अद्धाक्खएण एगसमयमसंखेज्जभागवबिंधं कादण पुणो विदियसमए संकिलेसक्खएण असंखेज्जभागवड्डिबंधं कादूण तदियसमए अप्पदरे अवडिदे वा कदे असंखेज्जभागवड्डीए उक्कस्सेण वे समया लद्धा होति । जधा एइंदियमस्सिदूण अद्धासंकिलेसक्खएण असंखेज्जभागवड्डीए विसमयपरूवणा कदा तधा बेइंदिय-तेइंदिय-चदुरिंदिय-असण्णिपंचिंदिय-सण्णिपंचिंदिए वि अस्सिदृण सत्थाणे चेव वेसमयपरूवणा कायब्बा; अद्धाक्खएणेव संकिलेसक्खएण वि असंखेज्जभागवड्डीए संभवादो। वेइंदिओ संकिलेसक्खएण एगसमयं संखेज्जभागवड्डिबंधं कादण पुणो अणंतरसमए कालं कादण तेइंदिएसुप्पज्जिय पढमसमए तप्पाओग्गजहण्णहिदिबंधओ जादो। ताधे संखेज्जभागवड्डीए विदिओ समओ लब्भदि; * अब एक जीवकी अपेक्षा कालका कथन करते हैं। २७४. अब एक जीवसम्बन्धी कालका कथन करते है यह इस सूत्रके कहनेका तात्पर्य है। * मिथ्यात्वकी तीन वृद्धियोंका जघन्य काल एक समय है। ६२७५. जो इस प्रकार है-जिसने अद्धाक्षय या संक्लेशक्षयसे अपने सत्कर्मके ऊपर एक समय तक स्थितिको बढ़ाकर बाँधा और दूसरे समयमें अल्पतर या अवस्थान किया उसके असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय होता है। * उत्कृष्ट काल दो समय है। ६२७६. जो इस प्रकार है-जो एकेन्द्रिय एक स्थितिको बाँधता हुआ विद्यमान है तदनन्तर जिसने उस स्थितिका अद्धाक्षयसे एक समय तक असंख्यातभागवृद्धिरूप बन्ध किया पुन: दूसरे समयमें संक्लेशक्षयसे असंख्यातभागवृद्धिरूप बन्ध करके तीसरे समयमें अल्पतर या अवस्थित बन्ध किया उसके असंख्यातभागवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय प्राप्त होता है। जिस प्रकार एकेन्द्रियकी अपेक्षा अद्धाक्षय और संक्लेशक्षयसे असंख्यातभागवृद्धिके दो समयोंका कथन किया उसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रियकी अपेक्षा भी स्वस्थानमें ही दो समयोंका कथन करना चाहिये, क्योंकि वहाँ पर अद्धाक्षयके समान संक्लेशक्षयसे भी असंख्यातभागवृद्धि सम्भव है। कोई द्वीन्द्रिय संक्लेशक्षयसे एक समय तक संख्यातभागवृद्धि रूप बन्ध करके पुनः अनन्तर समयमें मरकर त्रीन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर प्रथम समयमें तस्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला हो गया। उस समय संख्यातभागवृद्धिका दूसरा . भा. प्रतौ काले इति पाठः । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूपणाए कालो १६५ बीइंदियढिदिसंतादो तीइंदिएसुप्पण्णपढमट्ठिदिसंतस्स देसूणदुगुणत्तुवलंभादो। बेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सट्ठिदिबंधादो तेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सहिदिबंधो दुगुणो होदि तस्स जहण्णढिदिबंधादो वि एदस्स जहण्णाद्विदिबंधो दुगुणो होदि । तेण कारणेण बीइंदियउकस्सट्ठिदिबंधं पेक्खिदण तीइंदियअपज्जत्तयस्स जहण्ण ट्ठिदिबंधो संखेज्जभाग. महिओ। बीइंदियअपज्जत्तयस्स जहण्णढिदिसंतादो पलिदो० संखेज्जभागब्भहिय. सगुक्कस्सहिदिसंतं पेक्खिद्ण बीइंदियअपज्जत्तजहण्णहिदिसंतादो संखे०पलिदोवमेहि अन्भहियतेइंदियजहण्णहिदिबंधो संखेज्जभागब्भहिओ त्ति भणिदं होदि । बेइंदिएसु सत्थाणे चेव संखेज्जभागवड्डीए बेसमया किण्ण लब्भंति ? ण एस दोसो, अद्धाक्खएण असंखेज्जभागवड्डिबंधं मोत्तण सेसवड्ढिबंधाणमभावादो। संकिलेसक्खएण संखेज्जभागवड्डीए सत्थाणे चेव वेसमया किण्ण लभंति ? ण, एगसमए संकिलेसक्खए जादे पुणो अंतोमुहुत्तेण विणा संखेज्जभागवड्बिंधपाओग्गसंकिलेसाणं गमणासंभवादो। ६२७७, अधवा तेइंदिएण सत्थाणे चेव संकिलेसक्खएण एगसमयं कदसंखेजभागवड्डिडिदिबंधेण विदियसमए कालं कादण चउरिदिएसुप्पांजय पढमसमए जहण्णहिदिबंधे पबद्ध संखेजभागवड्डीए वे समया लब्भंति । महाबंधम्मि विगलिंदिएसु सत्थाणे चेव संकिलेसक्खरण संखेजभागवडिबंधस्स वे समया परूविदा, तब्बलेण कसायपाहुडस्स ण पडिवोहणा काउं जुत्ता; तंतंतरेण भिण्णपुरिसकरण तंतंतरस्स पडिबोयणाणुववत्तीदो। समय प्राप्त होता है; क्योंकि द्वीन्द्रियके स्थितिसत्त्वसे त्रीन्द्रियोंमें उत्पन्न होने पर जो प्रथम स्थितिसत्त्व होता है वह कुछ कम दूना पाया जाता है। द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध दूना होता है। तथा उसके जघन्य स्थितिबन्धसे भी. इसके जघन्य स्थितिबन्ध दूना होता है इसलिये द्वीन्द्रियके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातवें भाग अधिक होता है। द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिसत्त्वसे पल्योपमके संख्यातवें भाग अधिक अपने उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिसत्त्वसे संख्यात पल्य अधिक त्रीन्द्रियका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातवें भाग अधिक होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-द्वीन्द्रियोंमें स्वस्थानमें ही संख्यातभागवृद्धिके दो समय क्यों नहीं प्राप्त होते हैं ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है,क्योंकि अद्धाक्षयसे असंख्यातभागवृद्धि रूपबन्धको छोड़कर शेष वृद्धिरूप बन्धोंका अभाव है। शंका-संक्लेशक्षयसे स्वस्थानमें ही संख्यातभागवृद्धिके दो समय क्यों नहीं प्राप्त होते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि एक समयमें संक्लेशक्षय हो जाने पर पुनः अन्तर्मुहूर्त कालके बिना संख्यातभागवृद्धिरूप बन्धके योग्य संक्लेशकी प्राप्ति होना सम्भव नहीं है। .... ६२७७. अथवा जिस त्रीन्द्रियने स्वस्थानमें ही संक्लेशक्षयसे एक समयतक संख्यातभागवृद्धिरूप स्थितिबन्धको किया है उसके दूसरे समयमें मरकर और चतुरिन्द्रियों में उत्पन्न होकर प्रथम समयमें जघन्य स्थितिबन्धके करने पर संख्यातभागवृद्धिके दो समय प्राप्त होते हैं। महाबन्धमें विकलेन्द्रियोंमें स्वस्थानमें ही संक्लेशक्षयसे संख्यातभागवृद्धिरूप बन्धके दो समय कहे हैं। उसके . बलसे कषायपाहुडको समझना ठीक नहीं है क्योंकि भिन्न पुरुषके द्वारा किये गये ग्रन्थान्तरसे ग्रन्थान्तरका शान नहीं हो सकता है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ___ २७८. सण्णिमिच्छाइट्ठिणा तप्पाओग्गअंतोकोडाकोडिट्ठिदिसंतादो संकिलेसं पूरेदण संखेजगुणवड्डीए एगसमयं वडिदण बंधिय विदियसमए अवविदबंधे अप्पदरबंधे वा कदे संखेजगुणवड्डीए एगसमओ लब्भदि, सत्थाणे वे समया ण लब्भंति चेव; अंतोमुहुचतरं मोत्तण संखेजगुणवड्डिपाओग्गपरिणामाणं णिरंतरं दोसु समएसु गमणाभावादो। तेणेत्थ वि परत्थाणं चेव अस्सिदूण विसमयाणं परूवणा कायव्वा । तं जहा-एइंदिओ कालं काढूण एगविग्गहेण सण्णिपंचिंदिएसु उववण्णो तस्स पढमसमए संखेजगुणवड्डी होदि; तत्थासण्णिपंचिंदियट्ठिदिबंधस्स संभवादो। विदियसमए सरीरं घेत्तूण संखेजगुणवहिं करेदि; तत्थ अंतोकोडाकोडिसागरोवम'मेत्तहिदिबंधुवलंभादो। * असंखेज्जभागहाणीए जहरणेण एगसमयो । ६ २७९. तं जहा-समद्विदि बंधमाणेण पुणो संतकम्मस्स हेट्ठा एगसमयमोसरिदण बंधिय तदो उवरिमसमए संतसमाणे पबद्धे असंखेजभागहाणीए जहण्णेण एगसमओ होदि। ___ * उक्कस्सेण तेवहिसागरोवमसद सादिरेयं ।। २८०. तं जहा-एगो वड्डीए अवट्ठाणे वा अच्छिदो पुणो सव्वुक्कस्समंतोमुहत्तकालमप्पदरविहत्तिओ होदूणच्छिय वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो। पुणो वेछावहिसागरोवमाणि भमिय तदो एक्कत्तीससागरोवमिएसु उपजिय मिच्छत्तं गंतूण देवाउअमणुपालिय कालं ६२७८. किसी संज्ञी मिथ्यादृष्टिने तद्योग्य अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिसत्त्वसे संक्लेशको पूराकर एक समयतक संख्यातगुणवृद्धिरूपसे स्थितिको बढ़ाकर बन्ध किया पुनः दुसरे समयमें अवस्थितबन्ध या अल्पतरबन्धके करने पर संख्यातगुणवृद्धिका एक समय प्राप्त होता है। स्वस्थानमें दो समय प्राप्त होते ही नहीं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त अन्तरके बिना निरन्तर दो समय तक संख्यातगुणवृद्धिके योग्य परिणामोंकी प्राप्ति नहीं होती है, अतः यहाँ पर भी परस्थानकी अपेक्षासे ही दो समयोंका कथन करना चाहिये। जो इस प्रकार है-एक एकेन्द्रिय मरकर एक विग्रहसे संजी पंचेन्द्रियों में उत्पन्न हश्रा उसके प्रथम समयमें संख्यातगणवृद्धि होती है। क्योंकि वहाँ पर असंज्ञी पंचेन्द्रियका स्थितिबन्ध सम्भव है। तथा दूसरे समयमें शरीरको ग्रहण करके संख्यातगुणवृद्धिको करता है; क्योंकि वहाँ पर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिबन्ध पाया जाता है। * मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल ऐक समय है। ६२७६. जो इस प्रकार है-समान स्थितिको बाँधनेवाले किसी जीवने सत्कर्मसे एक समय कम बन्ध किया तदनन्तर अगले समयमें सत्कर्मके समान बन्ध किया तो उसके असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय होता है। * उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। २८०. जो इस प्रकार है-कोई एक जीव वृद्धि या अवस्थानमें स्थित है पुनः वह सबसे उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक अल्पतर विभक्तिवाला होकर रहा और वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः एक सौ बत्तीस सागर तक परिभ्रमण करके तदनन्तर इकतीस सागरप्रमाण आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होकर और मिथ्यात्वको प्राप्त होकर उसके साथ देवायुका उपभोग करके मरा और पूर्व . ता. प्रतौ कोडाकोडि ति सागरोबम इति पाठः । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वड्डिपरूवणाए कालो १६७ कादण पुन्वकोडाउअमणुस्सेसुप्पजिय मणुस्साउअम्मि अंतोमुहुत्ते गदे संकिलेसं पूरेदूण भुजगारढिदिबंधं गदो। तम्हा तेवढिसागरोवमसदं अंतोमुहुत्तेण सादिरेयमसंखेजभागहाणीए उकस्सकालो होदि । तिपलिदोवमिएसु उप्पाइय तेवहिसागरोवमसदं तीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं किण्ण गहिदं ? अप्पदरस्स कालो उक्कस्सओ होदि एत्तिओ णासंखेजभागहाणीए; तिण्णि पलिदोवमाणि देषणाणि असंखेजभागहाणीए गमिय पुणो अंतोमुहुत्तावसेसे आउए पढमसम्मत्तमुप्पाएंतेण संखेजभागहाणीए कदाए असंखेजभागहाणीए पकंताए विणासप्पसंगादो। २८१. तेवद्विसागरोवमसदमंतोमुहुत्तेण सादिरेयमिदि जं वुत्तं तं थोरुचएणवुत्तमिदि तण्ण घेत्तव्वं । पुणो कथं घेप्पदि त्ति वुत्ते वुच्चदे-भोगभूमोए वेदयपाओग्गदीहुव्वेल्लणकालमत्ताउए सेसे पढमसम्मत्तं घेत्तूण पुणो अंतोमुहुत्तेण मिच्छत्तं गंतूण अप्पदरेण पलिदोवमस्स असंखेजभागमेत्तकालं गमिय पुणो अवसाणे वेदगसम्मत्तं घेत्तण देवेसुपन्जिय पुव्वं व तेवहिसागरोवमसदं भमिय भुजगारे कदे पलिदोवमस्स असंखेजमागेणमहियतेवहिसागरोवमसदमसंखेजभागहाणीए उकस्सकालो। * संखेजभागहाणीए जहएणेण एगसमो। कोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और वहाँ मनुष्यायुमेंसे अन्तर्मुहूर्त कालके व्यतीत होने पर संक्लेशको प्राप्त होकर भुजगारस्थितिका बन्ध किया, अतः असंख्यातभागहानिका अन्तर्मुहूर्त अधिक एक सौ त्रेसठ सागर उत्कृष्ट काल होता है। शंका-तीन पल्य प्रमाण आयुवाले जीवोंमें उत्पन्न कराके असंख्यातभागहोनिका उत्कृष्ट काल तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागर क्यों नहीं ग्रहण किया है ? समाधान-यह ठीक है कि इस प्रकार अल्पतर स्थिति विभक्तिका इतना उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है । पर इससे असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल नहीं प्राप्त हो सकता है, क्योंकि कुछ कम तीन पल्य असंख्यातभागहानिके साथ व्यतीत करके पुनः आयुके अन्तर्महूर्त प्रमाण शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवालेके संख्यातभागहानि होने लगती है अतः प्रारम्भ की गई असंख्यातभागहानिका विनाश प्राप्त होता है। ६२८१. दूसरे संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल जो अन्तमहूर्त अधिक एक सौ त्रेसठ सागर कहा है वह स्थूल रूपसे कहा है अतः उसका प्रहण नहीं करना चाहिये। शंका-तो फिर कौनसे कालका किस प्रकार ग्रहण करना चाहिये ? समाधान-भोगभूमिमें वेदकके योग्य दीर्घ उद्वलना कालप्रमाण आयुके शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करके पुनः अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा मिथ्यात्वको प्राप्त होकर अल्पतर स्थितिविभक्तिके साथ पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालको व्यतीत कर के पुनः अन्तमें वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करके और देवोंमें उत्पन्न होकर पहलेके समान एक सौ त्रेसठ सागर काल तक परिभ्रमण करके भुजगारस्थितिविभक्तिके करने पर असंख्यातभागहानिका पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग अधिक एक सौ त्रेसठ सागर उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है। * मिथ्यात्वकी संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती। २८२. तं जहा-दंसणमोहक्खवणाए अण्णस्थ वा पलिदोषमस्स संखेजमागमेत्त. द्विदि कंडए धादिदे संखेजभागहाणीए जहण्णेण एगसमओ होदि । ___ * उक्करसेण जहएणमसंखेजयं तिरूवूणयमेत्तिए समए । ६२८३. तं जहा-दसणमोहक्खवणाए मिच्छत्तस्स चरिम डिदिकंडए हदे उदया. वलियाए उकस्ससंखेजमेत्तणिसेगट्टिदीसु सेसासु संखेजभागहाणीए आदी होदि । तत्तो पहुडि ताव संखेजभागहाणी होदि जाव उदयावलियाए दो णिसेगद्विदीओ तिसमयकालाओ द्विदाओ ति तेण जहण्णपरित्तासंखेजयम्मि तिरूवूणम्मि जत्तिया समया तत्तियमेत्तो संखेजमागहाणीए उकस्सकालो त्ति भणिदं । . * संखेज्जगुणहाणि-असंखेजगुणहाणीणं जहएणुक्कस्लेण एगसमओ। $ २८४. तं जहा-दंसणमोहक्खवणाए पलिदोवमट्ठिदिसंतकम्मप्पहुडि जाव दूरावकिट्टिविदो चेदि ताव एत्यंतरे पदमाणद्विदिखंडएसु पदंतेसु संखेजगुणहाणी होदि । तिस्से वि कालो एगसमओ चेव, चरिमफालिं मोत्तण अण्णत्थ संखेजगुणहाणीए अभावादो । संसारावस्थाएं वि संखेजगुणहाणीए एगसमओ चेव होदि, सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीणं संखेजेसु भागेसु घादिदेसु घादिजमाणेसु तस्स द्विदिखंडयस्स चरिमफालीए चेव संखेजगुणहाणीए उवलंभादो। दूरावकिट्टिट्टिदिष्पहुडि जाव चरिमट्ठिदिखंडयचरिमफालि ति एत्यंतरे द्विदिखंडएसु पदमाणेसु असंखेजगुणहाणी होदि । एदिस्से वि कालो एगसमओ; द्विदिखंडयाणं चरिमफालीसु चेव असंखेजगुणहीणत्तवलंभादो। ___६२८२, जो इस प्रकार है-दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें या अन्यत्र पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डकके घात करने पर संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय होता है। * उत्कृष्ट काल तीन कम जघन्य परीतासंख्यातके जितने समय हों उतना है। ६२८३. जो इस प्रकार है-दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितिकाण्डकका घात करने पर उदयावलिमें निषेकस्थितियोंके उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण शेष रहनेपर संख्यात भागहानिका प्रारम्भ होता है। यहाँसे लेकर तीन समयकाल स्थितिवाले दो निषेकोंके शेष रहनेतक संख्यातभागहानि होती है। अतः तीन कम जघन्यपरीतासंख्यातमें जितने समय हों उतना संख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल है ऐसा कहा है। ® मिथ्यात्वकी संख्यागुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट. काल एक समय है। ६२८४. जो इस प्रकार है-दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें पल्यप्रमाण स्थितिसत्कमसे लेकर दूरापकृष्टिप्रमाण स्थितिके शेष रहने तक इस अन्तरालमें प्राप्त होनेवाले स्थितिकाण्डकोंके पतन होने पर संख्यातगुणहानि होती है, उसका भी काल एक समय ही है, क्योंकि अन्तिम फालिको छोड़कर अन्यत्र संख्यातगुणहानि नहीं होती है । संसार अवस्थामें भी संख्यातगुणहानिका काल एक समय ही प्राप्त होता है, क्योंकि सत्तरकोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण स्थितियोंके संख्यात बहुभागके घात होते हुए घात होनेवाले काण्डकोंमें उस स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिमें ही संख्यातगुणहानि पाई जाती है। तथा दुरापकृष्टि स्थितिसे लेकर अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालितक इस बीच स्थितिकाण्डकके पतनमें असंख्यातगुणहानि होती है। इसका भी काल एक समय है, क्योंकि स्थिति. काण्डकोंकी अन्तिम फालिमें ही असंख्यातगुणहानि पाई जाती है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ गा० २२] वडिपरूवणाए कालो * अवहिदहिदिविहत्तिया केवचिरं कालादो होति । .. ६२८५. सुगममेदं। * जहणणेण एगसमयो । $ २८६. भुजगारमप्पदरं वा कुणंतेण एयसमयमवद्विदं कादण विदियसमए भुजगारे अप्पदरे वा कदे जहण्णेण अवढिदस्स एगसमओ। __ * उकस्सेण अंतोमुहत्तं। $ २८७. तं जहा-वड्ढेि हाणिं वा काऊण अवट्ठाणम्मि पडिय अंतोमुहुत्तं तत्थ ठाइदूण भुजगारे अप्पदरे वा कदे अवडिदस्स अंतोमुहुत्तमेत्तो उक्कस्सकालो होदि । * सेसाणं पि कम्माणमेदेण वीजपदेण णेदव्वं ।। $ २८८. एदेण वयणेण सुत्तस्स देसामासियत्तं जेण जाणाविदं तेण चउहं गईणं उत्तुचारणाबलेण एलाइरियपसाएग य सेसकम्माणं परूवणा कीरदे । कालाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघे० आदेसे० । ओघे० मिच्छत्त० तिण्णि वड्डि० जह० एगसमओ, उक० वे समया। असंखेजभागहाणी. जह० एगसमओ, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं सादिरेयं । संखेजभागहाणी० जह० एयसमओ, उक्क० उक्कस्ससंखेजं दुरूवूणयं । संखेजगुणहाणी० असंखेजगुणहाणी० जहण्णुक्क० एगसमओ। अवढि० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं तेरसक० । णवरि असंखेजभागवड्डीए जह० एगसमओ, उक्क० सत्तारस * मिथ्यात्वकी अवस्थित स्थितिविभक्तिका कितना काल है ? ६२८५. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक समय है। ६२८६. भुजगार या अल्पतरको करनेवाले किसी जीवके एक समयतक अवस्थित करके दूसरे समयमें भुजगार या अल्पतरके करनेपर अवस्थितस्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। * उत्कृष्ट काल अन्तर्महत है। ६२८७. जो इस प्रकार है-वृद्धि या हानिको करके और अवस्थितमें पड़कर तथा अन्तर्मुहूतकालतक वहाँ रहकर भुजगार या अल्पतरके करनेपर अवस्थितका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। * शेष कर्मोकी भी वृद्धि आदिका काल इसी बीजपदके अनुसार जान लेना चाहिये । ६२८८. इस वचनसे चूंकि सूत्रका देशामर्षकपना जता दिया, अतः उच्चारणाके बलसे और एलाचार्यके प्रसादसे चारों गतियोंमें शेष कर्मोंकी प्ररूपणा करते हैं-कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्वकी तीन वृद्धियोंका जघन्य काल एक समय है तथा उत्कृष्ट काल दो समय है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक • समय और उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक • समय और उत्कृष्ट काल दो कम उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण है। संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुण* हानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवास्थतका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार तेरह कषायोंका जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यात २२ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती समया। अणंताणु०चउक० अवतव्व. जहण्णुक एगस । तिण्णिसंजलण णवणो. कसायाणं एवं चेव । णवरि संखेजभागहाणी० जहण्णुक० एगस०: सगसगहिदीए संखेज्जेभागे धादिदे संखेजमागहाणीए उवलंभादो। दुरूवूणुकस्ससंखेजमेत्तकालो एदासि पयडीणं संखेजमागहाणीए किण्ण लद्धो ? ण, अंतरकरणे कदे पढमहिदीए विणा विदियद्विदीए च द्विदाण' चरिमकंडयचरिमफालीए पदिदाए संतीए उदयावलियाए समयूणावलियमेत्तहिदीणं सेसकसायाणं अणुवलंभादो । ६२८९. इत्थि-पुरिसवेदाणं संखेजमागवड्डिकालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। वे समया ण लब्भंति । कुदो ? बेइंदियाणं तीइंदिएसु तेइंदियाणं चउरिदिएसु उप्पजमाणाणमप्पणो आउअचरिमसमए णवंसयवेदं मोत्तूण अण्णवेदाणं बंधामावादो। कुदो, जम्मि जादीए उप्पजदि तजादिपडिबद्धवेदस्सेव मुंजमाणाउअस्स चरिमअंतोमुहुत्तम्मि णिरंतरबंधसंभवादो। तेण इत्थिपुरिसवेदाणं सगसगढिदिसंतकम्मादो संखेजभागब्भहियं कसायट्टिदि बंधाविय बंधावलियादिकंतं बज्झमाणित्थि-पुरिसवेदेसु संकामिदेसु संखेजभागवड्डीए एगसमओचेव लब्भदि। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं चत्तारिवाड्डि-दोहाणि-अवविदअवत्तव्वाणं जहण्णुक० एगसमओ। असंखेजभागहाणीए जह० एगसमओ । तं जहासमयाहियजहण्णपरित्तासंखेजमेचसेसाए सम्मत्त-सम्मामि०पढमहिदीए चरिमुव्वेल्लणभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सत्रह समय है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यस्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तीन संज्वलन और नौ नोकषायोंका इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, क्योंकि अपनी अपनी स्थितिके संख्यातवें भागका घात होने पर संख्यातभागहानि पाई जाती है। शंका-इन प्रकृतियोंकी संख्यातभागहानिका दो कम उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण काल क्यों नहीं प्राप्त होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि अन्तरकरण करने पर प्रथम स्थिति के बिना दूसरी स्थितिमें स्थित कर्मों के अन्तिमकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन होते हुए शेष कषायोंके समान इन कर्मोकी उदयावलिमें एक समय कम आवलिप्रमाण स्थितियाँ नहीं पाई जाती हैं। २८६. स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी संख्यातभागवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। दो समय काल नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि जो द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रियोंमें और त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके अपनी आयुके अन्तिम समयमें नपुंसकवेदको छोड़कर अन्य वेदका बन्ध नहीं होता है, क्योंकि जो जीव जिस जातिमें उत्पन्न होता है उसके उस जातिसे सम्बन्ध रखनेवाले वेदका ही भुज्यमान आयुके अन्तिम अन्तर्मुहुर्तमें निरन्तर बन्ध सम्भव है। इसलिये स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अपने अपने स्थितिसत्कर्मसे संख्यातवें भाग अधिक कषायकी स्थितिका बन्ध कराके बन्धा. बलिके बाद बंधनेवाले स्त्रीवेद और पुरुषवेदमें उसके संक्रान्त होनेपर संख्यातभागवृद्धिका एक समय ही प्राप्त होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, दो हानि, अवस्थित और प्रवक्तव्यका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है। जो इस प्रकार है-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिकी एक समय अधिक जघन्य . मा. प्रती चेट्टिदाणं इति पाठः। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूवणाए कालो कंडयचरिमफालीए उव्वेल्लिदाए एगसमयमसंखेजभागहाणी होदि; तत्थाणंतरसमए संखेजभागहाणीए पारंभदंसणादो। उक्क० वेछावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । संखेजभागहाणीए मिच्छत्तभंगो। एवं तस-तसपज०-णqसयवेद-अचक्खु-भवसिद्धि०आहारि त्ति । णवरि णवूसयवेदेसु असंखेजभागहाणीए जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देखणाणि । सम्मत्त-सम्मामि० असंखेजभागहाणी० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । लोभसंजल० संखेञभागहाणी० जहण्णुक० एगस० । आहारीसु संखेजगुणवड्डीए जहण्णुक० एयसमओ। परीतासंख्यातप्रमाण स्थितिके शेष रहनेपर अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिकी उद्वलनामें एक समय तक असंख्यातभागहानि होती है, क्योंकि वहाँ अनन्तर समयमें संख्यातभागहानिका प्रारम्भ देखा जाता है। असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ बत्तीस सागर है। तथा संख्यातभागहानिका भंग मिथ्यात्वके समान है। इस प्रकार त्रस, सपर्याप्त, नपुंसकवेदी, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारक जीवों के जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदियोंमें असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। सम्यक्त्व और सम्यग्यिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। लोभसंज्वलनकी संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा आहारकोंमें संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। विशेषार्थ—पहले भुजगार विभक्तिमें जो भुजगार और अल्पतरका काल बतलाया है वह यहाँ घटित नहीं होता, क्योंकि वहाँ वृद्धि और हानियोंके अवान्तर भेद न करके वह काल कहा है और यहाँ अवान्तर भेदोंकी अपेक्षासे काल कहा है, अतः दोनोंके कालोंमें फरक पड़ जाता है। अब यहाँ जिसका खुलासा स्वयं वीरसेन स्वामीने किया है उसे छोड़कर शेषका खुलासा करते हैं। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि का उत्कृष्ट काल सत्रह समय है, क्योंकि भुजगारविभक्तिमें सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगारस्थितिका उत्कृष्ट काल जो १९ समय बतलाया है उसमेंसे श्रद्धाक्षयसे प्राप्त होनेवाले भुजगारके सत्रह समय ले लेना चाहिये, क्योंकि अद्धाक्षयसे असंख्यातभागवृद्धि ही होती है । यद्यपि सामान्यसे संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल दो समय कम उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण बतलाया है पर क्रोधादि तीन संज्वलन और नौ नोकषायोंमें यह काल घटित नहीं होता, क्योंकि इनकी प्रथम स्थितिका द्वितीय स्थितिके रहते हुए ही अभाव हो जाता है। संख्यातभागवृद्धि का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है। जो इस प्रकार है-किसी द्वीन्द्रिय या त्रीन्द्रिय जीवने संक्लेशक्षयसे एक समय तक संख्यातभागवृद्धि रूप बन्ध करके पुनः अनन्तर समयमें मर कर एकेन्द्रिय अधिकवाले जीवों अर्थात् तेइन्द्रिय या चौइन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर प्रथम समयमें तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध किया उस जीवके संख्यातभागवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय पाया जाता है। परन्तु पुरुषवेद और स्त्रीवेदकी संख्यातभागवृद्धिका उत्कृष्ट काल एक ही समय कहा है । उसका कारण यह है कि जो द्वीन्द्रियसे तेइन्द्रियमें और तेइन्द्रियसे चतुरिन्द्रियमें उत्पन्न होते हैं उनके अपनी आयुके अन्तिम अन्तर्मुहूर्तमें नपुंसकवेदके अतिरिक्त अन्य वेदका बन्ध नहीं होता, क्योंकि तेइन्द्रिय या चतुरिन्द्रिय जीव जिनमें वह उत्पन्न होंगे नियमसे नपुंसक बेदी हाते हैं और सामान्य नियम यह है कि जो जाव जिस जातिमें उत्पन्न होता है उसक उस जातिसे सम्बन्ध रखनेवाले वेदका ही भुज्यमान आयुके अन्तिम अन्तमुहूर्तमें निरन्तर बन्ध सम्भव Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ २६०. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० असंखेलमागवड्डिअवढि० ओघं। असंखेजभागहाणी. जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसू. णाणि । दो वड्डी दो हाणी० जहण्णुक० एगस० । णवरि अणंताणु०चउक्क० संखेन्जभागहाणि-असंखेजगुणहाणि-अवत्तव्वाणमोघं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमोघमंगो। णवरि असंखेजभागहाणी० जह• एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवं सव्वपोरइयाणं । णवरि सगढिदी देसूणा । है। इसलिये स्त्रीवेद या पुरुषवेदका जितना स्थितिसत्त्व है उससे संख्यातवें भाग अधिक स्थिति वाले कषायका बन्ध कराकर बन्धावलीके पश्चात् खीवेद या पुरुषवेदमें संक्रान्त होने पर उक्त दोनों वेदोंकी संख्यातभागवृद्धिका काल एक समय ही प्राप्त होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चारों वृद्धियाँ, अवस्थित और अवक्तव्य ये सम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें ही होते हैं, अतः इनका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा इनकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है, क्योंकि जब अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिकी उद्वेलना हो जाने पर इनकी प्रथम स्थिति एक समय अधिक जघन्य परीतासंख्यात प्रमाण शेष रहती है तब इनकी असंख्यातभागहानि एक समय तक देखी जाती है । इनकी उत्कृष्ट हानिका उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ बत्तीस सागर है सो मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिके उत्कृष्ट कालका खुलासा जिस प्रकार पहले किया है उसी प्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिये। शेष कथन सुगम है । यह ओघ प्ररूपणा मूलमें गिनाई गई त्रस आदि कुछ अन्य मार्गणाओंमें भी अविकल बन जाती है, अतः उनके कथनको अोधके समान कहा है। किन्तु नपुंसकवेदमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल नरकमें ही सम्भव है, अतः यहाँ असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल ओघके समान न जानकर कुछ कम तेतीस सागर जानना चाहिये। इससे नपुंसकोंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल भी कुछ कम तेतीस सागर प्राप्त होता है अतः उसका निवारण करनेके लिये इनकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है। नपुंसकवेदकी उदयव्युच्छित्ति नौंवे गुणस्थानमें ही हो जाती है और नौवे गुणस्थानमें लोभ संज्वलनकी संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल नहीं प्राप्त होता, वह तो दसवें गुणस्थानमें प्राप्त होता है । इसके पहले तो अन्तिम फालिके पतनके समय संख्यातभागहानिका एक ही समय प्राप्त होता है, अतः नपुंसकोंके लोभसंज्वलनकी संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय ही समझना चाहिये। तथा यद्यपि संख्यातगुणवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय बतलाया है सो एक समय संक्लेशक्षयसे प्राप्त होता है और दूसरा समय एकेन्द्रियके द्वीन्द्रियादिकमें और द्वीन्द्रियादिकके पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होने पर प्राप्त होता है। पर इस दूसरे समयमें जीव अनाहारक रहता है। इसलिये आहारकोंके संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय समझना चाहिये। ६२६० आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका काल ओघके समान है । असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । दो वृद्धि और दो हानियों का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुवन्धीचतुष्ककी संख्यातभागहानि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका काल ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार सब नारकियोंके जानना चाहिए। किन्तु . Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] वडवणीए कालो १७३ २१. तिरिक्वेस छन्वीसं पयडीणं तिण्णिवड्डी अवट्ठिदमोघं । असंखेजभांगहाणी ० ० जह० एस ०, उक्क० तिष्णि पलिदो० सादिरेयाणि । दोहाणी० जहण्णुक० एगस० । णवरि अणंताणु० चउक० संखेजभागहाणी० असंखेज्जगुणहाणी० अवत्तव्व० ओघं । सम्मत - सम्मामिच्छत्ताणं सव्वपदा० ओघं । णवरि असंखेजभागहाणी ० जह० एगस ०, उक्क० तिष्णि पलि० देसूणाणि । एवं पंचिंदियतिरिक्खतियस्स वत्तव्वं । णवरि छव्वीसं पयडीणं संखेजभागवड्डी० संखेजगुणवड्डी० जहण्णुक० एगसमओ । णवरि हस्स saat विशेषता है कि कुछ कम अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए । विशेषार्थ — ओघ से मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यात भागवृद्धिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है । तथा अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । नरकमें भी यह काल इसी प्रकार बन जाता है, अतः इनके कालको प्रधके समान कहा है । उक्त प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय ओघ के समान यहाँ भी घटित कर लेना चाहिये । तथा उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, क्योंकि जो नरक में उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त में सम्यग्दृष्टि हो जाता है और नरकसे निकलने के अन्तर्मुहूर्त काल पहले तक सम्यग्दृष्टि बना रहता है उसके कुछ कम तेतीस सागर काल तक असंख्यात भागद्दानि देखी जाती है। तथा उक्त प्रकृतियोंकी संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, क्योंकि यहाँ संख्यात भागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि संक्लेशक्षयसे ही होती है अतः इन दोनोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय ही प्राप्त होता है । तथा उक्त दो हानियाँ स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतनके समय ही होती हैं इसलिये इनका भी जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय प्राप्त होता है । किन्तु अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातभागहानिके कालमें कुछ विशेषता है । बात यह है कि नारकी जीव भी अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करते हैं । और विसंयोजना में संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल दो समय कम उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण प्राप्त होता है जो कि नरकमें भी सम्भव है अतः नरक में अनन्तानुबन्धीकी संख्यात भागहानिका काल ओके समान कहा है । तथा नरकमें अनन्तानुबन्धकी असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्यविभक्ति भी होती हैं । फिर भी इनके कालमें ओघसे कोई विशेषता नहीं है, अतः इनके कालको भी ओघके समान कहा है। अब शेष रहीं दो प्रकृतियाँ सो इनकी असंख्यात भागहानिके उत्कृष्ट कालको छोड़कर शेष सब कथन ओघ के समान बन जाता है । किन्तु असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर प्राप्त होता है। इसका खुलासा पहले के समान है । प्रथमादि नरकों में भी इसी प्रकार जानना चाहिये, किन्तु असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल सर्वत्र कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । 1 $ २१. तिचों में छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धियों और अवस्थितका काल ओघके समान है । असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है । दो हानियों का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी संख्यातभागहानि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका काल ओघके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के सब पद ओघ के समान हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिचत्रिक के कहना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके छब्बीस प्रकृतियोंकी संख्यात भागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । इसमें इतनी विशेषता और है "2 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती रदि-अरदि-सोग-इस्थि-पुरिस-णवंसयवेद० संखेजगुणवड्डी० जह• एगसमओ, उक्क० के समया। ___६ २९२. पंचिंदियतिरिक्ख-मणुस्सअपज्जत्ताणं छठवीसं पयडीणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि असंखेजभागहाणी. जह० एगस०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । णवरि अणंताणु०च उक्क० असंखेजगुणहाणी अवत्तव्वं च णत्थि । संखेजभागहाणी. जहण्णुक्क० एयस० । सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमसंखेजमागहाणी. जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । तिण्णि हाणी० ओघं। कि हास्य, रति, अरति, शोक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है। विशेषार्थ-तिर्यंचोंमें २६ प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल जो साधिक तीन पल्य कहा है इसका कारण यह है कि भोगभूमिमें यदि प्रथमोपशम सम्यक्त्वको नहीं प्राप्त करता है तो उक्त प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि होती रहती है। इसलिये तीन पल्य तो ये हुए। तथा इसमें पूर्व पर्यायका अन्तमुहूर्तकाल और मिला देना चाहिये इस प्रकार तिर्यश्चगतिमें उक्त प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका साधिक तीन पल्य काल प्राप्त हो जाता है। तथा यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। कारण यह है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी दीर्घकालीन असंख्यातभागहानि सम्यग्दृष्टि के ही बन सकती है। मिथ्याष्टिके तो इनका अन्तर्मुहूर्तके बाद स्थितिकाण्डकघात होने लगता है। पर वेदकसम्यग्दृष्टि जीव मर कर तियचोंमें नहीं उत्पन्न होता और यहाँ कृतकृत्यवेदककी विवक्षा नहीं है । अतः जो जीव उत्तम भोगभूमिमें तिथंच हुआ और कुछ कालके बाद वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके जीवन भर उसके साथ रहा उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य पाया जाता है। पश्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकके हास्य, रति, अरति, शोक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद की संख्यातगुणवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय बतलाया है सो इसका कारण यह है कि जिसन भवके पहले समयमें परस्थानकी अपेक्षा संख्यातगुणवृद्धि की है और दूसरे समयमें संक्लेशक्षयसे संख्यातगुणवृद्धि की है वह एक आवलिके बाद कषायकी उक्त स्थितिका इन प्रकृतियों में दो समय तक संक्रमण करता है अतः उक्त प्रकृतियोंमें संख्यातगुणवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय प्राप्त होता है। ६२९२. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवोंके छब्बीस प्रकृतियोंका भंग पंचेन्द्रिय तियंचके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। किन्तु इसमें भी इतनी विशेषता है कि इनके अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और प्रवक्तव्य नहीं हैं। संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ठकाल एक समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा तीन हानियोंका काल ओषके समान है। विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्त और मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिये इनके सब प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा। इन जीवोंके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं होती, इसलिये इनके अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्य स्थितिका निषेध किया। तथा इसकी संख्यातभागहानका जघन्य और उस्कृष्ट काल एक समय कहा । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूषणाए कालो १७५ ____२९३. मणुसतिय० पंचिंदियतिरिक्खमंगो । णवरि मिच्छत्त-बारसक०-बवणोक० संखेजभागहाणी० असंखेजमुणहाणी० ओघं । $ २६४. देवाणं णेरइयभंगो। णवरि सब्वेसिमसंखेजभागहाणी० जह• एयप्त०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० संपुण्णाणि । एवं भवणादि जाव सहस्सार त्ति । णवरि सगहिदी। आणदादि जाव गवगेवज ति मिच्छत्त-वारसक०-णवणोक० असंखेजभागहाणी० जह. अंतोमु०, उक्क. सगद्विदी। संखजभागहाणी० जहण्णुक्क० एगसमओ। सम्मत्तसम्मामि० ओघं। णवरि असंखेजभागहाणी. जह० एयसमओ, उक० सगहिदी। अवडिदं णत्थि । अणंताणु०चउक्क० असंखेजमागहाणी. जह० एगस०, उक्क० सगद्विदी। तिण्णिहाणी अवत्तव्वं ओघं । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठसिद्धि ति मिच्छत्त०सम्मामि०-बारसक०-णवणोक० असंखजभागहाणी० जह• अंतोमुहुत्तं, उक्क० सगहिदी । संखञ्जमागहाणी. जहण्णुक० एयस० । सम्मत्त० असंखजभागहाणी. जह० एमस०, उक्क. सगद्विदी। संखेजभागहाणी. संखेजगुणहाणी० ओघं । अणंताणु०चउक्क. असंखेजभागहाणी जह० आवलिया जहण्णपरित्तासंखेजणूणा, उक्क० सगद्विदी । तिण्णि हाणी० ओघं। ६२६३. मनुष्यत्रिकमें पंचेन्द्रियतिथंचके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी संख्यातभागहानि और असंख्यातगुणहानिका काल ओघके समान है। २६४. देवोंमें नारकियोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सभी प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पूरा तेतीस सागर है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तक जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषताहै कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए।आनतसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका काल ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। यहाँ अवस्थित पद नहीं है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । तथा तीन हानि और प्रवक्तव्यका काल ओघके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। सम्यक्त्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका काल ओघके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल जघन्य परीतासंख्यात कम एक आवलिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । तथा तीन हानियोंका काल ओघके समान है। विशेषार्थ-देवोंमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है सो यह देवोंके उत्कृष्ट कालकी अपेक्षासे जानना चाहिए। आनतादिकसे लेकर मिथ्यात्व आदि २२ प्रकृतियोंकी अल्पतरविभक्ति ही होती है। किन्तु यदि यहाँ स्थितिकाण्डकघात होता है तो असंख्यात Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ... २९५. इंदियाणुवादेण एइंदिएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक असंखेजमागवड्डी० जह• एगसमओ, उक्क० वे सत्तारस समया। अवडिद० जह• एयसमओ, उक० अंतोमुहुः । असंखेजभागहाणी० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखेजदिभागो। संखेजभागहाणी० संखेजगुणहाणी० जहण्णुक्क० एगस० । सम्मत्त० सम्मामि० असंखेजभागहाणी० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखेजदिभागो। संखेजभागहाणी. जह. एगस०, उक्क० उक्कस्स० संखेजं दुरूवूणं । संखजगुणहाणी० असंखेजगुणहाणी० जहण्णु० एगसमओ। एवं वादरेइंदिय-सुहुमेइं दिय-पुढवि०-बादरपुढवि०-सुहुमपुढवि०-आउ०बादरआउ०-सुहुमआउ०-तेउ०-बादरतेउ०-सुहुमतेउ०-वाउ०-चादरवाउ०-सुहुमवाउ०वणप्फदि०-बादरवणप्फदि०-सुहुमवणप्फदि०-णिगोद० -बादरणिगोद०-मुहुमणिगोद०. बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरा ति । ६२९६. बादरेइंदियपज्जत्ताणमेइंदियभंगो । णवरि अट्ठावीसपयडीणमसंखेज्जभागहाणी० जह० एगसमओ, उक० संखेज्जाणि वाससहस्साणि । एवं बादरपुढविपज्ज.. भागहानिका काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। अन्यथा पूरी पर्याय भर असंख्यातभागहानि होती रहती है। यही कारण है कि आनतादिकमें उक्त बाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है। किन्तु नौ अनुदिश आदिमें सम्यग्दृष्टि जीव ही होते हैं, अतः वहाँ सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि और संख्यात. भागहानि ही सम्भव हैं जिनका काल उक्त प्रमाण प्राप्त होता है। तथा नौ अनुदिश आदिमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल जघन्य परीतासंख्यातसे कम एक आवलि है, क्योंकि विसंयोजनामें अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिके पतनके बाद जब एक श्रावलि स्थिति शेष रह जाती है तब जघन्य परीतासंख्यात प्रमाण स्थितिके शेष रहने तक असंख्यातभागहानि ही होती है और इसके बाद संख्यातभागहानि होने लगती है। शेष कथन सुगम है। ६२६५. इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट वाल मिथ्यात्वका दो समय और शेषका सत्रह समय है। अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवे भागप्रमाण है। संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो कम उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण है। संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, जलकायिक, बादर जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, निगोद, बादर निगोद, सूक्ष्म निगोद और बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर जीवोंके जानना चाहिये। ६२६६. बादर एकेन्द्रिय पर्यातकोंके एकेन्द्रियोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वड्डिपरूवणाए कालो बादरआउपज्ज०-बादरतेउपज्ज०-मादरवाउ०पज्ज-बादरवणफदिपज्ज-बादरवणप्फदिपत्तेय०पज्जत्ते त्ति । बादरेइंदियअपज्जत्ताणं बादरेइंदियपज्जत्तभंगो। णवरि अट्ठावीसपयडीणमसंखेज्जभागहाणी. जह० एगस०, उक्क० अंतोमुहुः । एवं सुहुमेइंदियपज्ज.. सुहुमेइंदियअपज्ज० बादरपुढविअपज्ज. सुहुमपुढविपज्ज०-सुहुमपुढविअपज्ज बादरआउ. अपज्ज०-सुहुम आउपज्ज-सुहुमआउअपज्ज०-बादरतेउअपज्ज०-सुहुमतेउपज्ज० सुहुमतेउ. अपज्ज०-बादरवाउ अपज्ज०-सुहुमवाउपज्ज०-मुहुमवाउअपज्ज०-बादरवणप्फदिअपज्जसुहुमवणप्फदिपज्ज०-सुहुमवणप्फदिअपज्ज०-बादरणिगोदपज्जत्त-अपज्जत्त-सुहुमणिमोद पज्जत्त-सुहमणिगोदअपज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरअपज्जत्ते ति।। २६७. बेइंदिय बेइंदियपज्ज-तेइंदिय-तेइंदियपज्ज०-चउरिदिय चउरिदियपज्ज. मिच्छत्त. असंखेज्जमागवड्डी० जह० एगसमओ, उक० वे समया। संखेज्जभागवड्डी० जहण्णुक्क० एगस०। असंखेज्जभागहाणी. जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहु० । संखेज्जाणि वाससहस्साणि किण्ण लब्भंति ? ण, सण्णिढिदिसंतकम्मियवियलिंदियस्स वि संखेज्जभागहाणिकंडए' पादिदे पुणो अंतोमुहुत्तेण णियमेण संखेज्जभागहाणिकंडयस्स पदणुवएसादो। हजार वर्ष है। इसी प्रकार बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिकपर्याप्त, बादर अग्निकायिकपर्याप्त, बादर वायुकायिकपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिकपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, वादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, बादर निगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीरअपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। ६२९७. द्वीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय पर्याप्त, चतुरिन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है। संख्यातभागवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। शंका-असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष क्यों नहीं प्राप्त होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि संज्ञीकी स्थितिसत्कर्मवाले विकलेन्द्रियके भी संख्यातभागहानिकाण्डकका पतन होने पर पुनः अन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा नियमसे संख्यातभागहानिकाण्डकके पतनका उपदेश पाया जाता है। १ ता. आ. प्रत्योः असंखेज्जभागहाणिकंडए इति पाठः । २३ । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती३ २९८. संखेज्जभागहाणी० संखेज्जगुणहाणी० जहण्णुक० एगस० । अवढि० ओघ । सोलसक०-णवणोक० असंखेज्जभागवड्डी० जह० एगस०, उक्क० सत्तारस समया। संखज्जभागवड्डी० जहण्णुक० एयस० । अवढि० ओघं । असंखज्जभागहाणि-संखेज्जभागहाणि-संखेज्जगुणहाणीणं मिच्छत्तभंगो। सम्मत्त-सम्मामि० असंखेज्जभागहाणी० जह० एयस०, उक्क० संखेज्जाणि वाससहस्साणि । संखेज्जभागहाणी० जह० एयस०, उक० उक्कस्ससंखेज्जं दुरूवणं । संखेज्जगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणी० जहण्णुक० एयस०। एवं बेइंदियअपज्ज-तेइंदियअपज्ज० चउरिदियअपज्जत्ताणं । णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमसंखेज्जभागहाणी० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । rrrrrrrrrrnmmmmmmmmmmmmmmeromrunmarrronm ६२६८. संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितका काल ओघके समान है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल सत्रह समय है । संख्यातभागवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अवस्थितका काल ओघके समान है। असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका भंग मिथ्यात्वके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। संख्यागभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो कम उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण है। तथा संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त और चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ द्वीन्द्रियादिक उपर्युक्त मार्गणाओंका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है, इसलिये इनमें मिथ्यात्व आदि २६ प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष प्राप्त होना चाहिये था। पर यहाँ यह काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है। वीरसेन स्वामीने इसका एक समाधान किया है। वे लिखते हैं कि जिन विकलेन्द्रियोंके संज्ञीके योग्य स्थिति सत्कर्म है उनके संख्यातभागहानिप्रमाण काण्डकके पतनके बाद अन्तर्मुहूर्तके भीतर नियमसे संख्यातभागहानिप्रमाण काण्डकके पतनका उपदेश आगममें पाया जाता है। इससे मालूम होता है कि असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। पर इस समाधानके बाद भी एक प्रश्न खड़ा ही रहता है। कि जिन विकलेन्द्रियोंके संज्ञीके योग्य स्थितिसत्कर्म नहीं है उनके असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष क्यों नहीं कहा । यद्यपि इसका सन्तोषकारक समाधान करना तो कठिन है फिर भी चूँकि यहाँ असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है और विकलेन्द्रिय जीव संख्यातभागहानिका प्रारम्भ कर सकते हैं ऐसा नियम है। इससे मालूम होता है कि जिन विकलेन्द्रियों के संज्ञीके योग्य स्थितिसत्कर्म न भी हो वे भी अन्तर्मुहूर्तमें संख्यातभागहानि करते हैं, अतः असंख्यात. भागहानिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। किन्तु इन मार्गणाओंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष ही है। तथा इन द्वीन्द्रियादिक अपर्याप्तकोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इनमें असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा । शेष कथन सुगम है। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ गा०२२] वडिपरूवणाए कालो F२६९. पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्ताणमोघं । णवरि संखेज्जभाग-गुणवड्डीए जहण्णु० एगसमओ। वे समया णस्थि, किंतु हस्स-रदि-अरदि-सोगित्थि-पुरिस-णqसयवेदाणं संखेज्जगुणवड्डीए उक० वे समया। पंचिंदियअपज्ज०-तसअपज्ज. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । णवरि तसअपज्ज० मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दुगुंछ० दोवड्डी० ओघं । ३००. जोगाणुवादेण पंचमण-पंचवचिजोगीसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० असंखेज्जभागवड्ढि०-अवडि. ओघं। संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जगुणवड्डि० जहण्णुक्क० एगस० । असंखेज्नजागहाणी० जह० एगस०, उक्क० अंतोमुहु० । संखेज्जमागहाणिसंखेज्जगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणीणमोघं। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमोघं। णवरि असंखेज्जभागहाणी० जह० एयस०, उक० अंतोमु०।। ६३०१. कायजोगि-ओरालियकायजोगीसुमिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० असंखेजभागवड्डि-संखेजभागवड्डि-संखेजगुणवड्डि-अवढि० ओघं। णवरि ओरालियकाय. जोगीसु संखेजभागवड्डि संखेजगुणवड्डीणं वे समया णत्थि, एगसमओ चेव । असंखेजभागहाणी० जह० एयस०, उक० पलिदो० असंखजदिभागो। णवरि ओरालियकाय. जोगीसु वावीसवाससहस्साणि देसूणाणि । संखजभागहाणि-संखजगुणहाणि-असंखञ्जगुणहाणीणमणंताणु०चउक० अवत्तव्वस्स च ओघं । सम्मत्त० सम्मामि० सव्वपदाण २६९. पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके ओघके समान जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिकाजघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। दो समय नहीं है। किन्तु हास्य, रति, अरति, शोक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी संख्यातगुणवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय है। पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके पंचेन्द्रिय तियच अपर्याप्तकोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि त्रस अपर्याप्तकोंके मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी दो वृद्धियोंका काल अोधके समान है।। ६३००. योगमार्गणाके अनुवादसे पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका काल ओघके समान है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। असंख्यात. भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका काल ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कथन ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। ६३०१. काययोगी और औदारिककाययोगीजीवोंमें मिथ्यात्व,सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि और अवस्थितका काल ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि औदारिककाययोगियोंमें संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका काल दो समय नहीं है किन्तु एक समय ही है । असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। किन्तु इतनी विशेषता है कि औदारिककाययोगियोंमें कुछ कम बाईस हजार वर्षे है । संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अवक्तव्यका काल ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पदोंका Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती! मोघं । णवरि असंखेजभागहाणी ० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखख दिभागो । ओरालिय० जोगीस बावीसवास सहस्साणि देणाणि । ओरालियमिस्स० छव्वीसं पयडीणं तिण्णिव ड्डि-तिष्णिहाणि अवद्वाणाणं पंचिदियतिरिक्ख अपजत्तभंगो। णवरि इत्थि - पुरिसवेदवजाणं सव्वकम्माणं संखेजभागवड्डीए जह० एगस ०, उक्क० वे समया । सम्मत्तसम्मामि० चदुण्हं हाणीणं पंचिदियतिरिक्ख अपजत्तभंगो । ९३०२. वेउव्वियकाय० छव्वीसं पयडीणं तिण्णिवड्डि-तिष्णिहाणि अवद्वाणाणं विदियपुढ विभंगो | णवरि असंखेज्जभागहाणी० जह० एगस ०, उक्क० अंतोमुहु० । अणताणु ० चउक्क० असंखेज्जगुणहाणी अवत्तन्वं ओघं । सम्मत्त सम्मामि० सव्वपदाणमोघं । णवरि असंखेज्जभागहाणी० जह० एगस०, उक्क० अंतोमुहु० | वेव्वियमिस्स० ओरालिय मिस्स ० भंगो | णवरि छव्वीसं पयडीणं संखेज्जभागवड्डीए सत्तणोकसायाणं संखज्जगुणवड्डी च वे समया णत्थि । सम्मत्त ० - सम्मामि० चदुण्हं हाणीणमोरालियमिस्स० भंगो | O ९ ३०३. कम्मइय० छन्वीसं पयडीणमसंखेज्जभागवड्डि-अवट्ठाणाणं जह० एगस०, उक्क० वेसमया । वेवड्डि-दोहाणीणं ज० उक० एस० । असंखेज्जभागहाणी ० ज० एगसमओ, उक्क० वे समया । सम्मत्त ० - सम्मामि० चदुष्णं हाणीणमोघं । णवरि असं कथन के समान है । किन्तु इतना विशेषता है कि असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । औदारिककाययोगियों में कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। औदारिक मिश्र काययोगियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थानका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त कोंके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदसे रहित शेष सब कर्मोंकी संख्यातवृद्धिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियोंका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों के समान है । ९३०२. वैक्रियिककाययोगियों में छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थानका भंग दूसरी पृथिवीके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी असंख्यात - गुणहानि और वक्तव्यका काल ओघ के समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के सब पदोंका कथन ओघ के समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका भंग औदारिकमिश्र काययोगियों के समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि छब्बीस प्रकृतियोंकी संख्यात भागवृद्धिका और सात नोकषायों की संख्यातगुणवृद्धिका काल दो समय नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियोंका भंग औदारिकमिश्रकाययोगियों के समान है । § ३०३. कार्मणकाययोगियों में छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियोंका काल ओघके समान है । किन्तु इतनी Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वड्डिपरूवणाए कालो १८१ खेज्जभागहाणि-संखेज्जभागहाणीणं जह० एगसमओ, उक्क० वे समया । एवमणाहारीणं । आहार० अट्ठावीसपयडीणमसंखेज्जभागहाणो० ज० एगस०, उक० अंतोमु० । आहारमिस्स० असंखेज्जभागहाणी. जहण्णुक्क० अंतोमु०। । ६३०४. वेदाणुवादेण इथि० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० असंखेज्जभागवड्डि. अवढि० ओघं । संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जगुणवड्डीणं पढमपुढविभंगो । णवरि हस्स-रदिअरदि सोग-इत्थि-पुरिस-णqसयवेदाणं संखेज्जगुणवड्डीए उक्व० वे समया । असंखेज्जमागहाणीए ज० एगसमओ, उक्क. पणवण्णपलिदो० देसूणाणि । संखेज्जमागहाणि-संखेज्जगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणीणमोघं । णवरि लोमसंज० संखेज्जमागहाणीए जहण्णुक्क० विशेषता है कि असंख्यातभागहानि और संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है। इसी प्रकार अनाहारकोंके जानना चाहिए। आहारककाययोगियोंमें अट्ठाईस तियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्महते है। आहारकमिश्रकाययोगियोंमें असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ—पाँचों मनोयोग और पाँचों वचनयोगोंका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, अतः इनमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा । औदारिककाययोगियोंमें संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिके उत्कृष्ट काल जो दो समयोंका निषेध किया सो इसका कारण यह है कि यह उत्कृष्ट काल अपर्याप्त अवस्थामें प्राप्त होता है पर औदारिककाययोग पर्याप्त अवस्थामें होता है। एकेन्द्रियोंके एक काययोग ही होता है और उनके असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण बतला आये हैं, अतः काययोगमें भी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। किन्तु औदारिककाययोगका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है, अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। औदारिकमिश्रकाययोगमें जो खावेद और पुरुषवेदकी संख्यातभागवृद्धिके उत्कृष्ट काल दो समयका निषेध किया सो इसका कारण ओघके समान यहाँ भी समझना चाहिये । अर्थात् संख्यातभागवृद्धिका दो समय काल जो दोइन्द्रिय तेइन्द्रियोंमें और तेइन्द्रिय चौइन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके प्राप्त होता है पर वहाँ भवके अन्तमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदका बन्ध सम्भव नहीं, अतः वहाँ बीवेद और पुरुष. वेदकी संख्यातभागवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय सम्भव नहीं है। वैक्रियिककाययोगका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। छब्बीस प्रकृतियों की संख्यातभागवृद्धिका और सात नोकषायोंकी संख्यातगुणवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय औदारिकमिश्रकाययोगमें ही बनता है अतः इसका वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें निषेध किया है। ६३०४. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका काल ओघके समान है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका काल पहली पृथिवीके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि हास्य, रति, अरति, शोक, खीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी संख्यातगुणवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम पचवन पल्य है। संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका काल ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि लोग संघलनकी संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनन्तानुबन्धी Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जयधर्वलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ एगसमओ । अणंताणु० अवत्तव्य० ओघं । सम्मत्त-सम्मामि० चत्तोरिवड्डि-तिण्णिहाणिअवट्ठाण-अवत्तव्याणमोघं । असंखेज्जभागहाणी. ज. एगसमओ, उक. पणवण्ण पलिदोवमाणि पलिदो० असंखेज्जदिभागेण सादिरेयाणि । पुरिसवेद० अट्ठावीसं पयडीणं सव्वपदाणमोघं । णवरि छव्वीसं पयडीणं संखेज्जभागवड्डी० मिच्छत्त-सोलसक०-भयदुगुछाणं संखेज्जगुणवड्डीए च जहण्णुक० एगस० । लोभसंजल. संखेज्जगुणहाणीए इत्थिभंगो । अवगद० मिच्छत्त०-पम्मत्त-सम्मामि० असंखेज्जभागहाणीए जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । संखेज्जभागहाणी० जहण्णुक० एगस० । एवमट्टकसायाणं । सत्तणोकसायाणमसंखेज्जभागहाणी. ज. एगस०, उक. अंतोमु० । संखज्जमागहाणिसंखेज्जगुणहाणी० जहण्णुक० एगस० । एवं चदुण्डं संजलणाणं । णवरि लोभसंज. संखेज्जभागहाणी० ओघं । इत्थि-णवंसयवेदाणमट्ठकसायभंगो । चतुष्कर अवक्तव्यका काल अोधके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, तीन हानि, अवस्थान और अवक्तव्यका काल ओघके समान है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्याववाँ भाग अधिक पचवन पल्य है। पुरुषवेदियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पदोंका काल ओषके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि छब्बीस प्रकृतियोंकी संख्यातभागवृद्धिका और मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। लोभसंज्वलनकी संख्यातगुणहानिका भंग स्त्रीवेदियों के समान है। अपगतवेदियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात- . भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार आठ कषायोंका जानना चाहिए। सात नोकषायोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार चारों संज्वलनोंका जान चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि लोभ संज्वलनकी संख्यातभागहानिका काल ओघके समान है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भंग आठ कषायोंके समान है। विशेषार्थ हास्यादि सात प्रकृतियोंकी संख्यातगुणवृद्धिके उत्कृष्ट काल दो समयका कारण पहले बतला आये हैं उसी प्रकार स्त्रीवेदियोंके भी समझना चाहिये । यद्यपि स्त्रीवेदीका उत्कृष्ट काल सौ पल्य पृथक्त्व है तथापि इनके २६ प्रकृतियोंकी निरन्तर असंख्यातभागहानि सम्यक्त्व दशामें ही सम्भव है और स्त्रीवेदमें सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम पचवन पल्य है, अतः यहाँ २६ प्रकृतियों की असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है । लोभ संज्वलनकी संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल दसवें गुणस्थानमें प्राप्त होता है। अन्यत्र तो एक समय ही बनता है। पर दसवेमें स्त्रीवेद नहीं होता, अतः स्त्रीवेदमें लोभसंज्वलनकी संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। जो स्त्रीवेदी पल्यके असंख्यात भाग कालसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि कर रहा है वह यदि इस कालके भीतर पचवन पल्यकी आयुवाली देवियोंमें उत्पन्न हो जाय और वहाँ वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके जीवन भर उसके साथ रहे तो उसके भी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि सम्भव है, अतः इनकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक पचवन पल्य कहा है । छब्बीस प्रकृतियों की संख्यातभागवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय तथा मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी संख्यात. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूवणाए कालो ६३०५. कसायाणुवादेण चदुण्णं कसायाणमोघं । णवरि अट्ठावीसं पयडीणमसंखे०. भागहाणीए जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० कोध-माण-मायकसाईसु लोभसंजलणस्स संखे०भागहाणीए जहण्णुक० एगस० । अकसा० चउवीसपयडीणमसंखेज्जभागहाणीए जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं जहाक्खाद० । ___३०६. णाणाणुवादेण मदि-सुदअण्णाणीसु छब्बीसं पयडीणं तिण्णिवड्डि-अवट्ठाणाणमोघं । असंखेज्जभागहाणीए जह० एगसमओ, उक्क एकत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । संखेज्जभागहाणि-संखेज्जगुणहाणीणं जहण्णुक० एंगस० । सम्मत्त-सम्मामि० असंखेज्जभागहाणीए जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखेज्जदिभागो। तिण्हं हाणीण गुणवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय नपुंसकवेदमें ही बनता है, अतः पुरुषवेदमें इनका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। अपगतवेदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इसमें दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। अपगतवेदमें दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंकी संख्यातभागहानि स्थितिकाण्डककी अन्तिम कालिके पतनके समय होती है, अतः इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। अपगतवेदमें आठ कषायोंकी असंख्यातभागहानि और संख्यात. भागहानि होती हैं सो इनका काल पूर्वोक्त प्रमाण है। इसी प्रकार स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके सम्बन्ध में समझना चाहिये। अब रहीं सात नोकषाय और चार संज्वलन सो इनकी तीन हानियाँ होती हैं । सो इनके जघन्य और उत्कृष्ट कालका खुलासा सुगम है। ६३०५. कषायमार्गणाके अनुवादसे चारों कषायवालोंका काल ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। क्रोध, मान और मायाकषायवाले जीवोंमें लोभसंज्वलनकी संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। कषायरहित जीवोंमें चौबीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-चारों कषायोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिये इनमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। स्वयं असंख्यातभागहानिका भी जघन्य काल एक समय है, इसलिये भी यहाँ असंख्यातभागहानिका एक समय काल बन जाता है। लोभकी संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल दसवेंमें होता है अन्यत्र तो एक ही समय प्राप्त होता है और दसवेंमें क्रोध, मान और मायाका उदय नहीं है अतः इन तीनों कषायोंमें लोभसंज्वलनकी संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। अकषायी और यथाख्यातसंयतोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इनमें २४ प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। ६३०६. ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और अवस्थानका काल ओधके समान है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तीन झनियोंका Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती। मोघं । एवं विहंगणाणो० । णवरि छठवीसं पयडीणमसंखेज्जमागहाणी. जह० एगसमओ, उक्क० एकत्तीस सागरो० देसूणाणि । संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जगुणवड्डीणं जहण्णुक. एगस०। $ ३०७. आभिणि०-सुद० छव्वीसं पयडीणमसंखेज्जभागहाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० छावद्विसागरो० सादिरेयाणि अंतोमुहुत्तेण । णवरि मिच्छत्त० अणंताणु०चउक्क.. अट्ठक. जह. आवलिया जहण्णपरित्तासंखेज्जेणूणा । एदमत्थपदमुवरि वि जहासंभवं जोजेयव्वं । अथवा एदं पि अंतोमुत्तमेवे त्ति सव्वत्थ णेदव्वं । संखज्जमागहाणि-संखेज्जगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणीणमोघं । सम्मत्त-सम्मामि० तिण्हं हाणीणमोघं । सम्मत्त. असंखेज्जभागहाणीए जह० अंतोमु०, सम्मामि० आवलिया परित्तासंखेज्जेणूणा । उक्क० दोहं पि छावहिसागरो० सादिरेयाणि । एवमोहिणाण । मणपज्जव० अट्ठावीसपयडोणमसंखेज्जभागहाणी० जह. अंतोमु० । अथवा छब्बीस पयडीणमेयसमओ। उक्क० पुवकोडी देसूणा । संखज्जभागहाणि-संखज्जगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणीणं काल ओघके समान है। इसी प्रकार विभंगज्ञानियोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम इकतीस सागर है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। विशेषार्थ-नौंवे प्रैवेयकका उत्कृष्ट काल ३१ सागर है और वहाँ मिथ्यादृष्टि जीव भी होते हैं अतः कुमतिज्ञान और कुश्रुतज्ञानमें असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर कहा। यहाँ साधिकसे पिछले भवका कुछ काल लिया है। किन्तु विभङ्गज्ञान अपर्याप्त अवस्थामें नहीं होता अतः इसमें असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल कुछ कम इकतीस सागर कहा । तथा तीनों अज्ञानोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह स्पष्ट ही है, क्योंकि मिथ्यादृष्टिके इससे अधिक काल तक इनकी सत्ता नहीं रहती। ६३०७. आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त अधिक छयासठ सागर है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क और आठ कषायोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल जघन्य परीतासंख्यात कम एक आवलिप्रमाण है। यह अर्थपद यथासम्भव आगे भी लगा लेना चाहिये। अथवा यह भी अन्तर्मुहूर्त ही है इस प्रकार सर्वत्र कथन करना चाहिये। संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका काल ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन हानियों का काल ओघके समान है। सम्यक्त्वकी असंख्यात भागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल परीतासंख्यात कम एक आवलिप्रमाण है। दोनोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है। इसी प्रकार अवधिज्ञानियोंके जानना चाहिए । मनःपर्ययज्ञानियों में अट्ठाइस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है। अथवा छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है । संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुण १ ता. प्रतौ घडवीस इति पाठः । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वहिपरूवणाए कालो १८५ जहण्णुक्क० एगसमयो । एवं संजदाणं । णवरि मणपज्जवणाणी० संजदेसु च णवणोक०तिसंजलणवदिरित्तपयडीणं संखेज्जभागहाणीए ओघं । सामाइय-छेदो० एवं चेव । णवरि लोभसंजल. खेज्जभागहाणी० जहण्णुक० एगसमओ। ३०८. परिहार० अट्ठावीसपयडीणमसंखेज्जमागहाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० पुवकोडी देसूणा। मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु० चउक्क० तिण्हं हाणीणमोघं । हानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार संयतोंके जानना। किन्तु इतनी विशे. षता है कि मनःपर्ययज्ञानी और संयतोंमें नौ नोकषाय और तीन संज्वलनोंसे रहित शेष प्रकृतियोंकी संख्यातभागहानिका काल ओघके समान है। सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि लोभसंज्वलनकी संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । विशेषार्थ-आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञानका जघन्य काल अन्र्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है इसलिये इनमें २६ प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर कहा है। किन्तु मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार और आठ कषाय इनके अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिके पतन होने पर जब एक आ लप्रमाण स्थिति शेष रह जाती है तब जघन्य परीतासंख्यात कम एक प्राव ल काल तक इनकी असंख्यातभागहानि ही होती है अतः इनकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त न कहकर उक्त प्रमाण कहना चाहिये। अन्यत्र जिन जिन मार्गणाओं में यह काल सम्भव हो वहाँ भी इसी प्रकार कथन करना चाहिये। वैसे सामान्यरूपसे देखा जाय तो यह काल भी अन्तर्मुहूर्तमें गभित है इसलिये इसे अन्तर्मुहूर्त कहनेमें भी कोई आपत्ति नहीं है । यहाँ इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल तथा सम्यक्त्वकी असंख्यातभागहानिका केवज उत्कृष्ट काल घटित कर लेना चाहिये । किन्तु सम्यक्त्वकी असंख्यातभागहानिके जघन्य कालमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि कृतकृत्यवेदकसम्यक्त्वके बाद जीवके अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्यक्त्वकी असंख्यातभागहानि ही होती है, इसलिये इसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इसी प्रकार अवधिज्ञानमें जानना चाहिये । मनःपर्ययज्ञानका जघन्य काल अन्तर्मुहूते और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटिवर्षप्रमाण है, अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। यहाँ पर प्रकारान्तरसे मनःपर्ययज्ञानमें २४ प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय भी बतलाया हे सा यह जिस जीवके अन्य हानिके बाद एक समय तक असख्यातभागहानि हुई और दूसरे समयमें मर गया उसकी अपेक्षासे जानना चाहिये। इसी प्रकार संयतोंके जानना चाहिये। यहाँ पर मनापर्ययज्ञान और संयतोंके नौ नोकषाय और तीन संज्वलनोंको छोड़कर शेष प्रकृतियोंकी संख्यातभागहानिका काल ओघके समान कहा है सो इसका इतना ही मतलब है कि इनका यहाँ जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कम उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण है, क्योंकि मनःपर्ययज्ञानी और संयतोंके दर्शनमोह और चारिमोहकी क्षपणा होती है। तीन संज्वलन और नौ नोकषायोंकी संख्यातभागहानिका जघन्य व उत्कृष्ट काल एक समय ही है। सामयिक और छेदोपस्थापनामें भी इसा प्रकार जानना चाहिये। किन्तु ये दोनों संयम नौवें गुणस्थान तक ही होते हैं, अतः इनमें लोभकी संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय ही प्राप्त होता है। ६३०८, परिहारविशुद्धिसंयतोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि है। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और २४ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहन्ती ३ ० बारसक० णवणोक० संखेज्जभागहाणी० जहष्णुक ० एगसमओ । सुहुमसांपराय ० चवीसपयडीणमसंखेज्जभागहाणी ० ० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । दंसणतियलोभसंजलणाणं संखेज्जभागहाणी • जहण्णुक० एस० । णवरि लोभसंज० जह० एगस ०, उक्क ० उक्कस्ससंखेज्जं दुरूवूणं । लोभसंज० संखेज्जगुणहाणी ० जहण्णुक्क • एगस० । संजदासंजद० परिहारसंजदभंगो । असंजद० छन्वीसं पयडीणं तिण्णिवड्डिअवट्ठाणाणमोघं । असंखेज्जभागहाणी ० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । संखेज्जगुणहाणी० श्रघं । एकवीसपयडीणं संखेज्जभागहाणी० जहण्णुक० एगस० । मिच्छत्त० - अनंताणु० संखेज्ज भागहाणि - असंखेज्जगुणहाणी ० सम्मामि० सच्चपदाणमणंताणु अवत्तव्वस्स च ओघं । णवरि सम्म० सम्मामि० असंखेज्जभागहाणी ० उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । सम्मत्त० I अनन्तानुबन्धचतुष्ककी तीन हानियोंका काल ओघ के समान है । बारह कषाय और नौ नोकषायों की संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सूक्ष्मसां परायिकसंयतों में चौबीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानि का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तीन दर्शनमोहनीय और लोभसंज्वलनकी संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । किन्तु इतनी विशेषता है कि लोभसंज्वलनकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो कम उत्कृष्ट संख्या प्रमाण है । तथा लोभसंज्वलन की संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । संयतासंयतों का भंग परिहारविशुद्धिसंयतों के समान है । असंयतों में छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और अवस्थानका काल ओघ के समान है। असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। संख्यातगुणहानिका काल ओघ के समान है । इक्कीस प्रकृतियों की संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धचतुष्ककी संख्यातभागहानि और असंख्यात गुणद्दानिका काल तथा सम्यक्त्व और सम्यम्मध्यात्व के सब पदोंका काल तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यस्थितिविभक्तिका काल ओघने समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । विशेषार्थ – परिहारविशुद्धिसंयमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्व कोटिवषप्रमाण है इसलिये इसमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानिका जघन्य काल अन्तहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटिवर्ष प्रमाण कहा है। सूक्ष्म सम्परायसंयमका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिये इसमें २४ प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। सर्वार्थसिद्धि में तेतीस सागरतक छब्बीस प्रकृतियों की और सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानि सम्भव है और यह जीव जब अन्य पर्याय में आता है तब भी कुछ कालतक यह पाई जाती है, अतः असंयतों के असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल साधिक तास सागर कहा है । असंयतोंके चारित्रमोहनीयकी क्षपणा सम्भव नहीं, इसलिये इनके २१ प्रकृतियोंकी संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है; क्योंकि इनमें से कुछ प्रकृतियों की संख्यातभागहानिका अधिक काल चारित्रमोहनीयकी क्षपणामें ही सम्भव है। शेष कथन सुगम है । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वड्डिपरूवणाए काला १८७ __$३०६, दंपणाणुवादेण चक्खुदसणीसु ओघं । णवरि संखेज्जभागवड्डी० वे समया णत्थि । ओहिदंसणी० ओहिणाणिभंगो। $३१०. किण्ह-णील-काउलेस्सासु छव्वीसं पयडीणं तिण्णिव टि-अवट्ठाणाणपोघं । असंखेज्जमागहाणी०जह०एगस०,उक्क०तेत्तीस सत्तारस सत्त सागरो०देसूणाणि । संखेज्जभागहाणि संखेज्जगुणहाणी० जहण्णुक० एगस० । णवरि अणंताणु०चउक्क० संखेज्जभागहाणि-असंखेज्जगुणहाणि-अवत्तव्याणमोघं। सम्मत्त०सम्मामि० चत्तारिवाड्डि-अवट्ठाणाणमोघं । असंखेजमागहाणी. जह० एगस०, उक्क० तेत्तीस सत्तारस सत्त सागरो० देसूणाणि । संखेज्जभागहाणि-संखेजगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणि-अवत्तव्वाणि ओघं । ३११. तेउ-पम्मलेस्सा० तिण्णिवड्डि-अवट्ठाणाणं सोहम्मभंगो। अट्ठावीसं पयडीणमसंखेज्जभागहाणीए जह० एगसमओ, उक्क० तेउलेस्साए अड्डाइजसागरोवमाणि पम्मलेस्साए अट्ठारस सागरो० सादिरेयाणि । मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० संखेजभागहाणि-संखेजगुणहाणी. जहण्णुक० एगस० । णवरि मिच्छत्त० संखेजभागहाणीए असंखेजगुणहाणीए च ओघ । अणंताणु०चउक्क० संखेजभागहाणि-संखेज्जगुणहाणिअसंखेज्जगुणहाणि-अवत्तवाणमोघं । सम्मत्त०-सम्मामि० चत्तारिवाड्डि-तिण्णिहाणि ६३०६ दर्शनमागंणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवाले जीवोंमें ओघके समान जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातभागवृद्धिका दो समय काल नहीं है । अवधिदर्शनवाले जीवोंका भंग अवधिज्ञानियोंके समान है। विशेषार्थ—जो तेइन्द्रिय जीव चौइन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं उनमें संख्यातभागवृद्धिका दो समय तक होना सम्भव है । पर स्वस्थानकी अपेक्षा वह एक समय तक ही होती है, इसलिये चक्षु. दर्शनवाले जीवोंमें संख्यातभागवृद्धिके दो समयोंका निषेध किया है । शेष कथन सुगम है। ६३१० कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और अवस्थानका काल ओघके समान है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस, कुछकम सत्रह और कुछकम सात सागर है । संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी संख्यातभागहानि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका काल ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि और अवस्थानका काल ओघके समान है। असंख्यात. भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल क्रमसे कुछकम तेतीस, कुछकम सत्रह और कुछ कम सात सागर है। संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका काल ओघके समान है। ३११ पीत और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और अवस्थानका भंग सौधर्म स्वर्गके समान है। अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पीतलेश्यामें ढाई सागर तथा पद्मलेश्यामें साधिक अठारह सागर है। मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वकी संख्यातभागहानि और असंख्यातगुणहानिका काल ओघके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तब्यका काल ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जयधवलास हिदे कसाय पाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ अ - अत्तव्वाणमोघं । सुक्कले छब्वीसं पयडीणमसंखेज्जभागहाणी ० जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरो ० सादिरेयाणि । तिष्णिहाणी० ओघं । सम्मत्त सम्मा मि० चत्तारिखड्डि- चत्तारिहाणि अवत्तन्त्र - अवद्वाणाणि ओघं । णवरि असंखेज्ज मागहाणी० उक्क० तेत्तीस सागरो० सादिरेयाणि । $ ३१२. भवियाणुवादेण अभव० छब्बीसं पयडीणं तिण्णिवड्डि-दोहाणि-अवड्डाणाणमोघं । णवरि संखेज्जभागहाणी • जहण्णुक्क० एस० । असंखेज्जभागहाणी ० जह० एगस ०, उक्क० एकत्तीस सागरो० सादिरेयाणि । $ ३१३. सम्मत्ताणुवादेण सम्मादि० आभिणि०मंगो । वेदग० मिच्छत्त-सम्मत्तसम्मामि० असंखेज्जभागहाणी ० जह० अंतोमु०, उक्क० छावट्टिसागरो० देसूणाणि । ० चार वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्यका काल ओघके समान है । शुक्ललेश्यावाले जीवों में छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागद्दानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तीस सागर है। तीन हानियोंका काल ओघ के समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, चार हानि, अवक्तव्य और अवस्थितका काल ओघ के समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । विशेषार्थ - यद्यपि कृष्ण, नील और कापोत लेश्याओंका उत्कृष्ट काल क्रमशः साधिक तेतीस सागर, साधिक सत्रह सागर और साधिक सात सागर है तथापि इनमें सम्यग्दृष्टियों के ही २६ प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानि निरन्तर बन सकती है । अब यदि सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा से इन लेश्याओं में कालका विचार करते हैं तो वह क्रमसे कुछ कम तेतीस सागर, कुछ कम सत्रह सागर और कुछ कम सात सागर प्राप्त होता है, इसलिये इनमें उक्त प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानिका उक्त प्रमाण काल कहा है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल जानना चाहिये । पीतलेश्याका उत्कृष्ट काल ढाई सागर और पद्मलेश्याका साधिक अठारह सागर है, इसलिये इनमें २८ प्रकृतियों की असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । शुक्ललेश्याका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है, इसलिये इसमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है । शेष कथन सुगम है । ६ ३१२ भव्य मार्गंणाके अनुवाद से अभव्यों में छब्बीस प्रकृतियों की तीन वृद्धि, दो हानि और अवस्थानका काल ओघ के समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्या भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल. एक समय है । असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर है । विशेषार्थ — मिध्यादृष्टि जीवके अधिक काल तक जाती है । अब यदि कोई मिध्यादृष्टि जीव नौवें ग्रैवेयक में भी कुछ काल तक उसके असंख्यात भागहानि सम्भव है। भागहानिका उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर कहा है । शेष कथन सुगम है । असंख्यात भागहानि नौवें ग्रैवेयक में पाई उत्पन्न होता है तो पूर्व पर्याय में अन्त में यही कारण है कि अभव्यों के असंख्यात - § ३१३ सम्यक्त्वमार्गणा के अनुवाद से सम्यग्दृष्टियों का भंग आभिनिबोधिकज्ञानियों के समान है । वेदकसम्यग्दृष्टियों में मिध्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछकम छयासठ सागर है । संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूवणाए कालो १६ संखेज्जमागहाणि-संखेज्जगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणी० ओघं। एवमणंताणु०चउकस्स । बारसक०-णवणोक० असंखेज्जभागहाणी. जह• अंतोमु०, उक्क० छावट्ठिसागरोवमाणि देखणाणि । संखज्जभागहाणि-संखज्जगुणहाणी० जहण्णुक्क. एगस० । खइय० एकवीसं पयडीणमसंखेज्जभागहाणी. जह• अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो. सादिरेयाणि । तिण्णिहाणी० ओघं । उवसमसम्माइट्ठी० अट्ठावीसं पयडीणमसंखेज्जभागहाणी० जहण्णुक्क० अंतोमु० । संखज्जभागहाणी० जहण्णुक्क० एगस० । अणंताणु०च उक्क० संखेन्ज गुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणि-संखेजभागहाणीणमोघं । सासण. अट्ठावीसपयडीणमसंखज्जभागहाणा. जह० एगस०, उक्क० छ आवलियामो समऊणाओ। सम्मामि० अट्ठावीसपयडीणमसंखज्जभागहाणी० ज० एगस०, उक० अंतोमहत्तं । संखेज्जभागहाणि-संखेज्जगुणहाणी० जहण्णुक्क० एगसमओ। मिच्छाइट्ठी. छब्बीसं पयडीणं तिण्णिवाड्डि-अवट्ठाणाणमोघं । असंखेज्जभागहाणी. जह० एगस०, उक्क० एकत्तीस सागरो० सादिरेयाणि । संखेज्जभागहाणि-संखेज्जगुणहाणी० जहण्णुक्क० एगस० । सम्मत्त-सम्मामि० असंखेज्जभागहाणी० ज० एगसमो, उक्क० पजिदो० असंखेज्जदिमागो। संखेज्जभागहाणि-संखज्जगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणी० ओघं । और असंख्यातगुणहानिका काल ओघके समान है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए । बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस प्रकृतियों की असंख्यातभागहानका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। तीन हानियोंका काल ओघके समान है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कको संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और संख्यातभागहानिका काल आघक समान है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल एक समय कम छहावली है। सम्यग्मिथ्याष्टियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंका असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहते है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। मिथ्याष्टियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और अवस्थानका काल ओघके समान है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका काल ओषके समान है। विशेषार्थ-वेदकसम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर है, अतः इनमें असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है । क्षायिकसम्यक्त्वका काल ता सादि-अनन्त है पर संसार अवस्थाकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। अतः इसमें असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ____३१४. सणियाणु० सण्णीणमोघं । णवरि संखेज्जभागवड्डीए संखेज्जगुणवड्डीए च णत्थि वे समया। सत्तणोकमायणं संखज्जगुणवड्डीए अस्थि वे समया। असण्णीसु छब सं पयडीणमसंखज्जभागवड्डि-सखज्जभागवड्डि-अवट्ठाणाणि ओघ । संखेज्जगुणवड्डी० जहण्णुक्क० एगस० । संखेज्जभागहाणि-संखेज्जगुणहाणी. जहण्णुक्क० एगस० । असंखेज्जभागहाणी० ज० एगस०, उक्क. पलिदा० असंखेज्जदिभागो। सम्मत्त०-सम्मामि० असंखज्जमागहाणी. जह० एगस०, उक० पलिदो० असंखज्जदिमागो । तिण्णिहाणी० ओघं । आहाराणुवादेण आहारीसु ओषं । णवरि संखेज्जगुणवड्डीए वे समया णस्थि । सत्तणोकसायाणमस्थि । एवं कालाणुगमो समत्तो । उक्त प्रमाण कहा है। उपशमसम्यक्त्वका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। यहाँ अनन्तान की विसंयोजना हाती है इस अपेक्षासे इसमें अनन्तानुबन्धीकी सब हानियाँ बतलाई हैं। यद्यपि सासादनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवलि है तो भी स्वस्थानकी अपेक्षा यहाँ असख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल एक समय कम छह आवलि प्राप्त होता है अधिक नहीं । सम्याग्मथ्यात्वका यद्यपि जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है तथापि असख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय यहाँ प्राप्त हो सकता है, अतः यहाँ असंख्यात. भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूत कहा है। मिथ्या दृष्टियों के असंख्यातभागहानका उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर अभव्योंके समान घटित कर लेना चाहिये। किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है । कारण स्पष्ट है। ३१४ संज्ञामागणाके अनुवादसे संज्ञियोंके ओघ के समान काल है। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका दो समय काल नहीं है। सात नोकषायोंकी संख्यातगुणवृद्धिका दा समय काल है। असंज्ञिया में छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि और अवस्थानका काल ओघके समान है। संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जवन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट साल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा तीन हानियों का काल ओघके समान है। आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें ओघके समान काल है। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणवृद्धिका दो समय काल नहीं है तथा सात नोकषायोंकी संख्यातगुणवृद्धिका दो समय काल है। विशेषार्थ-संख्यातभागवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय असंज्ञियोंके ही प्राप्त होता है और संख्यातगुणवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय जा एकेन्द्रिय व विकलत्रय जीव संझियों में उत्पन्न होता है उसक होता हे अतः सं.ज्ञयोंक इसका निषेध किया है। हाँ सात नोकषायोंकी सख्यातगुणवृद्धिका दो समय काल संज्ञियोंके भी बन जाता है। इसका विशेष खुलास. पहलेके समान यहाँ भी कर लेना चाहिये । एकेन्द्रियोंम असंख्यातभागहानिकाण्डकघातका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूवणाए अंतरं * एगजीवेण अंतरं। ६३१५. सुगममेदं । * मिच्छत्तस्स असंखेज भागवडि-अवहाणहिदिविहत्तियंतरं केवचिरं कालादो होदि ? $ ३१६. सुगममेदं। * जहणणेण एगसमयं । ३१७. तं जहा–असंखेज्जभागवड्डिमट्ठाणं च पुध पृध कुणमाणदोजीवेहि विदियसमए अप्पिदपदविरुद्धपदम्मि अंतरिय तदियसमए अप्पिदपदेणेव परिणदेहि एगसमयमंतरं होदि त्ति मणेणावहारिय एगसमओ त्ति मणिदं ।। ___ * उक्कस्सेण तेवहिसागरोवमसदं तीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं । ____६३१८. कुदो ? असंखेज्जभागहाणि-संखेज्जभागहाणीणमुक्कस्सकालेहि अंतरिय अप्पिदपदेण परिणदाणं तदुवलंभादो।। * संखेजभागवड्डि-हाणि-संखेजगुणवड्डि-हाणिहिदिविहत्तियंतरं जह गणेण एगसमो हाणी० अंतोमुहुत्तं । प्रमाण है, अतः असंज्ञियोंमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। संख्यातगुणवृद्धिके दो समय केवल आहारक अवस्थामें नहीं प्राप्त होते, इसलिये इनका आहार कके निषेध किया है। तो भी जैसा कि पहले घटित करके बतला आये हैं तदनुसार सात नोकषायोंकी संख्यातगुणवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय आहारकोंके भी बन जाता है। इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ। * अब एक जीवकी अपेक्षा अन्तरानुगमका अधिकार है। ६ ३१५ यह सूत्र सुगम है। * मिथ्यात्वकी असंख्यातमागवृद्धि और अवस्थानस्थितिविभक्तिका अन्तर काल कितना है ? ६ ३१६ यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है। ६३१७ जो इसप्रकार है-असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थानको अलग-अलग करनेवाले दो जीव दुसरे समयमें विवक्षित पदोंसे विरुद्ध पदद्वारा अन्तर करके तीसरे समयमें पुनः विवक्षित पदोंसे ही परिणत होगये तो एक समय अन्तर होता है ऐसा मनमें निश्चय करके उक्त दोनों पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है ऐसा कहा है । * उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन पल्य अधिक एकसौ वेसठ सागर है। ६३१८ क्योंकि असंख्यातभागहानि और संख्यातभागहानिके उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा अन्तर करक विवक्षित पदोंसे परिणत हुए जीवों के उक्त अन्तर काल पाया जाता है। * मिथ्यात्वकी संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिस्थितिविभक्तियों में से वृद्धियोंका जघन्य अन्तर एक समय और हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूते है। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहन्ती ३ - $ ३१६, तं जहा – बेइंदिओ सत्याणे चैव संखेज्जभागड्डिमेगममयं काढूण पुणो विदियसमए अवदिबंधं करिय तदियसमए तेईदिए सुप्पज्जिय संखेज्जभागवड्डीए कद ए लद्धमंतरं होदि । संपहि संखेज्जगुणवड्डीए जहण्णमंतरं वृच्चदे । तं जहा - एईदिएण दो विग्ग काढूण सण्णी सुप्पण्णेण पढमविग्गहे संखेज्जगुणवड्डि करिय विदियविग्गहे अवदि करिय तदियसमए सरीरं घेत्तृण संखेज्जगुणवड्डीए कदाए लद्धमेगसमयमंतरं । संखेज्जभागहाणी उच्चदे । तं जहा- पलिदोवमट्ठि दिसंतक मस्सुवरिमदुचरिमट्ठि दिकंडयच रिमफालियाए पदिदाए संखेज्ज मागहाणी होदि । तदो असंखेज्जभागहाणीए अंतोमुद्दत्तसंतरिय चरिमकंडयचरिमफालीए पदिदाए संखेज्जभागहाणीए जहण्णमंतर मंतो मुहुत्तमेतं होदि । संखेज्जगुणहाणीए बुचदे । तं जहा - दूराव किट्टिडिदिसंतकम्म स्तुवरिमदुचरिमद्विदिकंडय चरिमफालियाए संखेज्जगुणहाणीए आदि काढूण पुणो अंतोमुहुत्तकालमसंखेज्जभागहाणीए अंतरिय चरिमट्ठिदिकंडय चरिमफालीए पदिदाए संखेज्जगुणहाणीए जहणेण अंतमुत्तमं तर होदि । --- १६२ * उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । ९३२०. कुदो ? सणिपंचिदिएस दोण्हं वड्डि-हाणीणमादिं कादृण पुणो एइंदिएस आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तपोग्गलपरियट्टाणि भयिय तदो सणिपंचिदिए सुप्पज्जिय दोवड्डि-हाणीसु कदासु चदुण्हं पि असंखेज्जपोग्गलपरियट्टमेत्तं लद्धमंतरं होदि । एदीए $ ३६ जो इसप्रकार है - कोई द्वीन्द्रिय स्वस्थानमें ही एक समयतक संख्यातभागवृद्धिको करके, पुनः दूसरे समयमें अवस्थिनबन्धको करके तीसरे समय में त्रीन्द्रियों में उत्पन्न हुआ तब उसके संख्यात भागवृद्धि के करने पर संख्यात भागवृद्धिका एक समय जघन्य अन्तर प्राप्त होता है । अब संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर कहते हैं । जो इसप्रकार है - जो एकेन्द्रिय दो विग्रह करके संज्ञियोंमें उत्पन्न हुआ है वह प्रथम विग्रह में संख्यातगुणवृद्धिको करके दूसरे विग्रहमें अवस्थित स्थितिविभक्तिको करके तथा तीसरे समय में शरीर को ग्रहण करके संख्यातगुणवृद्धिको करता है तब उसके संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है । अब संख्यातभागद्दानिका जघन्य अन्तर कहते हैं । इस प्रकार है- पत्यप्रमाण स्थिति सत्कर्मकी उपस्मि द्विचरमस्थितकाण्डककी अन्तिम फालिके पतनके समय संख्यात भागहानि होती है । तदनन्तर एक अन्तर्मुहूर्ततक असंख्यातभागहानिके द्वारा अन्तर करके अन्तिम काण्ड की अन्तिम फालिके पतन होनेपर संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । अब संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर कहते हैं । जो इस प्रकार है - दूरापकृष्टि स्थितिसत्कर्म की उपरिम ( अर्थात् दूरापकृष्टि स्थिति सत्कर्म से पूर्वं ) द्विरस्थितिकाण्ड की अन्तिम फालिके पतन के समय संख्यातगुणहानिको करके पुनः अन्तर्मुहूर्त काल तक असंख्यातभागहानिसे अन्तर देकर अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन होनेपर संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त होता है । * उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । ९ ३२० क्योंकि जिन जीवोंने संज्ञा पचेन्द्रियों में रहकर उक्त दो वृद्धि और दो हानियोंका प्रारम्भ किया पुनः वे आवलिके असंख्यातवें भाग के जितने समय हों उतने पुद्गल परिवर्तनकाल तक एकेन्द्रियोंमें परिभ्रमण करके तदनन्तर संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुए और वहाँ पुनः दो वृद्धि और Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वड्डिपरूवणाए अंत १६३ अंतरपरूवणाए जाणिज्जदि जहा सण्णिट्ठिदिसंतकम्मियएइंदिओ वि पलिदो० संखेज्जदिभागमेत्तं संखेज्जपलिदोवममेत्तं वा' द्विदिकंडयंण गेण्हदि त्ति । * असंखेजगुणहाणिहिदिविहत्तियंतरं जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । $ ३२१. कुदो ? दूगवकिट्टिडिदिसंतकम्मस्स दुचरिमफालीए पदिदाए असंखेजगुणहाणीए आदि कादण असंखेजभागहाणीए सव्वजहण्णमंतोमुत्तमंतरिय पुणो चरिमकंडयचरिमफालीए पदिदाए जहण्णमंतरं होदि । दूरावकिट्टिद्विदीए पढमद्विदिकंडयचरिमफालीए पदिदाए असंखेजगुणहाणीए आदि कादण पुणो असंखेजभागहाणीए सव्वुक्कस्सुकोरणद्धमत्ताए अंतरिय विदियट्टिदिकंडयचरिमफालीए पदिदाए लद्धमुक्कस्समंतरं । * असंखेज्जभागहाणिद्विदिविहत्तियंतरं जहणणेण एगसमत्रो। ६३२२. कुदो ? असंखेजभागहाणि करेंतेण एगसमयमसंखेजभागवढेि कादण पुणो विदियसमए असंखेजभागहाणीए कदाए एगसमय अंतरुवलंभादो। दो हानियोंको किया। इसप्रकार उक्त चार वृद्धि हानियोंका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है । इस अन्तरप्ररूपणासे जाना जाता है कि संज्ञीकी स्थितिसत्कर्मवाला एकेन्द्रिय जीव भी पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण या संख्यात पल्यप्रमाण स्थितिकाण्डकको ग्रहण नहीं करता है। विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण बतलाया है और यहाँ दो वृद्धि और दो हानियोंका उत्कृष्ट अन्तर काल भी उक्त प्रमाण बतलाया है जो अन्तर काज एकेन्द्रियोंमें ही प्राप्त होता है। अब यदि एकेन्द्रिय जीव संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका प्रारम्भ करते होते तो दो हानियोंका उत्कृष्ट अन्तर काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण न कह कर कुछ कम कहना चाहिये था। पर ऐसा न करके यहाँ उक्त दो वृद्धि और दो हानियोंका उत्कृष्ट अन्तर काल पूरा असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण बतलाया है इससे प्रतीत होता है कि एकेन्द्रिय जीव संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका प्रारम्भ नहीं करते हैं। * मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिस्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है। ६३२१ क्योंकि दूरापकृष्टि स्थितिसत्कर्मकी द्विचरमफालिके पतन होते समय असंख्यातगुणहानि होती है। अनन्तर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालतक असंख्यातभागहानिके द्वारा अन्तर करके पुनः अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिके पतनके समय असंख्यातगुणहानि होती है। इस प्रकार असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त हुआ। दूरापकृष्टि स्थितिके प्रथम स्थिति. काण्डककी अन्तिम कालिके पतन होते समय असंख्यातगुणहानिका प्रारम्भ किया। पुनः सर्वोत्कृष्ट उत्कीरण काल तक असंख्यातभागहानिके द्वारा अन्तर करके दूसरे स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतनके समय असंख्यातगुणहानि की। इस प्रकार असंख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हुआ। ** मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिस्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है। ६३२२ क्योंकि असंख्यातभागहानिको करनेवाले जीवने एक समय तक असंख्यातभागवृद्धिको करके पुनः दूसरे समयमें असंख्यातभागहानिको किया तब असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है। , ता. प्रतौ च इति पाठः । २५ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४. जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ * उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । $ ३२३. कुदो ? असंखेजभागहाणीए अच्छिदजीवेण अवट्ठिदबंधं गंतूण सव्वुक्कस्समंतोमुहुत्तद्धमच्छिदेण असंखेजभागहाणीए कदाए उकस्समंतरुवलंभादो। * सेसाणं कम्माणमेदेण बीजपदेण अणुमग्गिदव्वं ।। ६३२४. एदेण देसामासियत्तमेदस्स जाणाविदं तेणेत्थ उच्चारणं भणिस्सामो । अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघे० आदेसे० । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-बारसक०णवणोक० असंखेजभागवड्डि-अवढि० जह० एगस०, उक्क० तेवढिसागरोवमसदं तीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं । असंखेजभागहाणी. जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुः । दोवड्डी० जह० एगस० । दोहाणी० जह० अंतोमुहु० । उक्क० चदुण्हं पि अणंतकालमसंखेजपोग्गलपरियट्टं। असंखेजगुणहाणी० जहण्णुक्क० अंतोमुहु० । णवरि इत्थि-पुरिसवेदाणं संखेजभागवडिअंतरमेगसमओ ण होदि, किं तु अंतोमुहुत्तं । कुदो ? तेइंदिएसुप्पजमाणवेइंदियस्स इत्थि-पुरिसवेदाणं बंधाभावादो। अंतोमुहुरंतरलहणकमो वुच्चइ । तं जहा-बेइंदिओ तेइंदिएसुप्पण्णपढमसमए कसायटिदिसंतकम्मेण संखेजभागवड्डीए आदि काण पुणो अंतोमुहुत्तेण संकिलेसं पूरेदण संखेजभागवड्डीए द्विदिबंधेण कदाए लद्धमंतोमुत्तमेत्तमंतरं संखेजभागवड्डीए । अणंताणु०चउक्क० एवं चेव । णवरि असंखेज * उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। ६३२३ क्योंकि असंख्यातभागहानिमें स्थित जो जीव अवस्थितबन्धको प्राप्त होकर और सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक वहाँ रहकर अनन्तर असंख्यातभागहानिको करता है उसके असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है। * शेष कर्माकी असंख्यातभागवृद्धि आदिका अन्तरकाल इस बीज पदके अनुसार विचारकर जानना चाहिये । ६३२४ इस वचनके द्वारा इसका देशामर्षकपना जता दिया, अतः यहाँ उच्चारणाका कथन करते हैं-अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुंहते है। दो वृद्धियोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय, दो हानियोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और चारोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। असख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय नहीं है, किन्तु अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि जो द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके स्त्रीवेद और पुरुषवेदका बन्ध नहीं होता। अब अन्तर्मुहूर्त अन्तरकी प्राप्तिका क्रम कहते हैं। जो इस प्रकार है-कषायकी स्थितिसत्कर्मवाला जो द्वीन्द्रिय जीव त्रीन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें संख्यातभागवृद्धिका प्रारम्भ करता है पुनः अन्तमुहूर्त कालमें संक्शको प्राप्त करके स्थितिबन्धके द्वारा संख्यातभागवृद्धिको करता है उसके संख्यातभागवृद्धिका अन्तर्मुहूर्त अन्तर प्राप्त होता है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा भी इसी Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूवणाए अंतरं १६५ भागहाणीए जह० एगस०, उक्क० वेछावद्विसागरो० देसूणाणि । असंखेजगुणहाणिअवत्तव्वाणमंतरं जह• अंतोमुहु०, उक. उबड्डपोग्गलपरियढें । सम्मत्त-सम्मामि० तिण्णिवड्डि-तिण्णिहाणि-अवविदाणमंतरं जह० अंतोमुहु० । असंखेजमागहाणी० जह० एगसमओ। असंखेजगुणवड्डि-अवत्तव्वाणमंतरं जह० पलिदो० असंखेजदिमागो। उक० सव्वेसिमुवड्डपोग्गलपरियढें । प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर है। असंख्यातगुणहाणि और अवक्तव्य का जघन्य अन्तर अन्तमुहूत और उत्कृष्ट अन्तर कुछकम अर्धपुद्गलपरिवतेनप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थानका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त, असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय, असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछकम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। विशेषार्थ-यतिवृषभ आचार्यने अपने चूर्णिसूत्रों में ओघसे मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि, चार हानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल बतलाया है । तथा वीरसेन स्वामीने अपनी टीकामें वह अन्तर काल कैसे प्राप्त होता है इसका विस्तृत विवेचन किया है। किन्तु शेष कर्मों की वृद्धि, हानि और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंके अन्तरकालका यतिवृषभ आचार्यने पृथक-पृथक् उल्लेख न करके केवल इतना ही कहा है कि 'इस बीजपदसे शेष कर्मों की वृद्धि आदिका अन्तरकाल जान लेना चाहिये । इस प्रकार हम देखते हैं कि यतिवृषभ आचायके चूणिसूत्रोंमें हमें मिथ्यात्व की वृद्धि आदिके अन्तरका ही उल्लेख मिलता है शेष कर्मोंकी वृद्धि आदिक अन्तरका नहीं। तथापि इसकी पूर्ति उच्चारणासे हो जाती है। उच्चारणामें सब कर्मों की वृद्धि आदिके अन्तरका पृथक् पृथक् निर्देश किया है जो मूल में निबद्ध है ही। उसमेंसे जिन कर्मोंको वृद्धि आदिका अन्तर मिथ्यात्वकी वृद्धि आदिके अन्तरसे विशेषता रखते हैं उनका यहाँ खुलासा किया जाता है-- स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी संख्यातभागवृद्धि का जघन्य अन्तर एक समय न प्राप्त होकर अन्तमुहूर्त प्राप्त होता है। इसका वीरसेन स्वामीने जो खुलासा किया है उसका भाव यह है कि जो दोइन्द्रिय आदि जीव मर कर तीन इन्द्रिय आदि होते हैं वे अपनी पर्यायके अन्तमें अन्तर्मुहूर्त कालतक स्त्रावेद और पुरुषवेदका बन्ध नहीं करते । इसलिये ऐसा जीव लो जो दोइन्द्रिय पर्यायसे तेइन्द्रिय पर्यायमें उत्पन्न हुआ हो और जिसके खावेद और पुरुषवेदकी स्थिति कषायकी स्थितिके समान हो । अब उसने उत्पन्न होनेके पहले समयमै संख्यातभागवृद्धिरूपसे स्त्रीवेद या पुरुषवेदका बन्ध किया। पुनः अन्तमुहूर्त काल के बाद दूसरी बार इसी प्रकार वन्ध किया तो इस प्रकार स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी स्थितिकी संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त प्राप्त हो जाता है। अनन्तानुबन्धाचतुष्कका और सब कथन तो मिथ्यात्वके समान है। किन्तु असंख्यातभागहानि और असख्यातगुणहानिके उत्कृष्ट अन्तर काल में विशेषता है । बात यह है कि जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है उसके पुनः अनन्तानुबन्धीका सत्त्व सम्भव है और अनन्तानुबन्धीका सत्त्व होनेपर असंख्यातभागहानि नियमसे होती है। किन्तु इसका पुनः सत्त्व प्राप्त करने में सबसे अधिक काल कुछ कम एकसौ बत्तास सागर लगता है, अतः अनन्तानुबन्धीकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर कहा है। तथा असंख्यातगुणहानि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके समय प्राप्त होती है। इसमें असंख्यातगुणहानका जघन्य अन्तरकाल तो पूर्ववत् है। किन्तु उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है, क्योंकि अर्धपुद्गलपारवतनके प्रारम्भ में और अन्तमें जिसने Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ६३२५. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखेजभागवड्डिअवविद० जह० एगसमओ। दोवड्डि-दोहाणीणं जह० अंतोमुहुः । उक्क० सव्वेसि पि' तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । असंखेजभागहाणी० ओघं । सम्मत्त-सम्मामि तिण्णिवड्डि. दोहाणि-अवट्ठिदाणं जह० अंतोमुहत्तं । असंखेजभागहाणी० जह० एगसमओ । असंखेजगुणवड्डि-असंखेजगुणहाणि-अवत्तव्य. जह० पलिदो० असंखेजदिमागो, उक० सम्वेसि पि तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अणंताणु० चउक्क० असंखेजभागवति-असंखेजमागहाणि-अवडिद० जह० एगस०। दो वड्डि-तिण्णिहाणि-अवत्तव्व० जह० अंतोमु०, अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है उसके उसकी असंख्यातगुणहानिका उक्त प्रमाण अन्तरकाल प्राप्त होता है। तथा अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्यस्थितिविभक्ति भी होती है जिसका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाला असंख्यातगुणहानिके समान प्राप्त होता है । अब रहीं सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियाँ सो इनकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। खुलासा इस प्रकार है-वृद्धि सम्यक्त्व प्राप्तिके प्रथम समममें होती है। अब जिस वृद्धिका अन्तर प्राप्त करना हो अन्तर्मुहूर्तके अन्दर दो बार सम्यक्त्व प्राप्त कराके दोनों बार सम्यक्त्व प्राप्त होनेके प्रथम समयमें उसी वृद्धिको प्राप्त कराओ इस प्रकार तीन वृद्धियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त प्राप्त होजाता है। इसी प्रकार अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर प्राप्त करना चाहिये। संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि ये तीन हानियाँ अपने योग्य स्थितिकाण्ड ककीअन्तिम फालिके पतनके समय होती हैं। किन्तु एक काण्डकके पतनके बाद दूसरे काण्डकके पतनमें अन्तर्मुहूर्त काल लगता है, अतः इनका भी जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त प्राप्त हो जाता है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। बात यह है कि ये दो विभक्तियाँ प्रथमोपशम सम्यक्त्वके प्राप्त होनेके प्रथम समयमें सम्भव हैं। किन्तु एक बार प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके पुनः दूसरी बार उसके प्राप्त करने में कमसे कम पल्यका असंख्यातवां भाग काल लगता है, अतः इनका जघन्य अन्तर पल्यका असंख्यातवां भागप्रमाण प्राप्त होता है। यह तो हुआ सब विभक्तियोंका जघन्य अन्तर । अब यदि इन सब विभक्तियों के उत्कृष्ट अन्तरका विचार करते हैं तो वह कुछकम अर्धपुद्गलपरि. वर्तनप्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता प्राप्त करके . उनकी उद्व लना कर दी है वह कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल तक उनके बिना रह सकता है । ६३२५ आदेशकी अपेक्षा नारकियों में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय तथा दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। असंख्यातभागहानिका अन्तर ओघक समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि, दो हानि और अवस्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय तथा असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है और सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय तथा दो १ त. प्रतौ पि इति पाठो नास्ति । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूवणाए अंतरं १६७ उक्क० सम्वेसि पि तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवं सत्तसु पुढवीसु । णवरि सग-सगहिदी देसूणा । ६३२६ तिरिक्खेसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखेजभागवडि-अवट्टि जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखेज०भागो । दोवड्वि-तिण्णिहाणी० ओघं । सम्मत्त० wwwarrammmmmmmmmmmm वृद्धि, तीन हानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तमुहूत है और सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ-कम अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। विशेषार्थ-नरकमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय है, क्योंकि जिसने उक्त प्रकृतियोंके असंख्यातभागवृद्धि या अवस्थित पदको किया है वह दूसरे समयमें अन्य पदको करके पुनः तीसरे समय में यदि इन पदोंको करता है तो इनका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हो जाता है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि संख्यातभागवृद्धि या संख्यातगुणवृद्धिके योग्य परिणामोंके एक बार होनेके बाद पुनः उनकी प्राप्ति अन्तर्मुहूर्तसे पहले सम्भव नहीं। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है, क्योंकि इनके योग्य एक स्थितिकाण्डकके पतनके बाद दूसरे काण्डकके पतनमें अन्तर्मुहूत काल लगता है। तथा इन सब स्थितिविभक्तियोंका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम तेतीस सागर है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि नारकीके कुछ कम तेतीस सागर तक एक असंख्यातभागहानिका पाया जाना सम्भव है, जिससे इनका अन्तरकाल उक्त प्रमाण प्राप्त होता है। किन्त उक्त प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय श्री उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त ओघके समान नरकमें भी बन जाता है, अतः इसके अन्तरको ओघके समान कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पदोंके जघन्य अन्तरका खुलासा जिस प्रकार ओघप्ररूपणामें किया है उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिये। केवल असंख्यातगुणहानिके जघन्य अन्तरके काल में फरक है। बात यह है कि नरकमें इन कर्मोंकी असंख्यातगुणहानि उद्वलनामें प्राप्त होती है। अब यदि दूसरी बार असंख्यातगुणहानि प्राप्त करना हो तो इन प्रकृतियोंकी सत्ता प्राप्त कराके पुनः उद्वलना कराना होगी जिसमें कम से कम पल्यका असंख्यातवाँ भाग काल लगता है, अतः नरकमें असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है । तथा उत्कृष्ट अन्तर जो कुछ कम तेतीस सागर बतलाया है उसके दो कारण हैं-एक तो यह कि जिस वेदक सम्यग्दृष्टि नारकीके कुछ कम तेतीस सागर काल तक असंख्यातभागहानि ही होती रहती है उसके उतने समय तक अन्य कोई स्थितिविभक्ति नहीं होती और दूसरा यह कि नरकमें जाकर जिसने उद्वलना कर दी है और अन्तमें पुनः उनको प्राप्त कर लिया है उसके मध्यके काल में कोई भी स्थिति विभक्ति नहीं होती। किन्तु अपने अपने पदके अन्तरकालको लाते समय प्रारम्भमें और अन्तमें उस पदकी प्राप्ति करानी चाहिये। हमने यहाँ स्थूल रूपसे ही निर्देश किया है। तथा इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीके सब पदोंका भी जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल विचार कर घटित कर लेना चाहिये। सातों नरकोंमें भी इसी प्रकार समझना चाहिये, किन्तु सब प्रकृतियोंके सब पदोंका जो उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है उसके स्थान में कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये। यहाँ इतना निर्देश कर देना आवश्यक है कि आगे अन्य मार्गणाओंमें सब पदोंके अन्तरका खुलासा न करके जिन पदोंके अन्तरमें विशेषता होगी उन्हींका खुलासा करेंगे। ६३२६ तियंचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ठ अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। दो Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ सम्मामि०, सव्वपदाणमोघं । णवरि असंखेजगुणहाणी० जह० पलिदो० असंखेजदिभागो । उक० उवड्डपोग्गलपरियढें । अणंताणु० चउक० असंखेजभागवड्डि-अवढि० जह० एगस०, उक० पलिदो० असंखेजदिमागो। असंखेजमाणहाणी० जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । सेसपदा ओघं ।। ३२७. पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखेजभागवड्डि-अवट्ठि• जह० एगसमओ। संखेजभागवड्डि-संखेजगुणवड्डि-सखेजगुणहाणीणं जह० अंतोमु०, उक्क० सव्वेसि पि पुवकोडिपुधत्तं । असंखेजभागहाणी० जह० एगस०, उक. अंतोमु० । संखेजभागहाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदो० सादिरेयाणि । वृद्धि और तीन हानियोंका अन्तर ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्मग्मिथ्यात्वके सब पदोंका अन्तर ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर कुछकम अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। शेष पद ओघके समान है। विशेषार्थं-तिचंचों मे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः यहाँ उक्त प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि व अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण प्राप्त होता है । यद्यपि तीन पल्यकी आयुवाले तिर्यंच में तीन पल्य तक असंख्यातभागहानि होती है परन्तु ऐसे जीवके तिर्यंचगतिमें दुबारा असंख्यातभागवृद्धि व अवस्थान नहीं होता, अतः यह काल न ग्रहण कर एकेन्द्रियोंकी अपेक्षा पल्यका असंख्यातवाँ भागही ग्रहण करना चाहिए। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। जिसका खुलासा नारकियोंके समान यहाँ भी कर लेना चाहिये । तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। बात यह है कि तियेच पर्याय में निरन्तर रहनेका उत्कृष्ट काल असंख्यातपुद्गलपरिवर्तन है। किन्तु जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता प्राप्त कर ली है वह संसारमें अर्धपुद्गलपरिवर्तनसे अधिक काल तक नहीं रहता। अब ऐसा तियेच लो जिसने प्रारम्भमें उक्त प्रकृतियोंकी उद्घ लना करते हुए असंख्यात. गुणहानि की । पुनः वह कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल तक संसारमें घूमता रहा और कुछ कालके शेष रह जाने पर उसने उपशमसम्यक्त्वपूर्वक पुनः सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता प्राप्त की तथा मिथ्यात्व में जाकर उद्वलना द्वारा दूसरी बार असंख्यातगुणहानि की इस प्रकार उक्त दो प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण प्राप्त हो जाता है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्यप्रमाण है सो यह तिथंचोंमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके उत्कृष्ट कालकी अपेक्षासे कहा है। शेष कथन सुगम है। ६३२७. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त और योनिमती इन तीन प्रकारके तिर्यंचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय तथा संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूवणाए अंतरं १६६ एवमणंताणु०चउक्क० । णवरि असंखेजभागहाणी० तिरिक्खोघं । संखेजगुणहाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० तिणि पलिदो० सादिरेयाणि । असंखेजगुणहाणि-अवत्तव्य. जह० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेण सादिरेयाणि । सम्मत्तसम्मामि० तिण्णिवड्डि०-दोहाणी. जह• अंतामु० । असंखेजभागहाणी० जह० एगस०। असंखेजगुणवड्डि-असंखेजगुणहाणि-अवत्तव्व० जह० पलिदो० असंखेजदिभागो । उक्क० सव्वेसिं तिण्णि पलिदो० पुवकोडिपुधत्तेण सादिरेयाणि । अवट्टि• जह० अंतोमु०, उक्क० पुवकोडिपुधत्तं । ३२८, पंचिंदियतिरि०अपज०मणुसअपज० छन्वीसं पयडीणमसंखेजभागवड्डि. । साधिक तीन पल्य है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए। किन्तु इतनी। विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका अन्तर सामान्य तियचोंके समान है संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है। असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय तथा असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। अवस्थितका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व है। विशेषार्थ-तीन प्रकारके तिर्यंचोंका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । अब यहाँ मिथ्यात्व, वारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि, अवस्थित, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त करना है। किन्तु उक्त तिर्यंचोंका जो उत्कृष्ट काल है वह इन पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल नहीं हो सकता, क्योंकि उत्तम भोगभूमिमें ये पद सम्भव नहीं हैं और संज्ञियोंमें पृथक्त्वपूर्वकोटि तक निरन्तर असंख्यातभागहानि होना भी सम्भव नहीं है, क्योंकि इतने काल वह निरन्तर सम्यग्दृष्टि नहीं रह सकते। परन्तु असंज्ञियोंमें संज्ञीकी स्थिति घातकी अपेक्षासे असंख्यातभागहानि व संख्यातभागहानि पृथक्त्वपूर्वकोटि काल तक सम्भव है और उसके बाद संज्ञियोंमें उत्पन्न होकर उक्तपद भी सम्भव हैं, अतः उत्तम भोगभूमि और संज्ञीके कालके कम कर देने पर जो पूर्वकोटिपृथक्त्व असंज्ञीका उत्कृष्ट काल शेष रहता है वह इन पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त होता है। तथा उक्त प्रकृतियों की संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तीन पल्य है, क्योंकि संख्यातभागहानि भोगभूमिमें भी सम्भव है, अतः उक्त प्रकृतियोंकी संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तीन पल्य कहा है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तीन पल्य प्राप्त होता है। तथा अनन्तानुबन्धीकी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका उत्कृष्ट अन्तरकाल वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है जो उक्त तीन प्रकारके तिर्यंचोंके अपने अपने कालके प्रारम्भमें और अन्त में ही अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करानेसे प्राप्त होता है। ऐसे जीव मध्यके काल में मिथ्यादृष्टि रहते हैं। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अवस्थित पदको छोड़कर शेष सब पदोंके उत्कृष्ट अन्तरकालको अपने अपने पदका विचार करके घटित कर लेना चाहिये। किन्तु भोगभूमिमें अवस्थित पद सम्भव नहीं है, अतः उसका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व प्राप्त होता है। शेष कथन सुगम है। ६ ३२ . पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ असंखेजभागहाणि-अवट्टि जह० एगस०, उक्क • अंतोमुहुः । दोवड्डि दोहाणीणं जहण्णमुक्कस्सं च अंतोमुहु०। सम्मत्त-सम्मामि० असंखेजभागहाणी० जहण्णुक्क० एगसमओ। तिण्णिहाणी० णत्थि अंतरं ।। ६३२९. मणुसतिय० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० पंचिंतिरिक्खमंगो। णवरि जम्हि पुव्व कोडिपुधत्तं तम्हि पुवकोडी देसूणा। असंखेज्जगुणहाणी. जहण्णुक० अंतोमु०। सम्मत्त-सम्मामि० पंचिंतिरिक्खभंगो। णवरि असंखेजगुणहाणी. जह. अंतोमुहु०, उक्क० तं चेव । अणंताणु० चउक्क० पंचि०तिरि०भंगो। णवरि जम्हि पुव. कोडिपुधत्तं तम्हि पुव्वकोडी देसूणा । असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। तथा तीन हानियोंका अन्तर नहीं है। विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तक और मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें २६ प्रकृतियोंका यदि अविवक्षित पद एक समयके लिये होता है तो असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है और यदि अविवक्षित पद अन्तर्मुहूर्त तक होता है तो इनका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। तथा शेष दो वृद्धि और दो हानियोंमेंसे प्रत्येक वृद्धि या हानि अन्तर्मुहूर्तके पहले प्राप्त नहीं होती और उक्त मार्गणाओंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिये इनमें उक्त पदोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त प्राप्त होता है। अब रहीं सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियाँ सो इनकी इनमें चार हानियाँ होती हैं। इनमेंसे संख्यातभागहानि आदि पदोंका तो यहाँ अन्तर सम्भव नहीं है, क्योंकि इनका यहाँ दो बार प्राप्त होना सम्भव नहीं है। हाँ जव असंख्यातभागहानि इनमेंसे किसी एक पदके द्वारा एक समयके लिये अन्तरित हो जाती है तब उसका अवश्य जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय प्राप्त होता है । $ ३२९. सामान्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनी इन तीन प्रकारके मनुष्योंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि जहाँ पूर्वकोटिपृथक्त्व कहा है वहाँ कुछ कम पूर्वकोटि कहना चाहिये । असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूत है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर वही है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि जहाँ पूवकोटिपृथक्त्व कहा है वहाँ कुछ कम पूर्वकोटि जानना चाहिए। विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके २६ प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, अवस्थित, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तर काल पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण बतलाया है सो यहाँ तीन प्रकारके मनुष्योंके यह अन्तर कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण जानना चाहिये । उक्त पदोंका उत्कृष्ट अन्तर वहाँ पर ही सम्भव है जहाँ पर उतने काल तक असंख्यातभागहानि निरन्तर होती रहे। मनुष्यों में तो सम्यक्त्व अवस्था ऐसी है जहाँ पर उक्त पदोंकी निरंतर असंख्यात. भागहानि होती रहती है और यह काल कर्मभूमिके मनुष्योंमें कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण है, अतः उक्त पदोंका अन्तर कुछ कम पूर्वकोटि कहा है। भोगभूमिज मनुष्यों में असंख्यातभागवृद्धि आदि उक्त पद सम्भव नहीं है, अतः तीन पल्य अन्तर नहीं कहा। तिर्यंचोंमें असंज्ञी भी होते हैं जिनका उत्कृष्ट Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०२२] . वडिपरूवणाए अंतरं २०१ ६३३०. देवगदीए देवेसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखेजभागवड्डि-अवढि० जह० एगसमओ। संखेजभागवड्डि संखेजगुणवड्डि-संखेजगुणहाणी. जह० अंतोमु० । उक० सम्वेसि पि अट्ठारस सागरो० सादिरेयाणि । असंखेजमागहाणी. जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहु० । संखेजमागहाणी० जह० अंतोमुहु०, उक्क० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवमणंताणु०चउक्क० । णवरि असंखेजभागहाणी. जह० एगस० । तिण्णिहाणि-अवत्तव्वं जह० अंतोमु० । उक्क० सम्वेसि पि एकत्तीससागरो०' देसूणाणि । सम्मत्त-सम्मामि० तिण्णिवड्डि-दोहाणी० जह• अंतीमुहु०। असंखेजमागहाणी० जह० एगस० । असंखेजगुणवाड-असंखेजगुणहाणि अवत्तब० जह० पलिदोव० असंखेजदिमागो। उक० सव्व० एकत्तीस सागरो० देसूणाणि । अवढि० जह० अंतोमुहु०, उक० काल पृथक्त्वकोटिपूर्व है, अतः जो संज्ञी तिथंच अपने योग्य उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वके साथ असंज्ञियोंमें उत्पन्न होकर वहाँ पर पूर्वकोटिपृथक्त्व काल तक असंख्यात व संख्यातभागहानि द्वारा उत्कृष्ट स्थिति. को घटाता रहा उसके उक्त पदोंका उत्कष्ट अन्तर पृथक्त्वपर्वकाटि होता है। मनुष्यों में असंज्ञी नहीं होते, अतः मनुष्योंमें पूर्वकोटिपृथक्त्व अन्तर संभव नहीं है। तथा मनुष्योंके इन प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानि भी होती है सो इसके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरका खुलासा जिस प्रकार ओघमें किया है उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिये । यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका और सब कथन तो पंचेन्द्रियतियंचोंके समान है, किन्तु असंख्यातगुणहानिके जघन्य अन्तरकालमें कुछ विशेषता है । बात यह है कि उक्त तीनों प्रकारके मनुष्य दर्शनमोहनीयकी क्षपणा भी करते हैं, अतः इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त हो जाता है। तथा इसका उत्कृष्ट अन्तर वही है जो तिर्यंचोंके बतलाया है। इसका खुलासा पहले किया ही है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीका भी सब कथन यहाँ पंचेन्द्रियतियचोंके समान है। किन्तु विशेषता इतनी है कि पंचेन्द्रियतियचोंके जो अनन्तानुबन्धीकी असंख्यातभागवृद्धि, अवस्थित, संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व बतलाया है वह यहाँ कुछ कम पूर्वकोटि होता है। ६३३०. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभाग. द्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय तथा संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय तथा तीन हानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और सवका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय तथा असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें. भागप्रमाण है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अवस्थितका जघन्य मा० प्रतौ जह० एगस.। असंखेजगुणवडी असंखेजगुणहाणी अवत्तव्वं जह• अंतोमु० । उक. एकत्तीससागरो. इति पाठः। २६ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ अट्ठारम सागरो० सादिरेयाणि । एवं भवणादि जाव सहस्सारो ति । गवरि सगसगु. कस्सहिदी वत्तव्वा । ६३३१. आणदादि जाव उवरिमगेवजो त्ति मिच्छत्त-बारसक०•णवणोक० असंखेजभागहाणी० जहण्णुक० एगस० । संखेजभागहाणी० जह० अंतोमुहु०, उक्क० सगद्विदी देसूणा। सम्मत्त-सम्मामि० असंखेजभागवाड्डि-संखेजमागहाणी० जह० अंतोमुहु० । असंखेज्जमागहाणी० जह० एगस। तिण्णिवड्डि-दोहाणि-अवत्तव० जह० पलिदो. असंखेज्जदिभागो। उक्क० सम्वेसि पि सगद्विदी देसूणा । अणंताणु०चउक० असंखेज्ज. भागहाणी० जह० एगम । तिण्णिहाणि-अवत्तव्व० जह० अंतोमुहुः । उक० सव्वेसिं पि सगढिदी देसूणा । अणुदिसादि जाव सव्वट्ठसिद्धि ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखेज्जभागहाणी० जहण्णुक० एगस० । संखेज्जभागहाणी जहण्णुक० अंतोमुहुः । एवं सम्मामि० । सम्मत्त एवं चेव । णवरि संखेज्जगुणहाणीए णत्थि अंतरं । अणंताणु०. चउक्क० असंखेज्जभागहाणी. जहण्णुक ० एगस० । तिण्णिहाणी. जहण्णुक० अंतोमु०। अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। इसी प्रकार भवनवासियों से लेकर सहस्रार कल्पतक जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये। ३३१. आनतकल्पसे लेकर उपरिम |वेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। संख्यात. भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय तथा तीन वृद्धि, दो हानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय तथा तीन हानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहुर्त है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा जानना चाहिए । सम्यक्त्वकी अपेक्षा भी इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणहानिका अन्तर नहीं है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है तथा तीन हानियोंक जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। - विशेषाथ-देवोंमें २६ प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि और अवस्थित ये पद बारहवें कल्पतक ही होते हैं, अतः इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर कहा है। तथा इनकी संख्यातभागहानि नौवें अवेयक तक होती है, इसलिये इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम ३१ सागर कहा है। यहाँ अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना भी होती है, अतः अनन्तानुबन्धीकी असंख्यातभागहानि आदि चार हानि और अवक्तव्यका उत्कृष्ट अन्तर. काल कुछ कम इकतीस सागर प्राप्त होता है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अवस्थितपदको छोड़कर शेष सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर घटित कर लेना Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] saणाए अंतरं २०३ $ ३३२. इंदियाणुवादेण एइंदिएस असंखेज्जभागवड्डि-अवट्ठि ० जह० एस ०, उक्क० अंतोमुहु० । एवमसंखेज्जभागहाणीए वि वत्तव्वं । संखेज्जभागहाणि-संखेज्जगुणहाणीणं णत्थि अंतरं; पंचिदिएस आढत्तट्ठिदिकंडएस एइंदिएस पदमाणेसु संखेज्जभागहाणि संखेज्जगुणहाणीणं तत्थुवलंभादो । मिच्छत - सोलसक० - णवणोकसायाणमेसा परूवणा । सम्मत्त सम्मामि० असंखेज्जभागहाणो० जहण्णुक० एस० । असंखेज्जगुणहाणी० णत्थि अंतरं । संखेज्जभागहाणि संखेज्जगुणहाणीणं जहण्णुक्क० पलिदो ० असंखेज्जदिभागो | कुदो १ पंचिदिएण आरद्धद्विदिकंडएण एइंदिएस घादिय संखेज्जभागहाणि संखेज्जगुणहाणीणमादिं' काढूण असंखेज्जभागहाणीए अंतरिय जडण्णदी हुब्वेल्लणकालेहि सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लिय उकस्ससंखेज्जमे तणिसेगेसु सेसेसु संखज्जभागहाणीए लद्धमंतरं । दोसु णिसेगेसु एगणिसेगे गलिदे संखेज्जगुणहाणीए लद्धमंतरं जेण तदो पलिदो० असंखेज्जदिभागमेत्तमंतरं सिद्धं । एवं बादरेइंदिय - सुहुमे इंदिय- पुढवि०बादरपुढवि सुमढवि० आउ०- बादरआउ०- सुडुम आउ० तेउ० - बादरतेउ०- सुडुमते उ० चाहिये | किन्तु अवस्थित पद बारहवें स्वर्ग तक ही पाया जाता है, अतः उसका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर कहा है । शेष कथन सुगम है । भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार तक यह घ प्ररूपणा बन जाती है, अतः उनके कथनको सामान्य देवोंके समान समझना चाहिये । किन्तु उत्कृष्ट अन्तरकाल जहाँ साधिक अठारह सागर या कुछ कम इकतीस सागर कहा है वहाँ कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिये। इसी प्रकार आगेके कल्पोंमें भी यथायोग्य वहाँकी विशेषताओं को ध्यान में रखकर अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिये | ९ ३३२. इन्द्रियमार्गणा के अनुवाद से एकेन्द्रियोंमें असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार असंख्यात भागहानिका अन्तर भी कहना चाहिये । संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानिका अन्तर नहीं है, क्योंकि जिन्होंने स्थितिकाण्डकोंका आरम्भ कर दिया है ऐसे जो पंचेन्द्रिय एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं उनके ही संख्या भागहानि और संख्यातगुणहानि पाई जाती हैं । यह प्ररूपणा मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायों की अपेक्षा की है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । असंख्यातगुणहानिका अन्तर नहीं है । संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि पंचेन्द्रिय के द्वारा आरम्भ किये गये स्थितिकाण्डकका एकेन्द्रियमें आकर घात किया और इस प्रकार संख्यातभागहानि तथा संख्यातगुणहानिका प्रारम्भ किया अनन्तर असंख्यात भागहानिके द्वारा अन्तर करके जघन्य और उत्कृष्ट उद्वेलनाकालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करते हुए जब उनके निषेक उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण शेष रह जायँ तब पुनः संख्यातभागहानि होती है और इस प्रकार चूँकि संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है। तथा अन्तमें शेष रहे दो निषेकों में से एक निषेकके गलित होनेपर चौंकि संख्यातगुणहानिका अन्तर प्राप्त होता है, अतः दोनोंका अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह सिद्ध हुआ । इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, जलकायिक, बादर जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, अग्निकायिक, बादर अमिकायिक, सूक्ष्म अभिकायिक, वायुकायिक, १ भा० प्रतौ संखेजभागहाणीणमादि इति पाठः । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ वाउ ० - बादरवाउ० - सुहुमवाउ ० - वणप्फदि - बादरवणफदि ० - सुहुमवणफदि० - णिगोदबादरणिगोद- सुमणिगोद-बादरवणष्फ दिपत्ते यसरीश त्ति । ९ ३३३. बादरएइंदियपज्जतएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक ० असंखज्जभागवड्डिअसंखेज्जभागहाणि-अवट्ठिद० जह० एगस०, उक्क० अंतोमुहु० | संखेज्जभागहाणिसंखेज्जगुणहाणीणं णत्थि अंतरं । सम्मत्त सम्मामि० असंखेज्जभागहाणी ० जहण्णुक ० एगस० | संखेज्जभागहाणि संखेज्जगुणहाणि असंखेज्जगुणहाणीणं णत्थि अंतरं; संखेज्ज - वस्तसहस्समे तपज्जत्तट्ठिदीदो उब्वेल्लणकालस्स बहुत्तादो | एवं बादरेइंदिय अपज्ज०सुडुमेइंदिय पञ्जत्तापञ्जत्त - चादर पुढ विअपज० - सुहुम पुढ विपञ्जत्तापज्जत्त - वादग्आउअपा०सुहुम आउपज्जत्तापज्जत्त - बादरते उअपज्ज० - मुहमते उपज्जत्तापज्जत - बादरवाउअपज्ज०सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त- बादरवणप्फदिअपज्ज० सुहुमवणप्फ दिपज्जत्तापञ्जत- बादरणिगोदअपज्ज ०. -सुहुमणिगोदपज्जत्तापज्जत्त - बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरअपज्ज० वादरपुढविपज्ज० बादरआ उपज्ज० - बादर ते उपज्ज० - बादरवाउपज्ज० - बादरवणफदिपज्ज० - बादरणिगोदपज्ज० - बादरवणप्फदिपत्तयसरीरपज्जत्ते त्ति । सव्वविगलिंदियाणमसंखेज्जभागवड्डिअसंखेज्जभागहाणि-अवट्ठिदाणं जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहु० | संखेज्जभागवड्डिसंखेज्जभागहाणीणं जहण्णुक० अंतोमुहु० । संखेज्जगुणहाणीए णत्थि अंतरं । छब्बीसपडीणमेसा परूवणा । सम्मत्त सम्मामि० असंखेज्जभागहाणी० जहण्णुक्क० एस० । बादर वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, निगोद, बादर निगोद, सूक्ष्म निगोद और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंके जानना चाहिए । ९३३३. बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी श्रसंख्यातभागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानिका अन्तर नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। संख्यात भागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका अन्तर नहीं है, क्योंकि पर्याप्तककी संख्यात हजार वर्षप्रमाण स्थिति से उद्वेलनाका काल बहुत है । इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त और अर्पाप्त, बादर जयकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर्शनगोद अपर्याप्त, सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, वादर अभिकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर निगोद पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। सब विकलेन्द्रियों में असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थानका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । संख्यातभागवृद्धि और संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । संख्यातगुणहानिका अन्तर नहीं है । यह प्ररूपणा छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा से की है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ०. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूवणाए अंतरं २०५ संखेज्जमागहाणि-संखेज्जगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणीणं णत्थि अंतरं । ६३३४. पंचिंदिय-पंचिं०पज्जत्तएसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखेज्जमागवड्डि-अवढि० जह० एगसमओ, उक्क० तेवद्विसागरोवममदं अंतोमुहुत्तब्भहियतीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं । असंखेज्जभागहाणी० जह० एगस०, उक० अंतोमुहु० । संखेज्जगुणवाड्डि-संखेज्जगुणहाणीणं जह० अंतोमुहु०, उक० तेवद्धिसागरोवमसदं दोहि अंतोमुहुत्तेहि अब्महियतीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं । संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जभागहाणीणमेवं चेव । णवरि संखेज्जभागहाणीए पलिदो० असंखेज्जभागेणब्भहियतेवट्टिसागरोवमसदं । असंखेज्जगुणहाणीए जहण्णुक० अंतोमुहुः । एवमणंताणु०चउक० । णवरि असंखेज्जभागहाणीए जह० एगस०, उक्क० वेछावहिसागरो० देसूणाणि । असंखेज्जगुणहाणि-अवत्तव्वाणं जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० सागरोवमसहस्सं पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियं सागरोवमसदपुधत्तं । सम्मत्त-सम्मामि० तिण्णिवड्डि-तिण्णिहाणि०-अवढि० जह० अंतोमुहु०' । असंखेज्जभागहाणी० जह० एगस०। असंखेज्जगुणवड्डि-अवत्तव्यं जह० पलिदो० असंखज्जदिभागो। उक० सम्वेसि पि सागरोवमसहस्सं पुव्वकोडिपुधत्तणमहियं सागरोवमसदपुधत्तं देसूर्ण । एवं तसकाइय-तसकायपज्जत्ताणं । णवरि सग-सगुकस्सहिदी वत्तव्वा । संखेज्जभागवड्डि-संखज्जगुणवड्डीणं जहण्णंतरस्स ओघपरूवणा एक समय है। संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका अन्तर नहीं है। ६३३४. पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त और तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर दा अन्तमुहूत और तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठसागर है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका अन्तर इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षासे जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर है। असंख्यातगुणहानि और प्रवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक हजार सागर और सौ सागरपृथक्त्व है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि, तीनहानि और अवस्थितकाजघन्य अन्तर अन्तमुहूते, असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय तथा असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः कुछ कम पूर्वकाटिपृथक्त्वसे अधिक एकहजार सागर और कुछ कम सौ सागरपृथक्त्व है। इसी प्रकार त्रसकायिक और सकायिकपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिके जघन्य अन्तरकी श्रोधके समान प्ररूपणा करना चाहिये। पंचेन्द्रियअपर्याप्त और त्रसअपर्याप्त जीवोंके पंचेन्द्रियतियेच १ ता. प्रतौ भवहि० अंतोमु० इति पाठः । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ कायव्वा । पंचिंदियअपज्ज-तसअपज्जत्ताणं पंचिं०तिरिक्खअपज्जत्तभंगो । णवरि तसअपज्ज० दोवड्डी० जह० एगसमओ । $ ३३५. जोगाणुवादेण पंचमण-पंचवचि० असंखेज्जभागवड्डि० असंखेज्जभागहाणि-अवडिदाणं जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जमागहाणि अपर्याप्तकोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि उस अपर्याप्तकोंके दो वृद्धियोंका जघन्य अन्तर एक समय है। विशेषार्थ-यहाँ ओघसे यद्यपि मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यात. भागवृद्धि और अवस्थित पदका उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर बतलाया है पर यह समान्य निर्देश है। विशेषनिर्देशकी अपेक्षा तो इसमें एक अन्तमुहूर्त काल और मिजाना चाहिये, क्योंकि उपरिम ग्रंवय से च्युत होकर कोटिपूर्व आयुवाले मनुष्यामें उत्पन्न होनेवाले जीवके एक अन्तर्मुहूर्त कालतक असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितपद नहीं होता, इसलिये यहाँ पंचेन्द्रिय और पर्याप्तकोंके उक्त प्रकृतियोके उक्त दो पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूते और तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर कहा है। इसी प्रकार संख्यातगुणवृद्धि और सख्यातगुण. हानिका उत्कृष्ट अन्तर जा दो अन्तमुहूर्त और तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर कहा है वहाँ भी तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर कालके प्रारम्भ और अन्तमें प्राप्त होनेवाला अन्तरका एक-एक अन्तमुहूतं काल और बढ़ा लेना चाहिये, क्योंकि भोगभूमिमें उत्पन्न होनेवाले जीवके कमसे कम एक अन्तमुहूर्त काल पहलेसे सख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानि नहीं होती और नौवें वेयकसे च्युत हुए जीवके भी कमसे कम एक अन्तमुहूर्त कालतक ये पद नहीं होते। संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर काल जो पल्यके असंख्यातवेंभाग अधिक एकसौ त्रेसठ सागर बतलाया है सा इस अन्तरका कारण असख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल जानना चाहिये जिसका विस्तारसे विवेचन काल प्ररूपणामें किया ही है। अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके वाद पुनः उसके संयक्त होने में सबसे अधिक काल कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर लगता है. अतः यहाँ अनन्तानबन्धीकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण बतलाया है। पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंका उत्कृष्ट काल क्रमशः पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक हजार सागर और सौ सागरपृथक्त्व है। अब यदि इन जीवोंने अपने अपन काल के प्रारम्भमें और अन्तमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाकी और विसंयोजनाके बाद यथायोग्य उससे संयुक्त हुए तो इनके अनन्तानुबन्धीकी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण प्राप्त होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वके सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल अपनी अपना विशेषताका विचार करके इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिये । पञ्चेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्तकोंके समान त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्तकोंके कथन करना चाहिये। किन्तु जहाँ जहाँ पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्तकोंके उत्कृष्ट स्थिति कही हो वहाँ वहाँ त्रसकायिक और त्रसकायिकपर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट स्थिति लेनी चाहिये। तथा त्रसोंमें विकलत्रय जीव भी सम्मिलित हैं, अतः इनके संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर ओघके समान बन जाता है। बस अपर्याप्तकोंके दो वृद्धियोंके जघन्य अन्तर एक समय बतलानेका भी यही कारण है। शेष कथन सुगम है। ६३३५. योगमार्गणाके अनुवादसे पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। तथा संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि संख्यातगुणहानि और Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वहिपरूवणाए अंतरं २०७ संखेज्जगुणवड्डि-संखेज्जगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणीणं णत्थि अंतरं। एसा परूवणा छन्वीसपयडीणं दट्टव्वा । अणंताणु० च रक्क० अवत्तव्व० णत्थि अंतरं । कुदो ? अणंनाणुबंधिविसंजोइदसम्माहट्ठी संजुतो होद्ण जहण्णमिच्छत्तद्धमच्छिय पुणो सम्मत्तं घेत्तण सव्वजहण्णेण कालेण अणंताणु० विसंजोइय पुणो जाव संजुत्तो होदि ताव एगजोगस्स अवट्ठाणाभावादो। सम्मत्त-सम्मामि० असंखज्जभागहाणीए जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहु० । चत्तारियड्डि तिण्णिहाहि०-अवट्टि०-अवत्तवाणं णस्थि अंतरं । ३३६. कायजोगि० मिच्छत्त-बारसक०णवणोक. असंखेज्जभागवडि-अवढि० जह० एगस०, उक्क० परिदो० असंखेज्जदिमागो । संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जगुणवड्डीणं जह० एगस० । इत्थि-पुरिस० संखज्जभागवड्डीए जह० अंतोमुहुः । संखेज्जभागहाणिसंखेज्जगुणहाणणं जह० अंतोमुहुः । उक्क० सम्वेसि पि असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । असंखेज्जभागहाणीए जह० एगस०, उक्क० अंतोमुहुः । असंखेज्जगुणहाणीए णत्थि अंतरं । एवमणंताणु०चउकस्स । णवरि अवत्तव्व० णत्थि अंतरं। सम्मत्त-सम्मामि० चत्तारिवड्डि-अवढि०-अवत्तवाणं णत्थि अंतरं। असंखेज्जभागहाणी. जह. एगस., उक्क० अंतोमुहुः । कुदो ? चरिमफालिं पादिय असंखेज्जभागहाणीए कायजोगेण अंतरं कादण णिस्संतकम्मिओ होदण अणियट्टिकरणद्धाए अभंतरे अंतोमुहुत्तमेत्तमंतरिय कायजोगदुचरिमसमए सम्मत्तं घेत्तण अवत्तव्वेणंतरिय चरिमसमए असंखेज्जभागहाणीए असंख्यातगुणहानिका अन्तर नहीं है। यह प्ररूपणा छब्बीसप्रकृतियोंकी जाननी चाहिए।अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अवक्तव्यका अन्तर नहीं है, क्योंकि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेवाला सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वमें जाकर और अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होकर तथा सबसे जघन्य काल तक मिथ्यात्वमें रह कर पुनः सम्यक्त्वको ग्रहण करके और सबसे जघन्य कालके द्वारा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके पुनः मिथ्यात्वमें जाकर जबतक अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होता है तबतक एक योगका अवस्थान नहीं रहता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। चार वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्यका अन्तर नहीं है। ६३३६. काययोगियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त तथा सबकी संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर र अन्तमुहर्त है और सभीका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । तथा असंख्यातगणहानिका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए। किन्त इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यका अन्तर नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्यका अन्तर नहीं है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि अन्तिम फालिका पतन करके और काययोगके साथ असंख्यातभागहानिका अन्तर करके पुनः निःसत्त्वकर्मवाला होकर अनिवृत्तिकरणके कालके भीतर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अन्तरके बाद काययोगके द्विचरमसमयमें सम्यक्त्वको ग्रहण करके और अवक्तव्य Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती कदाए अंतोमुहत्तमेत्ततरुवलंभादो। दोण्हं हाणीणं जह• अंतोमुहु०, उक्क० पलिदो० असंखेज्जदिभागो। असंखेज्जगुणहाणीए णत्थि अंतरं। ६३३७. ओरालियकाय० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० असंखेज्जभोगवटि. अवट्टि०-असंखेज्जमागहाणी. जह० एगस०, उक्क. अंतोमुहु० । दोण्णिवडि-तिण्णिहाणीणं णत्थि अंतरं । अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्व० णत्थि अंतरं । सम्मत्त-सम्मामि० चत्तारिवाड्डि०-अवढि०-अवत्तव्वाणं णत्थि अंतरं। असंखेज्जभागहाणी. जह• एगस०, उक्क० अंतोमुहुः । तिण्हं हाणीणं णस्थि अंतरं। ओरालियमिस्स० छन्वीसं पयडीणमसंखेज्जभागड्डि-अमंखेज्जभागहाणि-अवडिदाणं जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । दोवड्डिदोहाणीणं जहण्णुक्क० अंतोमुहुः । णवरि इत्थि-पुरिसवेदवज्जाणं संखेज्जमागवड्डी० जह० एयस० । हस्स-रदि-अरदि-सोग-इत्थि-पुरिस-णवंसयवेद० संखेज्जगुणवड्डीए जहण्णमंतरमेगसमओ। सम्मत्त-सम्मामि० असंखेज्जभागहाणी. जहण्णुक० एगसमओ । संखेज्जभागहाणि-संखेज्जगुणहाणी० जहण्णुक्क० अंतोमुहुः । अथवा णत्थि अंतरं । असंखेज्जगुणहाणी० णत्थि अंतरं ।। $ ३३८. वेउविकाय० छब्बीसं पयडीणमसंखेअभागवड्डि-अवविद असंखेजभागहाणीणं जह० एगस०, उक० अंतोमुहुत्वं। दोवड्डि-दोहाणीणं अणंताणुचउक्क० असंखेजगुणहाणीए अवत्तव्वं णस्थि अंतरं। सम्मत्त-सम्मामि० चत्तारिवाड्डि-अवढि०-अवत्तव्वाणं णस्थि स्थितिविभक्तिका अन्तर करके अन्तिम समयमें असंख्यातभागहानिके करनेपर असंख्यातभागहानिका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर पाया जाता है। दो हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवेंभागप्रमाण है। असंख्यातगुणहानिका अन्तर नहीं है। ६३३७. औदारिककाययोगी जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि, अवस्थित और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। दो वृद्धि और तीन हानियोंका अन्तर नहीं है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अवक्तब्यका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्यका अन्तर नहीं है । असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्त मुहूर्त है। तथा तीन हानियोंका अन्तर नहीं है। औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदके विना शेष प्रकृतियोंकी संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है। हास्य, रति, अरति, शोक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी संख्यातगुणवृद्धि का जघन्य अन्तर एक समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभाग. हानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूते है । अथवा अन्तर नहीं है । असंख्यातगुणहानिका अन्तर नहीं है । ३३८. वैक्रियिककाययोगियों में छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, अवस्थित और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहत है। दो वृद्धि और दो हानियोंका तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका अन्तर नहीं है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूवणाए अंतरं २०६ अंतरं। असंखजभागहाणी० जह• एयस०, उक्क० अंतोमु० । तिहं हाणीणं णत्थि अंतरं। वेउचि०मिस्स० ओरालियमिस्स भंगो । णवरि छब्बीसंपयडीणं संखेजभागवड्डीए सत्तणोक० संखेज्जगुणवड्डीए च जहण्णमंतरमेगसमओ णत्थि । किंतु अंतोमुहुत्तं । कम्मइय० अट्ठावीसं पयडि० सव्वपदाणंणत्थि अंतरं। एवमणाहारीणं । आहार० आहारमिस्स० सव्वासि पयडीणं असंखेजभागहाणीए णत्थि अंतरं। एवमकसा० जहाक्खाद० सासण दिहि ति । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्यका अन्तर नहीं है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अतर अन्तर्मुहूर्त है। तीन हानियोंका अन्तर नहीं है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका भंग औदारिकमिश्रकाययोगियोंके समान है। कितु इतनी विशेषता है कि छब्बीस प्रकृतियोंकी संख्यातभागवृद्धिका तथा सात नोकषायोंकी संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय नहीं है किन्तु अन्तर्मुहूर्त है। कार्मणकाययोगियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पदोंका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार अनाहारकोंके जानना चाहिए। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार अकषायी, यथाख्यातसंयत और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-चारों मनोयोग और चारों वचनयोगोंमें २६ प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि, असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थित पदोंका अन्तरकाल तो बन जाता है, क्योंकि ये पद कमसे कम एक समयके अन्तरसे भी होते हैं, इसलिये यहाँ इनका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त कहा। किन्तु शेष पदोंका अन्तरकाल नहीं बनता, क्योंकि उक्त मनोयोगोंके कालसे शेष पदोंके अन्तरकालका प्रमाण अधिक है। यहाँ अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्यवृद्धिका अन्तरकाल क्यों नहीं बनता इसका कारण मूलमें बतलाया ही है। उक्त योगवालोंमेंसे कोई एक योगवाला जोव सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि कर रहा है। अब दूसरे समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त करके उसने अन्य पदों द्वारा असंख्यातभागहानिको अन्तरित कर दिया और तीसरे समयमें वह पुनः असंख्यातभागहानिको प्राप्त हो गया तो असंख्यातभागहानिका अन्तर एक समय प्राप्त होता है। तथा कोई एक ऐसा जीव है जो उक्त योगोंमेंसे विवक्षित के भीतर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करता है तथा अन्तर्महर्तमें ही सम्यक्त्वको प्राप्त करके पुनः इनकी सत्ताको प्राप्त होकर दूसरे समयसे असंख्यातभागहानि करने लगता है तो उसके असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके शेष पदोंका अन्तरकाल नहीं बनता, क्योंकि उक्त योगोंके कालसे शेष पदोंका जघन्य अन्तरकाल भी बड़ा है। असंख्यातभागहानिकाण्डकघातका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतएव काययोगमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थित पदका उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा । काययोग का उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है, इसलिये इसमें उक्त प्रकृतियोंकी संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण बन जाता है। कोई एक काययोगी जीव है जो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर रहा है। प्रारम्भमें और अन्तमें उसने इनकी संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि की तो इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है । यहाँ प्रारम्भमें स्थितिकाण्डकघातसे संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि प्राप्त करना चाहिये । और अन्तमें जब जघन्य परीतासंख्यात प्रमाण स्थिति शेष रह जाती है तब संख्यातभागहानि होती है। तथा Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ६ ३३६. वेदाणुवादेण इत्थिवेदेसु मिच्छत्त-सोनसक०-णवणोक० असंखेजभागवड्डिअसंखेजभागहाणि-अवढि० ज० एगसमओ । संखेजभागवड्डि-संखेजभागहाणि-संखेजगुण. हाणीणं जह. अंतोमु०, उक्क० सम्वेसि पि पणवण्णपलिदोवमाण देसूणाणि । णवरि अणंताणु०च उक्कवजाणमसंखेजभागहाणी. अंतोमुहत्तं । संखेजगुणवड्वोए संखेजभागवडिभंगो। णवरि सत्तणोकसायाणं संखञ्जगुणवड्डीए जहण्णंतरमेगसमओ। असंखेजगुणहाणीए जहण्णुक० अंतोमु० । अणंताणु०चउक० असंखेजगुणहाणि-अवत्तव्य० ज० .................................. दो निषेकोंके शेष रह जानेपर संख्यातगुणहानि होती है। औदारिकमिश्रकाययोगमें २६ प्रकृतियोंमेंसे स्त्रीवेद और पुरुषवेदके बिना जो शेष प्रकृतियोंकी संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय बतलाया है वह, जो लब्ध्यपर्याप्तक दो इन्द्रिय स्वस्थानमें संख्यातभागवृद्धि करता है और दूसरे समयमें अवस्थितविभक्तिको करके तीसरे समयमें औदारिकमिश्रयोगके साथ तेइन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर संख्यातभागवृद्धिको करता है, उसके प्राप्त होता है। इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक तेइन्द्रियको चौइन्द्रियमें उत्पन्न कराके भी संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त किया जा सकता है। तथा हास्य, रति, अरति, शोक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर जो एक समय बतलाया है वह इस प्रकार प्राप्त होता है-जिसके सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी सत्त्वस्थिति एकेद्रियके योग्य है ऐसा कोई एक एकेन्द्रिय जीव संज्ञियोंमें उत्पन्न हुआ। इसके अभी हास्यादिकमेंसे विवक्षित प्रकृतिका बन्ध नहीं हो रहा है। अब शरीरग्रहण करनेके कुछ काल बाद औदारिकमिश्रकाययोगके रहते हुए उसने जिसका अन्तरकाल प्राप्त करना हो उसकी पहले समयमें बन्ध द्वारा संख्यातगुणवृद्धि की, दूसरे समयमें अवस्थितविभक्ति की और तीसरे समयमें संक्लेशक्षयसे संख्यातगुणवृद्धि की तो इस प्रकार उक्त प्रकृतियोंमें संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हो जाता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है। इस प्रकार है-अन्तरकाल जो अन्तमुहूर्त बतलाया है वह स्थितिकाण्डक घातकी अपेक्षासे बतलाया है। पर औदारिकमिश्रकाययोगमें इस प्रकारकी स्थिति अधिकतर प्राप्त नहीं होती, अतः इनका निषेध किया। औदारिकमिश्रकाययोगमें जो दोइन्द्रिय तीन इन्द्रियोंमें और तीन इन्द्रिय चार इन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है। तथा जो एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय संज्ञियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके सात नोकषायोंकी संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है पर वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें इसप्रकार जीवोंका उत्पाद नही होता, अतः यहाँ उक्त पदोंका जघन्य अन्तर एक समय नहीं कहा। शेष कथन सुगम है। $३३९. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषायऔर नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय तथा संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछकम पचवन पल्य है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके बिना शेष प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । तथा संख्यातगुणवृद्धिका भंग संख्यातभागवृद्धिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सात नोकषायोंकी संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२) वडिपरूवणाए अंतर २११ अंतोमु०, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं । सम्मत्त-सम्मामि० तिण्णिवड्डि-अवट्ठाणाणं जह० अंतोमु० । असंखेजभागहाणी० जह० एगसमओ। असंखेजगुणवड्डि-अवत्तव्वाणं जह० पलिदो० असंखेजदिभागो। असंखेजगुणहाणीए जह० अंतोमु०, उक० सम्वेसि पि पलिदो. वमसदपुधत्तं देसूणं । संखेजभागहाणि-संखेजगुणहाणीणं जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं देसूणं । कुदो ? पुरिसवेदो णवंसयवेदो वा सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उज्वेल्लमाणो अच्छिदो इत्थिवेदेसु उप्पण्णविदियसमए संखजभागहाणि-संखजगुणहाणीओ काऊण तदियसमए णिस्संतत्तणेण संखेजगुणहाणीए च अंतरिय पलिदोवमसदपुधत्तं संतेण विणा अच्छिद्ण अवसाणे सम्मत्तं घेत्तूण संखेन्जभागहाणि-संखेजगुणहाणीसु कयासु पलिदोवमसदपुधत्तंतरस्सुवलंभादो। ६३४०. पुरिसवेदेसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखेज्जमागवड्डि-अवट्ठि. जह० एगसमओ, उक्क० तेवद्विसागरोवमसदं तीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं । असंखेज्जऔर उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्यपृथक्त्व प्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि और अवस्थानका जघन्य अन्तर अन्तमुहूते, असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय, असंख्यातगणवृद्धि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा असंख्यात हानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछकम सौ पल्यपृथक्त्व है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछकम सौ पल्यपृथक्त्व है, क्योंकि एक पुरुषवेदी या नपुंसकवेदी जीव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर रहा है पुनः उसने स्त्रीवेदियोंमें उत्पन्न होनेके दूसरे समयमें संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिको करके तीसरे समयमें उक्त कर्मोंको निःसत्त्व करके संख्यातगुणहानिका अन्तर किया। पुनः सौ पल्यपृथक्त्वतक सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सत्त्वके बिना रहकर अन्तमें उसके सम्यक्त्वको ग्रहण करके संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिके करनेपर सौ पल्यपृथक्त्व प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है। विशेषार्थ-स्त्रीवेदमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल कुछ कम पचवन पल्य बतला आये हैं अतः यहाँ उक्त प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, अवस्थित, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचवन पल्य कहा । यहाँ अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके उसके अभावका भी उत्कृष्ट काल कुछ कम पचवन पल्य प्राप्त होता है, अतः अनन्तानुबन्धीकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर काल भी उक्त प्रमाण कहा। तथा स्त्रीवेदका उत्कृष्ट काल सौ पल्यपृथक्त्व है। अब यदि किसी जीवने प्रारम्भमें और अन्तमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की और तदनन्तर वह अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ तो अनन्तानुबन्धीकी असंख्यातगुणहानि और कव्यका उत्कृष्ट अन्तर काल सौ पल्यपृथक्त्वप्रमाण प्राप्त होता है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पदोंका यथासम्भव उत्कृष्ट अन्तरकाल घटित करना चाहिये। इसी प्रकार पुरुषवेदमें भी सब प्रकृतियोंके यथासम्भव सब पदोंके अन्तरकालका विचार कर लेना चाहिये। आगेकी मार्गणाओंमें भी इसी प्रकार काल आदिको विचार कर अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए। ६३४०. पुरुषवेदियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अतर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर , Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ranuaARArr. ... २१२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [हिदिविहत्ती ३ भागहाणि० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । दोवड्डि-दोहाणोणं जह० अंतोमु० । णवरि सत्तणोकसायाणं संखेज्जगुणवड्डीए जहण्णंतरमेगसमओ, उक्क० सव्वेसि पि तेवहिसागरोवमसदं तीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं । णवरि संखेज्जभागहाणीए तेवद्विसागरोवमसदं पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयं । असंखेगुणहाणी० जहण्णुक्क० अंतोमु० । एवमणंताणु । णवरि असंखेज्जभागहाणी० जह० एगस०, उक्क० वेछावहिसागरो. देसूणाणि | असंखेज्जगुणहाणि-अवत्तव्व. जह० अंतोमु०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं देसूणं । सम्मत्त-सम्मामि० तिण्णिवड्डि-तिण्णिहाणि-अवढि० ज० अंतोमु० । असंखेन्जभागहाणी० जह० एयस० । असंखेज्जगुणवड्डि-अवत्तव्ब० ज० पलिदो० असंखेज्जदिभागो। उक्क० सव्वेसि पि सागरोवमसदपुधत्तं देसूर्ण ।। ३४१. णqसयवेदेसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखज्जभागवड्डि-अवट्टि. जह० एगस०, उक० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । असंखेज्जभागहाणी० जह० एगस०, उक० अंतोमु०। दोवड्डि-दोहाणी० ज० एगस० अंतोमु०। णवरि इल्थि-पुरिस० संखज्जभागवड्डी० अंतोमु०। उक० सव्वेसि पि अणंतकालमसंखज्जपोग्गलपरियढें । असंखेज्जगुणहाणी. जहण्णुक्क० अंतोमु० । एवमणंताणु० चउक० । णवरि असंखेज्जभागहाणी० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देखणाणि। असंखेज्जगुणहाणि-अवहै। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर अतर्मुहूर्त है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सात नोकषायोंकी संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है। असंख्यातगुणहानि का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षासे जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर है। असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम सौ सागरपृथक्त्व है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त, असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय तथा असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम सौ सागर पृथक्त्व है। $३४१. नपुंसकवेदियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहूर्त है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षासे जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ 'वड्डिपरूवणाए अंतर २१३ तव्व० ज० अंतोमु०, उक्क० अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं । सम्मत्त-सम्मामि० तिण्णिवड्डि. तिण्णिहाणि-अवष्टि० ज० अंतोमु०। असंखेज्जमागहाणी० ज० एगस० । असंखेज्जगुणवडि-अवत्तव्व० ज० पलिदो० असंखेज्जदिभागो। उक० सम्वेसिमुवड्डपोग्गलपरियढें । $३४२. अवगद० चउवीसपयडीणमसंखेज्जभागहाणीए जहण्णुक्क० एगस० । दंसणतिय-अट्ठकसाय-इत्थि-णवंसयवेदाणं संखेज्जभागहाणीए जहण्णुक्क० अंतोमुहुः । सेसाणं पयडीणमसंखेज्जमागहाणि-संखेज्जगुणहाणीणं जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं ।। ६३४३. कसायाणुवादेण कोधकसाईसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक. असंखज्जभागवाड्डि-असंखज्जभागहाणि-अवढि० जह० एगस०, उक० अंतोमु० । संखज्जभागवड्डि. संखेज्जगुणवड्डी० जह० एगस०, उक्क० अंतोमुहु० । णवरि इत्थि-पुरिस० संखेज्जभागबड्डीए जहण्णंतरं अंतोमुहु०। संखज्जभागहाणि-संखेज्जगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणीणं जहण्णुक० अंतोमुहुत्तं । एगकसायुदयकालो दोवड्डि-तिण्णिहाणीणमंतरादो बहुओ ति कुदो णयदे ? कोधकसायोदएण खवगसेटिं चढाविय तदुदयकालब्भंतरे संखज्जसहस्सद्विदिकंडयपरूवयक्खवणसुत्तादो। अणंताणु० अवत्तव्य. णत्थि अंतरं। सम्मत्त-सम्मामि० चत्तारिवाड्डि-अवढि०-अवत्तव्व० णत्थि अंतरं। असंखेज्जभागहाणी० जह० एगस०, उक्क. अंतोमुहु० । संखेज्जभागहाणि-संखेज्जगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणी. जहण्णुक्क० उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय तथा असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर उपाधपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। ६३४२. अपगतवेदियोंमें चौबीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। तीन दर्शनमोहनीय, आठ कषाय, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंकी संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है।। ३४३. कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायवाले जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। शंका-एक कषायका उदयकाल दो वृद्धि और तीन हानियोंके अन्तरसे अधिक है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? • समाधान-क्रोधकषायके उदयसे क्षपकश्रेणी पर चढ़ाकर उसके उदयकालके भीतर संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंकी क्षपणाके प्ररूपण करनेवाले सूत्रसे जाना जाता है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अवक्तव्यका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्यका अन्तर नहीं है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यात Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे (द्विदिविहत्ती ३ अंतोमुहुः । एवं माण-माया-लोमाणं पि वत्तव्वं । __ ३४४. णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुदअण्णा० मिच्छत्त०-सोलसक०-णवणोक० असंखेज्जभागवड्डि-अवढि० जह० एगस०, उक्क. एकत्तीससागरो० सादिरेयाणि । संखज्जभागवडि-संखज्जगुणवड्डी० जह० एगस०। णवरि इत्थि-पुरिस० संखज्जभागवड्ढो० जह० अंतोमु०। संखेज्जभागहाणि-संखेजगुणहाणी० ज० अंतोमु०, उक्क. सम्वेसि पि असंखेजपोग्गलपरियट्टा । असंखेजभागहाणी. जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । सम्मत्त-सम्मामि० असंखेजभागहाणी. जहण्णुक० एगस० । संखेजभागहाणिकसंखेजगुणहाणी. जह० अंतोमु०, उक्क० दोण्हं पि पलिदो० असंवेजदिमागो। असंखेजगुणहाणी० णस्थि अंतरं । [एवं मिच्छादिट्ठीणं । विहंगणाणी० मिच्छत्त-सोलसक०-णव. णोक. असंखेजभागवटि-असंखेजभागहाणि-अवट्टि० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । संग्वेजमागड्डि संखेजगुणवड्डि-दोहाणीणं जहण्णुक्क० अंतोमु०। सम्मत्त-सम्मामि० असंखेजभागहाणी० जहण्णुक्क० एगस० । संखेजमागहाणि संखेजगुणहाणी० ज० अंतोमु०, उक्क पलिदो० असंखेजदिभागो। असंखेजगुणहाणो णस्थि अंतरं । ६३४५. आभिणि-सुद० ओहि मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखेजभागहाणी० जहण्णुक्क० एगस० । संखेजभागहाणि-संखेजगुणहाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार मान, माया और लोभ कषायवाले जीवोंके भी जानना चाहिए। ६३४४. ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है । संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुपवेदकी संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यातपुद्गलपरिवर्तन है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातगुणहानिका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। विभंगज्ञानियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुह संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि और दो हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहते है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । असंख्यातगुणहानिका अन्तर नहीं है। ६३४५. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। संख्यात Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूवणाए अंतरं २१५ छावहिसागरो० देसूणाणि । णवरि बारसक०-णवणोक० संखेजभागहाणीए णवणउदि. सागरो० सादिरेयाणि । असंखेजगुणहाणीए जहण्णुक्क० अंतोमु०। एवमणंताणु०चउक० । णवरि संखेजमागहाणि-संखेजगुणहाणीणं मिच्छत्तभंगो। सम्मत्त-सम्मामि० असंखेजभागहाणी. जहण्णुक्क० एगस० । संखेजभागहाणि-संखेजगुणहाणी. जह० अंतोमु०, उक० छावट्टिसागरो० देसूणाणि । असंखज्जगुणहाणो० जहण्णुक० अंतोमु० । एवमोहिदसण-सम्मादिट्ठाणं ।। ६३४६. मणपज्ज० मिच्छत्त-बारसक-णवणोक० असंखेज्जभागहाणी. जहण्णुक० एगस० । संखेज्जमागहाणि-संखज्जगुणहाणी० ज० अंतोमु०, उक्क० पुषकोडी देसूणा। णवरि एदासि पयडीणं संखेज्जगुणहाणीए उक्क० अंतोमुहु। असंखेज्जगुणहाणीए संखज्जगुणहाणिभंगो। अणंताण चउक्क० असंखेजभागहाणा. जहण्णुक० एस० । संखेजभागहाणि-संखेजगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणीणं जहण्णुक्क० अंतोमु० । सम्मत्तसम्मामि० मिच्छत्तभंगो। ६३४७. संजमाणुवादेण संजद-सामाइय-छेदो०संजदाणं मणपजवभंगो। णवरि अणंताणु० चउक्क० संखेजभागहाणीए उक्कस्संतरं पुत्व कोडी देसूणा । कुदो! पढमसम्मत्तेण संजमं पडिवजनो मुहत्तभंतरे एयंताणुबड्डीए सव्वकम्माणं संखेजभागह णिं भागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर है। किन्तु इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी संख्यातभागहानिका साधिक निन्यानवे सागर है । असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका भंग मिथ्यात्वके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूते है। इसी प्रकार अवधिदर्शनवाले और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । ६३४६. मनःपर्ययज्ञानियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इन प्रकृतियोंकी संख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातगुणहानिका भंग संख्यातगुणहानिके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय । संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मिथ्यात्वके समान है। ३४७. संयम मार्गणाके अनुवादसे संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंका भंग मनःपर्ययज्ञानियोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है, क्योंकि प्रथमोपशम सम्यक्त्वके साथ संयमको प्राप्त होनेवाले जीवके एक मुहूर्तकालके भीतर एकान्तानुवृद्धिके द्वारा सब कर्मोंकी संख्यात Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ कादण पुणो अंतोमुहुत्तावसेसे आउए अणंताणु० विसंजोएंतस्स सव्वकम्माणं संखेजभागहाणीए उवलंभादो। णेदं मणपजवणाणी लब्मदि; उवसमसम्मत्तद्धाए उवसमसेढि. वजाए मणपजवणाणाणुप्पत्तीदो। ६ ३४८. परिहारसुद्धि० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु० चउकाणं मणपज० गो। बारसक० णवणोक० एवं चेव । णवरि संखेजगुणहाणि-असंखेजगुणहोणीओ णस्थि । सुहुमसांपराय० वीसं पयडीणमसंखेजभागहाणी० णस्थि अंतरं । दंसणतिय-लोभसंजल. असंखेजभागहाणी. जहण्णुक० एगस० । संखेज्जभागहाणी० जहण्णुक० अंतोमु० । लोभसंजल० संखेजगुणहाणी० एवं चेव । संजदासंजद० संजदभंगो । णवरि बारसक० णवणोक० संखेजगुणहाणि-असंखेजगुणहाणीओ णत्थि । ६३४६. असंजद० मिच्छत्त०-बारसक०-णवणोक० असंखेजमागवडि-अवढि० जह० एगस०, उक्क० तेतीसं सागरो० देसूणाणि । संखेजभागवड्डि-संखेजगुणवड्डिदोहाणीणमोघं । मिच्छत्त० असंखे गुणहाणी. जहण्णुक० अंतोमु० । संखेजगुणहाणी० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अणंताणु०चउक्क० मिच्छत्तभंगो। णवरि असंखेजभागहाणी० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अवत्तव्वमोघं । सम्मत्त०-सम्मामि० ओघभंगो। भागहानि करके पुनः आयुके अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करते हुये सब कर्मोंकी संख्यातभागहानि पाई जाती है। किन्तु इस अन्तरको मनःपर्ययज्ञानी नहीं प्राप्त करता है, क्योंकि उपशमश्रेणीको छोड़कर उपशमसम्यक्त्वके कालमें मनःपर्ययज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होती है। ६३४८. परिहारविशुद्धिसंयतोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मनःपर्ययज्ञानियोंके समान है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि नहीं हैं। सूक्ष्मसांपरायिकसंयतोंमें बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। तीन दर्शनमोहनीय और लोभसंज्वलनकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। लोभसंज्वलनकी संख्यातगुणहानिका अन्तर इसी प्रकार है। संयतासंयतोंका भंग संयतोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि नहीं हैं। ६३४९. असंयतोंमें मिथ्यात्व, बारहकषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि और दो हानियोंका अन्तर ओघके समान है। मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अवक्तव्यका अन्तर ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०२२] वडिपरूवणाए अंतरं २१७ $ ३५०. दंसणाणुवादेण चक्खु. तसपज्जत्तभंगो। णवरि संखेजमागवड्डीए जह० एगसपओ णस्थि । अचक्खुदंसणीणमोघं । लेस्साणुवादेण किण्हणील-काउ० असंखेजभागड्डि-अवढि० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीस-सत्तारस सत्तसागरो० देसूणाणि । असंखेज्जभागहाणी. जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । दोवड्डि-दोहाणीणं जहण्णमोघं, उक्क० तेत्तीस-सत्तारस-सत्तसागरो० देसूणाणि । एसा परूवणा मिच्छत्त-बारसक०णवणोकमायाणं । एवमणंताणु० चउक्क० । णवरि असंखेज्जभागहाणी० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीस सत्तारस-सत्तमागरो० देसूणाणि । असंखेज्जगुणहोणि-अवत्तव्व० जह. अंत मु०, उक्क० तेत्तीस-सत्तारस-सत्तसागरो० देसणाणि । सम्मत्त-सम्मामि० तिण्णिवडिदोहाणि-अवट्टि० जह० अंतोमु० । असंखेज्जगुणवडि-असंखेज्जगुणहाणि-अवत्तव्वाणं जह० पलिदो० असंखेजदिमागो । असंखेजभागहाणी० जह० एगम०, उक० सम्वेसि पि सगहिदी देसूणा। ६ ३५१. तेउ-पम्मलेस्सा० मिच्छत्त०-चारसक-णवणोक० असंखेज्जभागवडिअवढि० जह० एगस० । दोवड्डि-दोहाणी. जह० अंतोमु०, उक्क० सव्वेसि पि वे-अट्टरस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । असंखेज्जभागहाणी. जह० एगस०, उक्क० अंतामु० । ६३५०. दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवाले जीवोंका भंग त्रसपर्याप्तकोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय नहीं है। अचक्षुरानवाले जीवोंके ओघके समान जानना चाहिए। लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंमें असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे कुछ कम तेतीस, कुछ कम सत्रह और कुछ कम सातसागर भागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहत है। दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर ओघके समान है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस, कुछ कम सत्रह और कुछ कम सातसागर है। यह प्ररूपणा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायों की अपेक्षासे की है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा जानना। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे कुछ कम तेतीस, कुछ कम सत्रह और कुछ कम सातसागर है। असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तराअन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे कुछ कम तेतीस, कुछ कम सत्रह और कुछ कम सातसागर है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि, दो हानि और अवस्थितका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवेंभागप्रमाण तथा असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। ६३५१. पीत और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें मिथ्यात्व, बारह कपाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर और साधिक अठारह सागर है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूते है। मिथ्यात्वकी ૨૮ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहन्ती ३ मिच्छत्त० असंखेज्जगुणहाणी • जहण्णुक्क • अंतोमु० । अणंताणु० चउक्क० सव्वपदाणं मिच्छत्तभंगो । वरि असंखेज्जभागहाणी० जह० एस० । असंखेज्जगुणहाणिअवत्तव्व० जह० अंतोमु०, उक्क० तिन्हं पि वे - अट्ठारससागरो० ' सादिरेयाणि । सम्मत्त० सम्मामि० तिण्णिवड्डि-अवडि० तिष्णिहाणी० जह० अंतोमु० । असंखेज्ज - गुणवड्डि-अवत्तच्व० जह० पलिदो ० असंखेज्जदिभागो! असंखेज्जभागहाणी० जह० एगस० । उक्क० सव्वेसि पि बे-अट्ठारससागरो० सादिरेयाणि । ० ९ ३५२. सुक्कले० मिच्छत्त बारसक० णवणोक० असंखेज्जभागहाणी० जहण्णुक • एगस० | संखेज्जभागहाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० एकतीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । संखेज्जगुणहाणि - असंखेज्जगुणहाणी • जहण्णुक्क • अणताणु० चउक्क० अंतो० । असंखेज्जभागहाणी० जह० एस० । तिष्णिहाणि० - अवत्तव्व० जह० अंतोमु०, उक्क० सव्वेसिमेकत्तीस सागरो० देसूणाणि । सम्मत्त सम्मा मि० तिण्णिव ड्डि- तिण्णिहाणी० जह० अंतोमु० । असंखेज्जभागहाणी० जह० एस० । असंखेज्जगुणवड्डिअवत्तव्व० जह० पलिदो० असंखेज्जदिभागो । उक्क० सव्वेसि पि एकत्ती ससागरो० देसाणि । णवरि विष्णं हाणीणं सादिरेयाणि । अवट्ठि० णत्थि अंतरं । $ ३५३. भवियाणु० भवसि० ओघभंगो । अमवसि० छब्बीसं पयडीणमसंखेज्ज असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सब पदोंका भंग मिथ्यात्वके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त तथा तीनोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो और साधिक अठारह सागर है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि, अवस्थित और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण और असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है । तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो और साधिक अठारह सागर है । ९ ३५२. शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तर एक समय, तीन हानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण और सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । किन्तु इतनी विशेषता है कि तीन हानियोंका साधिक इकतीस सागर उत्कृष्ट अन्तर है । अवस्थितका अन्तर नहीं है । $ ३५३. भव्यमार्गणाके अनुवादसे भव्यों में ओघके समान भंग है । अभव्य जीवों में छब्बी १ ता० प्रतौ वे सन्त भट्ठारससागरो० इति पाठः । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] डिपणा अंतर २१९ भागवड्डि-अवट्ठि ० ज० एगस०, उक्क० एकतीस सागरो० सादिरेयाणि । असंखेज्जभागहाणी ० ज ० एस ०, उक्क० अंतोमु० । दोवड्डीणं ज० एगसमओ । इत्थि - पुरिस० संखेज्ज भागवड्डीए ज० अंतोमु० । दोहं हाणीणं ज० अंतोमु० । उक्क० चदुण्हं पि असंखेज्जपोग्गलपरियट्टा । ० $ ३५४. सम्मत्ताणु० वेदगसम्मा० मिच्छत्त ०- सम्मत्त ०० - सम्मामि० - अणंताणु०चक्क० असंखेज्जभागहाणी० जहण्णुक० एस० । संखेज्जभागहाणी ० ज० अंतोनु०, उक्क ० छावट्टिसागरो० देखणाणि । एवं संखेज्जगुणहाणीए वत्तच्वं । असंखेज्जगुणहाणीए जहण्णुक • अंतोमु० । बारसक० णवणोक० असंखेज्जभागहाणी० जहण्णुक● एगस० | संखेज्जभागहाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० छावट्टिसागरो० देसूणाणि । संखेज्जगुणहाणी • जहण्णुक • अंतोमु० । खइयसम्माहट्ठी० एकवीसपयडीणमसंखेज्जभागहाणी • जहण्णुक • एगस० | संखेज्जभागहाणी० जह० अंतोमुद्दत्तं उक० तेत्तीसं सागरो ० सादिरेयाणि । संखेज्जगुणहाणि - असंखेज्जगुणहाणीणं जहण्णुक ० अंतोमु० उवसमसम्माहट्ठी० अट्ठावीसं पयडीणमसंखेज्जभागद्दाणी ० जहण्णुक० एस० । संखेज्जभागहाणी० अणंताणु०४ संखेज्जगुणहाणि - असंखेज्जगुणहाणी • जहण्णुक्क ० अंतोमु० । सम्मामि ० अट्ठावीस पयडीणमसंखेज्जभागहाणी ० जहण्णुक्क० एस० । संखेज्जभागहाणि ० संखेज्जगुणहाणी • जहण्णुक्क० अंतोमु० । ० प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है । असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । दो वृद्धियोंका जघन्य अन्तर एक समय तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । दो हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । तथा चारोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है । $ ३५४. सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे वेदकसम्यग्दृष्टियों में मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर है । इसी प्रकार संख्यातगुणहानिका अन्तर कहना चाहिये । असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर है । संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में इक्कीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहादिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । संख्यातभागहानिका तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातगुणहानि और असंख्यात गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । संख्यातभागहानि और संख्यात गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ___६ ३५५. सण्णियाणु० सण्णीसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखेज्जभागवडिअवढि० जह० एगस० । संखेज्जभागवडि-संखेज्जगुणवड्डी० जह० अंतोमु०। णवरि इस्थि-पूरिस० णम०-हस्स-रदि-अरदि-सोग० संखेज्जगुणवड्डीए जह० एगस ० । संखेज्जभागहाणि-संखेज्जगुणहाणीणं जह० अंतोमु०, उक्क० सव्वेसिं तेवद्विसागरोवमसदं तीहिपलिदोवमेहि सादिरेयं । णवरि संखेज्जमागहाणीए पलिदो० असंखेज्जदिभागेण सादिरेयं । असंखेज्जगुणहाणीए जहण्णुक० अंतोमु० । असंखेज्जमागहाणीए जह० एगसमओ, उक्क० अंत मु०। एवमणंताणु०चउक्क०। णवरि असंखेज्जभागहाणी० उक. वेछावट्टि सागरो० देसणाणि । असंखेज्जगुणहाणि-अवत्तव्व० ज० अंतोमु०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं देसूणं। सम्मत्त-सम्मामि० तिण्णिवड्डि-तिण्णिहाणि-अवद्विदाणं ज. अंतोमु० । असंखेज्जभागहाणी० ज० एगस० । असंखज्जगुणवडि-अवत्तव्वाणं जह पलिदो० असंखेज्जदिभागो । उक्क० सव्वेसि पि सागरोवमसदपुधत्तं देसूणं । __ ३५६. असण्णि० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक. असंखेज्जभागवडि-अवढि० ज० एगस०, उक० पलिदो० असंखेज्जदिभागो। संखज्जभागवड्डी० ज० एगस० । इत्थि-पुरिस० अंतोमु० । संखज्जभागहाणी० ज० अंतोमुहुतं । उक्क० दोण्हं पि अणंतकालमसंखज्जा पोग्गलपरियट्टा। संखेज्जगुणवड्डी० ज० खुद्दाभवग्गहणं समयूणं, उक्क० ६ ३५५. संज्ञीमार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय तथा संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, और शोककी संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकारअनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर कुछकम एकसौ बत्तीस सागर है। असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछकम सौ सागर पृथक्त्व है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय तथा असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवेंभागप्रमाण है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछकम सौ सागर पृथक्त्व है। ३५६. असंज्ञियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यका असंख्यातवां भाग है। संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है। पर स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातभागहानिकाजघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HINI गा० २२ ] वडिपरूवणाए अंतरं २२१ अणंतकालमसंखेजा पो०परियट्टा । संखेजगुणहाणीए णत्थि अंतरं । असंखेज्जमागहाणी० ज० एगस०, उ० अंतोमु०। सम्मत्त०-सम्मामि० असंखज्जभागहाणीए जहण्णुक्क० एगस०। संखज्जमोगहाणी. जह० अंतोमु०, उक० पलिदो० असंखेज्जदिभागो। संखज्जगुणहाणी० जहण्णुक्क० पलिदो० असंखेज्जदिभागो । असंखेज्जगुणहाणी० णस्थि अंतरं । ६३५७. आहाराणु० आहारीसु मिच्छत्त बारसक०णवणोक० असंखज्जभागव ड्डिअवढि० जह० एगस०, उक्क० तेवद्विसागरोवमसदं तीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं । संखेज्जगुणवड्डि-संखेज्जगुणहाणि-संखेज्जभागहाणी० ज० अंतोमुहत्तं । संखेज्जभागवड्डी० ज० एगस० । इस्थि-पुरिस० अंतोमु०, उक्क० सम्वेसिमंगुलस्त असंखेज्जदिभागो। असंखेज्जभागहाणी० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । असंखेज्जगुणहाणी० जहण्णुक० अंतोमु० । एवमणंताणु०चउक्क० । णवरि असंखेज्जभागहाणी० ज० एगस०, उक्क० वेछावद्विसागरो० देसूणाणि । असंखेज्जगुणहाणि अवत्तव्व० ज० अंतोमु०, उक्क० अंगुलस्स असंखेज्जदिमागो। सम्मत्त०-सम्मामि० तिण्णिवड्डि-तिण्णिहाणि-अवढि० जह• अंतोमु० | असंखेज्जभागहाणी० जह० एगस । असंखेज्जगुणवड्डि-अवत्तव्य. जह० पलिदो० असंखंजदिमागो । उक्क० सव्वेसिमंगुलस्स असंखेज्जदिमागो। एवमंतराणुगमो समत्तो। एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहण है तथा उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। संख्यातगुणहानिका अन्तर नहीं है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण है। संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । असंख्यातगुणहानिका अन्तर नहीं हैं। ६३५७. आहारकमार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और पल्य अधिक एकसौ त्रेसठसागर है। संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि और संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है पर स्त्रीवेद और पुरुषवेद की संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर है। असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्तौ३ ३५८. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण । ओषेण छब्बीसं पयडीणमसंखज्जभागवड्डि-हाणि-अवडिदाणि णियमा अस्थि । कुदो ? अणंतेसु एइंदिएसु उवलब्भमाणत्तादो। सेसपदा भयणिज्जा । कुदो ? तसेसु संभवादो। भंगा वत्तव्वा । सम्मत्त-सम्मामि० असंखेज्जभागहाणी णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा। भंगा वत्तव्वा । एवं तिरिक्ख-कायजोगि-ओरालियकायजोगि-णqसयवेदचत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णाणि-असंजद०-अचक्खुदंस०-किण्ह-णील-काउ०-भवसि०मिच्छादिहि-आहारि ति। ३५६. आदेसेण णेरइएसु छब्बीसं पयडोणं असंखेज्जभागहाणी अवद्विदं णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा। सम्मत्त० सम्मामि० ओघं । एवं सव्वणिरय-सव्वपंचिंदिय ६. ३५८. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमसे विचार करने पर निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित नियमसे हैं, क्योंकि ये पद अनन्त एकेन्द्रियोंमें पाये जाते हैं। शेष पद भजनीय हैं, क्योंकि शेष पद त्रसोंमें संभव हैं। भंग कहने चाहिये। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि नियमसे है। शेष पद भजनीय हैं। भंग कहने चाहिये । इसी प्रकार सामान्य तिर्यच, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, मिथ्यादृष्टि और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-मोहनीयकी २८ प्रकृतियाँ हैं। इनमेंसे २२ प्रकृतियोंके आठ पद हैं जिनमें तीन ध्रव और पाँच भजनीय हैं । मूलमें ध्रुवपद गिनाये ही हैं। इससे भजनीय पदोंका ज्ञान अपने आप हो जाता है। पाँच भजनीय पदोंके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा कुल भंग २४२ होते हैं। इनमें एक ध्रुव भंगके मिला देनेपर २२ मेंसे प्रत्येक प्रकृतिके कुल भंग २४३ होते हैं । अनन्तानुबन्धी चतुष्कके नौ पद हैं। इनमें तीन ध्रुव और छह भजनीय हैं। छह भजनीय पदोंके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा कुल भंग ७२८ होते हैं। इनमें एक ध्रुव भंगके मिला देनेपर अनन्तानुबन्धी चतुष्कमेंसे प्रत्येक प्रकृतिके कुल भंग ७२९ होते हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके कुल दस पद हैं। इनमें एक ध्रुव और नौ भजनीय हैं। नौ भजनीय पदोंके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा कुल भंग १९६८२ होते हैं और इनमें एक ध्रुव भंगके मिला देनेपर सब भंग १९६८३ होते हैं। तियञ्च आदि और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिये । इसका यह मतलब है कि इन मार्गणाओंमें २६ प्रकृतियोंके तीन ध्रुव पद हैं और शेष भजनीय पद हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका एक ध्रुव पद है और शेष भजनीय । अब किस मार्गणामें किस प्रकृतिके कुल कितने पद हैं इसका विचार करके अलग अलग भंग ले आना चाहिये । भंग लानेका तरीका यह है कि जहाँ जितने भजनीय पद हों उतनी जगह तीन रख कर परस्पर गुणा करनेसे कुल भंग आते हैं। इनमेंसे एक कम कर देने पर भजनीय पदोंके भंग होते हैं । और भजनीय पदोंके भंगोंमें एक मिला देनेपर कुल भंग होते हैं। ६३५९. आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि और अवस्थितपद नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। www.jajnelibrary.org Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वहिपरूवणाए भंगविचो २२३ तिरिक्ख-मणुस-मणुसपज्ज०-मणुसिणी-देव-भवणादि जाय सहस्सार०-पंचिंदियपंचिं०पज्ज-तस-तसपज्ज-०पंचमण-पंचवचि०-वेउन्वियकाय ०-इत्थि-पुरिस-विहंगणाणि०-चक्खुदंस०-तेउ-पम्म०-सणि त्ति । मणुसअपज्ज. सव्वपयडीणं सव्वपदाणि भयाणज्जाणि । ३६०. आणदादि जाव उवरिमगेवज्ज० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक. असंखेज्ज. भागहाणी णियमा अस्थि । संखेज्जभागहाणी भयणिज्जा । सिया एदे च संखेज्जभागहाणिविहत्तियो च । सिया एदे च संखेज्जभागहाणिविहत्तिया च । धुवपदेण सह तिण्णि भंगा। सम्मत्त०-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्काणमसंखज्जमागहाणी णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा। अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठसिद्धि त्ति मिच्छत्त-बारसक० णवणोक. आणदभंगो । सम्मामि० मिच्छत्तभंगो। सम्मत्त-अणंताणु०चउक० असंखेज्जभागहाणी णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा। इसी प्रकार सब नारकी सब पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, विभंग चक्षुदर्शनवाले, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद भजनीय हैं। विशेषार्थ-नारकियोंमें २२ प्रकृतियोंके सात पद हैं। जिनमें दो ध्रुव और पाँच भजनीय हैं। कुल भंग २४३ होते हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके नौ पद हैं। जिनमें दो ध्रुव और सात भजनीय हैं । कुल भंग २१८७ होते हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके दस पद हैं। जिनमें एक ध्रुव और नौ भजनीय हैं। कुलभंग १९६८३ होते हैं। मूलमें सब नारको आदि और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये। इसका यह मतलब है कि इन मागणाओंमें २६ प्रकृतियोंके दो पद ध्रुव हैं और शेष भजनीय हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका एक पद ध्रुव और शेष भजनीय हैं। तदनुसार जिस मार्गणामें जिस प्रकृतिके जितने पद हों उनका विचार करके भंग ले आने चाहिये। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंके २६ प्रकृतियोंके सात पद हैं पर वे सब भजनीय हैं, अतः इनके कुल भंग २१८६ होते हैं । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके चार पद हैं । ये भी सब भजनीय हैं, अतः इनके कुल भंग ८० होते हैं। ६३६०. आनतकल्पसे लेकर उपरिम अवेयकतकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानि नियमसे है। संख्यातभागहानि भजनीय है। कदाचित् असंख्यातभागहानिवाले जीव होते हैं और संख्यातभागहानि स्थितिविभक्तिवाला एक जीव होता है। कदाचित् असंख्यातभागहानिवाले जीव होते हैं और संख्यातभागहानि स्थितिविभक्तिवाले नाना जीव होते हैं। इनमें ध्रुवपदके मिला देनेपर तीन भंग होते हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागहानि नियमसे है, शेष पद भजनीय हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका भंग आनतकल्पके समान है । सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मिथ्यात्वके समान है। सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागहानि नियमसे है, शेष पद भजनीय हैं। विशेषार्थ-आनतसे लेकर उपरिम अवेयक तकके जीवोंके २२ प्रकृतियोंके तीन भंग तो Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૪ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ६३६१ इंदियाणुवादेण एइंदिएसु छब्बीसं पयडीणं असंखेज्जमागवड्डि हाणि-अवडिद० णियमा अस्थि । संखेज्जभागहाणि'-संखेज्जगुणहाणी भयणिज्जा, तसेहि आढतहिदिकंडयाणमेइंदिएसु पदमाणाणं तसरासिपडिमागत्तादो। सम्मत्त-सम्मामि० असंखेज्जभागहाणी णियमा अस्थि । सेसतिण्णिहाणीओ भयणिज्जाओ। एवं बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज्जत्तापज्जत्त-सुहुमेहंदिय-सुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्त-पुढवि० - बादरपुढवि० - वादरपुढवि०पज्जत्तापज्जत-सुहमपुढाव-सुदुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-आउ-बादरआउ० - बादर आउपज्जत्तापज्जत-सुहुमाउ०-सुहुमाउपज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-चादरतेउ०-बादरतेउपज्जत्तापज्जत्त-सुहुमतेउ०-सुहुमतेउपजत्तापज्जत्त-वाउ० बादरवाउ०-बादरवाउपज्जत्तापज्जत्त. सुहमवाउ०-सुहमवा उपज्जत्तापज्जत्त-वणप्फदि०-बादरवणप्फदि०-बादरवणप्फदिपजत्ता पज्जत्त-सुहुमवणप्फदि०-सुहुमवणफदिपज्जत्तापज्जत्त-णिगोद - बादरणिगोद - बादर णिगोदपज्जत्तापज्जत्त-सुहमणिगोद-सुहुमणिगोदपज्जचापज्जत्त-बादरवणप्फदिपतेय०वादरवणप्फदिपत्तेयसरीरपज्जत्तापज्जत्ता ति । णवरि चत्तारिकाय-बादरपज्जत-बादर मूलमें बतलाये ही हैं। अब रहीं शेष छह प्रकृतियाँ इनमेंसे अनन्तानुबन्धी चतुष्कके पाँच पद होते हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके नौ पद होते हैं। इन दोनों स्थानोंमें एक ध्रुव और शेष भजनीय पद हैं। भंग क्रमसे ८१ और ६५६१ होते हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंके २३ प्रकृतियोंके तीन भंग हैं जो आनतादिकके समान है। शेष रहीं पाँच प्रकृतियाँ सो इनमेंसे अनन्तानुबन्धी चतुष्कके चार पद और सम्यक्त्वके तीन पद होते हैं। इनमेंसे एक ध्रुवपद और शेष भजनीय पद हैं । भंग क्रमशः २७ और ९ होते हैं। $३६१ इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित पद नियमसे हैं तथा संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि भजनीय हैं, क्योंकि जो त्रसपर्यायमें स्थितिकाण्डकघातका आरम्भ करके एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुए हैं उनका प्रमाण सराशिके प्रतिभागसे रहता है। अतः उक्त दो पदोंको एकेन्द्रियों में भजनीय कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि नियमसे है, शेष तीन हानियाँ भजनीय हैं। इसी प्रकार बादर एकन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिकपर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्मजलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, निगोद, बादर निगोद, बादर निगोदपर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्मनिगोद, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त और अपर्याप्त जीबोंके जानना। १ ता. प्रतौ अस्थि । असंखेज्जभागहाणी इति पाठः । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूवणाए भंगविचओ २२५ वणप्फदिपत्तेयपज्ज० असंखेज्जभागवड्डी० भयणिज्जा। ६३६२. बीइंदिय० असंखेज्जभागहाणी अवठ्ठाणं णियमा अस्थि । असंखेज्जभागवड्डी संखेज्जभागवड्डी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी भय णिज्जा । एवं सबविगलिंदियाणं । पंचिं०अपज्ज०-तसअपज्ज० पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो।। ६३६३. जोगाणुवादेण ओरालि०मिम० छव्वीसपयडीणं असंखेज्जभागवड्डि. हाणी अवट्ठाणं णियमा अस्थि । संखेज्जभागवड्डि-हाणी संखेज्जगुणवड्डि-हाणी भयणिज्जा। सम्मत्त०-सम्मामि० असंखेज्जभागहाणी णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा । वेउन्धियमिस्स० सव्वपयडीणं सधपदाणि भयणिज्जाणि । एवमाहार०. आहारमिस्स० अवगद० अकसा०-सुहुमसांपराय०-जहाक्खाद०-उवसमसम्मत्त-सासाण.. सम्मामिच्छादिहि त्ति । णवरि जत्थ जत्तियाणि पदाणि णादव्वाणि । कम्मइय० ओरा किन्तु इतनी विशेषता है कि चार स्थावरकाय बादर पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंके असंख्यातभागवृद्धि भजनीय है। ३६२. द्वीन्द्रियोंमें असंख्यातभागहानि और अवस्थान नियमसे है। असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि भजनीय हैं। इसी प्रकार सब विकलेन्द्रिय जीवोंके जानना चाहिए। पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और बस अपर्याप्त जीवोंमें पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान भंग है। विशेषार्थ–एकेन्द्रियोंमें २६ प्रकृतियोंके पाँच पद होते हैं। इनमेंसे तीन ध्रुव और दो भजनीय हैं। कुल भंग नौ होते हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके चार पद होते हैं। जिनमें एक ध्रुव और तीन भजनीय पद हैं। कुल भंग २७ होते हैं । यह व्यवस्था एकेन्द्रियोंके अवान्तर भेदोंमें और पांचों स्थावरकायोंमें भी बन जाती है। किन्तु इसका एक अपवाद है। बात यह है कि चारों स्थावरकाय पर्याप्तक और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्तक इन पाँचोंमें २६ प्रकृतियोंका असंख्यातभागवृद्धि पद भी भजनीय है। इस प्रकार यहाँ भजनीय पद तीन हो जाते हैं, अतः कुल २७ भंग प्राप्त होते हैं । विकलेन्द्रियोंमें २६ प्रकृतियोंके छह पद होते हैं। जिनमें दो ध्रुव और चार भजनीय हैं। कुल भंग ८१ होते हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कथन एकेन्द्रियोंके समान है। अतः एकेन्द्रियोंके इन दो प्रकृतियोंकी अपेक्षा जो २७ भंग पहले बतलाये हैं वे ही यहाँ भी समज्ञना चाहिये। ३६३. योग मागणाके अनुवादसे औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थान नियमसे हैं। संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानि भजनीय हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि नियमसे है। शेष पद भजनीय हैं। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद भजनीय हैं। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि जहाँ जितने पद हो उनके अनुसार जानना । कार्मणकायोगियोंका भंग औदारिकमिश्रकाययोगियोंके समान है। किन्तु इतनी Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ लियमिस्सभंगो । णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त० सव्वपदा भयणिज्जा । एवमणाहारि० । ___३६४. णाणाणुवादेण आभिणि सव्वपयडीणमसंखेज्जभागहाणी णियमा अस्थि । सेससव्वपदा भयणिज्जा । एवं सुद०-ओहि०-मणपज्ज०-संजद०-सामाइय-छेदो०. परिहार०-संजदासंजद०-ओहिदंस०-सुक्कले०-सम्मादिहि-वेदग०-खइय दिहि त्ति । असण्णि० छब्बीसं पयडीणमसंखेज्जभागवड्डि-हाणी अवट्ठाणं णियमा अस्थि संखेज्जभागड्डिहाणी संखेज्जगुणववि-हाणो भयणिज्जा। सम्मत्त-सम्मामि० असंखेज्जभागहाणी णियमा अस्थि । तिण्णिहाणी भयणिज्जा। एवमभवसिद्धिय० । णवरि सम्मत्त-सम्मामि० पत्थि । एवं णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो समत्तो। विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पद भजनीय हैं। इसी प्रकार अनाहारकोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-औदारिकमिश्रकाययोगमें २६ प्रकृतियोंके सात पद होते हैं। जिनमें तीन ध्रुव और चार भजनीय हैं। कुल भंग ८१ होते हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके चार पद होते हैं। जिनमें एक ध्रुव और तीन भजनीय हैं। कुल भंग २७ होते हैं। वैक्रियिकमिश्रकाययोग यह सान्तर मार्गणा है, इसलिये इसमें सब पद भजनीय हैं। यहाँ २६ प्रकृतियोंके सात पद होते हैं, अतः इनके कुल भंग २१८६ होते हैं।' सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके चार पद होते हैं, अतः इनके कुल भंग ८० होते हैं। 'वैक्रियिकमिश्रकाययोगके समान आहारककाययोग आदि मार्गणाओंमें भी कथन करना चाहिये ।' इसका यह अभिप्राय है कि इन मार्गणाओंमेंसे जिसमें जितने पद हैं वे सब भजनीय हैं। यहाँ भंग भी तदनुसार जानना चाहिये। कार्मणकाययोगमें २६ प्रकृतियोंके सात पद हैं। जिनमें तीन ध्रव और चार भजनीय हैं। कुल भंग ८१ होते हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके चार पद हैं जो सब भजनीय हैं। कुल भंग ८० होते हैं । संसारमें कार्मणकाययोग और अनाहारकअवस्थाका सहचर सम्बन्ध है, अतः अनाहारकोंका कथन कार्मणकाययोगके समान है। ६३६४. ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे आभिनिबोधिकज्ञानियोंमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि नियमसे है। शेष सब पद भजनीय हैं। इसी प्रकार श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । असंज्ञियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि,असंख्यातभागहानि और अवस्थान नियमसे है। संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानि भजनीय हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि नियमसे है। तीन हानियां भजनीय हैं। इसीप्रकार के जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्व सम्यग्मिथ्यात्व नहीं हैं। विशेपार्थ--आभिबोधिकज्ञानमें सब प्रकृतियोंके चार पद होते हैं जिनमें एक ध्रुव और तीन भजनीय हैं । कुल भंग २७ होते हैं। इसी प्रकार श्रुतज्ञान आदि मार्गणाओंमें भी जानना चाहिये । किन्तु पद विशेषोंको जानकर कथन करना चाहिये। असंज्ञियोंके २६ प्रकृतियोंके सात पद हैं। जिनमें तीन ध्रव और चार भजनीय हैं। कुल भंग ८१ होते हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके चार पंद हैं जिनमें एक ध्रुव और तीन भजनीय हैं । कुल भंग २७ होते हैं। अभव्योंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता नहीं है। शेष २६ प्रकृतियोंका कथन असंज्ञियोंके समान है। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगम समाप्त हुआ। . Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] वडिपरूणाए भागाभागो २२७ $ ३६५. भागाभागाणुगमेण दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण । ओघेण छब्बीसं पयडीणमसंखेज्जभागवड्डिविहत्तिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? असंखेज्जदिभागो। अवहि० संखेन्जदिमागो । असंखेजभागहाणि० संखेज्जा भागा । सेसपद विह० अणंतिम भागो। सम्मत्त०-सम्मामि० असंखेज्जभागहाणि० सव्वजी० केव० भागो ? असंखेजा भागा । सेसपदवि० असंखेज्जदिभागो । एवं तिरिक्ख एइंदिय-बादरेइंदिय०-बादरेइंदियपज्जत्तापजत्त सुहुमेइंदिय-सुहुमेइंदियपज्जत्तापजत्त-वणप्फदि०-बादरवणप्फदि-सुहुमवणप्फदि पञ्जत्तापज्जत्त-णिगोद-बादरणिगोद-सुहमणिगोदपज्जत्तापजत्त-कायजोगि०-ओरालि. ओरालि मिस्स०-कम्मइयणदुंस०-चत्तारिकसाय०-मदि-सुदअण्णाणि-असंजद०अचक्खु० किण्ह-णील-काउ०-भवसि०-अभवसि०-मिच्छादि० असण्णि- आहारि-अणाहारि त्ति । णवरि अभव० सम्मत्त०-सम्मामि० णत्थि। $ ३६६. आदेसेण णेरइय० छब्बीसं पयडीणमसंखेज्जभागहाणिवि० संखेजा भागा। अवद्विदवि० संखेजदिभागो । सेसपदवि० असंखेजदिभागो । सम्मत्त-सम्मामि० ओघं । एवं सव्वणेरहय-सव्वपंचिंतिरिक्ख-मणुस-मणुसअपज०-देव-भवणादि जाव सहस्सार-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय - पंचिं०पज्ज०-पंचिं० अपज्ज०-सव्वचत्तारिकायबादरवणप्फदिपत्तयसरीरपज्जत्तापज्जत्त--तस-तसपज्ज-तसअपज्ज०-पंचमण०-पंचवचि०. ६ ३६५. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा २६ प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं। असंख्यातवें भाग हैं। अवस्थित स्थितिविभक्तवाले जीव संख्यातवें भाग हैं। असंख्यातभागहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातबहुभाग हैं। तथा शेष पद स्थितिविभक्तिवाले जीव अनन्त-भाग हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा असंख्यात भागहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं । शेष पद स्थितिविभक्ति वाले जीव असंख्यातवें भाग हैं। इसी प्रकार तियेच, एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, सूक्ष्मवनस्पतिकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, निगोद, बादरनिगोद, बादर निगोद पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त और अपर्याप्त, काययोगी, औदारिककाययोगो, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदवाले, क्रोधादि चारों कपायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्या वाले कापोत लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्याष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अभव्योंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व नहीं है। ३६६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा असंख्यातभागहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात बहुभाग हैं। अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातवें भाग हैं। शेष पद स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भाग हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कथन ओघके समान है। इसी प्रकार सब नारकी सब पंचेन्द्रिय तियच, मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सब चार स्थावरकाय, बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त और अपर्याप्त, बस, बस पर्याप्त, बस अपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिक Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ वेउम्चिय०-वेउब्वियमिस्स० - इत्थि०-पुरिस - विहंग- चक्खु०- तेउ०-पम्म०सण्णि ति। ३६७. मणुसपज्ज०- मणुसिणी०-सव्वट्ठ०देव. अट्ठावीसं पयडी० असंखेज्जभागहाणिवि० संखेज्जा भागा। सेसपदवि० संखेज्जदिभागो। एवमवगद०-मणपज्ज.. संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार ०-मुहुमसांपरायसंजदे त्ति । आणदादि जाव अवराइद त्ति अट्ठावीसं पयडी० असंखेज्जभागहाणि केव० ? असंखज्जा भागा। सेसपदवि० असंखेजदिभागो । एवमाभिणि-सुद०-ओहि०-संजदासंजद०-ओहिदंस०-सुकले०-सम्मा. दि०-वेदग-उवसम०-खाय० सम्मामिच्छादिहि त्ति । आहार-आहारमिस्स० णत्थि भागाभार्ग। एवमकसा० जहाक्खाद०-सासणसम्मादिहि त्ति । एवं भागाभागाणुगमो समत्तो। ३६८. परिमाणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघे० आदेसे० । ओघेण छब्बीसं पयडीणमसंखेज्जभागवड्डि-हाणि-अवडिदवि० केत्ति ? अणंता । सेसपद०वि० असंखेजा। णरि मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखज्जगुणहाणिवि० संखेज्जा । सम्मत्त-सम्मामि० सव्वपदवि० असंखेज्जा। एवं कायजोगीसु ओरालि०-णqसयवेद० चत्तारिक०-अचक्खुदंस०-भवसि०-आहारि ति । काययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, विभंगज्ञानवाले, चक्षुदर्शनवाले, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और संज्ञो जीवोंके जानना चाहिए। ६३६७. मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अपेक्षा असंख्यातभागहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात बहुभाग हैं। तथा शेष पद स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातवें भाग हैं। इसी प्रकार अपगतवेदवाले, मनःपर्ययज्ञानवाले, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसांपरायिकसंयत जीवोंके जानना चाहिए। आनतकल्पसे लेकर अपराजित तकक देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अपेक्षा असंख्यातभागहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं। तथा शेष पद स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भागहैं। इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी,संयतासंयत, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके जानना चाहिए । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें भागाभाग नहीं है । इसी प्रकार अकषायी, यथाख्यातसंयत और सासादनसम्यग्दृष्टियोंके जानना चाहिए। इस प्रकार भागाभागानुगम समाप्त हुआ। ६३६८. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। तथा शेष पद स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातगुणहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सब पद स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात है। इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनवाले भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२२] वड्डिपरूवणाए परिमाणं । २२९ $ ३६९. आदेसेण णेरइएसु अट्ठावीसं पयडीणं सवपदवि० असंखेज्जा । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसअपज्ज०-देव०-भवणादि जाव णवगेवज्ज०. सव्वविगलिंदिय-पंचि० अपज्ज-सव्वचत्तारिकाय-बादरवणफदिपत्तेय०सरीरपज्जत्तापज्जत्ततसअपज्ज०-वेउब्धिय०-वेउ०मिस्स०-विहंगणाणि त्ति । ___३७०. तिरिक्खेसु सव्वपयडीणं सबपदवि० ओघं । एवं सव्वएइंदिय-सव्ववणफदि० सव्वणिगोद०-ओरालि०मिस्स-कम्मइय-मदि-सुद अण्णाण-असंजद०-किण्ह-णील-काउ०मिच्छादि०-असण्णि-अणाहारि त्ति । $३७१. मणुस्सेसु छब्बीसं पयडीणं सव्वपदवि० असंखेजा। णवरि असंखे०गुणहाणि० अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्व०विहत्तिया च संखेज्जा। सम्मत्त-सम्मामि० चत्तारिवाड्डि-अवद्विद-अवत्तव्यवि० संखेज्जा। चत्तारिहाणि० केतिया ? असंखेज्जा । मणुसपज्ज०-मणुसिणी०-सव्वट्ठ०देवाणं अट्ठावीसपयडीणं सव्वपदा संखज्जा। अणुद्दिसादि जाव अवराइदं ति अट्ठावीसपयडीणं सव्वपदा असंखेज्जा। णवरि सम्मत्त० संखे० गुणहाणिवि० संखेज्जा। $३७२. पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज. अट्ठावीसं पयडीणं सव्वपदवि० के० १ असंखेज्जा। णवरि वावीसं पयडीणमसंखेजगुणहाणिवि० संखेज्जा । एवं तस-तसपज्ज०-पंचमण.. ६३६९. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सब पद स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी सब पंचेन्द्रिय तियच, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर नौ ग्रैवेयकतकके देव, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सब पृथिवी आदि चार स्थावरकाय, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त और अपर्याप्त, बस अपर्याप्त, वैक्तियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और विभंगज्ञानी जीवोंके जानना चाहिए । ६३७०. तिर्यंचोंमें सब प्रकृतियोंकी सब पद स्थितिविभक्तिवाले जीव ओघके समान हैं। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोद, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। ६३७१. मनुष्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी सब पद स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि स्थितिविभक्तिवाले और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। चार हानि स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सब पद स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। अनुदिशसे लेकर अपराजिततकके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सब पद स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी संख्यातगुणहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। ६३७२. पंचेन्द्रिय और पंचेद्रिय पर्याप्तकोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सब पद स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि बाईस प्रकृतियोंकी असंख्यात Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ पंचवचि०-इस्थि-पुरिस०-चक्खु०-सण्णि त्ति । आहार०-आहारमिस्स० सगसव्वपयडी० असंखेजभागहाणिवि० संखेज्जा । एवमकसा० जहाक्खादसंजदे ति । अवगद० सगसव्वपयडी० सव्वपदवि० संखेज्जा । एवं मणपज्जव०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहारसुहमसांपरायसंजदे त्ति । " ३७३. आमिणि-सुद०-ओहि० अट्ठावीसं पयडी० सवपदवि० असंखेज्जा । णवरि चउवीसं पयडीणं असंखेजगुणहाणि वि० संखेज्जा। एवमोहिदंस० सम्मादिट्टि त्ति । संजदासंजद० अट्ठावीसं पयडीणं सव्वपदवि० असंखेज्जा। णवरि दंसणतिय० संखेजगुणहाणि० असंखेजगुणहाणिवि० संखेज्जा । एवं वेदग० । णवरि सव्वपय० संखेज्जगुणहाणि. असंखेज्जा। सुकले० सव्वपयडीणं सव्यपदवि० असंखेज्जा। णवरि वावीसं पयडीणमसंखेजगुणहाणिवि० संखेजा। तेउ-पम्म० अट्ठावीसं पयडीणं सव्वपदवि० असंखेजा। णवरि मिच्छत्त० असंखेजगुणहाणिवि० संखेजा। खइय० एकवीसपय० असंखेजमागहा० असंखेजा। सेसपदवि० संखेजा। उवसमसम्मादिहि०. सासण० सम्मामि० सगपदवि० असंखेजा। अभव० छब्बीसं पयडीणमोघभंगो । णवरि असंखेजगुणहाणी णत्थि । एवं परिमाणाणुगमो समत्तो। गुणहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात ह । इसी प्रकार त्रस, त्रस पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, चक्षुदर्शनवाले और संज्ञी जीवोंक जानना चाहिए। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार अकषायी और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिए । अपगतवेदियोंमें अपनी सब प्रकृतियोंकी सब पदस्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसांपरायिकसंयत जीवोंके जानना चाहिए। ६ ३७३. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सब पदस्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि चौबीस प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार अवधिदर्शनवाले और सम्यग्दृष्टियोंके जानना चाहिए। संयतासंयतोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सब पदस्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात है। किन्तु इतनी विशेषता है कि तीन दर्शनमोहनीयकी संख्यातगुण असंख्यातगुणहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार वेदकसम्यग्दृष्टियोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि सब पदोंकी संख्यातगुणहानिस्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। शुक्ललेश्यावालोंमें सब प्रकृतियोंकी सब पदस्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि बाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। पीत और पद्मलेश्यावालोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंक सब पदस्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिस्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। तथा शेष पद स्थिति विभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। उपशमसम्यग्दृष्टि , सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें अपने पदस्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भंग ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि नहीं है । इस प्रकार परिमाणानुगम समाप्त हुआ। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] वड्डपरूवणात्तं २३१ ९ ३७४, खेत्ताणुगमेण दुविहो णिसो - ओघे० आदेसे० । ओघेण छब्बीसं पयमसंखेजभागवड्डि- हाणि-अवट्ठिदाणि के० खेत्ते ? सव्वलोगे । सेसपदवि० लोग० असंखेज्जदिभागे । सम्मत्त० सम्मामि० सव्वपदवि ० लोग • असंखेजदिभागे । एवं तिरिक्खसच्चे इंदिय पुढ वि० - बादरपुढवि० - बादरपुढविअपज० आउ०- बादरआउ०- बादरआउअपज ०तेउ०- बादरतेउ०- बादरते उअपज ० - वाउ ० - बादरवाउ०- बादरवाउअपज ० सव्ववणप्फ दि ०. सम्वणिगोद - काय जोगि-ओरालिय-ओरालियमिस्स-कम्मइय० णवुंस ० चत्तारिकसाय-मदिसुदअण्णाण ०. असंजद ० - अचक्खु ० किण्ह णील - काउ०- भवसिद्धि ० - अभवसि ०.मिच्छादि०असणि० - आहार- अणाहारि ति । णवरि अभव० सम्म० - सम्मामि० णत्थि । सेसमासु अट्ठावीस पयडीणं सव्वपदवि० लोगस्स असंखेजमागे । णवरि छव्वीसं पय० असंखेज्जभागवड्डि-हाणि-अवट्ठिदवि० बादरवा उकाइयपजत्ता लोगस्स संखेजदिभागे । एवं खेत्ताणुगमो समत्तो । $ ३७४. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है ओघ और आदेश | ओघकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितका क्षेत्र कितना है ? सब लोक है । तथा शेष पदस्थितिविभक्तियोंका क्षेत्र लोकका असंख्यातवां भाग है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के सब पदस्थितिविभक्तियों का क्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग है । इसी प्रकार तिर्यंच, सब एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादरपृथिवीकायिक, बादरपृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादरजलकायिक, बादरजलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादरअग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादरवायुकायिक, बादरवायुकायिक अपर्याप्त, सब वनस्पति, सब निगोद, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणका योगी, नपुंसकवेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, अहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अभंव्योंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व नहीं हैं। शेष मार्गणाओंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पदस्थितिविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितस्थितिविभक्तिवाले बादरवाकायिक पर्याप्त जीवोंका क्षेत्र लोकका संख्यातवाँ भाग है । विशेषार्थ - ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितपदवाले जीवोंका प्रमाण अनन्त है और वे सब लोकमें पाये जाते हैं, क्योंकि इन पदोंको एकेन्द्रियादिक सब जीव प्राप्त होते हैं अतः इनका क्षेत्र सब लोक कहा । किन्तु शेष पदवाले जीव स्वल्प हैं अतः उनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीव भी थोड़े होते हैं अतः इनका सब पदोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र कहा । तिर्यंच आदि और जितनी मार्गणाओंका सब लोक क्षेत्र है उनमें यह ओघ प्ररूपणा बन जाती है अतः उनके कथनको ओघके समान कहा । किन्तु जिनमार्गणाओंका क्षेत्र. सब लोक नहीं है किन्तु लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है उनमें सब पदोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा । हाँ वायुकायिक पर्याप्त जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है । और इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितपदवाले जीव बहुतायत से पाये जाते हैं इसलिये पर्याप्त वायुकायिकों में इन पदवालोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण कहा । इस प्रकार क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ३७५. पोसणाणु० दुविहो णिदेसो-ओघे० आदे० । ओघेण छब्बीसं पयडीणं असंखेजभागवड्डि-हाणि-अवट्ठि० केव० खेत्तं पो० ? सव्वलोगो । दोवड्डि०-दोहाणिवि. केव० पो०? लोग० असंखेजदिभागो अट्ठचो० देसूणा सबलोगो वा । असंखेजगुणहाणिवि० खेत्तभंगो। णवरि अणंताणु० चउक्क० असंखे गुणहाणि-अवत्तव्व० अट्ठचोद्द० देसूणा । इत्थि-पुरिस० दोवड्डि० लोग० असंखेजदिभागो अट्ठ-बारहचोदसभागा वा देसूणा। एइंदिएसु विगलिंदियपंचिंदिएसु कदोववादेसु संखे० गुणवड्डिविहत्तियाणं विगलिंदियसंतादो संखेज्जभागहीणहिदिसंतकम्मियएइंदिएसु विगलिदिएसुप्पण्णेसु खे०भागवड्डिविहत्तियाणं च सव्वलोगो किण्ण लब्भदे ? ण, एत्थ उववादपदविवक्खाभावादो । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं चत्तारिवाड्डि-अवढिद-अवत्तव० के० ख० पो० १ लो. असंखे०भागो अट्ठचोद्द० देसूणा । चत्तारिहाणि० के० खे० पो० १ लो० असं०भागो अट्ठचोद्द० देसूणा सबलोगो वा। एवं कायजोगि०-ओरालिय०-णस० चत्तारिक०-असं. जद०-अचक्खु०-भवसि०-आहारि ति । णवरि ओरालियकायजोगीसु छब्बोसं पयडीणं दोवड्डि-दोहाणीणं लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । अणंताणु०चउक्क० ६ ३७५. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघसे और आदेशसे। ओघकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सब लोकका स्पर्शन किया है। दो वृद्धि और दो हानि स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है। लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा त्रसवालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंख्यातगुणहानिस्थितिविभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य स्थितिविभक्ति का स्पर्शन त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग है। तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धियोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग और बस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और बारह भाग है। शंका-एकेन्द्रियोंके विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होने पर संख्यातगुणवृद्धिस्थितिविभक्तिवालोंका और विकलेन्द्रियोंके सत्त्वसे संख्यातभागहानि स्थितिसत्कर्मवाले एकेन्द्रियोंके विकलेन्द्रियों में उत्पन्न होने पर संख्यागभागवृद्धिस्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन सब लोक क्यों नहीं प्राप्त होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि यहाँ उपपादपदकी विवक्षा नहीं है। ___ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि,अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है । चार हानि स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है? लोकके असंख्यातवें भाग, त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग अ क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत,अचक्षुदर्शनी,भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि औदारिककाययोगियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी दो वृद्धि और दो हानियोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग और सब लोक है। तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहोनि बि लोक Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ गा० २२] वड्डिपरूवणाए फोसणं असंखे०गुणहाणि-अवत्तव्याणं इत्थि-पुरिस० दोवड्डीणं च लोग० असंखे०भागो। सम्मत्त-सम्मामि० चत्तारिवडि-अवट्टि अवत्तव्य० लोग० असं भागो। चत्तारिहाणि. लो० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । ओरालियम्मि० वुत्तविसेसो चेव णवंसयवेदे । णवरि इथि पुरिस० दोवड्ढीणं लोगस्स असंखे०भागो छचोदसभागा वा देसूणा । असंजदेसु एक्कवीसपयडीणमसखे०गुणहाणी णत्थि । एत्तिओ चेव विसेसो। और अवक्तव्यका तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धियोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्यका स्पशेन लोकका असंख्यातवाँ भाग है। तथा चार हानियोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग और सब लोक है। औदारिककाययोगमें जो विशेषता कही है वह नपंसकवेदमें जानना चाहिए। किन्त इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धियोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग और प्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग है। असंयतोंमें इक्कीस प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानि नहीं है । बस इतनी विशेषता है। विशेषार्थ .. छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित पद एकेन्द्रिय आदि सभी जीवोंके सम्भव हैं, इसलिए इनका सर्वलोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानि स्वस्थानकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय आदिकके तथा संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानि स्वस्थानकी अपेक्षा संज्ञी पञ्चेन्द्रियके सम्भव हैं और इनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, इसलिए इस अपेक्षासे यह उक्त प्रमाण कहा है। तथा संज्ञी पञ्चेन्द्रियके स्वस्थान विहार आदिके समय भी ये वृद्धियाँ और हानियाँ सम्भव हैं, इसलिए इस अपेक्षासे यह स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजु प्रमाण कहा है। तथा जो एकेन्द्रिय आदि द्वीन्द्रिय आदिकमें उत्पन्न होते हैं उनके परस्थानकी अपेक्षा ये वृद्धियाँ और हानियाँ सम्भव हैं और ऐसे जीवोंका स्पर्शन सर्वलोकप्रमाण है, इसलिए इस अपेक्षासे इनका सर्वलोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। इन प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानिका स्पर्शन क्षेत्रके समान है यह स्पष्ट ही है। मात्र यहाँ उक्त प्रकृतियोंमेंसे कुछ प्रकृतियोंके सम्बन्धमें कुछ विशेषता है। यथा-अनन्तानुबन्धी चतष्कको असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपद देवोंके भी विहारादिके समय सम्भव हैं, इसलिए इनके इन दो पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि जिन जीवोंके होती हैउनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे यह उक्त प्रमाण कहा है। देवोंके विहारादि पदकी अपेक्षा यह कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण होनेसे उक्त प्रमाण कहा है। तथा नीचे छह और ऊपर छह इस प्रकार कुछ कम बारह बटे चौदह राजु प्रमाण प्राप्त होनेसे यह उक्त प्रमाण कहा है। यहाँ उपपादपदकी विवक्षा होने पर इन वृद्धियोंका सब लोकप्रमाण स्पर्शन बन सकता है पर उसकी विवक्षा नहीं होनेसे नहीं कहा है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धियाँ, अवस्थित और अवक्तव्यपद जो मिथ्यादृष्टि सम्यग्दृष्टि होते हैं उनके सम्भव हैं और इस अपेक्षासे वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण प्राप्त होनेसे यह उक्त प्रमाण कहा है। तथा इनकी चार हानियाँ सबके सम्भव हैं. इसलिए इनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण. विहारादिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और मारणान्तिक व उपपादपदकी अपेक्षा सर्वलोकप्रमाण कहा है। यहाँ मूलमें काययोगी आदि अन्य जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह ओघनरूपणा अविकल बन जाती है, इसलिए उनके कथनको ओघके समान कहा है। मात्र औदारिककाययोग नारकियों और देवोंके Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जयधबलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ३७६. आदेसेण रहएसु छब्बीसं पयडीणं तिण्णिवड्डि-तिण्णिहाणि-अवडिद० के० १ लो असंखे०भागो छचोद्द० देसूणा। सम्मत्त-सम्मामि० चत्तारिहाणि लोग० असंखे०भागो छचोदस० देसूणा। चत्तारिवाड्डि-अवढि०-अवत्त व. अणंताणु०चउक्क० असंखे०गुणहाणि-अवत्तव० के० १ लोग० असंखे०भागो । विदियादि जाव सत्तमित्ति एवं चेव । णवरि अप्पणो रज्जू'णायव्वा । पढमपु०वि० खेत्तभंगो। नहीं होता, इसलिए इसमें छब्बीस प्रकृतियोंकी दो वृद्धियों और दो हानियोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपदका तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धियोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धियाँ. अवस्थित और अवक्तव्यपदका स्पर्शन भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा चार हानियोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक प्रमाण कहा है। यहाँ औदारिककाययोगमें जो विशेषता कही है वह नपुंसकवेदमें अविकल बन जाती है। यद्यपि नपुंसकवेद नारकियोंके होता है पर उससे उक्त विशेषतामें कोई अन्तर नहीं पड़ता है। हाँ स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धियोंके स्पर्शनमें अन्तर आ जाता है, क्योंकि जो नारकी तिर्यञ्चों और मनुष्योंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं उनके भी स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धियाँ सम्भव हैं, अतः नपुंसकोंमें इन दो वेदोंकी दो वृद्धियोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। इक्कीस प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानि चारित्रमोहकी क्षपणाके समय होती है. इसलिए यहाँ असंयतोंमें इसका निषेध किया है। ६३७६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानिस्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और प्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपने अपने राजु जानना चाहिए। तथा पहली पृथिवीमें स्पर्शन क्षेत्रके समान है। विशेष:र्थ---सामान्यसे नारकियोंके स्पर्शनको ध्यानमें रखकर यहाँ छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धियाँ, तीन हानियाँ और अवस्थितपदका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियोंका उक्त स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। पर इनकी चार वृद्धियाँ, अवस्थित और अवक्तव्यपद तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपद मारणान्तिक समुद्भात और उपपादपदके समय सम्भव न होनेसे यह स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। द्वितीयादि पृथिवियोंमें यह स्पर्शन इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शनके स्थानमें अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिए। पहली पृथिवीमें स्पर्शन क्षेत्रके समान है यह स्पष्ट ही है। , ता. प्रतौ अप्पणा रज्जू इति पाठः । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] वड्डिपरूवणाए फोसणं २३५ $ ३७७, तिरिक्खेसु छब्बीसं पयडीणं असंखे ० भागवड्डि- हाणि अवट्टि० ओघं । दोवड्डि- दोहाणि० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । णवरि अणंताणु० चउक्क० असंखे० गुणहाणि-अवत्तव्व० इत्थि पुरिस० दोवड्डि० लोग० असंखे० भागो । सम्मत्तसम्मामि० चत्तारिहाणि० लो० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । सेसपदाणं खेत्तभंगो । पंचि०तिरिक्खतियम्मि छब्बीसं पयडीणं सव्वपदाणं लो० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । णवरि अणंताणु ० चउक्क० असंखे० गुणहाणि अवतव्व ० इत्थि - पुरिस० तिष्णि वड्डि-अवट्ठि' लो० असंखे० भागो । सम्मत्त सम्मामि० तिरिक्खोघं । पंचि०तिरि० अपज्ज० - मणुस अपज्ज० अट्ठावीसं पयडीणं सव्वपदवि० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । णवरि इत्थि - पुरिस० तिण्णिवड्डि-अवट्टि० लो० असंखे० भागो । एवं पंचि ० अपज्ज० - तस अपज्जत्ताणं । मणुसतियम्मि छब्बीसं पयडीणं सव्वपदवि पंचिंदियतिरिक्खभंगो | णवरि असंखे० गुणहाणि० लोग० असंखे० भागो । सम्मतसम्मामि० पंचिं० तिरिक्खभंगो । $३७७. तिर्यंचोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि असंख्यात भागहानि और अवस्थितका भंग ओघके समान है । दो वृद्धि और दो हानि स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धि स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानिस्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंका भंग क्षेत्रके समान है । तीन प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके सब पदोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग और सब लोक है | किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका स्पर्शन तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धि और अवस्थितका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा स्पर्शन सामान्य तिर्यंचों के समान है । पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पद स्थितिविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है । किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धि और अवस्थितस्थितिविभक्तिका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग है । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। तीन प्रकारके मनुष्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंके सब पदोंका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानिका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है । विशेषार्थ – तिर्यञ्चोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितपद सब एकेन्द्रियादि जीवोंके सम्भव होनेसे इनका स्पर्शन ओघके समान सब लोकप्रमाण कहा है । इन प्रकृतियोंकी दो वृद्धियाँ और दो हानियाँ ऐसे जीवोंके ही सम्भव हैं जिनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सब लोकप्रमाण होता है, अतः यह उक्तप्रमाण कहा है। मात्र अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपदका तथा १ आ. प्रतौ० तिष्णिवड्डि-तिष्णिहाणि भव०ि इति वाठ:: ० Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ O ९ ३७८ देवेसु मिच्छत्त - बारसक० सत्तणोक० सव्वपदवि० लो० असंखे० भागो अट्ठ-णवचो६० देसूणा | अणंताणु० चउक्क० असंखे० गुणहाणि-3 - अवत्तव्व ० इत्थि पुरिस तिण्णिवड्डि-अवट्ठि० सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं चत्तारिवड्ढि अवडि० - अवत्त ० लो० असंखे० भागो अचो६० देखणा | सेसपदवि० अट्ठ-णवचो६० देसूणा । एवं भवणादि जा सहस्सार ति । णवरि सगपोसणं वत्तव्वं । आणदादि जाव अच्चुद ति अट्ठावीसं पडणं सव्वपदवि० लोग० असंखे ० भागो छचोदस० देखणा । उवरि खेत्तभंगो | २३६ स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धियों का स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह स्पष्ट ही है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियाँ उन सब जीवोंके सम्भव हैं जो इन प्रकृतियोंकी सत्ता के साथ एकेन्द्रियादिमें उत्पन्न होते हैं । यतः इनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सब लोकप्रमाण है, अतः यह स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। यहाँ इन दो प्रकृतियोंके शेष पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान है यह स्पष्ट ही है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक छब्बीस प्रकृतियोंके सम्भव सब पदोंका स्वामित्व ओघके समान होनेसे उनकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है। मात्र अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और पुरुषवेद इसके अपवाद हैं, इसलिए इन प्रकृतियोंके जिन पदोंके स्पर्शनमें विशेषता है उसे अलग से स्पष्ट किया है । इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पदोंका स्पर्शन सामान्य तिर्यञ्चों के समान प्राप्त होनेसे वह उनके समान कहा है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धि और अवस्थितपदके स्पर्शन में ही विशेषता है । शेष स्पर्शन इन दोनों मार्गणाओंके स्पर्शनके समान ही है । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और स अपर्याप्त जीवोंमें जानना चाहिए । एकेन्द्रिय आदिमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले इन जीवोंके या जो एकेन्द्रिय आदि जीव मर कर इनमें उत्पन्न होते हैं उनके स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धियाँ और अवस्थित पद नहीं होते, इसलिए इनमें इन प्रकृतियोंके उक्त पदोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। मनुष्यत्रिक में और सब स्पर्शन तो पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के समान बन जाता है । मात्र इनमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी भी असंख्यातगुणहानि सम्भव है, इसलिए इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात गुणहानिका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । $ ३७८. देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंके सब पद स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ और कुछ कम भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धि और अवस्थितका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्यका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग है । तथा शेष पदोंका स्पर्शन त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भाग है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तक जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिए। आनत कल्पसे लेकर अच्युत कल्प तकके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पद स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसके ऊपर स्पर्शनका भंग क्षेत्रके समान है । विशेषाथ - देवोंमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपद, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धियाँ और अवस्थितपद तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वड्डिपरूवणाए फोसणं २३७ ६३७९ इंदियाणु० सम्वेइंदियाणं छब्बीसं पयडीणमसंखे० भागवड्डि-हाणिअवट्टि ० के० खेत्तं पोसिदं ? सव्वलोगो । दोहाणि लोगस्स असंखे०भागो सव्वलोगो वा। सम्मत्त-सम्मामि० चत्तारिहाणि लो० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । एवं पुढवि०-बादरपुढवि बादरपुढविअपज्ज०-सुहुमपुढवि०-सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-आउ०बादरआउ०-बादरआउअपज्ज०-सुहमाउ०-सुहुमआउपज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-बादरतेउ०. बादरतेउअपज्ज०-सुहुमतेउ०-सुहुमतेउपज्जत्तापज्जत्त-वाउ-बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज. सुहुमवाउ०-सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त-सव्ववणप्फदि-सव्वणिगोदा त्ति । $३८० सव्वविगलिंदियाणं छब्बीसं पयडीणमसंखे०भागवड्डि-हाणि-संखे०भाग चार वृद्धियाँ, अवस्थित और अवक्तव्य पद यथासम्भव मारणान्तिक समुद्घातके समय और एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घातके समय नहीं होते, अतः इनकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम आठ बटे चौदह राजप्रमाण कहा है। तथा शेष स्पर्श सामान्य देवोंके स्पर्शनके समान कहा है। भेवनवासी आदिमें सामान्य देवोंके समान स्पर्शन घटित हो जाता है, इसलिए वह उनके समान कहा है। मात्र जिसका जो स्पर्शन हो वह लेना चाहिए। आगे आनतादिकमें उनके स्पर्शनको ध्यानमें रखकर स्पर्शन कहा है, क्योंकि वहाँ जिन प्रकृतियोंके जो पद सम्भव हैं उनका उक्त प्रमाण स्पर्शन प्राप्त होनेमें कोई बाधा नहीं आती। ६३७९ इंन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे सब एकेन्द्रियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितस्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सब लोकका स्पर्शन किया है। दो हानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक,बादर जलकायिक अपयोप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, वायुकायिक,बादर वायुकायिक,बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सब वनस्पतिकायिक और सब निगोद जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-एकेन्द्रियों में सबके छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित पद सम्भव हैं, इसलिए इनकी अपेक्षा सब लोक प्रमाण स्पर्शन कहा है। दो हानियाँ ऐसे एकेन्द्रियोंके ही सम्भव हैं जो संज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें इन हानियोंके योग्य स्थितिकाण्डकोंको प्रारम्भ कर और मरकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं । यतः ऐसे जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सब लोकप्रमाण है, अतः इन पदोंकी अपेक्षा उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण घटित कर लेना चाहिए। यहाँ पृथिवीकायिक आदि अन्य जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है, अतः उनकी प्ररूपणा एकेन्द्रियोंके समान कही है। ६३८० सब विकलेन्द्रियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ ड्ड - हाणि संखे ० गुणहाणि - अट्ठि ० लोग असंखे० भागो सव्वलोगो वा । णवरि इत्थि - पुरिस० दोवड्ढि - अवडि० लोग० असंखे ० भागो । सम्मत्त सम्मामि० चदुष्णं हाणीणमोघं । ९ ३८१. पंचिदिय पंचिं ० पज० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० सव्वपदवि० लोग ० असंखे० भागो अट्ठचोद्द सभागा वा देसूणा सव्वलोगो वा । असंखे० गुणहाणि० खेत्तभंगो । वरि अणंताणु ० असंखे ०गुणहाणि अवत्तव्व० अट्ठचोद्दस० देसूणा । इत्थि - पुरिस० तिण्णिवड्डि अवट्टि० लोग० असंखे० भागो अट्ठ-बारहचो६० देसूणा । सम्मत्त सम्मामि० चत्तारिवड्डि-अवट्ठि ० - अवत्तव्व० लोग० असंखे० भागो अट्ठचोद्दस० देभ्रूणा । चचारि - हाणि ० लोग० असंखे० भागो अट्ठचोद० देसूणा सव्वलोगो वा । एवं तस-तसपञ्ज ०पंचमण० पंचवचि ० चक्खुदंस०-सण्णि त्ति । संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है । किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धि और अवस्थितका स्पर्शन लोकका असंख्यातवां भाग है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियोंका स्पर्शन ओघके समान है । विशेषार्थ - विकलेन्द्रियोंका जो स्पर्शन है वह इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी दो वृद्धि, तीन हानि और अवस्थान पद में भी सम्भव है, इसलिए यह उक्त प्रमाण कहा है। मात्र स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धि और अवस्थान पदके समय नपुंसकवेदियों में मारणान्तिक समुद्धात सम्भव नहीं है तथा विकलत्रयोंमें उपपादपद भी सम्भव नहीं है, इसलिए इनकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के चार पदों की अपेक्षा स्पर्शन ओघके समान है यह स्पष्ट ही है । ९ ३८१ पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायांके सब पदस्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा असंख्यातगुणहानिका भंग क्षेत्रके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्यका स्पर्शन त्र्सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण है । तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धि और अवस्थितका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ और कुछ कम बारह भाग है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्यस्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा चार हानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार त्रस त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, चक्षुदर्शनवाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ – पंचेन्द्रियद्विकका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण, कुछकम आठब चौदह राजुप्रमाण और सब लोक प्रमाण है । वह यहाँ छब्बीस प्रकृतियोंके सब पदोंका सम्भव होनेसे उक्त प्रमाण कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सिवा इन प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानि क्षपणा के समय होती है इसलिए इस अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है यह स्पष्ट ही है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपद विहारादिके समय भी सम्भव हैं, Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वड्डपरूवणाए फोसणं २३६ ० ६ ३८२. बादरपुढविपञ्ज • अट्ठावीसं पयडीणं सगपदवि० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । णवरि इत्थि - पुरिस० असंखे ० भागवड्डि-अवट्ठि० लोग० असंखे० भागो । एवं वादरआउ० उ० - वाउ०- बादरवणप्फदिपत्तेयपञ्जत्ताणं । णवरि बादरवाउ० पञ्ज० लोग० संखे० भागो' सव्वलोगो वा । इत्थि पुरिस० असंखे ० भागवड्डि-अवट्ठिद विह० लोग० संखे० भागो' । इसलिए इनकी अपेक्षा स्पर्शन कुछकम आठबटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। स्त्रीवेद और पुरुषवेद की तीन वृद्धियाँ और अवस्थितपद स्वस्थानके समय, विहारादिके समय तथा देवों और नारकियों के तिर्यों और मनुष्यो में मारणान्तिक समुद्घातके समय भी सम्भव हैं, इसलिए इन प्रकृतियों के उक्त पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चारवृद्धियाँ, अवस्थित और अवक्तव्यपद स्वस्थानमें और विहारादिके समय ही सम्भव हैं, इसलिए इन दो प्रकृतियोंके उक्त पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। इन दो प्रकृतियोंकी चार हानियोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम आठ वटे चौदह राजुप्रमाण और सब लोकप्रमाण है यह स्पष्ट ही है, क्योंकि ये चारों हानियाँ उद्वेलना में भी सम्भव होनेसे उक्तप्रमाण स्पर्शन बन जाता है । यहाँ त्रस आदि अन्य जितनी मार्गणाऐं गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है, इसलिए उनके कथनको पंचेन्द्रियद्विकके समान कहा है । ९ ३८२ बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकों में अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पद स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग है। इसी प्रकार बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंने लोकका संख्यातवाँ भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितस्थितिविभक्तिवालोंने लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है । विशेषार्थ - बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण है । अतः यहाँ अट्ठाईस प्रकृतियोंके जो पद सम्भव हैं उनका यह स्पर्शन बन जाता है, इसलिए वह उक्तप्रमाण कहा है। मात्र स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितपद इसके अपवाद हैं। बात यह है कि जो उक्त जीव नपुंसकोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते हैं उनके ये पद नहीं होते, इसलिए इन दो प्रकृतियोंके उक्त दो पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। यहाँ अन्य जितनी मार्गणाऐं गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है इसलिए उनमें बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंके समान स्पर्शन कहा है । मात्र बाद वायुकायिक पर्याप्त जीवोंका स्पर्शन लोकके संख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण होनेसे इनमें सब प्रकृतियोंके सम्भव पदोंकी अपेक्षा यह स्पर्शन जानना चाहिए । किन्तु स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितपदकी अपेक्षा यह स्पर्शन लोकके संख्यातवें भागप्रमाण ही जानना चाहिए। कारण स्पष्ट ही है । १ ता० प्रतौ असंखे० भागो इति पाठः । २ ता० प्रतौ असंखे० भागो इति पाठः । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । द्विदिविहत्ती ३ . ६३८३, ओरालियमिस्स० छब्बीसं पयडीणं असंख०भागवड्डि-हाणि-अवढि० के० १ सबलोगो। दोवडि-दोहाणि० केव० १ लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा। इत्थि-पुरिस० दोवड्ढि० लो० असंखे०भागो। सम्मत्त-सम्मामि० चदुण्डं हाणीणमोघं । $३८”. वेउव्विय० छब्बीसं पयडीणं असंखे० भागवड्डि-हाणि०-दोवड्डि-दोहाणिअवढि० लो० असंखेजदिमागो अदु-तेरहचोद्द० भागा वा देखूणा । णवरि इत्थि-पुरिस० तिण्णिवड्डि-अवढि० लोग० असंखे०भागो अट्ठ-बारहचोद्द० देसूणा । अणंताणु० चउक्क० असंखे०गुणहाणि०-अवत्तव्व० सम्मत्त-सम्मामि० चत्तारिवड्डि-अवट्टि० अवत्तव्वं च अट्ठचोदस० देसूणा। सम्मत्त-सम्मामि० सेसपदाणं लोग. असं०भागो अट्ठ-तेरह० देसूणा। वेउव्वियमिस्स० अट्ठावीसं पयडीणं सवपदवि० लोग० असंखे०भागो। ६३८३ औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितस्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सब लोकका स्पर्शन किया है। दो वृद्धि और दो हानिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पर स्त्रीवेद और परुषवेद की दो वृद्धियोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियोंका स्पर्शन ओघके समान है। विशेषार्थ --- औदारिकमिश्रयोगी जीव सब लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितपदका स्पर्शन सब लोकप्रमाण कहा है। इनमें दो वृद्धि और दो हानियोंका वर्तमान स्पर्शन तो लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है. परन्तु अतीत स्पर्शन सब लोकप्रमाण बन जाता है. इसलिए यह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है। मात्र स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धियाँ न तो एकेन्द्रियोंमें सम्भव हैं और न नपुंसकोंमें मारणान्तिक समुद्धात करनेवालोंमें सम्भव हैं. अन्यत्र यथायोग्य होती हैं. अतः इन दो प्रकृतियोंके उक्त पदोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। $३८४. वैक्रियिककाययोगियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि. असंख्यातभागहानि, दो वृद्धि, दो हानि और अवस्थितस्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धि और अवस्थितका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग और सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम बारह भाग है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्यका स्पर्शन त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग है तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके शेष पदोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग और त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह भाग है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पद स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-वैक्रियिककायोगियोंमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धियाँ और अवस्थितपद स्वस्थानमें, विहारादिके समय तथा नारकियों और देवोंके तिर्यश्चों और मनुष्योंमें मारणान्तिक Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वड्डिपरूवणाए पोसणं । २४१ ___ ३८५. कम्मइय० छब्बीसं पयडीणमसंखे०भागवड्डि-हाणि-अवट्ठि. केव० ? सव्वलोगो। दोवड्डि-दोहाणि केव० ? लो० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । णवरि इत्थि-पुरिस० दोवड्डि० लोग०असंखे०भागो बारहचोद्दस० देसूणा । सम्मत्त-सम्मामि० ओघं । णवरि पदविसेसो णायव्यो । एवमणाहारीणं । । ___ ३८६. आहार-आहारमिस्स० सव्वपयडीणं सव्वपदवि० लोग० असंखे भागो। एवमवगद०-अकसा०-मणपज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार० सुहुमसांप०-जहाक्खादसंजदे ति। . wwwvirwww.simirmiremeritambarrerime marpariwari.... समुद्घातके समय सम्भव होनेसे इन प्रकृतियोंके उक्त पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपद तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धियाँ, अवस्थित और अवक्तव्यपद मारणान्तिक समुद्घात आदिके समय सम्भव नहीं हैं, इसलिए इनका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। सब प्रकृतियोंके शेष पदोंका स्पर्शन वैक्रियिककाययोगके समान ही है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इसमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। ६३८५ कार्मणकाययोगियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। दो वृद्धि और दो हानिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धियोंका स्पर्श लोकका असंख्यातवाँ भागप्रमाण और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम बारह भागप्रमाण है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका स्पर्श ओघके समान है। किन्तु पद विशेष जानना चाहिये । इसी प्रकार अनाहारकोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ कार्मणकाययोगका स्पर्शन सब लोकप्रमाण है, इसलिए इसमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित पदका स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा है। इन प्रकृतियोंकी दो वृद्धि और दो हानिमेंसे यथासम्भव द्वीन्द्रियादिक जीवोंके वृद्धियाँ और काण्डकघातके साथ संज्ञियोंके एकेन्द्रियादिकमें उत्पन्न होनेपर हानियाँ होती हैं। ऐसे जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सब लोकप्रमाण होने से यह उक्तप्रमाण कहा है। मात्र स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धियाँ जो स्त्रीवेदी और पुरुषवेदियोंमें उत्पन्न होते हैं उन्हींके यथासम्भव होती हैं, अतः इनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। ६३८६ आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदस्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार अपगतवेदी, अकषायी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत,सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिए। ३१ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ३८७. इथिवेद० छब्बीसं पयडीणमसंखे०भागवति हाणि. [ संखेजभागवड्डिहाणि-] संखे गुणवड्डि-हाणि-अवढि० लोग० असंखे०भागो अट्ठचोदस० देरणा सव्वलोगो वा । णवरि इत्थि-पुरिस० तिण्णिवड्डि-अवढि० लोग० असंखे०भागो अड. चोद्द०भागा वा देसूणा । सव्वकम्माणमसंखे गुणहाणि लो० असंखे०मागो। अणंताणु०चउक० असंखे०गुणहाणि-अवत्तव्य. लो० असंखे०भागो अहचोद्द० देसूणा । सम्मत्त-सम्मामि० चचारिवाड्डि-अवढि०-अवत्तव्य. केव० १ लो० असंखे०मागो अट्टचोद्द० देसूणा। चत्तारिहाणि लोग. असंखे०भागो अट्ठचोद्द० सवलोगो वा । पुरिसवेदे इत्थिवेदभंगो। विशेषार्थ-आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंका स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा है। यहाँ अपगतवेदी आदि अन्य जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें इसीप्रकार स्पर्शन घटित होता है, इसलिए उनके कथनको आहारककाययोगीद्विकके समान जाननेकी सूचना की है। ६३८७ स्त्रीवेदियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धि और अवस्थितका स्पर्श लोकका असंख्यातवाँ भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कछ कम आठ भाग है । तथा सब कर्मोकी असंख्यातगुणहानिका स्पर्श लोकका असंख्यातवाँ भाग और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपदका स्पर्श लोकका असंख्यातवाँ भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको चारवृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनाली के चौदह भेदोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। चार हानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। पुरुषवेदियोंमें स्त्रीवेदियोंके समान भंग है। विशेषार्थ-स्त्रीवेदियोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और सब लोकप्रमाण है। इन सब स्पर्शनोंके समय छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धियाँ, तीन हानियाँ और अवस्थितपद सम्भव हैं, इसलिए यह स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा है। मात्र स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धियाँ और अवस्थित पदका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण है। यहाँ उपपाद पदकी विवक्षा नहीं होनेसे अन्य स्पर्शन नहीं कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सिवा पूर्वोक्त बाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानि उनकी क्षपणाके समय होती है, इसलिए इसकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य पद की अपेक्षा वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि चारों गतिके संज्ञी पञ्चेन्द्रिय सम्यग्दृष्टि जीव इसकी विसंयोजना करते हैं और ऐसे Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूणाए पोसणं ६३८८.मदि-सुदअण्णाणी० छब्बीसं पयडीणमसंखे०भागवड्डि-हाणि-अवट्ठि० केव. पो० ? सव्वलोगो । दोवड्डि-दोहाणि केव० पो० १ लो० असंखे०भागो अट्ठचोदस० सव्वलोगो वा । णवरि इत्थि-पुरिस० दोवड्ढि० लोग० असंखे०भागो अट्ठ-बारहचोद्द० देसूणा। सम्मत्त-सम्मामि० चत्तारिहाणि लोग० असंखे०मागो अट्ठचोदस० सव्वलोगोवा। ६ ३८९. विहंगणाणी० छब्बीसं पयडीणं तिण्णिवड्डि-तिण्णिहाणि-अवढि० लोग० असंखे०भागो अट्टचो६० सव्वलोगो वा। णवरि इत्थि-पुरिस० तिण्णिवड्डि-अवट्टि जीवोंने अतीत कालमें कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है, इसलिए यह उक्त प्रमाण कहा है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्य पद सम्यग्दृष्टि होते समय होते हैं, अतः इनकी अपेक्षा वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। तथा इन दोनों प्रकृतियोंकी चार हानियाँ एकेन्द्रियादि सबके सम्भव हैं, इसलिए इनकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है। पुरुषवेदियोंमें स्त्रीवेदियोंके समान स्पर्शन बन जाता है, अतः उनका भङ्ग स्त्रीवेदियोंके समान जाननेकी सूचना की है। ६३८८ मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किय है । दो वृद्धि और दो हानिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम बारह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। विशोषार्थ- मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंका सब लोकप्रमाण स्पर्शन होनेसे इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितपदकी अपेक्षा स्पर्शन सब लोकप्रमाण कहा है । तथा इनकी दो वृद्धियों और दो हानियोंका प्रारम्भ क्रमसे द्वीन्द्रियादि और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय करते हैं और ऐसे जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, विहारादिको अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और मारणान्तिक व उपपाद पदकी अपेक्षा सब लोक प्रमाण होनेसे यह स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। दो हानियाँ एकेन्द्रियों में भी सम्भव हैं, इसलिए भी सब लोक प्रमाण स्पर्शन बन जाता है । नारकियोंके तिर्यश्चों और मनुष्यों में मारणान्तिक समुद्घात और उपपादपदके समय तथा देवोंके स्वस्थान विहारादिके समय स्त्रीवेद और पुरुषवेदका बन्ध सम्भव है और इनका यह सम्मिलित स्पर्शन कुछ कम बारहबटे चौदह राजु प्रमाण है, अतः स्त्रीवेद और पुरुषवेदका दो वृद्धियोंका स्पर्शन कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है, क्योंकि उसका पहले अनेक बार स्पष्टीकरण कर आये हैं। ३८९. विभंगज्ञानियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितस्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ट्ठिदिविहत्ती ३ लोग० असंखे०भागो अट्ठ-बारहचोदस० देसूणा। सम्मत्त-सम्मामि० चत्तारिहाणिक लोग० असंखे०भागो अट्टचोद्द० सव्वलोगो वा। ३९० आभिणि सुद-ओहि० छब्बीसं पयडीणं असंखे०मागहाणि-संखे०भागहाणि-संखेगुणहाणि० लोग० असंखे० भागो अढचोद्द० देसूणा । असंखे गुणहा० लोग० असंखे०भागो। णवरि अणंताणु० चउक्क० असंखे०गुणहाणि. अट्टचोद्दसभागा देसूणा । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहाणि-संखे०भागहाणि-संखे०गुणहाणि लोग० असंखे०भागो अट्टचोद्द० देसूणा। असंखेगुणहाणि लोग० असंखे०मागो। एवमोहिदंस०-सुक्कले० सम्मादिहि त्ति । णवरि सुक्कले० चोदस० देसूणा। सम्मत्तसम्मामि० अवविद० खेत्तभंगो। चत्तारिवाडि-अवत्तव. अणंताणु०चउक० अवत्तव्व० लोग० असंखे०भागो छचोदसभागा वा देसूणा । aamanaanamnamasan wwaminwrrrr भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धि और अवस्थितविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम बारह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। विशेषार्थ-विभङ्गज्ञानी जीव वर्तमानमें सब लोकमें नहीं पाये जाते, क्योंकि संज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें ही कुछ के यह ज्ञान होता है, इसलिए इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितपदकी अपेक्षा वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन कुछ कम आठबटे चौदह राजु और सब लोकप्रमाण कहा है। शेष सब विचार मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके समान कर लेना चाहिए। मात्र यहाँ सब लोकप्रमाण स्पर्शन मारणान्तिक समुद्घातके समय कहना चाहिए। . ६३९०. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। असंख्यातगुणहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। किन्तु विशेषता यह है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानिवालोंका स्पर्श त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। असंख्यातगुणहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि शुक्ललेश्यावालोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितस्थितिविभक्तिका भंग क्षेत्रके समान है। चार वृद्धि और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवालोंने तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। . Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ वड्डिपरूवणाए पोसणं २४५ ६३९१. संजदासंजद० अट्ठावीसं पयडीणमसंखे०भागहाणिवि० लोग० असं०भागो छचोदस० देसूणा । संखे०भागहाणि लोग० असंखे०मागो। मिच्छत्त-सम्मत्तसम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० संखे गुणहाणि-असंखे०गुणहाणि० लोग० असंखे०भागो । ६ ३९२ किण्ण-णील-काउ० छब्बीसंपयडीणमसंखे०भागवडि-हाणि अवधि के ? सव्वलोगो । दोववि-दोहाणिवि० केव० १ लो० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । अणंतागु० चउक० असंखेगुणहाणि-अवत्तव्य. लो० असंखे०भागो। इस्थि-पुरिस० दोवड़ि. लोग० असंखे०भागो वे-चत्तारि-छचोदसभागा वा देसूणा । सम्सत्त-सम्मामि० चत्तारि विशेषार्थ-आभिनिबोधिकज्ञानी आदि तीन ज्ञानियोंमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सिवा सब प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानि क्षपणाके समय होती है, इसलिए इसकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। शेष सब स्पर्शन इन मार्गणाओंके स्पर्शनके समान घटित होनेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। यहाँ अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले और सम्यग्दृष्टि ये तीन मार्गणाऐं गिनाई हैं उनमें यह प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, इसलिए उनके कथनको आभिनिबोधिकज्ञानी आदिके समान कहा है। मात्र शुक्ललेश्याका अतीत स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजु प्रमाण होनेसे इसमें कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शनके स्थानमें यह स्पर्शन जानना चाहिए। साथ ही शुक्ललेश्यामें अनन्तानुबन्धीचतुष्क, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जो अतिरिक्त पद होते हैं जो कि पूर्वोक्त मार्गणाओंमें सम्भव नहीं उनका मूलमें कहे अनुसार स्पर्शन अलगसे घटित कर लेना चाहिए। कोई वक्तव्य न होनेसे यहाँ हमने उसका अलगसे स्पष्टीकरण नहीं किया है। ६३९१. संयतासंयतोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। संख्यातभागहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-संयतासंयतोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण है। अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिकी अपेक्षा यह स्पर्शन बन जाता है, अतः यह उक्तप्रमाण कहा है। पर इन प्रकृतियोंकी यथासम्भव शेष हानियोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही स्पर्शन प्राप्त होता है, अतः यह उक्तप्रमाण कहा है। कारण स्पष्ट है। ६३९२. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सब लोकका स्पर्शन किया है। दो वृद्धि और दो हानि स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ ड- अव ० - अवत्तव्व० लोग० असंखे० भागो । चत्तारिहाणि० लोग० असंखे ० भागो सव्वलोगो वा । $ ३६३. तेउ० छब्बीसं पयडीणमसंखे० भागवड्डि-हाणि संखे ० भागवड्डि- हाणिसंखेज्जगुणवड्डि-हाणि अवट्ठि ० लोग० असंखे० भागो अट्ठ-णवचोदस० देसूणा । णवरि इत्थि - पुरिस० तिष्णिवड्डि-अवट्ठि ० लोग० असंखे० भागो अट्ठचोदसभागा वा देखणा । अनंताणु ० चउक्क० असंखे० गुणहाणि अवत्तव्ध० लोग० असंखे ० भागो अट्ठचोदस ० देसूणा | मिच्छत्त० असंखे ० गुणहाणिवि० लोगस्स असंखे० भागो । सम्मत्त सम्मामि० तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमें से क्रमसे कुछ कम दो, कुछ कम चार और कुछ कम छह भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा चार हानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । विशेषार्थ - कृष्णादि तीन लेश्याओंका वर्तमान स्पर्शन सर्वलोकप्रमाण है । यहाँ छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितपदकी अपेक्षा यह स्पर्शन बन जाता है, अतः यह उक्त प्रमाण कहा है। मात्र इन प्रकृतियोंकी दो वृद्धियों और दो हानियोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर भी अतीत स्पर्शन सब लोकप्रमाण है, इसलिए यह उक्त प्रमाण कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपद संज्ञी पञ्चेन्द्रियोंके ही होते हैं और ये पद मारणान्तिक समुद्धात आदिके समय नहीं होते, अतः इनकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन कहा है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धियाँ द्वीन्द्रियादिकके ही होती हैं जिनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है तथा स्त्रीवेदी और पुरुषवेदियों में कृष्णादि लेश्यावालोंका मारणान्तिक समुद्धात द्वारा स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजु, कुछ कम चार बटे चौदह राजु और कुछ कम दो बटे चौदह राजुप्रमाण है, अतः यह स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा है। इन लेश्याओं में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धियाँ, अवस्थित और अवक्तव्यपद सम्यक्त्वके समय होते हैं और ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः यह उक्तप्रमाण कहा है। तथा इनकी चारों हानियाँ किसीके भी सम्भव हैं, इसलिए इनकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है। $ ३९३ पीतलेश्यावालोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेद की तीन वृद्धि और अवस्थित स्थितिविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनाली के चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानि स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] . वड्डिपरूवणाए पोसणं २४७ चत्तारिखड्डि-अवढि०-अवत्तव्य० लोग० असंखे०भागो अट्ठचोद्दस देसू० । चत्तारिहाणि. लोग० असंखे० भागो अहणवचोदस० देसू० । एवं पम्म० । णवरिणवचोदसभागा णस्थि । ६३६४. अभवसिद्धि० छब्बीसं पयडीणं असंख०मागवड्डि-हाणि०-अवढि० सबलोगो। दोवड्डि-दोहाणि केव० १ लोग० असंखे०भागो अढचोदस० सव्वलोगो वा । इत्थि-पुरस० दोवड्डि० लोग० असंख०मागो अह-बारह० चोदसभागा वा देसूणा । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका मर्श किया है। तथा चार हानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम नौ भागप्रमाण स्पर्श नहीं है। विशेषार्थ-पीतलेश्याका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, विहारादिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण है। यहाँ छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदकी अपेक्षा यह स्पर्शन बन जाता है, अतः यह उक्तप्रमाण कहा है। मात्र स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धि और अवस्थितपदकी अपेक्षा कुछ कम नौ बटे चौदह राजप्रमाण स्पर्शन नहीं बनता, क्योंकि एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्भात करनेवाले इन जीवोंके इन दो प्रकृतियोंका बन्ध न होनेसे वहाँ इनकी तीन वृद्धियाँ और अवस्थान सम्भव नहीं, इसलिए इन दो प्रकृतियोंके उक्त पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भोगप्रमाण और कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपदकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण घटित कर लेना चाहिए । मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानि क्षपणाके समय ही होती है, इसलिए यहाँ इसकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्यपदकी अपेक्षा स्पर्शन जो मूलमें कहा है उसका स्पष्टीकरण अनन्तानुबन्धीकी असंख्यातगुणहानिके स्पर्शनके समान कर लेना चाहिए, क्योंकि दोनोंका स्पर्शन एक समान है। इन दो प्रकृतियोंकी चार हानियाँ एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धातके समय भी होती हैं, इसलिए इनकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है। पद्मलेश्यामें कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन नहीं है, क्योंकि वे एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात नहीं करते । शेष सब कथन पीतलेश्याके समान है। ६ ३९४. अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सब लोकका स्पर्श किया है। दो वृद्धि और दो हानिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनाली के चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भागप्रमाण और सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनाली के चौदह भागोंमेंसे कुछ कम Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૪૮ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ६३९५. वेदगसम्मादिट्ठीसु अट्ठावीसपयडीणमसंखे०भागहाणि-संख०मागहाणिसंखेन्गुणहाणि लोग० असंखे०भागो अट्ट चोद्द० देसूणा । मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि० असंखे० गुणहाणि० लोग० असंखे०भागो। अणंताणु० चउक्क० असंखे गुणहाणि. लोग० असंख०मागो अडचोद्दस० देसूणा । ६ ३९६. खइयसम्माइट्ठी० एकवीसपयडीणमसंखेज्जभागहाणि लोग० असंखे०भागो अट्टचोद० देसूणा। संखेज्जभागहाणि-संखेज्जगुणहाणि असंखेज्जगुणहाणिक लोग० असंखेज्जदिभागो। आठ और कुछ कम बारह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। विशेषार्थ-अभव्योंका वर्तमान स्पर्शन सर्व लोक है, अतः इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितपदकी अपेक्षा स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण कहा है। इनकी दो वृद्धि और दो हानिवाले जीवोंने वर्तमानमें लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, विहारादिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और अन्य प्रकारसे सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है, इसलिए यह स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। ६ ३९५ वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। अनन्तानुवन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। विशेषार्थ-वेदकसम्यग्दृष्टियोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और विहारादिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन है। इनमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी तीन हानियोंकी अपेक्षा और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानिकी अपेक्षा यह स्पर्शन बन जाता है, अतः यह उक्त प्रमाण कहा है। पर इनमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी असंख्यातगुणहानि क्षपणाके समय होती है, अतः इसकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। ६३९६ क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में इक्कीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रको स्पर्शन किया है। विशेषार्थ--क्षायिकसम्यक्त्वका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और विहारादिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण है। इनमें इक्कीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिकी अपेक्षा यह स्पर्शन बन जाता है, अतः वह उक्त प्रमाण कहा है। इनमें इन प्रकृतियों की शेष हानियाँ क्षपणाके समय होती हैं, अतः उनकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९ गा० २२] वड्डिपरूवणाए पोसणं ____३९७. उवसमसम्मा० अट्ठावीसं पयडीणमसंखेज्जभागहाणि-संखेज्जभागहाणि. अणंताणु० चउक्क० संखेज्जगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणि लोग० असंखेज्जदिभागो अट्ठचोद्दस० देसूणा । सम्मामि० अट्ठावीसं पयडीणमसंखेज्जभागहाणि-संखेज्जमागहाणिसंखेज्जगुणहाणि० लोग० असंखेज्जदिभागो अट्टचोद्द० देषणा । F३९८. सासणसम्माइट्ठी. अट्ठावीसं पयडीणमसंखेज्जभागहाणि० लोग० असंखेज्जदिभागो अट्ठ-बारहचोद्द० देसूणा । ३६६. मिच्छाइट्ठी. छब्बीसं पयडीणमसंखेज्जभागवड्डि-हाणि०-अवढि० सव्वलोगो । 'दोवड्डि-दोहाणि० केव० १ लोग० असंखेज्जदिमागो अट्ठचोद्दस० देसूणा सव्वलोगो वा । णवरि इत्थि-पुरिस० दोवड्ढि० लोग० असंखेज्जदिमागो अट्ठ-बारहचोद्द० $ ३९७. उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि और संख्यातभागहानिवाले जीवोंने तथा अनन्तानबन्धीचतष्ककी संख्यातगणहानि और असंख्यातगणहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ- उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और विहारादिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण है। इनमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके यथासम्भव पदोंकी अपेक्षा यह स्पर्शन बन जाता है, अतः वह उक्त प्रमाण कहा है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए । ३९८. सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिवाले जीवोंने संख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम बारह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-सासादनसम्यक्त्वमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी एक असंख्यातभागहानि होती है और वह सासादनसम्यग्दृष्टियोंकी सब अवस्थाओंमें सम्भव है, अतः यहाँ इस पदकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन कहा है। ६३९९. मिथ्यादृष्टियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि; असंख्यातभागहानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिवालोंने सब लोकका स्पर्शन किया है। दो वृद्धि और दो हानिवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग, जसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे . कुछ कम आठ और कुछ कम बारह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मि १ ता.पा.प्रत्योः सव्वलोगा वा । दोवडिट इति पाठः। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ देसूणा । सम्मत्त-सम्मामि० चत्तारिहाणि० लोग० असंखेज्जदिभागो अट्टचोद्द० देसूणा सव्वलोगो वा। ___$ ४००. असण्णि० छब्बीसं पयडीणमसंखेज्जभागवड्डि-हाणि-अवढि० केव० ? सव्वलोगो । दोहाणि' संखेज्जमागवड्डि-संखेज्जगुणवड्डि० लोग० असंखेज्जदिभागो सव्व. लोगो वा । णवरि इत्थि-पुरिस० दोवड्ढि० लोग० असंखेज्जदिभागो । सम्मत्त-सम्मामि० चत्वारिहाणि लोग० असंखेज्जदिभागो सव्वलोगो वा। ___ एवं पोसणाणुगमो समत्तो। थ्यात्वकी चार हानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-मिथ्यादृष्टियोंका वर्तमान स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण है । इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितपदके समय यह स्पर्शन सम्भव होनेसे यह उक्त प्रमाण कहा है। किन्तु इन प्रकृतियोंकी दो वृद्धि और दो हानियोंकी अपेक्षा वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, विहारादिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और अन्य अपेक्षासे सर्व लोकप्रमाण प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियोंकी अपेक्षा स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए । मात्र स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धियोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण जानना चाहिए। स्पष्टीकरण पहले कर आये हैं। $ ४००. असंज्ञियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सब लोकका स्पर्शन किया है। दो हानि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-असंज्ञियोंका वर्तमान स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण है। इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित पदके समय यह स्पर्शन सम्भव है, अतः वह उक्तप्रमाण कहा है। किन्तु इनकी दो हानि और दो वृद्धियोंकी अपेक्षा वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सब लोकप्रमाण प्राप्त होनेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियोंकी अपेक्षा वह स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। इनमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो हानियोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है यह स्पष्ट ही है। इस प्रकार स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ। १ श्रा. प्रतौ सव्वलोगो । दोवड्डी दोहाणी इति पाठः । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूवणाए कालो २५१ ४०१ कालागुगमेण दुविहो णिदेसो-ओघे० आदेसे ० । ओघेण छब्बीसं पयडीणमसंखे०भागवड्वि-असंखे० भागहाणि-अवढि० केवचिरं कालादो होति ? सव्वद्धा । कुदो ? एइंदियरासिस्स आणतियादो। दोवाड्डि-दोहाणि० अर्णताणु०चउक्क० असंखे०गुणहाणि-अवनव्वं च ज० एगसमओ, उक्क० आवलि. असंखे० भागो । सेसकम्माणमसंखे०गुणहाणि० ज० एगसमओ, उक० संखे० समया। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमसंखे०भागहाणि सव्वद्धा। सेसपदवि० ज० एकस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। एवं कायजोगि-ओरालि०-णस०-चत्तारिक०-अचक्खु०-भवसि०आहारित्ति। ४०२. आदेसेण णेरइएसु छब्बीसं पयडीणमसंखे०भागहाणि-अवढि० सम्मत्त. सम्मामिच्छत्ताणमसंखे०भागहाणि च सव्वद्धा। सेसपदवि० जह० एगसमओ, उक्क० ६४०१. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघसे और आदेशसे । ओघकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितस्थितिविभक्तिका कितना काल है ? सब काल है. क्योंकि एकेन्द्रिय जीवराशि अनन्त है। दो वृद्धि, दो हानि और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। शेष कर्मोंकी असंख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है। तथा शेष पदविभक्तियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसक वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितपदका काल सर्वदा क्यों कहा है इसका स्पष्टीकरण स्वयं वीरसेनाचार्यने किया है। इनकी दो वृद्धि और दो हानि तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य काल एक समय है, क्यों एक समयके लिए ये होकर द्वितीय समयमें न हों यह सम्भव है। उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि निरन्तर नाना जीव इन वृद्धियों और हानियोंको यदि प्राप्त हों तो इतने काल तक ही प्राप्त हो सकते हैं। शेष कर्मोकी असंख्यातगुणहानि क्षपणाके समय प्राप्त होती है, अतः इसका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता सदा है और उसकी सदा असंख्यातभागहानि होती रहती है इसलिए उसका काल सर्वदा कहा है। तथा इसके शेष पद कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक होते हैं, अतः उनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। काययोगी आदि मार्गणाओंमें यह काल बन जाता है। ६४०२. आदेशकी अपेक्षा नारकियों में छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहनि और अवस्थितका काल तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है। तथा शेष पद विभक्तियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे आवलि० [ द्विदिविहत्ती ३ असंखे ० भागो । एवं सव्वणेरइय- सव्वपंचिंदियतिरिक्ख ० -देव-भवणादि जाव सहस्सार ० - पंचिंदिय अपज्ज० तस अपज्ज० - वेडव्विय० जोगि ति । तिरिक्खे ओघं । वरि मिच्छत्त बारसक० णवणोक० असंखे० गुणहाणी णत्थि । ९४०३. मणुस्सेसु छब्बीसं पयडीणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो । णवरि असंखे० गुणहाणी • अणंताणु ० चउक्क० अवत्तव्व ० जह० । एगसमओ, उक्क० संखेजा समया । सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं चत्तारिवड्डि-अवडि० अवत्तव्वं च ज० एगसमओ, उक्क० संखे० समया । चत्तारिहाणिवि० ओघं । एवं मणुसपजत्त - मणुसिणीणं । गवरि जम्हि श्रवलियाए असंखे० भागो तम्हि संखे० समया । किंतु मिच्छत्त-सम्मत्त - सम्मामि० - तेरसक ० संखे० भागहाणि० ज० एगसमओ, उक्क० भावलि० असंखे ० भागो । मणुस अपज० छब्बीसं पडीणमसंखे ० भागहाणि अवद्वि० सम्मत्त सम्मामि ० असंखे ० भागहाणि० ज० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे ० भागो । सेसपदवि० जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । S४०४. आणदादि जाव णवगेवज्ज० अट्ठावीसं पयडीणमसंखे ० भागहाणि ० सव्वद्धा । सेसपदवि० ज० एयसमओ, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । अणुद्दिसादि जाव अवराइद ति एसो चेव भंगो। णवरि सम्मत्त • संखे० गुणहाणि० जह० एगस ०, उक्क ० भागप्रमाण है । इसी प्रकार सब नारकी सब पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देव, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त और वैक्रियिककाययोगी जीवोंके जानना चाहिए। तिर्यंचोंमें सब पदोंका काल ओघके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातगुणहानि नहीं है । ९४०३. मनुष्यों में छब्बीस प्रकृतियों का भंग पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें असंख्यातगुणहानिका और अनंतानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्यका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । तथा चार हानिस्थितिविभक्तियोंका काल ओघ के समान है । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि जहाँ आवली के असंख्यातवें भागप्रमाण काल कहा है वहाँ संख्यात समय काल कहना चाहिए । किन्तु मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और तेरह कषायोंकी संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । मनुष्य अपर्याप्तकों में छब्बीस प्रकृतियों की असंख्यातभागहानि और अवस्थितका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा शेष पद स्थितिविभक्तियों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । $ ४०४. आनतकल्पसे लेकर नौग्रैवेयक तकके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानिक काल सर्वदा है । तथा शेष पदस्थितिविभक्तियों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें यही भंग है । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूवणाए कालो २५३ संखेज्जा समया। एवं सवढे । णवरि संखेजा समया। सम्मत्त-अणंताणु०४ संखे०भागहाणिवि० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। ६४०५. इंदियाणुवादेण सव्वएईदियाणमसंखे० भागवड्डि०-हाणि-अवढि० छब्बीसं पयडीणं सव्वद्धा। संखे०भागहाणि-संखे०गुणहाणीणं जह० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०-भागो । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहाणिवि० सव्वद्धा। सेसपदवि० ज० एगसमओ, उक० आवलि. असंखे०भागो। एवं पुढवि०-चादरपुढवि०-चादरपुढविअपज्ज०-सुहुमपुढवि-सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-आउ०-बादर-आउ०-चादरभाउअपज्ज.. सुटुमआउ०-सुहुमाउपज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-चादरतेउ०-बादरतेउअपज्ज०-सुहुमतेउ०सुहुमतेउपजत्तापजत्त-वाउ०- बादरवाउ०- बादरवाउअपज.- सुहुमवाउ०-सुकुमवाउपजत्तापजत्त-सव्ववणप्फदि०-सव्वणिगोदा त्ति । वादरपुढविआदिपज्जत्ताणमेवं चेव । णवरि छब्बीसं पयडीणमसंखे भोगवड्डि० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। ६४०६. सव्वविगलिदिएसु छब्बीसं पयडीणमसंखे०भोगहाणि-अवढि० सव्वद्धा । असंखे० भागवाड्डि-संखे०भागवड्डि-संखे०भागहाणि-संखे गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी संख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है यहां संख्यात समय काल है । तथा सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी संख्यातभागहानि स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ४०५. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे सब एकेन्द्रियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि असंख्यातभागहानि और अवस्थितका काल सर्वदा है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि स्थितिविभक्तिका काल सर्वदा है। तथा शेष पदस्थितिविभक्तियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पुथिवीकायिक अपर्याप्त, सक्ष्म प्रथिवीकायिक, सक्षम प्रथिवीकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक,सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त और अपर्यात, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सब वनस्पति और सब निगोद जीवोंके जानना चाहिए । बादर पृथिवी आदि पर्याप्त जीवोंके इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। ६४०६. सब विकलेन्द्रियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि और अवस्थितका काल सर्वदा है। असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और संख्यात गुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ आवलि० असंख०मागो । सम्मत्त-सम्मामि०असंखे०भागहाणि सव्वद्धा । सेसहाणि० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। ४०७. पंचिंदिय-पंचिं०पज. छब्बीसं पयडीणमसंखेजभागहाणि-अवट्ठि. सव्वद्धा । तिण्णिवाड्डि-दोहाणि० ज एगस०, उक० आवलि. असंखे०भागो। असंखे० गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० संखेजा समया। अणंताणु० चउक्क० असंखे०गुणहाणिअवत्तव्ब० ज० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे० भागहाणि सव्वद्धा चत्तारिवाड्डि-तिण्णिहाणि-अवढि०-अवत्तव्व० ज० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। एवं तस-तसपज०-पंचमण-पंचवचि०-इत्थि०-पुरिस०चक्खु०-सण्णि त्ति । ६४०८. ओरालियमिस्स० छब्बीसंपयडीणं असंखे०भागवड्डि-हाणि-अवटि. सव्वद्धा । दोवड्डि-दोहाणि० ज० एगस०, उक० आवलि. असंखे०भागो । सम्मत्तसम्मामि० असंखे०भागहाणि सव्वद्धा। तिण्णिहाणि० ज० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। ४०६. वेउव्वियमिस्स. छब्बीसं पयडीणमसंखे०भागहाणि-अवढि० ज० एगस०, उक्क. पलिदो० असंखे भागो। तिण्णिवड्डि-दोहाणि० ज० एगस०, उक. आवलि. असंखे०भागो । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०मागहाणि० जह० एगस०, उक्क० सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है। तथा शेष हानियोंका जघन्य काल एक समयं और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। $ ४०७. पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि और अवस्थितका काल सर्वदा है। तीन वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनन्तानुबन्धीचतष्ककी असंख्यातगणहानि और अवक्तव्यका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है। चार वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्यका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, स्त्रीवेवाले, पुरुषवेदवाले, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए। ४०८. औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितका काल सर्वदा है। दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है। तथा तीन हानियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ६४०९.वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि और अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तीन वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] वडिपरूणाए कालो २५५ पलिदो० असंखे०भागो। तिण्णिहाणि० ज० एगस०, उक्क० मावलि. असंखे०भागो। $ ४१०. कम्मइय० छब्बीसं पयडीणमसंख०मागवड्डि-हाणि-अवढि० सत्रद्धा । दोवड्डि-दोहाणि० ज० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे० मागो। सम्मत्त-सम्मामि० चत्तारिहाणि० ज० एगस०, उक० आवलि० असंखे०भागो। एवमणाहारीणं। ४११. आहार० अट्ठावीसं पयडीणमसंखे०भागहाणि. ज. एगस०, उक्क० अंतोमु० । आहारमि० अट्ठावीसं पयडीणमसंखेज्जभागहाणी० जहण्णुक्क० अंतोपु० । ६४१२. अवगदवेद० च वीसं पयडोणमसंखे०भागहाणि० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । संखे०भागहाणि-संखे० गुणहाणि० जह० एगस०, उक्क० संखेजा समया । णवरि दंसणतिय-अट्ठक०-इत्थि०-णवूस० संखेज गुणहाणी णत्थि । लोभसंजल. संखे०मागहाणि० जह० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। अकसा० चउवीसं पयडीणमसंखे०भागहाणि० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं जहाक्खाद० । ६४१३. मदि०-सुद० असंखे०भागवडि-हाणि-अवद्विदं च छब्बीसं पयडीणं सव्वद्धा। दोवड्डि-दोहाणि० जह• एगस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो। सम्मत्तसम्मामि० असंख०मागहाणि सव्वद्धा । सेसहाणि० जह० एगस०, उक्क० आवलि. काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा तीन हानियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ६४१० कर्मणकाययोगियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका काल सर्वदा है। तथा दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारकोंके जानना चाहिए। ६ ४११ आहारककाययोगियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। आहारकमिश्रकाययोगियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। $ ४१२ अपगतवेदियोंमें चौबीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। किन्तु इतनी विशेषता है कि तीन दर्शनमोहनीय, आठ कषाय, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी संख्यातगुणहानि नहीं है। लोभसंज्वलनकी संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अकषायी जीवोंमें चौबीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार यथाख्यातसंयत जीवों के जानना चाहिए। ६४१३ मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका काल सर्वदा है। दो वृद्धि और दो हानियों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है। तथा शेष हानियोंका जघन्य काल Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६. जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ असंखे० भागो । विहंगणाणी ० छब्बीसं पयडीणमसंखे ० भागहाणि - अवद्वि० सम्वद्धा । तिण्णिवड्डि- दोहाणि ० जह० एस ०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । सम्मत्तसम्मामि० असंखे० भागहाणि० सव्वद्धा । सेसहाणि० ज० एस ०, उक्क० आवलि० असं० भागो । ० S ४१४. आभिणि० - सुद० - ओहि० अट्ठावीसं पयडीणमसंखे ० भागहाणि सव्वद्धा । संखे० भागहाणि - संखे० गुणहाणि० ज० एस ०, उक्क० आवलि० असं० भागो । अताणु ० चउक्क० असंखे० गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । सेकम्माणमसंखे • गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया । एवमोहिदंस०सम्मादिट्ठिति । मणपज्जव० अट्ठावीसं पयडीणं असंखेजभागहाणि० सव्वद्धा । संखे० भागहाणि - संखेज गुणहाणि असंखे ०गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० संखे ० समया । णवरि मिच्छत्त-सम्मत्त - सम्मामि ० - तेरसकसायाणं संखे ० भागहाणि ० जह० एस ०, उक्क ० आवलि० असंखे ० भागो । एवं संजद० - सामाइय - छेदो ० संजदे त्ति । णवरि सामाइयछेदो० लोभसंजल० संखे० भागहा ० जह० एस ०, उक्क० संखेजा समया । ० ० ४१५. परिहार • अट्ठावीसं पयडीणमसंखे ० भागहाणि सव्वद्धा । संखे० भागहाणि ० जह० एस ०, उक्क० संखे० समया । णवरि मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि० - अनंताणु० एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । विभंगज्ञानियों में छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानि और अवस्थितका काल सर्वदा है । तीन वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है । तथा शेष हानियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । $ ४१४. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहनिका काल अदा है । संख्यातभागहानि, और संख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल भावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । शेष कर्मोंकी असंख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । इसी प्रकार अवधिदर्शनवाले और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । मन:पर्ययज्ञानियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है । संख्यात भागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और तेरह कषायोंकी संख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवों में लोभ संज्वलनकी संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । $ ४१५. परिहारविशुद्धिसंयतों में अट्ठाईस प्रकृतियों की असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है । संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । किन्तु Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए वड्ढीए कालो २५७ चउक्क० संखे०भागहाणि० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। मिच्छत्तसम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु० चउक्क० संखे गुणहाणि-असंखे०गुणहाणि० ज० एगस० उक० संखे० समया। $ ४१६. सुहुमसांपराय० चउवीसंपयडीण मसंखे०भागहाणि० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । दंसणतिय० संखे०भागहाणि० जह० एयस०, उक० संखे० समया। लोभसंजल० संखे०भागहा०-संखे गुणहाणि० जह० एगस०, उक्क० संखेजा समया। णवरि संखे०भागहाणीए उक्क० आवलि० असंखे०भागो। ४१७. संजदासंजद० अट्ठावीसंपयडीणमसंखे भागहाणिवि० सव्वद्धा । संखे०भागहाणिवि० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे भागो। मिच्छत्त-सम्मत्तसम्मामि० संखे०गुणहाणि-असंखे०गुणहाणि० जह० एगस०, उक० संखेजा समया। अणंताणु० चउक्क० संखे०गुणहाणि-असंखे गुणहाणि० जह० एगस०, उक० आवलि० असंखे०भागो। ६४१८. असंजद० छब्बीसंपयडीणमसंखे०भागवड्डि-हाणि-अवविद० सव्वद्धा। दोवड्डि-दोहाणि० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। अणंताणु०चउक० असंखे०गुणहाणि-अवत्तव्व० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे भागो । मिच्छत्त० असंखेगुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० संखेजा समया। सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यात गुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। ६४१६. सूक्ष्मसांपरायिक संयतोंमें चौबीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तीन दर्शनमोहनीयकी संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। लोभसंज्वलनकी संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ६४१७. संयतासंयतोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है। संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणाहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ४१८ असंयतोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका काल सर्वदा है। दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनन्तानन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे भागहाणि ० सव्वद्धा । तिणिहाणि चत्तारिवड्ढि - अवडि० - अवत्तव्व० ज० उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । [ द्विदिविहत्ती ३ एगस ०, $ ४१९. किण्हणील-काउ ० छब्बीसं पयडीणमसंखे० भागवड्डि- हाणि-अवट्ठि ० सव्वद्धा । दोवड्डि-दोहाणि ० ज० एस ०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अनंताणु ०चक० असंखे ० गुणहाणि अवत्तव्व० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । सम्मत्त - सम्मामि० सव्वपदवि० ओघं । सम्मत्त $ ४२०. तेउ-पम्म० छब्बीसंपयडीणम संखे ० भागहाणि-अवडि० सम्मामिच्छत्ताणमसंखे ० भागहाणि ० ० च सव्वद्धा । तिण्णिवड्डि-दोहाणि० जह० एस ०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अनंताणु ० चर क० असंखे० गुणहाणि अवत्तव्व० जह० एगस ०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । मिच्छत्त० असंखे० गुणहाणि० ज० एस ०, उक्क० संखेजा समया । सम्मत्त सम्मामि० चत्ताविड्डि-तिष्णिहाणि अवट्ठि ० - अवत्तव्व० ज० एस ०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । ९४२१. सुक० अट्ठावीसं पयडीणमसंखे० भागहाणिवि० सव्वद्धा । संखे० भागहाणिसंखे० गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । असंखे० गुणहाणि ० जह० एस ०, उक्क० संखे० ० समया । णवरि अनंताशु० चउक्क० असंखे० गुणहाणिसम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानिका काल सर्वदा है। तीन हानि, चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्यका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । ४१९. कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावालोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितका काल सर्वदा है । दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पदवालोंका काल ओघ के समान है । ४२०. पीत और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानि और अवस्थितका काल तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानिकाका ल सर्वदा है । तीन वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । मिथ्यात्व की असंख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्यका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । ९४२१. शुक्ललेश्यावालों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानिका काल सर्वदा है । संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । असंख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] विदिविहत्तीए वड्ढीए कालो २५९ अवत्तव्व० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। सम्मत्त-सम्मामि० चत्तारिवड्डि-दोहाणि-अवढि०-अवत्तव्व० ज० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। ४२२. अभवसि० छब्बीसंपयडीणमसंखे०भागवड्वि-हाणि०-अवढि० सव्वद्धा । दोवड्डि-हाणि० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। ४२३. वेदग० अट्ठावीसपयडीणमसंखे०भागहाणि. सव्वद्धा । संखे०भागहाणि-संखे०गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे भागो। मिच्छत्तसम्मत्त-सम्मामि० असंखे०गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० संखे० समया । अणंताणु०चउक्क० असंखे०गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । ६४२४. खइय० एकवीसंपयडीणमसंखे०भागहाणि० सव्वद्धा। संखे०भागहाणि-संखे०गुणहाणि-असंखे०गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० संखे० समया । णवरि अहकसाय-लोभसंजलणाणं संखेजभागहाणि० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। ४२५. उवसम० असंखेजभागहाणि० अहावीसंपयडीणं जह० अंतोमु०, उक० पलिदो० असंखे०भागो। संखे०भागहाणि० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। अणंताणु०चउक्क० संखे गुणहाणि-असंखे गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। और अवक्तव्यका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, दो हानि, अवस्थित और अवक्तव्यका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। $ ४२२. अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागबृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका काल सर्वदा है। दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ४२३ वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात गणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनन्तानबन्धी चतुष्ककी असं यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ६४२४. क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभांगहानिका काल सर्वदा है। संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। किन्तु इतनी विशेषता है कि आठ कषाय और लोभ संज्वलनकी संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ४२५. उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ४२६. सासण. अट्ठावीसंपयडीणमसंखे०भागहाणि० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सम्मामि० अट्ठावीसंपयडीणं असंखे०भागहा० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असं०भागो। संखे०भागहाणि-संखे गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। मिच्छाइट्ठी० “छव्वीसंपय० असंखे०भागवभि-हाणि-अवहि० सव्वद्धा । दोवड्डि-दोहाणि० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असं०भागो। सम्मत्तसम्मामि० एइंदियभंगो। असण्णि० मिच्छाइट्ठिभंगो।। एवं कालाणुगमो समत्तो। ६४२७. अंतराणुगमेण दुविहो णिदेसो-ओघे० आदेसे० । ओघेण मिच्छत्त०बारसक०-णवणोक० असंखे भागवड्डि-हाणि-अवट्टि. णत्थि अंतरं । दोवड्डि-दोहाणिक ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । असंखे गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० छम्मासा । एवमणंताणु०चउक्क० । णवरि असंखे गुणहाणि-अवत्तव्व जह० एगस०, उक्क० चउवीसमहोत्तरे सादिरेगे। सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहाणि० णत्थि अंतरं । चत्तारिवडि-तिण्णिहाणि-अवत्तव्व० ज० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे। अवविद० जह० एगस०, उक० अंगुलस्स असंखे०भागो। एवमचक्खु०-भवसि०-आहारि त्ति । असंख्यातवें भागप्रमाण है। $ ४२६. सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असं यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। मिथ्यादृष्टियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका काल सर्वदा है। दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग एकेन्द्रियोंके समान है। असंज्ञियोंका भंग मिथ्यादृष्टियोंके समान है। इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ $ ४२७. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघसे और आदेशसे । ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है। दो वृद्धि और दो हानियों का जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन रात है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानिका अन्तर नहीं है। चार वृद्धि, तीन हानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन रात है। अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए वड्ढीए अंतरं २६१ ४२८. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखे०भागहाणिअवहि० णत्थि अंतरं । सेसपदवि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवमर्णताणु०चउक्क० । णवरि असंखे गुणहाणि-अवत्तव्व० ज० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहाणि० णत्थि० अंतरं । चत्तारिवड्डि-तिण्णि हाणि-अवत्तव्व० जह० एगसमओ, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे। अवढि० जह० एगस०, उक्क० अंगुल० असंखे०भागो। एवं सव्वणेरइय-पंचिं०तिरिक्खतिय०देव-भवणादि जाव सहस्सार त्ति । ४२९. तिरिक्खेसु अट्ठावीसंपयडीणं सव्वपदवि० ओघं । पंचिं०तिरि० अपज्ज० अट्ठावीसंपयडीणं जाणि पदाणि अस्थि तेसिं पदाणं णेरइयभंगो। एवं पंचिंदियअपज०-तसअपज्जत्ताणं ।। ४३०. मणुसतिण्णि० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखे०भागहाणिअवढि० णत्थि अंतरं । सेसपदवि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । असंखे गुणहाणिक ज० एगस०, उक्क० छम्मासा। णवरि मणुसिणीसु वासपुधत्तं । अणंताणु०चउक्क० सम्मत्त०-सम्मामिच्छत्ताणं णिरओघं। मणुसअपज्ज० अट्ठावीसंपयडीणं सव्वपदवि० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । ६४२८. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है। शेष पदविभक्तियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षासे जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात है। सम्यकत्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। चार वृद्धि, तीन हानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात है। अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार सब नारकी, तीन प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यश्च, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंके जानना चाहिए। ६४२९. तिर्यंचोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सब पदस्थितिविभक्तियोंका अन्तर ओघके समान है। पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके जो पद हैं उन पदोंका भंग नारकियोंके समान है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रसअपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए । $ ४३०. तीन प्रकारके मनुष्योंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यात भागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है। शेष पदविभक्तियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियोंमें वर्षपृथ्यक्त्व अन्तर है। अनन्तानुबन्धीचतुष्क, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको अपेक्षा सामान्य नारकियोंके समान जानना चाहिए। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सब पदविभक्तियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ४३१. आणदादि जाव णवगेवज० छब्बीसंपयडीणमसंखे०भागहाणि. णत्थि अंतरं । संखे०भागहाणि० जह० एगससओ, उक्क० सत्त रादिदियाणि सादिरेयाणि । संखे०भागहाणीए सादिरेयसत्तरादिंदियाणि अंतरमिदि जं भणिदं तण्ण घडदे, आणदादिसु किरियाविरहिदस्स हिदिखंडयघादाभावादो। ण चाणताणुबंधिविसंजोयणाए सम्मत्तगहणकिरियाए च सत्तरादिदियमेत्तमंतरमत्थि, तत्थ चउवीस-१ अहोरत्तमेत्तअंतरपरूवणादो त्ति ? ण एस दोसो, सुक्कलेस्सियमिच्छाइट्ठीसु विसोहिमावरिय हिदिकंडयघादं कुणमाणेसु संखे०भागहाणीए सत्तरादिदियमेत्तरुवलंभादो। संखेजगुणहाणिमाणदादिदेवा किण्ण कुणंति ? ण, तारिसविसिट्ठविसोहीए तत्थाभावादो । तं पि कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव उच्चारणुवदेसादो। अणंताणु०चउक्क० संखेगुणहाणि-असंखे गुणहाणि-अवत्तव्व० जह० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ताणि सादिरेयाणि । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहाणि० णत्थि अंतरं । चत्तारिवाड्दितिण्णिहाणि-अवत्तव्व० जह एगस०, उक० चउवीसमहोरत्ताणि सादिरेयाणि । अणुदिसादि जाव सव्वट्ठसिद्धि त्ति अहावीसपय० असंखे०भागहाणि० णत्थि अंतरं । ६ ४३१. आनत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयेकतकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंल्यात भागहानिका अन्तर नहीं है। संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सात रात-दिन है। शंका–संख्यातभागहानिका जो साधिक सात दिनरात अन्तर कहा है वह नहीं बनता है, क्योंकि आनत आदिकमें क्रियारहित जीवके स्थितिकाण्डकघात नहीं होता है। यदि कहा जाय कि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना और सम्यक्त्वके ग्रहण करने रूप क्रियामें सात दिनरात अन्तर होता है सो भी बात नहीं है, क्योंकि इस विषयमें चौबीस दिनरात प्रमाण अन्तर कहा है। समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि विशुद्धिको पूरा कर स्थितिकाण्डकघात करनेवाले शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टियोंमें संख्यातभागहानिका सात दिनरात अन्तर पाया जाता है। शंका--आनत आदि कल्पोंके देव संख्यातगुणहानिको क्यों नहीं करते हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि उस प्रकारकी विशिष्ट विशुद्धि वहाँ पर नहीं है। शंका—यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-उच्चारणाके इसी उपदेशसे जाना जाता है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन रात है। सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वको असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। चार वृद्धि, तीन हानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका १. ता० प्रती -मस्थि चउवीस इति पाठः । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए वड्ढीए अंतरं २६३ संखे भागहाणि० सम्मत्तस्स संखे०गुणहाणि• अणंताणु० चउक्क० संखे०गुणहाणिअसंखे गुणहाणीणमंतरं जह० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं । सव्वट्ठसिद्धिम्मि पलिदो० संखे०भागो। ६४३२. इंदियाणुवादेण एइंदिएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० असंखे०भागवड्डि-हाणि-अवहि० णत्थि अंतरं । संखेजभागहाणि-संखेजगुणहाणि० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहाणि० णत्थि अंतरं । संख०भागहा०संखे०गुणहा०-असंखेगुणहाणीणं ज० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ताणि सादिरेयाणि । एइंदियाणमसंखे०भागवड्डि-हाणि-अवठ्ठाणाणि तिण्णि चेव होति । तत्थ कथं संखे०भागहाणि-संखेगुणहाणीणं संभवो ? किं च उव्वेल्लणकंडयाणमायामो सुट्ट' महंतो वि पलिदो० असंखे०भागमेत्तो चेव । तं कुदो णव्वदे ? उव्वेलणकालस्स पलिदो० असंख०भागपमाणतण्णहाणुववत्तीदो। एवं संते कधं संखे०भागहाणि-संखे०गुणहाणीणं संभवो त्ति ? ण, सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु उव्वल्लि देसु उदयावलियभंतरे पविसिय संखेजहिदिसेसेसु तासिं दोण्हं हाणीणमेइंदिएसु उवलंभादो। अट्ठावीससंतकम्मिएसु जीवेसु सण्णिपंचिंदिएसु सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लमाणेसु विसोहि अन्तर नहीं है। संख्यातभांगहानिका, सम्यक्त्वकी संख्यातगुणहानिका तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। सर्वार्थसिद्धि में पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण अन्तर है। ४३२ इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषोय, और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अम्तर साधिक चौबीस दिनरात है। शंका-एकेन्द्रियोंके असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित ये तीनों ही पद होते हैं, अतः वहाँ संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि कैसे संभव हैं ? दूसरे उद्वेलनाकाण्डकका आयाम बहुत ही बड़ा हुआ तो पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है । यदि कहा जाय कि यह किस प्रमाणसे जाना जाता है तो इस प्रतिशंकाका उत्तर यह है कि एकेन्द्रियोंमें उद्वेलनाकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्यथा बन नहीं सकता है इससे जाना जाता है कि उद्वेलनाकाण्डकका आयाम पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और ऐसा रहते हुए संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि कैसे बन सकती हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करते समय उनके उदयावलिके भीतर प्रवेश करके संख्यात स्थितियोंके शेष रहने पर उक्त दोनों हानियाँ एकेन्द्रियोंमें पाई जाती हैं। तथा अट्ठाईस प्रकृतिसत्कर्मवाले जो संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव सम्यक्त्व और १. ता. प्रतौ -मायामे सुटु इति पाठः । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जयधवला सहिदे कसाय पाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ मावूरिय सगसगट्ठिदीणं संखे ० भागं संखेजे भागे च द्विदिकंडयसरूवेण घेत्तूण एइंदिएसुववण्णेसु सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं दोन्हं हाणीणमुवलंभादो च । जदि एत्थ दो हाणीओ लब्भंति तो ' सेसकम्माणं व अंतोमुहुत्त' मेत्तमंतरं किष्ण उच्चदे ? ण, सम्मत्तसम्मामिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मियाणं जीवाणं गहिद द्विदिकंडयाण मेइं दिए सु उववजमाणाणं बहुआणमभावादो । तं कुदो णव्वदे ? ओघम्मि सम्मत्त सम्मामि० संखे० भागहाणिसंखे० गुणहाणीणं चउवीसमहोरत्तमेतं तरपरूवणण्णहाणुववत्तीदो । एवं सव्वए इंदियपुढवि चादरपुढ वि० - बादरपुढ विपञ्जत्तापञ्जत्त-सुहुम पुढवि० सुहुमपुढविपजत्तापजत आउ०बादरआउ०- बादरआउ पञ्जत्तापञ्जत्त - सुहुमआउ० - सुहुमआउपजत्तापञ्जत-तेउ०- बादरतेउ०- बादरतेउ पञ्जत्तापजत्त - सुहुमतेउ ० -सुहुमते उपजत्तापजत्त - वाउ ० - बादरवाउ ० -बादरवाउ पञ्जत्तापजत्त-सुहुमवाउ०- सुहुमवाउपजत्तापञ्जत्त - सव्ववणफदि - सव्वणिगोदा ति । णवरि बादरपुढविपज्ज० - बादरआउपज ० - बादरते उपज ० - बादरवाउपज ० - बादरवणप्फदि सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करते हुए विशुद्धिको पूरा करके अपनी अपनी स्थितिके संख्यातवें भाग और संख्यात बहुभागको स्थितिकाण्डकरूपसे ग्रहण करके एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुए हैं उनके एकेन्द्रिय पर्याय में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उक्त दोनों हानियाँ पाई जाती हैं । शंका- यदि यहाँ दो हानियाँ पाई जाती हैं तो शेष कर्मों के समान अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तर क्यों नहीं कहा ? समाधान — नहीं, क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वस्थितिसत्कर्मवाले संज्ञी जीव स्थितिकाण्डकों को ग्रहण करके एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हुए बहुत नहीं पाये जाते हैं । शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान — ओघमें जो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानिका चौबीस दिनरात प्रमाणं अन्तर कहा है वह अन्यथा बन नहीं सकता, इससे जाना जाता है कि स्थितिकाण्डकोंका घात करते हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव एकेन्द्रियोंमें बहुत नहीं उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, पृथिवोकायिक, बादरपृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक याप्त और अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक पर्यात और अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सब वनस्पतिकायिक और सब निगोद जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि बादर पृथिवीकायिकपर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य १. ता० प्रतौ दो हाणीओ लब्भदि तो इति पाठः । २. ता० प्रतौ व (च ) अंतोमुहुत्त - इति पाठः । ३. ता० प्रतौ चडवीसरचंतरमेत्तपरूवणा - इति पाठः । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ गा० २२] द्विदिविहत्तीए वड्ढीए अंतरं पत्तेयसरीरपज्जत्ताणमसंखेजभागवड्डि० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । $ ४३३. विगलिंदिएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० असंखे०भागहाणिअवढि० णत्थि अंतरं । असंखे०भागवड्डि-संखे भागवड्डि-संखे०भागहाणि-संखे गुणहाणीणं जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहाणिक णत्थि अंतर । तिण्हं हाणीणं जह० एयस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे । __$ ४३४. पंचिंदिय-पंचिं०पज. मिच्छत्त०-बारसक०-णवणोक० असंखे०भागहाणि-अवढि णत्थि अंतरं । तिण्णिवडि. दोण्हं हाणीणं जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । असंखे०गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० छम्मासा । एवमणंताणु०चउक्क० । णवरि असंखे०गुणहाणि-अवत्तव्व० जह० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहाणि० णत्थि अंतरं । चत्तारिवड्डि-तिण्णिहाणिअवत्तव्व० जह० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे। अवढि० ज० एगस०, उक० अंगुलस्स असंखे०भागो । एवं तस-तसपञ्जत्ताणं । ४३५. जोगाणुवादेण पंचमण०-पंचवचि० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखे०भागहाणि-अवढि० णत्थि अंतरं । असंखेजभागवडि-संखे भागवड्डि-संखे०भागहाणि-संखे०गुणवड्डि-संखे०गुणहाणि० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । असंखे० अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। $ ४३३. विकलेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है । असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। ६४३४. पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है । तीन वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन रात है। सम्यकत्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असं यातभागहानिका अन्तर नहीं है। चार वृद्धि, तीन हानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसीप्रकार त्रस और त्रसपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। . ६४३५. योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है। असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । असंख्यात ३४ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ गुणहाणि० जह० एगस०, उक्क० छम्मासा। एवमणंताणु०चउक्क० । णवरि असंखे०गुणहाणि-अवत्तव्व० जह० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे। सम्मत्तसम्मामि० असंखे०भागहाणि णत्थि अंतरं । चत्तारिवाड्दि-तिण्णिहाणि-अवत्तव्व० ज० एगसमओ, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे। अवढि० ज० एगस०, उक्क० अंगुल० असं०भागो। एवं कायजोगि-ओरालियकायजोगीणं । णवरि असंखे०भागवड्डीए णत्थि अंतरं। ४३६. ओरालियमिस्स० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० असंखे०भागवड्डिहाणि-अवहि० णधि अंतरं । संखे भागवड्डि-हाणि-संखे०गुणवड्डि-हाणि० ज० एगस०, उक० अंतोमु० । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहाणि० णत्थि अंतरं । तिण्णिहाणि. जह० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे। ६४३७. वेउविय० मिच्छत्त०-बारसक०-णवणोक० असंखे०भागहाणि-अवहि० णत्थि अंतरं । सेसपदवि० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवमणंताणु०चउक्क० । गवरि असंखे०गुणहाणि-अवत्तव्व० ज० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे। सम्मत्त० सम्मामि० असंखे०भागहाणि० णत्थि अंतरं । चत्तारिवाड्दि-तिण्णिहाणिअवत्तव्वं जह० एगसमओ, उक्क० चउवीसमहोरत्ते 'सादिरेगे। अवढि० जह० गुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। चार वृद्धि, तीन हानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवं भागप्रमाण है। इसीप्रकार काययोगी और औदारिककाययोगी जीवोंके जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागवृद्धिका अन्तर नहीं है। ६४३६. औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है। संख्यातभागबृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि, और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। ४३७. वैक्रियिककाययोगियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है। शेष पदविभक्तियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। चार वृद्धि, तीन हानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक १ आ. तप्रौ एगसमओ चउवीसमहोरत्ते इति पाठः । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ गा० २२] द्विदिविहत्तीए वड्ढीए अंतरं एगस०, उक्क० अंगुल० असंखे भागो। ___४३८. वेउव्वियमिस्स० मिच्छत्त०-सोलसक०-णवणोक० तिण्णिवड्डि-तिण्णिहाणि-अवढि० जह० एगस०, उक्क० बारस मुहुत्ता। सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहाणि० ज० एगस०, उक्क० बारस मुहुत्ता। तिण्णिहाणि० ज० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे। ४३९. कम्मइय० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० असंखे०भागवड्डि-हाणिअवट्टि० णत्थि अंतरं । संखे०भागवड्डि-हाणि-संखेजगुणवड्डि-हाणि० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु०। सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहाणि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । संखे०भागहाणि-संखे०गुणहाणि-असंखे०गुणहाणि० जह० एगसमओ, उक० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे । एवमणाहारीणं पि वत्तव्वं । ४४०. आहार०-आहारमिस्स० अहावीसं पयडीणमसंखे०भागहाणि० जह. एगस०, उक्क० वासपुधत्तं । एवमकसा०-जहाक्खाद० । णवरि चउबीसं पयडोणं ति वत्तव्वं । ६४४१. वेदाणु० इत्थि० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखे०भागहाणिअवहि० णत्थि अंतरं । तिण्णिवड्डि-दोहाणि० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोसु० । समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है।। ६४३८. वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त है । तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। ४३९. कार्मणकाययोगियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका तथा संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यांतभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है । इसीप्रकार अनाहारकोंकी अपेक्षा कहना चाहिए। ६४४०. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। इसी प्रकार अकषायी और यथाख्यातसंयतोंके जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके चौबीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा अन्तर कहना चाहिए। ६४४१. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदियों में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है। तीन वृद्धि औरोदी Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जयधवलासाहिदे कसायपाहुडे [ ट्ठिदिवित्त ३ असंखे ०गुणहाणि ० जह० एस ०, उक्क० वासपुधत्तं । एवमणंताणु ० चउक्क० । णवरि असंखे० गुणहाणि-अवत्तव्व० ओघं । सम्मत्त सम्मामि० असंखे ० भागहाणि ० णत्थि अंतरं । चत्तारिवड्डि-तिष्णिहाणि - अवत्तव्व० ज० एगस०, उक्क० चउवीस महोरत्ते सादिरेगे | अवडि० ज० एगस०, उक्क० अंगुलस्स असंखे ० भागो । एवं णवुंस० । वरि असंखे० भागकड्डीए वि णत्थि अंतरं । ९ ४४२. पुरिस० मिच्छत्त- बारसक० णवणोक० असंखे ० भागहाणि-अवट्ठि० णत्थि अंतरं । तिण्णिवड्डि-दोहाणि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० | असंखे० गुणहा० जह० एगंस ०, उक्क० वासं सादिरेयं । णवरि मिच्छत्त० छम्मासा । एवमणंताणु ० चउक्क० । वर असंखे० गुणहाणि - अवत्तव्व० ज० एस ०, उक० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे सम्मत्त सम्मामि० ओघभंगो । ६ ४४३. अवगद ० 1 मिच्छत्त - सम्मत्त - सम्मामिच्छत्त-अद्रुकसाय- इत्थि - णवुंस० असंखे० भागहाणि-संखे० भागहाणि० ज० एस ०, उक्क० वासपुधत्तं । सत्तणोकसायचदुसंजलणाणमसंखे ० भागहाणि संखे० भागहाणि संखे० गुणहाणि० ज० एस ०, उक्क० छम्मासा । णवरि सत्तणोकसायाणं वासपुधतं । S ४४४. कसायाणु० कोधक० मिच्छत्त- बारसक० णवणोक० असंखे० भागवड्डिहानियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है । इसीप्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका अन्तर ओघके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानिका अन्तर नहीं है । चार वृद्धि, तीन हानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है । अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसीप्रकार नपुंसकवेदीकी अपेक्षासे जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागवृद्धिका भी अन्तर नहीं है । $ ४४२. पुरुषवेदियों में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है। तीन वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है । किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वका उकृष्ट अन्तर छह महीना है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओधके समान है । $ ४४३. अपगतवेदियोंमें मिथ्यात्व, सम्यकत्व, सम्यग्मिथ्यात्व, आठ कषाय, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यात भागहानि और संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है । सात नोकषाय और चार संज्वलनोंकी असंख्यात भागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सात नोकषायोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है । $ ४४४. कषायमागणाके अनुवादसे क्रोधकषायवालों में मिथ्यात्व बारह कषाय और Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए वड्ढीए अंतरं २६९ हाणि-अवट्टि ० णत्थि अंतरं । दोवड्डि-दोहाणि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । असंखे गुणहाणि० ज० एगससओ, उक्क० वासं सादिरेयं । णवरि मिच्छत्त० छम्मासा। एवमणंताणु० चउक्क० । गवरि असंखे०गुणहाणि-अवत्तव्व० जह० एगस०, उक० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहाणि० णत्थि अंतरं । चत्तारिवाड्डि-तिण्णिहाणि-अवत्तव्व० ज० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे । अवट्टि० ज० एगस०, उक्क० अंगुल० असंखेज भागो। एवं माण-माया-लोभाणं । णवरि लोभक० असंखे०गुणहाणीए छम्मासा । $ ४४५. णाणाणुवादेण मदि०-सुद० मिच्छत्त०-सोलसक०-णवणोक० असंखे०भागवड्डि-हाणि-अवढि० णत्थि अंतरं । दोवड्डि-दोहाणि० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहाणि० णत्थि अंतरं । तिण्णिहाणि० ज० एगस०, उक्क० चउवीस अहोरचे सादिरेगे। विहंगणाणी० मिच्छत्त०सोकसक०-णवणोक० असंखे०भागहाणि-अवढि० णत्थि अंतरं । सेसपदवि० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहाणि० णत्थि अंतरं । तिण्णिहाणि० ज० एगसमओ, उक्क० चउवीस अहोरत्ते सादिरेगे। . ४४६. आभिणि-सुद०-ओहि० छब्बीसं पयडीणमसंखे०भागहाणि० णत्थि नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है । दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। चार वृद्धि, तीन हानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवेंभागप्रमाण है। इसी प्रकार मान, माया और लोभ कषायवालोंके जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि लोभकषायकी असंख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। .६४४५. ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है। दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। विभंगज्ञानियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है। शेष पद विभक्तियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है । तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। $ ४४६. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानियों में छब्बीस प्रकृतियोंकी Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ अंतरं । संखे०भागहाणि-संखे गुणहाणि० जह० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे। असंखे०गुणहाणि० जह० एगस०, उक्क० छम्मासा । णवरि अणंताणु०चउक्क० असंखे गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० चउवीस अहोरत्ते सादिरेगे। सम्मत्तसम्मामि० असंखे०भागहाणि० णथि अंतरं । संखे०भागहाणि-संखे०गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० चउवोसमहोरत्ते सादिरेगे। असंखे०गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० छम्मासा । एवमोहिदंसण-सम्माइहि त्ति । ४४७. मणपजवणाणी० अठ्ठावीसं पयडीणमसंखे०भागहाणि० णत्थि अंतरं । संखे०भागहाणि० ज० एगसमओ, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे। संखे गुणहाणि-असंखे०गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं । णवरि अणंताणु०चउक्क० संखे०गुणहाणि-असंखेन्गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे । णवरि दंसणतियस्स छम्मासा। एवं संजद-समाइय-छेदो०संजदे त्ति । णवरि चउवीसं पयडीणं संखे गुणहाणि०-असंखे०गुणहाणि० उक्क० छम्मासा । ४४८. परिहार० अठ्ठावीसं पयडीणमसंखे०भागहाणि० णत्थि अंतरं । संखे० भागहाणि० ज० एगस०, उक्क० चउवीस अहोरत्ते सादिरेगे । अणंताणु०चउक० संखे०गुणहाणि-असंखे०गुणहाणि० जह० एगस०, उक० चउवीस अहोरत्ते सादिरेगे । असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है । असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। इसी प्रकार अवधिदर्शनवाले और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। ४४७. मनःपर्ययज्ञानियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है । संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उकृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। किन्तु इतनी विशेषता है कि तीन दर्शनमोहनीयकी अपेक्षा छह महीना उत्कृष्ट अन्तर है। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि चौबीस प्रकृतियोंकी संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। ४४८. परिहारविशुद्धिसंयतोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए वड्ढोए अंतर २७१ मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि० संखे०गुणहाणि-असंखे०गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० छम्मासा। ४४९. सुहुमसांपराइय० तेवीसं पयडीणमसंखे०भागहाणि० दंसणतियस्स संखे०भागहाणि० ज० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं । लोभसंजल० असंखे०भागहाणिसंखे०भागहाणि-संखे०गुणहाणि० जहं० एगस०, उक्क० छम्मासा ।। $४५०. संजदासंजद० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखे०भागहाणि णत्थि अंतरं । संखे०भागहाणि० ज० एगस०, उक्क० चउवीस- . महोरत्ते सादिरेगे। मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि० संखे गुणहाणि-असंखे०गुणहाणिक जह० एगस०, उक० छम्मासा । अणंताणु०चउक्क० कसायभंगो। णवरि संखे०गुणहाणि-असंखे०गुणहाणि० जह० एगसमओ, उक० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे। ६४५१. असंजद० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असखे०भागवड्डि-हाणिअवढि णत्थि अंतरं । दोवड्दि-दोहाणि० जह० एगस०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । मिच्छत्त० असंखे गुणहाणि० ज० एगस०, उक० छम्मासा। एवमणंताणु० चउक्क० । णवरि असंखे०गुणहाणि-अवत्तव० जह० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे। सम्मत्तसम्मामि० असंखे०भागहाणि० णत्थि अंतरं। चत्तारिवाड्दि-तिण्णिहाणि-अवत्तव्व० अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। $ ४४९. सूक्ष्मसांपरायिक संयतोंमें तेईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि और तीन दर्शनमोहनीयकी संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है । लोभसंज्वलनको असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। ४५०. संयतसंयतोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग कषायके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। ६४५१. असंयतोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है। दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षासे जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। चार वृद्धि, तीन हानि और अवक्तव्यका Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ज० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे । अवढि० जह० एगस०, उक्क० अंगुल. असंखे०भागो। ४५२. दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणीणं पंचिंदियभंगो । लेस्साणुवादेण किण्ह०णील-काउ० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखे भागवड्डि-हाणि-अवढि० णत्थि अंतरं । दोवड्डि-दोहाणि० ज० एगस०, उक्क अंतोमुः। एवमणंताणु०चउक्क० । णवरि असंखे०गुणहाणि-अवत्तव्व० ज० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भाणहाणि० णत्थि अंतरं। चत्तारिवड्डि-तिण्णिहाणिअवत्तव्व० ज० एगस०, उक्क० चउवीस अहोरत्त सादिरेगे। अवहि० ज० एगस०, उक्क० अंगुलस्स असंख०भागो। ४५३. तेउ०-पम्म०मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखे०भागहाणि-अवढि०णत्थि अंतरं । तिण्णिवड्डि-दोहाणि० ज० एगस०, उक० अंतोमुहुत्त । मिच्छत्त० असंखे०गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० छम्मासा । एवमणंताणु०चउक्क० । णवरि असंखे०गुणहाणि-अवत्तव्व० ज० एगस०, उक० चवीसमहोरत्ते सादिरेगे । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहाणि० णत्थिअंतरं। चत्तारिवड्डि-तिण्णिहाणि-अवत्तव्व० ज० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे । अवहि० ज० एग०, उक्क० अंगुलस्स जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ६४५२. दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवालोंका भंग पंचेन्द्रियोंके समान है। लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है। दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूत है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। चार वृद्धि, तीन हानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ६४५३. पीत और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है। तीन वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुकको अपेक्षा जानना चाहिए। किन्तु असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। चार वृद्धि, तीन हानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। अवस्थितका जघन्य अन्तर एक सयय और Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए वड्ढोए अंतर २७३ असंखे० भागो। ६४५४. सुक०ले० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखे०भागहाणि० णत्थि अंतरं । संखे०भागहाणि-संखे गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । असंखे०गुणहाणि० जह० एगस०, उक्क० छम्मासा । एवमणंताणु०चउक्क० । णवरि असंखे०गुणहाणि-अवत्तव्व० जह० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे। सम्मत्तसम्मामि० असंखे०भागहाणि० णत्थि अंतरं । चत्तारिवड्डि-तिण्णिहाणि-अवत्तव्व० ज० एगस०, उक० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे । अवट्टिद० ओघभंगो । ४५५. भवियाणुवादेण अभवसिद्धिय० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० असंखे०भागवड्डि-हाणि[अवहि] णत्थि अंतरं । दोवड्डि-दोहाणि० ज० एगस०, उ० अंतोमु० । ४५६. सम्मत्ताणुवादेण वेदग० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-सोलसक०णवणोक० असंखे भागहाणि० णत्थि अंतरं। संखे०भागहाणि-संखे गुणहाणि. ज० एगस०, उक्क० चउवोसमहोरत्ते सादिरेगे । मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०गुणहाणि० ज० एगस०, उक० छम्मासा । अणंताणु०चउक्क० असंख०गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे। ४५७. खइय० एकवीसपयडीणमसंखे०भागहाणि० णत्थि अंतरं । संखे०भागहाणि-संखे०गुणहाणि-असंखेगुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० छम्मासा । उवसम० उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ६४५४ शुक्ललेश्यावालोंमें मिध्यात्व, बारह कषाय, और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। चार वृद्धि, तीन हानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन रात है । तथा अवस्थितका अन्तर ओघके समान है। ६४५५. भव्यमार्गणाके अनुवादसे अभव्योंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है। दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। ६४५६. सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोककषायोंकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है । मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। ४५७. क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक ३५ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ अट्ठावीसं पयडीणमसंखे ० भागहाणि संखे० भागहाणि० अनंताणु० चउक्क० संखे०गुणहाण - असंखे० गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरते सादिरेगे । सासण० अट्ठावीसं पयडीणमसंखेज भागहाणि० ज० एगस०, उक्क ० पलिदो० असंखे ० भागो । सम्मामि० असंखे० भागहाणि संखे० भागहाणि संखे० गुणहाणि० ज० एस ०, उक० पलिदो ० असं० भागो । मिच्छाइट्ठी० मिच्छत्त- सोलसक० णवणोक० तिण्णिवड्डि-तिष्णिहाणि - अट्टिदाणमोघं । सम्मत्त - सम्मामि० चदुण्हं हाणीणमोघं । 1 ९ ४५८. सणियाणु सण्णि० चक्खुदंसणिभंगो | असण्णि० मिच्छत्त-सोलसक०णवणोक० असंखे ० भागवड्डि-हाणि-अवडि० णत्थि अंतरं । संखे ० भागवड्डि- हाणिसंखे० गुणवड्डि- हाणि० ओघं । सम्मत्त सम्मामि० चदुण्हं हाणीणमोघं । एवमंतराणुगमो समत्तो S ४५९. भावो - सव्वत्थ ओदइओ भावो । एवं जाव० । ० * अप्पाबहु § ४६०. सुगममेदं, अहियारसंभालणफलत्तादो | * मिच्छत्तस्स सव्वत्थोवा असंखेज्जगुणहाणिकम्मसिया । समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है । उपशमसम्यग्दृष्टियों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि और संख्यात भागहानिका तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है । सासादनसम्यग्दृष्टियों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियों में असंख्यात - भागहानि, संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण है । मिथ्यादृष्टियों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित का अन्तर ओघके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियोंका अन्तर ओघके समान है । $ ४५८. संज्ञी मार्गणाके अनुवाद से संज्ञियोंमें चक्षुदर्शनवालोंके समान भंग है । असंज्ञियों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंको असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है । संख्यातभागवृद्धि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका अन्तर ओघके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियोंका अन्तर ओघ के समान है । इसप्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ । ९ ४५९. भाव सर्वत्र औदयिक है । इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । इस प्रकार भावानुगम समाप्त हुआ । * अब अल्पबहुत्वानुगमका अधिकार है । ६४६०. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि इसका फल केवल अधिकारकी सम्हाल करना है । * मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअं २७५ ___ ४६१. कुदो ? दंसणमोहक्खवगाणं संखेजत्तादो । णेमो हेयू असिद्धो, मणुसपज्जत्तरासिं मोत्तण अणत्थ तक्खवणाभावादो। ण च मणुसपजत्तरासी सव्यो पि दसणमोहणीयं खवेदि, अछुत्तरछस्सदमेत्तजीवाणं चेव तक्खवणुवलंभादो । ण च ते सव्वे एगसमयमसंखे०गुणहाणिं करेंति, अठुत्तरसयजीवाणं चेव एगसमए असंखे०गुणहाणिं कुणंताणमुवलंभादो। अणियट्टिकरणद्धाए संखे०सहस्समेत्ताणि असंखे०गुणहाणिट्टिदिकंडयाणि । तेसु कंडएसु एगसमयम्मि' वट्टमाणणाणाजीवे घेत्तूण असंखे०गुणहाणिद्विदिविहत्तिया जीवा सव्वत्थोवा त्ति भणिदा। संखेजगुणहाणिकम्मंसिया असंखेजगुणा। ६४६२. कुदो ?, सण्णिपजत्तापजत्ताणं जगपदरस्स असंखे०भागमेत्ताणमसंखे०भागत्तादो । तेसिं को पडिभागो? अंतोमुहुतं । छस्समयाहियअसंखे० भागहाणिअवट्ठिदाणमद्धाओ त्ति वुत्तं होदि । संखेज्जभागहाणिकम्मंसिया संखेज्जगुणा । ६४६३. कुदो ? तिव्यविसोहिए परिणदजीवेहिंतो मज्झिमविसोहीए परिणदजीवाणं संखेजगुणत्तादो। का विसोही णाम ? द्विदिखंडयघादहेदुजीवपरिणामा विसोही णाम । तासिं किं पमाणं ? असंखे०लोगमेत्ताओ जहण्णविसोहिप्पहुडि $ ४६१. क्योंकि दर्शनमोहनायकी क्षपणा करनेवाले जीव संख्यात हैं। यह हेतु असिद्ध नहीं है, क्योंकि मनुष्य पर्याप्तराशिको छोड़कर अन्यत्र मिथ्यात्वका क्षय नहीं होता है। उसमें भी सभी मनुष्यपर्याप्तराशि दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं करती है, क्योंकि छह सौ आठ जीव ही उसका क्षय करते हुए पाये जाते हैं। उसमें भी वे सब जीव एक समयमें असंख्यातगुणहानि नहीं करते हैं, क्योंकि एक समयमें अधिकसे अधिक एक सौ आठ जीव ही असंख्यातगुणहानि करते हुए पाये जाते हैं। अनिवृत्तिकरणके कालमें संख्यात हजार असंख्यातगुणहानि स्थितिकाण्डक होते हैं। उन काण्डकोंमें एक समयमें विद्यमान नाना जीवोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं यह उक्त सूत्रका अभिप्राय है। * संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। ६ ४६२. क्योंकि ये जीव जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण संज्ञी पर्याप्त और अपर्याप्तकों के असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। यह प्रमाण लानेके लिए प्रतिभाग क्या है ? अन्तर्मुहूर्तकाल प्रतिभाग है। असंख्यातभागहानि और अवस्थितके कालमें छह समय मिला देने पर यह काल होता है यह इसका तात्पर्य है। * संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। ६ ४६३. क्योंकि तीव्र विशुद्धिसे परिणत हुए जीवोंकी अपेक्षा मध्यम विशुद्धिसे परिणत हुए जीव संख्यातगुणे होते हैं। शंका-विशुद्धि किसे कहते हैं ? समाधान—स्थितिकाण्डकके घातके कारणभूत जीवोंके परिणामोंको विशुद्धि कहते हैं। शंका-इन विशुद्धियोंका प्रमाण कितना है ? १. ता०प्रतौ तेसिमुदएसु एगसमयम्मि इति पाठः । २. आ०प्रतौ छमासाहियअसंखे० इति पाठः । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ जयधवलासाहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ समयाविरोहेण छवड्डिमुवगयाओ' कजभेदेण चउब्भेदसमुवगयाओ। काणि ताणि चत्तारि कजाइं? अधद्विदिगलणा असंखे०भागहाणीए द्विदिखंडयघादो संखे०भागहाणीए हिदिखंडयघादो संखेजगुणहाणीए द्विदिखंडयघादो चेदि । तत्थ एगभवम्मि संखेज गुणहाणिहेदुपरिणामेसु परिणमणवारा एगजीवस्स थोवा । संखे०भागहाणिहेदुविसोहिट्ठाणेसु परिणमणवारा संखे-गुणा, संखेजगुणहाणिहेदुविसोहिहाणेहिंतो संखे०भागहाणिहेदुविसोहिट्ठाणाणं संखे०गुणत्तादो थोवजत्तेण पाविजमाणत्तादो वा । असंखे०भागहाणीए हिदिखंडयघादणवारा संखेगुणा। कारणं पुव्वं व वत्तव्यं । अधहिदिगालणवारा असंखे०गुणा, सगहिदिसंतादो हेट्ठिमद्विदिवंधहेदुपरिणामाणमसंखे०गुणत्तादो। तेण संखेजगुणहाणिविहत्तिएहिंतो संखेज्जभागहाणिविहत्तिया संखे० गुणा त्ति सिद्धं । संखे०गुणहाणिं सण्णिपंचिंदिया चेव कुणंति । संखेजभागहाणिं पुण सण्णिपंचिंदिया असण्णिपंचिंदिया चउरिंदिय-तीइंदिय-बीइंदिया च कुणंति । तेण संखेजगुणहाणिविहत्तिए हितो संखेज्जभागहाणि विहत्तिएहिं असंखेजगुणेहि होदव्वमिदि ? ण, पंचिंदिएहिंतो तसरासीए असंखेजगुणत्ताभावादो। सण्णिपंचिंदियाणं संखेजगुणहाणिविहत्ति समाधान-इनका प्रमाण असंख्यात लोक है। जो जघन्य विशुद्धिसे लेकर यथाझास्त्र छह वृद्धियोंको प्राप्त होती हुई कार्यभेदसे चार प्रकारकी हैं। शंका—ये चार कार्य कौनसे हैं ? समाधान–अधःस्थितिगलना, असंख्यातभागहानिके द्वारा स्थितिकाण्डकघात, संख्यातभागहानिके द्वारा स्थितिकाण्डकघात और संख्यातगुणहानिके द्वारा स्थितिकाण्डकघात ये चार कार्य हैं। इनमें एक भवमें एक जीवके संख्यातगुणहानिके कारणभूत परिणामोंमें परिणमन करनेके बार सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागहानिके कारणभूत विशुद्धिस्थानोंमें परिणमन करनेके बार संख्यातगुणे हैं, क्योंकि संख्यातगुणहानिके कारणभूत विशुद्धिस्थानोंसे संख्यातभागहानिके कारणभूत विशुद्धिस्थान संख्यातगुणे होते हैं। अथवा संख्यातभागहानिके कारणभूत विशुद्धिस्थान अल्प यत्नसे प्राप्त होते हैं, इसलिये संख्यातगुणहानिके कारणभूत बिशुद्धिस्थानोंसे ये संख्यातगुणे होते हैं। इनसे असंख्यातभागहानिके द्वारा होनेवाले स्थितिकाण्डकघातके बार संख्यातगुणे हैं। यहाँ भी कारण पहलेके समान कहना चाहिये । इनसे अधःस्थितिगलनाके बार' असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि अपने स्थितिसत्त्वसे अधस्तन स्थितिबन्धके कारणभूत परिणाम असंख्यातगुणे होते हैं। इसलिये संख्यातगुणहानिविभक्तिवाले जीवोंसे संख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे होते है यह सिद्ध हुआ। शंका-संख्यातगुणहानिको संज्ञी पञ्चेन्द्रिय ही करते हैं। परन्तु संख्यातभागहानिको संजी पंचेन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, चौइन्द्री, तीन्द्रिय और दोइन्द्रिय जीव करते हैं, अतः संख्यातगुणहानिविभक्तिवाले जीवोंसे संख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे होने चाहिये ? समाधान नहीं, क्योंकि पंचेन्द्रिय जीवोंसे त्रसजीवराशि असंख्यातगुणी नहीं है। संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें संख्यातगुणहानिस्थितिविभक्तिबाले जीवोंसे वहीं पर संख्यातभाग१ ता०प्रतौ छवडिमुवगयादो ओ इति पाठः। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा० २२] द्विदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअं २७७ एहिंतो तत्थेव संखेजभाणहाणिविहत्तिया संखे०गुणा। असण्णिपंचिंदिएसु संखे०भागहाणिविहत्तिया संखे०गुणा । सण्णिपंचिंदिएहितो असंखे गुणेसु असण्णिपंचिंदिएसु सत्थाणे संखे गुणहाणिविवजिए सु संखे०भागहाणिविहत्तिएहि असंखेगुणेहि होदव्वं । ण च सण्णीहिंतो असण्णीणमसंखेजगुणत्तमसिद्धं । सव्वत्थोवा सण्णिणqसयवेदगब्भोवक्कंतिया। सण्णिपुरिसवेदगब्भोवक्कंतिया संखेज्जगुणा। सण्णिइत्थिवेदगब्भोवक्कंतिया संखे०गुणा । सण्णिणqसयवेदसम्मुच्छिमपज्जत्ता संखे०गुणा । सण्णिणqसयवेदसम्मुच्छिमअपज्जत्ता असंखे०गुणा । सण्णिइत्थि-पुरिसवेदगम्भोवक्कंतिया असंखे०वस्साउआ दो वि तुल्ला असंखे०गुणा । असणिणqसयवेदगम्भोवक्कतिया संख०गुणा । असण्णिपुरिसवेदगब्भोवक्कंतिया संखे गुणा । असण्णिइत्थिवेदगम्भोवक्कंतिया संखे०गुणा। असण्णिणqसयवेदसम्मुच्छिमपज्जत्ता संखेगुणा। असण्णिणqसयवेदसम्मुच्छिमअपज्जत्ता असंखेजगुणा त्ति एदम्हादो खुद्दाबंधसुत्तादो असंखेन्गुणत्तसिद्धोए ? ण एस दोसो, जदि वि सण्णिपंचिंदिएहिंतो असण्णिपंचिंदिया असंखे०गुणा होंति तो वि संखेजभागहाणि विहत्तिया संखेज्जगुणा चेव, तिव्वविसोहीए जीवाणं तत्थ बहुआणमभावादो। बहुआ णस्थि ति कुदो णव्वदे ? संखे०गुणहाणिहानिस्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे असंज्ञी पंचेन्द्रियोंमें संख्यातभागहानिस्थितिविभक्तिवाले जीव सं यातगुणे हैं। शंका-चूँकि संज्ञी पंचेन्द्रियोंसे असंख्यातगुणे असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव स्वस्थानमें संख्यातगुणहानिसे रहित हैं अतः उनमें सख्यातभागहानिस्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातभागहानिस्थितिविभक्तिवाले संज्ञी जीवोंसे असंख्यातगुणे होने चाहिये ? यदि कहा जाय कि सज्ञियोंसे असंज्ञी असख्यातगुणे हैं यह बात असिद्ध है सो भी बात नहीं है, क्योंकि गर्भसे उत्पन्न हुए नपुसकवेदी सज्ञी जीव सबसे थोड़े हैं। गर्भसे उत्पन्न हुए पुरुषवेदी संज्ञी जीव सं यातगुणे हैं । गर्भसे उत्पन्न हुए स्त्रीवेदी सभी जीव सख्यातगुणे हैं। नपुंसकवेदी संज्ञी सम्मूर्छन पर्याप्त जीव संख्यातगुणे हैं। नपुंसकवेदी समूर्च्छन अपर्याप्त संज्ञी जीव असख्यातगुणे हैं। गर्भसे उत्पन्न हुए स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी असख्यातवर्षकी आयुवाले दोनों ही समान होते हुए असंख्यातगुणे हैं। गर्भसे उत्पन्न हुए नपुंसकवेदी असज्ञी जीव सख्यातगुणे हैं। गर्भसे उत्पन्न हुए पुरुषवेदी असज्ञी जीव सख्यातगुणे हैं। गर्भसे उत्पन्न हुए स्त्रीवेदी असज्ञी जीव संख्यातगुणे हैं। असंज्ञी नपुसकवेवाले संम्मूर्छन पर्याप्त जीव संख्यातगुणे हैं। असज्ञी नपुंसकवेदवाले समूछन अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं। इस प्रकार खुद्दाबन्धके इस सूत्रसे सज्ञियोंसे असज्ञी जीव असंख्यातगुणे हैं यह बात सिद्ध हो जाती है ? समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यद्यपि सज्ञी पंचेन्द्रियोंसे असज्ञी पंचेन्द्रिय जीव असख्यातगुणे होते हैं तो भी सख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे ही होते होते हैं। क्योंकि वहाँ पर बहुत जीवोंके तीव्र विशुद्धि नहीं पाई जाती है। शंका-वे बहुत नहीं हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-संख्यातगुणहानिविभक्तिवालोंसे संख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ विहत्तिएहितो संखे०भागहाणिविहत्तिया संखेजगुणा त्ति चुण्णसुत्तादो णव्वदे । चउरिदिएसु संखे भागहाणिवि० विसेसाहिया। तीइंदिए सु संखे भागहाणिवि० विसे० । वीइंदिएसु संखे०भागहाणि वि०, विसेसाहियकमेण रासीणमवहाणादो । तदो संखे०गुणहाणिविहत्तिएहितो संखे०भागहाणि विहत्तियाणं सिद्ध संखेजगुणत्तं । * संखेजगुणवडिकम्मंसिया असंखेजगुणा । ___४६४. एदस्स सुत्तस्स अत्थो बुच्चदे । तं जहा–संखेजगुणवड्डी सण्णिपंचिंदिएसु चेव होदि ण अण्णत्थ, संखेजगुणवडिकारणपरिणामाणमण्णत्याभावादो। तं पि कुदो ? साभावियादो। ते च तत्थतण संखे०गुणवड्डिविहत्तिया जीवा संखे गुणहाणिविहत्तिएहि सरिसा । तं कुदो णव्वदे ? विदियादिपुढवीसु सोहम्मादिकप्पेसु च संखेजगुणवड्डि-संखे गुणहाणिकम्मंसिया दो वि सरिसा ति उच्चारणवयणादो णव्वदे । एवं संते संखे०गुणहाणिविहत्तिए पेक्खिदूण संखे०गुण-संखे०भागहाणिविहत्तिए हितो संखेजगुणवड्डिविहत्तियाणमसंखे०गुणत्तं ण घडदि त्ति ण पच्चवडेयं, एइंदिएहितो सख्यातगुणे हैं इस चूर्णिसूत्रसे जाना जाता है। चतुरिन्द्रियोंमें सख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। तेइन्द्रियोंमें संख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। दोइन्द्रियोंमें सल्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं, क्योंकि ये राशियाँ उत्तरोत्तर विशेष अधिक क्रमसे अवस्थित हैं। अतः सख्यातगुणहानिस्थितिविभक्तिवालोंसे सख्यातभागहानिस्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं यह बात सिद्ध हुई। * संख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। . ६४६४. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। जो इस प्रकार है-सत्यातगुणवृद्धि सज्ञी पंचेन्द्रियों में ही होती है अन्यत्र नहीं होती, क्योंकि अन्यत्र सख्यातगुणवृद्धिके कारणभूत परिणाम नहीं पाये जाते । शंका-ऐसा क्यों होता है ? समाधान-स्वभाव से होता है। और वे सख्यातगुणवृद्धिस्थितिविभक्तिवाले जीव वहींके सख्यातगुणहानिस्थितिविभक्तिवाले जीवोंके समान होते हैं। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान—दूसरी आदि पृथिवियोंमें और सौधर्मादि कल्पोंमें संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानि कर्मवाले दोनों प्रकारके जीव समान हैं, इस प्रकारके उच्चारणावचनसे जाना जाता है। _शंका-ऐसा रहते हुए संख्यातगुणहानिविभक्तिवाले जीवोंको देखते हुए संख्यातगुणहानि और संख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीवोंसे संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं यह बात नहीं बनती है ? समाधान—ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिए, क्योंकि जो एकेन्द्रियोंमेंसे विकलेन्द्रिय Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअं २७९ विगलिंदिय-सण्णि-असण्णिपंचिंदियपज्जत्तापजत्तेसुप्पजमाणाणं विगलिंदिएहितो सण्णि-असण्णिपंचिंदियपज्जत्तापज्जत्तएसुप्पज्जमाणाणं च संखेजगुणवड्डेि कुणंताणं संखेजभागहाणिविहत्तिएहितो असंखे०गुणाणमुवलंभादो। तेसिमुप्पजमाणाणं संखेजभागहाणिविहत्तिएहिंतो असंखेजगुणत्तं कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव जइवसहाइरियमुहकमलविणिग्गयचुण्णिसुत्तादो। सुत्तमण्णहा किण्ण होदि ? ण, राग-दोस-मोहाभावेण पमाणत्तमुवगयजइवसहवयणस्स असच्चत्त विरोहादो। जुत्तीदो वा णव्वदे । तं जहाबीइंदियादितसरासिमेकहं करिय तिण्हं वड्डीणं तिण्हं हाणीणमवहाणस्स य अद्धासमासेण भागे हिदे संखे०भागहाणिविहत्तिया होंति, एगसमयसंचयत्तादो । संख०गुणहाणिविहत्तिया वि एगसमयसंचिदा चेव होदृण संखे भागहाणिविहत्तिएहिंतो संखेजगुणहीणा जादा, सण्णिपंचिंदिएसुचेव संखे०गुणहाणीए संभवादो। तत्थ बि संखे०भागहाणिं संखेजवारं कादूण पुणो एगवारं सव्वसण्णिपंचिंदियजीवाणं संखे०गुणहाणिं कुणमाणाणमुवलंभादो च। संखेजभागहाणिविहत्तिया पुण तत्तो संखे गुणा होंति, सव्वतसरासीसु संभवादो संखेजभागहाणिपाओग्गपरिणामेसु बहुवारं परिणदभावुवलंभादो च । संपहि तसरासिमावलियाए असंखे०भागेण सगुवक्कमणकालेण खंडिदे और सज्ञो व असज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों में उत्पन्न होते हैं और जो विकलेन्द्रियोंमेंसे संज्ञी और असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होते हैं जो कि संख्यातगुणवृद्धिको करते हैं वे संख्यातभागहानिविभक्तिवालोंसे असंख्यातगुणे पाये जाते हैं। शंका-ये उत्पन्न होनेवाले जीव संख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीवोंसे असंख्यातगुणे होते हैं, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-यतिवृषभ आचार्यके मुखकमलसे निकले हुए इसी चूर्णिसूत्रसे जाना जाता है। शंका-सूत्र अन्यथा क्यों नहीं होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि राग, द्वेष और मोहसे रहित होनेके कारण यतिवृषभ आचार्य प्रमाणभूत हैं, अतः उनके वचनको असत्य माननेमें विरोध आता है। ___ अथवा, संख्यातभागहानिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं यह बात युक्तिसे जानी जाती है। जो इस प्रकार है-द्वीन्द्रियादिक त्रसराशिको एकत्र करके उसमें तीन वृद्धि. तीन हानि और अवस्थानके कालोंके जोड़का भाग देने पर संख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव होते हैं, क्योंकि इनका संचय एक समयमें होता है। संख्यातगुणहानिविभक्तिवाले जीव भी एक समयद्वारा ही संचित होते हैं, फिर भी वे संख्यातभागहानिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणे हीन होते हैं, क्योंकि संख्यातगुणहानि संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें ही संभव है। और वहांपर भी सब संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव संख्यातभागहानिको संख्यात बार करके पुनः एक बार संख्यातगुणहानिको करते हैं। संख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव तो इससे संख्यातगुणे होते हैं, क्योंकि सब त्रस राशियोंमें संख्यातभागहानि संभव है और संख्यातभागहानिके योग्य परिणाम बहुतबार होते हुए पाये जाते हैं। अब त्रसराशिको आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अपने उपक्रमणकालके द्वारा खण्डित करनेपर संख्यातगुणवृद्धि • For Private &Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ • ०गुणवड्डि विहत्तिया असंखे० गुणा होंति । को गुणगारो ? संखेजभागहाणिविहत्तियाणमंतोमुहुत्त भागहारे संखेज्जगुणवड्डिविहत्तियाणं भागहारेण आवलियाए असंखे ०भागेण भागे हिदे जं लद्धं सो गुणगारो । तसट्ठिदिं समाणिय एइंदिएस उपजमाणतसकाइया तस सिस्स असंखे० भागमेत्ता । तेसिं भागहारो पलिदो ० असंखे ० भागो | तं जहा - अंतोमुहुत्तकालब्भंतरे जदि आवलियाए असंखे० भागमेत्तो उवकमणकालो भदि तो सदिए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए पलिदोवमस्स असंखे० भागमेत्तो उवकमणकालो लब्भदि । पुणो एत्तियमेत्त उवकमणकालम्हि जदि तसरासिस्स संचओ लब्भदि तो एगसमयम्मि किं लभामो त्ति तसो - वकमणकालेण तसरासिम्हि ओवट्टिदे एइंदिहिंतो तसकाइएसु उप्पजमाणरासी होदि, आयम्स वयानुसारित्तादो । हेदू णायमसिद्धो, तसरासीए णिम्मूलक्खयाभावेण तस्स सिद्धो । दे संखेजगुणवड्डिविहत्तिया संखे० गुणहाणि विहत्तिए हिंतो असंखेजगुणहीणा, तब्भागहारं पेक्खिय असंखेजगुण भागहारत्तादो । तेण संखे० भागहाणिविहत्तिर्हितो संखेजगुण वड्ढिविहत्ति याणमसंखे० गुणत्तं ण घडदि त्ति १ ण, एवं संते विगलिंदियरासीणं पंचिंदियअपजत्तरासोए पंचिंदियसंखेजवस्साउअपजत्तरासीए विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं । शंका- गुणकार क्या है ? समाधान —संख्यात भागहानिविभक्तिवालोंके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण भागहार में संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवालोंके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण भागहारका भाग देने पर जो लब्ध आवे वह गुणकार है । त्रसोंकी स्थितिको समाप्त करके एकेन्द्रियों में उत्पन्न होनेवाले सकायिक जीव सराशिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं और उनका भागहार पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । जो इस प्रकार है- अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर, यदि आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण उपक्रमण काल प्रात होता है तो सब त्रसस्थितिकाल में कितना उपक्रमणकाल प्राप्त होगा । इस प्रकार फलगुणित इच्छाराशिको प्रमाण राशिसे भाजित करने पर पल्य का असंख्यातवां भाग उपक्रमणकाल प्राप्त होता है । पुनः इतने उपक्रमण कालमें यदि त्रस राशिका संचय प्राप्त होता है तो एक समय में कितना प्राप्त होगा, इस प्रकार सराशिके उपक्रमण काल से सराशिके भाजित करने पर एकेन्द्रियों में से त्रसकायिकों में उत्पन्न होनेवाली राशि प्राप्त होती है, क्योंकि आय व्ययके अनुसार होती है । यह हेतु असिद्ध नहीं है, क्योंकि सराशिका समूल नाश नहीं होता । अतः उसकी सिद्धि हो जाती है । शंका- ये संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणहानिविभक्तवाले जीवोंसे असंख्यात गुणे हीन होते हैं, क्योंकि संख्यातगुणवृद्धिवालोंके भागहारको देखते हुए संख्यातगुणहानि विभक्तिवालोंका भागहार असंख्यातगुणा बड़ा है । अतः संख्यातभागहानिविभक्तिवालों से संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं. यह बात नहीं बनती है ? समाधान — नहीं, क्योंकि ऐसा माननने पर - विकलेन्द्रिय जीवराशि, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवराशि और पंचेन्द्रिय संख्यात वर्ष आयुवाली पर्याप्त जीवराशिका प्रमाण जगप्रतर में पल्यके २८० Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए वड्ढोए अप्पाबहुअ २८१ च जगपदरं पलिदो० असंखे ० भागमे तपदरं गुलेहि खंडिदएगखंडपमाण तप्प संगादो । तम्हा तप्पा ओग्गसंखेज्जावलियमे त्तकालब्भंतरुवकमण कालसंचिदेण तसरासिणा होदव्वं, अण्णा तेसिं पदरंगुलस्स असंखे० भागेण संखे० भागेण संखेजपदरंगुलेहि य खंडिदजगपदरपमाणत्तविरोहादो । तसवियलिंदिय-पंचिंदिय विदीओ समार्णेतजीवाणं पउरमसंभवादो च, आयाणुसारी वओ त्ति कट्टु तसकाइएहिंतो एइंदिएसु आगच्छंता जगपदरमावलियाए असंखे० भागमेत्तपदरं गुलेहि खंडिदेयखंडमेत्ता होंति । पुणो एदिएहिंतो तत्तियमेत्ता चेव तसेसुप्पज्जंति तेण संखेजभागहाणि विहत्ति एहिंतो संखे० गुणवडिविहत्तियाणमसंखेअगुणचं घडदि ति घेत्तव्यं । * संखेज्जभागवड्डिकम्मंसिया संखेज्जगुणा | $ ४६५ सत्थाणे संखे० भागहाणि विहत्तिए हिंतो संखे० भागवड्डिविहत्तिया सरिसा । कुदो १ संखेजभागहाणिणि मित्तविसोही हिंतो संखे० भागवड्डिणिमित्त संकिलेसाणं सरिसत्तादो | एवं संते संखेज्जभागहाणि विहत्तिए हिंतो असंखे० गुण-संखे० गुणवड्डिविहत्तीए पेक्खिदूण कथं संखेजभागवड्डिविहत्तियाणं संखे० गुणत्तं घडदे ? ण एस दोसो, संकिलेसेण विणा जादिविसेसेण वड्डिदसंखेज्जभागवड्ढिविहत्तीए पेक्खिदृण संखेज असंख्यातवें भागप्रमाण प्रतरांगुलों का भाग देनेपर जो भाग आवे उतना प्राप्त होता है । इसलिए तत्प्रायोग्य संख्यात आवलिकालनिष्पन्न उपक्रमण कालके द्वारा संचित त्रसराशि होनी चाहिए । अन्यथा उनका प्रमाण जगप्रतर में प्रतरांगुलके असंख्यातवें भाग, प्रतरांगुलके संख्यातवें भाग और संख्यात प्रतरांगुलका भाग देने पर जितना प्राप्त हो उतना होनेमें विरोध आता है । और त्रस, विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रियों की स्थितिको समाप्त करनेवाले प्रचुर जीवोंका पाया जाना संभव नहीं है | अतः आयके अनुसार व्यय होता है ऐसा समझ कर त्रसकायिकों में से एकेन्द्रियोंमें आनेवाले जीवोंका प्रमाण जगप्रतर में आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रतरांगुलोंका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त होगा उतना होता है । पुनः एकेन्द्रियोंमेंसे उतने ही जीव त्रसोंमें उत्पन्न होते हैं, अतः संख्यातभागहानिस्थितिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिस्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे बन जाते हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिए । * संख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । § ५६५. स्वस्थानमें संख्यातभागहानिविभक्तिवालोंके संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीव समान हैं, क्योंकि संख्यातभागहानिकी निमित्तभूत विशुद्धिसे संख्यातभागवृद्धिके निमित्तभूत संक्लेश परिणाम समान हैं । शंका- ऐसा रहते हुए संख्यात भागहानिविभक्तिवालोंसे असंख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीवोंको देखते हुए संख्यात भागहानिविभक्तिवाले जीवोंसे संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे कैसे बन सकते हैं । समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि संक्लेशके बिना जातिविशेषसे वृद्धिको प्राप्त हुए संख्यात भागवृद्धिविभक्तिवाले जीवोंको देखते हुए उनके संख्यातगुणे होने में कोई विरोध १. ता० प्रतौ विहतियाण संखेज्जगुणत, श्रा० प्रतौ विहत्तिएण संखेज्जगुणत्तं इति पाठः । ३६ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ गुण पडि विरोहाभावादो। एवं पि संखेजभागवड्डिविहत्तिए हिंतो संखे०गुण वड्डिविहत्तिया संखे०गुणा । कुदो ? एगजादीदो विणिग्गयजीवाणंजादिवसेण संचिदजीवपडिभागेण विहंजिदूण गमणुवलंभादो । तंजहा-बीइंदिएहितो विणिग्गंतूण सण्णिपंचिंदिएसु उपजमाणा सव्वत्थोवा । असण्णिपंचिंदिएसु उप्पञ्जमाणा असंखेज्जगुणा । चउरिदिएसु उप्पजमाणा विसेसाहिया । तीइंदिएसु उप्पजसाणा विसे०। एइंदिएसु उप्पजमाणा असंखेज्जगुणा । एवं तीइंदिय-चउरिदिय-असण्णिपंचिंदिय-सण्णिपंचिंदिय-एइंदियाणं च वत्तव्वं । तत्थ वीइंदियाणं तीइंदिए उप्पण्णाणं संखे भागवड्डी चेव, पणुवीससागरोवमट्टिदीए सह तीइंदिएसु उप्पण्णाणं पि अपज्जत्तकाले पंचाससागरोवममेत्तहिदिवंधाभावादो। ण च जहण्णहिदीए सह तीइंदिएसुप्पण्णबीइंदियाणं पि संखेजगुणवड्डी अत्थि, पलिदोवमस्स संखे भागेणूणपणुवीससागरोवमेहिंतो तीइंदिएसु वडिदपणुवीससागरोवमाणं पलिदो०संखेभागेणूणाणं देसूणत्तुवलंभादो। तम्हा तीइंदिएसुप्पण्णवीइंदियाणं संखे भागवड्डी चेव । चउरिदिएसु असण्णिपंचिंदिएसु सण्णिपंचिंदिएसु च उप्पण्णबीइंदियाणं संखे०गुणवड्डी चेव । तीइंदियाणं चउरिदिएसुप्पण्णाणं संखे भागवड्डी असण्णिपंचिंदिएसु सण्णिपंचिंदिएसु च उप्पण्णाणं संखे०गुणवड्डी । असण्णिपंचिंदियाणं सण्णीसुप्पण्णाणं नहीं आता है। - शंका—ऐसा रहते हुए भी संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे होते हैं, क्योंकि जातिवशसे संचित जीवराशिरूप प्रतिभागसे विभक्त करनेपर जितना प्रमाण आवे उतने जीव एक जाति से निकलकर दूसरी जातिमें जाते हुए पाये जाते हैं । खुलासा इस प्रकार है-द्वीन्द्रियोंमेंसे निकलकर संज्ञो पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाले जीव सबसे थोड़े हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। चौइन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाले जीव विशेष अधिक हैं। तीनइन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाले जीव विशेष अधिक हैं। एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार तीनइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंही पंचेन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय और एकेन्द्रिय जीवोंका कथन करना चाहिये। उनमें जो द्वीन्द्रिय जीव तीनइन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं उनके संख्योतभागवृद्धि ही पाई जाती है, क्योंकि पच्चीस सागर स्थितिके साथ तीनइन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके भी अपर्याप्तकालमें पचास सागर स्थितिबन्ध नहीं होता। और जो द्वीन्द्रिय जीव जघन्य स्थितिके साथ तीन इन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके भी संख्यातगुणवृद्धि नहीं होती है, क्योंकि पल्यके संख्यातवें भागकम पच्चीस सागरसे तीन इन्द्रियोंमें बढ़ाई गई पल्यके संख्यातवें भागकम पच्चीस सागर स्थिति संख्यातगुणी न होकर कुछ कम संख्यातगुणी होती है। इसलिये जो द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके संख्यातभागवृद्धि ही होती है । तथा जो द्वीन्द्रियजीव चौइन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके संख्यातगुणवृद्धि ही होती है । तथा जो तीनइन्द्रिय जीव चौइन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके संख्यातभागवृद्धि और जो असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पश्चेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके संख्यातगुणवृद्धि होती है। तथा जो असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके संख्यातगुणवृद्धि होती है। इस प्रकार १. ता० पूतौ पेक्खिदूण [ कथं ] संखेज गुणत्तं इति पाठः । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] ट्ठिदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअं २८३ संखे०गुणवड्डी होदि । एवं होदि त्ति कादूण संखे०भागवड्डिविहत्तिएहितो संखे गुणवड्डिविहत्तिया संखे०गुणा त्ति ? णएस दोसो, बीइंदिय-तोइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदिए हितो णिप्पिडिदूण तसकाइएसु संचरंतजीवे पेक्खिदृण एइंदिएसु पविट्ठजीवाणमसंखे०गुणत्तादो। ण च एइंदिए हितो आगंतूण णिप्पिदिदपडिभागेण सग-सगजादीसु उप्पजमाणजीवाणं मज्झे संखेजभावड्डिविहत्तिएहितो संखे०गुणवड्डिविहत्तियाणं बहुत्तमत्थि, संखे०भागवड्डिविसयहिदीहि सह णिप्पिदमाणएइंदिए पेक्खिदूण संखे० गुणवड्डिविसयहिदीहि सह णिप्पिदमाणएइंदियाणं संखेजगुणहीणत्तादो । बीइंदियाणं संखे०भागवड्डिविसओ देसूणपणुवीससागरोवमाणमद्धमेत्तहिदीओ। ताओ चेव एगसागरोवमेण ऊणाओ संखे गुणवड्डिविसओ । तीइंदियाणं संखे०भागवड्डिविसओ देसूणपंचाससागरोवमाणमद्धमेत्तद्विदीओ। ताओ चेव एगसागरोवमेण्णाओ तेसिं संखे गुणवड्डिविसओ। चउरिंदियाणं संखेजभागवड्डिविसओ। देसूणसागरोवमसदस्स अद्धमेत्तहिदीओ। ताओ चेव एगसागरोवमेणूणाओ तेसिं संखेजगुणवड्डिविसओ। असण्णिपंचिंदियाणं संखेजभागवड्डिविसओ देसूणसागरोवमसहस्सस्स अद्धमेत्तद्विदीओ । ताओ चेव एगसागरोवमेणूणाओ तेसिं संखे गुणवड्डिविसओ। सण्णिपंचिंदयाणं संखेजभागवडिविसओ अंतोकोडाकोडिसारोवमाणमद्धमेत्तहिदीओ । ताओ चेव एगसागरोवमेणूणाओ तेसिं संखेज गुणवड्डिविसओ । एवं वुत्तकमेण वृद्धियाँ होती हैं ऐसा समझकर संख्यातभागवृद्धिवाले जीवोंसे संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे होने चाहिये ? . समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियोंमेंसे निकलकर त्रसकायिकोंमें संचार करनेवाले जीवोंको देखते हुए एकेन्द्रियोंमें प्रवेश करनेवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं। और एकेन्द्रियोंमेंसे आकर प्राप्त हुए प्रतिभागके अनुसार अपनीअपनी जातियों में उत्पन्न होनेवाले जीवोंमें संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव बहुत नहीं हैं, क्योंकि संख्यातभागवृद्धिकी विषयभूत स्थितियोंके साथ निकलनेवाले एकेन्द्रियोंको देखते हुए संख्यातगुणवृद्धि की विषयभूत स्थितियोंके साथ निकलनेवाले एकेन्द्रिय जीव संख्यातगुणे हीन होते हैं। शंका-द्वीन्द्रियोंके संख्यातभागवृद्धि की विषयभूत कुछ कम पञ्चीस सागरकी आधी स्थितियाँ हैं उनके वे ही एक सागर कम संख्यातगुणवृद्धिकी विषय हैं। तीन इन्दियोंके संख्यातभागवृद्धिकी विषय कुछ कम पचास सागर की आधो स्थितियाँ हैं। वे ही एक सागर कम होकर उनके संख्यातगुणवृद्धि की विषय होती हैं। चौइन्द्रियोंके संख्यातभागबृद्धिकी विषय कुछ कम सौ सागरकी आधी स्थितियाँ हैं। वे ही एक सागर कम होकर उनके संख्यातगुणवृद्धिको विषय हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रियोंके संख्यातभागवृद्धिकी विषय कुछ कम एक हजार सागरकी आधी स्थितियाँ हैं। वे ही एक सागर कम होकर उनके संख्यातगुणवृद्धिकी विषय हैं । संज्ञी पंचेन्द्रियोंके संख्यातभागवृद्धिकी विषय अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरकी आधी स्थितियाँ हैं। १. आ० प्रतौ -णूणाश्रो संखेज्ज- इति पाठः । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ संखेजगुणवड्डिविसयादो संखे भागवड्डिविसए विसेसाहिए संते कथं संखेजगुणवड्डिविहत्तिएहिंतो संखे०भागवड्डिविहत्तियाणं संखेजगुणत्तं घडदे ? ण च जादिं पडि विणिग्गयजीवपडिभागेण पवेसो पत्थि त्ति वोत्तुं जुत्तं, बीइंदियादिरासीणं क्सेिसाहियत्तं फिट्टिदण अण्णावत्थावत्तीदो' ? एसो वि ण दोसो, जदि वि संखेजगुणवड्डिविसयादो संखेजभागवड्डिविसओ विसेसाहिओ चेव तो वि संखेजगुणवड्डिविहत्तिएहितो संखेजभागवड्डिविहत्तिया संखेजगुणा, संखेज भागवड्डिविसयं पविस्समाणजीहितो संखेजगुणवड्डिविसयं पविस्समाणजीवाणं संखेजगुणहीणत्तादो । संखेजभागवड्डिविसयादो चेव बहुआ जीवा पल्लट्टिदूण सगसगजादिं पविसंति त्ति कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव जइवसहमुहविणिग्गयअप्पाबहुअसुत्तादो । असंखे०पोग्गलपरियट्टसंचिदा वि-ति-चदुपंचिंदियजीवा एइंदिएसु पादेक्कमणंता अस्थि संखे०गुणवड्डिपाओग्गा । संखेजभागवड्डिपाओग्गा पुण असंखेजा चेव, पलिदो० असंखे०भागमेत्तकालेण संचिदत्तादो। तेण संखेजभागवडिविहत्तिएहिंतोसंखेजगुणवविविहत्तिएहि असंखेजगुणेहि होदव्वमिदि? ण, आयाणुसारिवयस्स णायत्तादो । ण विवरीयकप्पणा जुञ्जदे, अव्ववत्थावत्तीदो। वे ही एक सागर कम होकर उनके संख्यातगुणवृद्धिकी विषय हैं । इस प्रकार उक्त क्रमसे संख्यातगुणवृद्धिके विषयसे संख्यातभागबृद्धिका विषय विशेष अधिक रहते हुए संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवालोंसे संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे कैसे बन सकते हैं ? और जातिकी अपेक्षा निकलनेवाले जीवोंके प्रतिभागके अनुसार प्रवेश नहीं है ऐसा कहना युक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर द्वीन्द्रियादिक राशियोंकी विशेष अधिकता नष्ट होकर अन्य अवस्था प्राप्त होती है ? समाधान—यह भी दोष नहीं है, क्योंकि यद्यपि संख्यातगुणवृद्धिके विषयसे संख्यातभागवृद्धिका विषय विशेष अधिक ही है तो भी संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवालोंसे संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे होते हैं, क्योंकि संख्यातभागवृद्धिके विषयमें प्रवेश करनेवाले जीवोंसे संख्यातगुणवृद्धिके विषयमें प्रवेश करनेवाले जीव संख्यात गुणे हीन होते हैं। शंका-संख्यातभागवृद्धिके विषयसे ही लौटकर बहुत जीव अपनी अपनी जातिमें प्रवेश करते हैं यह बात किस प्रमाणसे जानी जाती है ? समाधान–यतिवृषभ आचार्यके मुख से निकले हुए इसी अल्पबहुत्व सूत्रसे जानी जाती है। शंका—असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनोंके द्वारा संचित हुए द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव एकेन्द्रियोंमें प्रत्येक अनन्त हैं जो कि संख्यातगुणवृद्धिके योग्य हैं। पर संख्यातभागवृद्धिके योग्य असंख्यात ही जीव हैं, क्योंकि ये पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा संचित हुए हैं। अतः संरयातभागवृद्धिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धि विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे होने चाहिये ? समाधान नहीं, क्योंकि आयके अनुसार व्यय होता है ऐसा न्याय है। और १. ताप्रती अणवत्थावत्तीदो इति पाठः । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअं २८५ ६५६६. वेइंदियाणं तेइंदिएसु उप्पण्णाणं संखेजभागवड्डी ण होदि किंतु संखेजगुणवड्डी चेव होदि, एइंदियसंजुत्तं बंधमाणाणं चेव बीइंदियाणं पणुवीससागरोवममेत्तुक्कस्सहिदिबंधदसणादो । तं कुदो णव्वदे ? संकिलेसप्पाबहुअवयणादो। तं जहासव्वत्थोवो' सण्णिपंचिंदियपज्जत्तणामकम्मसंजुत्तो बंधसंकिलेसो। असण्णिपंचिंदियपजत्तणामकम्मसंजुत्तो बंधसंकिले सो अणंतगुणो। चउरिंदियपज्जत्तणामकम्मसंजुत्तो बंधसंकिलेसो अणंतगुणो। तेइ दियपज्जत्तणामकम्मसंजुत्तो बंधसंकिलेसो अणंतगुणो। बेइंदियपजत्तणामकम्मसंजुत्तो बंधसंकिलेसो अणंतगुणो । बादरेइंदियपज्जत्तणामकम्म--. संजुत्तो बंधसंकिलेसो अणंतगुणो। सुहुमेइंदियषजत्तणामकम्मसंजुत्तबंधस्स संकिलेसो अणंतगुणो । सण्णिपंचिंदियअपज्जत्तणामकम्मसंजुत्तबंधस्स संकिलेसो अणंतगुणो। असण्णिपंचिंदियअपजत्तणामकम्मसंजुत्तबंधस्स* संकिलेसो अणंतगुणो। चउरिदियअपजत्तणामकम्मसंजुत्तबंधस्स संकिलेसो अणंतगुणो। तेइंदियअपज्जत्तणामकम्मसंजुत्तबंधस्स संकिलेसो अणंतगुणो। बेइंदियअपजत्तणामकम्मसंजुत्तवंधस्स संकिलेसो अणंतगुणो। बादरेइंदियअपजत्तणामकम्मसंजुत्तबंधस्स संकिलेसो अणंतगुणो । सुहुमेइंदियअपजत्तणामकम्मसंजुत्तबंधस्स संकिलेसो अणंतगुणो ति। तेण कारणेण बेइंदियपज्जत्तयस्स बेइंदियपजत्तसंजुत्तं बंधमाणस्स सगउकस्सटिदिबंधादो पलिदो० विपरीत कल्पना युक्त नहीं है, क्योंकि विपरीत कल्पना करने पर अव्यवस्था प्राप्त होती है। ६५६६. दोइन्द्रिय जीव तीन इन्द्रिय जीवोंमें उत्पन्न होते हैं उनके संख्यातभागवृद्धि नहीं होती। किन्तु संख्यातगुणवृद्धि ही होती है, क्योंकि एकेन्द्रिय नामकर्मका बंध करनेवाले द्वीन्द्रिय जीवोंके ही पच्चीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध देखा जाता है। यदि कहा जाय कि यह किस प्रमाणसे जाना जाता है तो उसका उत्तर यह है कि यह संक्लेश विषयक अल्पबहुत्वसे जाना जाता है । जो इसप्रकार है--संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त नामकर्म संयुक्त बन्धका कारण संक्लेश सबसे थोड़ा है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त नामकर्मसंयुक्त बन्धका कारण संक्लेश अनन्तगुणा है। चौइन्द्रिय पर्याप्त नामकर्मसंयुक्त बन्धका कारण संक्लेश अनन्तगुणा है। तीनइन्द्रिय पर्याप्त नामक कर्मसंयुक्त बन्धका कारण संक्लेश अनन्तगुणा है। दोइन्द्रिय पर्याप्त नामकर्मसंयुक्त बन्धका कारण संक्लेश अनन्तगुणा है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त नामकर्मसंयुक्त बन्धका कारण संक्लेश अनन्तगुणा है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त नामकर्मसंयुक्त बन्धका कारण संक्लेश अनन्तगुणा है। संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त नामकमसंयुक्त वन्धका कारण संक्लेश गुणा है। असंज्ञीपंचेन्द्रिय अपयोप्त नामकर्मसंयुक्त बन्धका कारण संक्लेश अनन्तगणा है। चौइिन्द्रिय अपर्याप्त नामकर्म संयुक्त बन्धका कारण संक्लेश अनन्तगुणा है। तीन इन्द्रिय अपर्याप्त नामकर्मसंयुक्त बन्धका कारण संक्लेश अनन्तगुणा है। दोइन्द्रिय अपर्याप्त नामकर्मसंयुक्त बन्धका कारण संक्लेश अनन्तगुणा है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त नामकर्मसंयुक्त बन्धका कारण संक्लेश अनन्तगुणा है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त नामकर्मसंयुक्त बन्धका कारण संक्लेश अनन्तगुणा है। इसलिए दोइन्द्रिय पर्याप्तसंयुक्त बन्ध करनेवाले दोइन्द्रिय पर्याप्त जीवकी स्थिति अपने उत्कृष्ट १. आ०प्रतौ सम्वत्थोवा इति पाठः । २. ता०प्रतौ असण्णिपंचिंदियणामकम्मसंजुत्तबंधस्स इति पाठः । अनन Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ असंखे०भागेण संखेज्जदिभागेण वा ऊणो। बेइंदियपजत्तस्स तेइंदियपजत्तसंजुत्तं बंधमाणस्स वि सगउक्कस्सद्विदिवंधादो पलिदो० असंखे०भागेण संखे०भागेण वा ऊणो। एवं तेइंदियपज्जत्तस्स वि चउरिदियपज्जत्तसंजुत्तं बंधमाणस्स ऊणतं वत्तव्वं । संपहि एदेहि वेहि वियप्पेहि बेईदियउकस्सट्ठिदिमूर्ण काऊण पुणो तेइ दिएसुप्पण्णपढमसमए संखे०गुणवड्डी चेव होदि, पलिदो० असंखे०भागेण . संखे०भागेण वा ऊणबेइंदियपणुवीससागरोवमहिदिबंधादो पलिदो० असंखे०भागेण (संखे भागेण वा ऊणतेइंदियपण्णारससागरोवमट्ठिदिवंधस्स दुगुणत्तुवलंभादो त्ति के वि आइरिया भणंति, तण्ण घडदे । तं जहा-ण ताव बेइंदियाणं तेइंदिएसुप्पण्णपढमसमए पलिदो० असंखे०भागेणूणो' पण्णारससागरोवममेत्तहिदिव धो होदि, पजत्तुक्कस्सहिदिबंधादो अपजत्तुक्कस्सद्विदिवधस्स असंखे०भागहीणत्तसमाणत्तविरोहादो सण्णिपंचिंदियअपजत्ताणं सण्णिपंचिंदियपजत्ताणमुक्कस्सद्विदिवधादो संखे०गुणहीणसगुक्कस्सट्ठिदिबंधस्स उवलंभादो च। इंदियवीचारहाणेहिंतो दुगुणवीचारहाणेहि ऊणपण्णारससागरोवममेत्तहिदिबंधो वि ण तत्थ होदि जेण दुगुणत्तं होज, सगसगपअत्ताणमुक्कस्सवीचारहाणाणं संखेजेहि भागेहि ऊणस्स अपज्जत्तुक्कस्सद्विदिबंधस्सुवलंभादो। कथमेदं णव्वदे ? सण्णिपंचिंदिएसु तहोवलंभादो वेयणाए वीचारट्टाणाणमप्पाबहुगादो च। तदो बीइंदियाणं स्थितिबन्धसे पल्यका असंख्यातवाँ भाग या संख्यातवां भाग कम होती है। तीनइन्द्रिय पर्याप्तसंयुक्त बन्ध करनेवाले दोइन्द्रिय पर्याप्त जीवकी भी अपने उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे पल्यके असंख्यातवें भाग या संख्यातवें भाग कम स्थिति होती है। इसी प्रकार चौइन्द्रियपर्याप्तसंयुक्त बन्ध करनेवाले तीन इन्द्रिय पर्याप्त जीवकी भी ऊन स्थिति कहनी चाहिये। इस प्रकार इन दो विकल्पोंसे दोइन्द्रियोंकी उत्कृष्ट स्थितिको कम करके पुनः तीनइन्द्रिय जीवोंमें उत्पन्न होनेके पहले समयमें संख्यातगुणवृद्धि ही होती है,क्योंकि दोइन्द्रियोंके पल्यके असंख्यातवें भाग या संख्यातवें भाग कम पच्चीस सागर स्थितिबन्धसे तेइन्द्रियोंके पल्यके असंख्यातवें या संख्यातवें भाग कम पचाससागर स्थितिबन्ध दूना पाया जाता है ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। पर उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता। जिसका विवरण इस प्रकार है-दोइन्द्रियोंके तीन इन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम पचाससागरप्रमाण स्थितिबन्ध नहीं होता, क्योंकि पर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे अपर्याप्तका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातवाँ भाग कम या समान होता है इसमें विरोध है। तथा संज्ञी पंचेन्द्रियपर्याप्तकोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन पाया जाता है। तथा दोइन्द्रियोंके वीचारस्थानोंसे दुगुने वीचारस्थान कम पचास सागरप्रमाण स्थितिबन्ध भी वहाँ नहीं होता जिससे दूनी स्थिति होवे, क्योंकि अपने अपने पर्याप्तकोंके उत्कृष्ट वीचारस्थानोंके संख्यातबहुभाग कम अपर्याप्तकोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पाया जाता है। शंका-यह किस प्रमाण से जाना जाता है ? समाधान—क्योंकि संज्ञी पंचेन्द्रियों में उस प्रकार पाया जाता है। तथा वेदनाअनुयोगद्वारमें आये हुए वी चारस्थानोंके अल्पबहुत्वसे जाना जाता है। १. आ० प्रतौ असंखे० भागेण णा इति पाठः । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] ट्ठिदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअ २८७ तीइंदिएसु उप्पण्णाणं पढमसमए संखे०भागवड्डी चेव ण संखे०गुणवड्डि त्ति सिद्धं । किं च बेइंदियपज्जत्तो सुहमेइंदियपज्जत्तसंजुत्तं बंधमाणो वेइंदियउकस्सहिदि बंधिदण पडिहग्गो होदूण तेइंदियसंजुत्तमंतोमुहुत्तं बंधिय पुणो कालं काढूण तेइंदिएसुप्पण्णपढमसमए वि संखे०भागवड्डी होदि त्ति संखे०गुणवड्डी चेव होदि त्ति एयंतग्गाहमोसारिय णियमेण संखेजभागवड्डी चेव होदि त्ति घेत्तव्वं । असंखेजभागवडिकम्मंसिया अणंतगुणा । ६५६७. कुदो ? तसरासीए असंखे०भागमेत्त-संखेजभागवड्डिविहत्तीए पेक्खिदूण सव्वजीवरासीए असंखे भागमेत्तअसंखे०भागवड्डिविहत्तियाणमणंतगुणत्तं पडि विरोहाभावादो। असंखे०भागवड्डिविहत्तिया सव्वजीवरासीए असंखे०भागो त्ति कुदो णव्वदे ? दुसमयसंचिदत्तादो। * अवहिदकम्मंसिया असंखेजगुणा । ५६८. कुदो अंतोमुहुत्तसंचिदत्तादो । एई दियरासीए संखेजदिभागत्तादो वा । संखे०भागतं कुदो णव्वदे ? एई दियाणं वड्डि-हाणि-अवडिदद्धाणं समासं कादृण अंतोमुहुत्तमेत्तअवढिदद्धाए ओवट्टिय लद्धसंखे०रूवेहि सव्वजीवरासिम्हि ओवट्टिदाए अवहिद अतः जो दोइन्द्रिय तीनइन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके प्रथम समयमें संख्यातभागवृद्धि हो होती है संख्यातगुणवृद्धि नहीं होती यह सिद्ध हुआ। दूसरे जो दोइन्द्रिय पर्याप्त जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तसंयुक्त बन्ध करता हुआ दोइन्द्रियोंकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर और प्रतिभग्न होकर अन्तमुहूर्त तक तीनइन्द्रियसंयुक्त बन्ध करके पुनः मरकर तेइन्द्रियोंमें उत्पन्न होता है उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें भी संख्यातभागवृद्धि होती है । अतः सं यातगुणवृद्धि ही होती है ऐसे एकान्त आग्रहको छोड़कर नियमसे संख्यातभागवृद्धि होती है ऐसा ग्रहण करना चाहिये। ॐ असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव अनन्तगुणे हैं। ६५६७. क्योंकि त्रसराशिके असंख्यातवें भागप्रमाण संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीवोंको देखते हुए सब जीवराशिके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यातभागवृद्धिवाले जीवोंके अनन्तगुणे होनेमें कोई विरोध नहीं आता है। शंका—असंख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीव सब जीवराशिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-दो समय द्वारा संचित होनेसे जाना जाता है। ॐ अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। ६५६८. क्योंकि इनका संचयकाल अन्तर्मुहुर्त है। या ये एकेन्द्रियजीवराशिके संख्यातवें भागप्रमाण हैं। शंका-ये एकेन्द्रियराशिके सं यातवें भाग हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-एकेन्द्रियोंके वृद्धि, हानि और अवस्थितकालोंका जोड़ करके और उसमें अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अवस्थितकालका भाग देकर जो संख्यात अङ्क लब्ध आवें उनका सब जीव Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती विहत्तियाणं पमाणुप्पत्तीदो।। * असंखेजभागहाणिकम्मंसिया संखेजगुण । $ ५६९. कुदो ? हिदिसंतसमाणबंधगद्धादो हिदिसंतादो हेट्टिमट्टिदिबंधगद्धाए संखेजगुणत्तादो । तं कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव अप्पाबहुगादो। ॐ एवं बारसकसाय-णवणोकसायाणं । ६ ५७० जहा मिच्छत्तस्स बड्डि-हाणि-अवहाणाणमप्पाबहुअपरूवणा कदा तहा बारसकसाय-णवणोकसायाणं कायव्वा । णवरि विगलिदिएसुप्पजमाणएइ दियाणं चरिमअंतोमुहुत्तकालम्मि इत्थि-पुरिसवेदाणं णत्थि बंधो, णqसयवेदो चेव बज्झदि, विगलिंदिएसु णqसयवेदवदिरित्तवेदाणमुदयाभावादो। तेणेइंदियाणं विगलिंदिएसुप्पण्णपढमसमए संखे०गुणवड्डी इत्थि-पुरिसवेदाणं होदि। विगलिंदिएसुप्पण्णपढमसमए वज्झमाणित्थिवेद-पुरिसवेदहिदिबधादो संखेज्जभागहीणहि दिसंतेणुप्पण्णाणं संखे०भागवड्डी वि होदि । विगलिंदियाणं पुण विगलिंदिएसुप्पण्णाणमित्थि-पुरिसवेदाणं संखे० भागवड्डी चेव, संखेगुणवड्डी णत्थि । कारणं जाणिदण वत्तव्यं । एइदियहिदिसंतकम्मेण एईदिएहितो आगंतूण विगलिंदिएसुप्पन्जिय अंतोमुहुत्तकालं ‘णqसयवदं चेव राशिमें भाग देने पर अवस्थितविभक्तिवालोंका प्रमाण प्राप्त होता है। ॐ असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। ६५६९. क्योंकि स्थितिसत्त्वके समान बन्धकालसे स्थितिसत्त्वके नीचेकी स्थितिबन्धका काल संख्यातगुणा पाया जाता है। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-इसी अल्पबहुत्वसूत्रसे जाना जाता है। * इसी प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा प्ररूपणा करनी चाहिये । ६५७०. जिस प्रकार मिथ्यात्वकी वृद्धि, हानि और अवस्थितके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की उसी प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा करनी चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाले एकेन्द्रियोंके अन्तिम अन्तर्मुहूर्तकालमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदका बन्ध नहीं होता एक नपुंसकवेदका ही बन्ध होता है, क्योंकि विकलेन्द्रियोंमें नपुंसकवेदके अतिरिक्त वेदका उदय नहीं पाया जाता। इसलिये जो एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं समयमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी संख्यातगणवृद्धि होती है। तथा विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें बंधनेवाले स्त्रीवेद और पुरुषवेदके स्थितिबन्धसे संख्यातभागहीन स्थितिसत्त्वके साथ उत्पन्न होनेवाले जीवोंके सं यातभागवृद्धि भी होती है। परन्तु जो विकलेन्दिय जीव विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी संख्यातभागवृद्धि ही होती है। संख्यातगुणवृद्धि नहीं होती । कारणका जानकर कथन करना चाहिये। _ शंका—जो जीव एकेन्द्रियके स्थितिसत्कर्मके।साथ। एकेन्द्रियों में से आकर और विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त काल तक नपुंसकवेदका ही बन्ध करता है उसके प्रतिभग्न Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए वड्ढोए अप्पाबहुअ २८९ बंधिय पडिहग्गपढमसमए वि इत्थि-पुरिसवेदाणं संखेज गुणवड्डी सत्थाणे किण्ण वुच्चदे ? ण, एइंदियहिदिसंतं पेक्खिदूण जादसंखे०गुणवड्डीए सत्थाणवड्डित्तविरोहादो । ® सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा असंखेजगुणहाणिकम्मंसिया। ५७१. कुदो ? चरिमुवेल्लणकंडयचरिमफालिं घादिय समऊणुदयावलियाए पवेसिदहिदि संतकम्माणमसंखे गुणहाणिदंसणादो। चरिमुव्वेल्लणकंडयस्स चरिमफाली वि एगवियप्पा ण होदि किंतु असंखेजवियप्पा । तं जहा-सव्वजहण्णुव्वेल्लणकंडयम्मि एगो चरिमफालिवियप्पो। समयुत्तरउव्वेलणकंडयम्मि विदिओ चरिमफालिवियप्पो । एवं विसमयुत्तरादिकमेण णेदव्वं जाव उकस्सफालि त्ति । उव्वेल्लणकंडयजहण्णफालीदो उ कस्सफाली असंखेगुणा । असंखे०गुणत्तं कुदो णव्वदे ? सुत्ताविरुद्धाइरियवयणादो। एदाओ चरिमफालीओ पलिदो० असंखे भागमेत्ताओ पादिय द्विदसव्वजीवे घेत्तूण असंखेगुणहाणिविहत्तिया सव्वत्थोवा त्ति भणिदं । एकम्हि समए फालिट्ठाणमेत्ता असंखे गुणहाणिकम्मंसिया किं लब्भंति आहो ण लब्भंति त्ति वुत्ते णत्थि एत्थ अम्हाण विसिट्ठोवएसो किंतु एककम्हि फालिहाणे एको वा दो वा उक्कस्सेण असंखेजा वा जीवा होनेके प्रथम समयमें भी स्वस्थानमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी संख्यातगुणवृद्धि क्यों नहीं कही ? समाधान-नहीं, क्योंकि यहाँ एकेन्द्रियोंके स्थितिसत्त्वको देखते हुए जो संख्यात गुणवृद्धि हुई उसे स्वस्थानवृद्धि मानने में विरोध आता है। ___* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। ६५७१. क्योंकि अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिका घात करके जिन्होंने एक समयकम उदयावलिमें स्थितिसत्कर्मोको प्रवेश कराया है उनके असंख्यातगुणहानि देखी जाती है। अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालि भी एक प्रकारकी नहीं होती किन्तु असंख्यात प्रकारकी होती है। खुलासा इस प्रकार है-सबसे जघन्य उद्वेलनाकाण्डकमें अन्तिम फालिका एक विकल्प होता है। एक समय अधिक उद्वेलनाकाण्डकमें अन्तिम फालिका दूसरा विकल्प होता है। इसी प्रकार दो समय अधिक आदि क्रमसे उत्कृष्ट फाली तक ले जाना चाहिये। उद्वेलनाकाण्डककी जघन्य फालिसे उत्कृष्ट फालि असंख्यातगुणी है। शंका-असंख्यातगुणी है यह किस प्रमाणसे जाता है ? समाधान-सूत्रके अविरुद्ध आचार्यवचनसे जाना जाता है। पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण इन अन्तिम फालियोंको गिरा कर स्थित हुए सब जीवोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं ऐसा कहा । एक समयमें जितने फालिस्थान हैं उतने असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव क्या प्राप्त होते हैं या नहीं प्राप्त होते हैं ऐसा पूछने पर आचार्य वीरसेन कहते हैं कि इस विषयमें हमें विशिष्ट उपदेश प्राप्त नहीं हैं । किन्तु एक एक फालित्थानमें एक या दो और उत्कृष्ट रूपसे असंख्यात जीव होते हैं १. ता आ० प्रत्योः पदेसिदछिदि इति पाठः । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ होंति त्ति अम्हाण णिच्छयो, सव्वत्थ आवलियाए असंखे ० भागमे त्तगुण गारपरूवणादो । * अवदिकम्मंसिया असंखेज्जगुणा । ५७२. कुदो, सम्मत्तट्ठिदिसंतं पेक्खिदूण समयुत्तरमिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मियमिच्छाद्विणा वेदगसम्मत्ते गहिदे सम्मत्तस्स अवट्ठिदट्ठि दिसंतकम्मसमुप्पत्तीदो । चरमफालिहरणमेतवियप्पेसु दिअसंखेजगुणहाणि कम्मं सिए हिंतो कथमेगविपदिअवदिकम्मं सियाण मसंखे ० गुण तं १ ण एस दोसो, फालिट्ठाणेहिंतो अवद्विदवियप्पाणमसंखे० गुणत्तुवलंभादो । तं जहा — वेदगपाओग्गमिच्छाइड्डिणा सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लमाणेण विसोहीए मिच्छत्तस्स सव्वु कस्स कंडय घादं करेंतेण मिच्छत्तेण सह सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं विदिखंडयघादं काढूण तिन्हं कम्माणं ट्ठिदिसंतकम्मे सरिसत्तमुवगए वेदगसम्मते पडिवण्णे पढमो अवट्टिदवियप्पो । पुव्वद्विदिसंतादो समयुत्तरसम्मत्तट्ठिदिसंतकम्मेण कालदो मिच्छत्तहिदिसमाणेण णिसेगे पडुच्च मिच्छत्तणिसेगेहिंतो रूवूणेण काकतालीयणाएण हिदिखंडयघादसमुप्पण्णेण सह वेदागसम्म गहिदे विदियो अवद्विदवियप्पो । एदम्हादो समयुत्तरसम्मत्तहि दिसंतकम्मेण कालदो मिच्छत्तहि दिसमाणेण णिसेगेहिंतो रूवूणेण खल्लविल्लसंजोगो व ट्ठिदिखंडयवादसमुपणेण वेदगसम्मत्ते गहिदे तदिओ अवद्विदवियप्पो । एवं णेदव्वं जाव अंतोऐसा हमारा निश्चय है, क्योंकि सर्वत्र आयलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार कहा है । * अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । ६५७२. क्योंकि सम्यक्त्वके स्थितिसत्त्वको देखते हुए एक समय अधिक मिथ्यात्वकी स्थितिसत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करने पर सम्यक्त्वके अवस्थितस्थितिसत्कर्मकी उत्पत्ति होती है । शंका — अन्तिम फालिस्थानप्रमाण विकल्पोंमें स्थित असंख्यात गुणहानिकर्म वाले जीवोंसे एक विकल्पमें स्थित अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे कैसे हो सकते हैं ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि फालिस्थानोंसे अवस्थित विकल्प असंख्यातगुण पाये जाते हैं। खुलासा इस प्रकार है- सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेवाला और विशुद्धिके बलसे मिथ्यात्वके सबसे उत्कृष्ट काण्डकघातको करनेवाला कोई वेदक सम्यक्त्वके योग्य मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वके साथ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के स्थितिकाण्डकघातको करके जब तीन कर्मों के स्थितिसत्कर्मको समान करके वेदकसम्यकत्वको प्राप्त होता है तब उसके पहला अवस्थित विकल्प होता है । पूर्व स्थितिसत्त्वसे जिसके सम्यक्त्वका स्थितिसत्कर्म एक समय अधिक है, कालकी अपेक्षा जिसके सम्यकत्वकी स्थिति मिथ्यात्वकी स्थिति के समान है और निषेकों की अपेक्षा जिसके सम्यक्त्वके निषेक मिथ्यात्वके निषेकों से एक कम हैं उसके काकतालीय न्यायानुसार स्थितिकाण्डकघात के साथ वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करने पर दूसरा अवस्थितविकल्प होता है । सम्यक्त्वके इस स्थितिसत्त्वसे जिसके सम्यक्त्वका स्थितिसत्कर्म एक समय अधिक है, कालकी अपेक्षा जिसके सम्यक्त्वकी स्थिति मिथ्यात्व के समान है और निषेकोंकी अपेक्षा जिसके सम्यक्त्वके निषेक मिथ्यात्वके निषेकोंसे एक कम हैं Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअं मुहत्तणसत्तरिसागरोक्मकोडाकोडिमेत्तसम्मत्तहिदि ति । जेणेवमवहिदस्स संखेज्जसागरोवममेत्तवियप्पा पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्तअसंखेजगुणहाणिवियप्पेहितो असंखेजगुणा तेण तत्थ हिदअवहिदकम्मंसिया वि जीवा तत्तो असंखेजगुणा त्ति सिद्धं । जदि वि संखेजसागरोवममेत्ता अवहिदकम्मंसियहिदिवियप्पा लभंति तो वि ण तेसु सव्वेसु हिदिवियप्पेसु वट्टमाणद्धाए अवडिदविहत्तिया जीवा संभवंति, तेसिं पलिदो० असंखे०भागमेत्तपमाणत्तादो। तदो असंखेजगुणहाणिविहत्तियं व अवट्ठिदविहत्तिया जीवा वट्टमाणद्धाए पलिदो० असंखे०भागमेत्तहिदीसु चेव संभवंति ति अवहिदबिहत्तियाणमसंखेजगुणहाणिविहत्तिएहितो असंखे०गुणत्तं ण णव्वदि त्ति ? ण एस दोसो, पलिदो० असंख०भागत्तणेण जदि वि दोहि वि विह त्तिएहि वट्टमाणद्धाए पडिग्गहिदहिदीणं सरिसत्तमत्थि तो वि विसेसे अवलंबिजमाणे ण तेसिं पडिगहिदं हिदिवियप्पाणं सरिसत्तं, थोवविसए बहुविसए च अवहिदजीवाणं सरिसत्तविरोहादो। अथवा मिच्छत्तद्विदीए समाणसम्मत्तहिदिसंतकम्मिया मिच्छादिट्ठिणो बहुवारं होति, विसोहीए मिच्छत्तहिदिकंडए पदमाणे सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तद्विदीणं पि मिच्छत्तहिदिकंडयस्स अंतोपविहाणं घादुवलंभादो । ण चेसो उवलंभो असिद्धो, अक्खवणाए मिच्छत्तहिदिसंतादो 'सम्मत्तउसके खल्वाटके बेलके संयोगके समान स्थितिकाण्डकघातके साथ वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करने पर तीसरा अवस्थितविकल्प होता है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये। चूंकि अवस्थितके इस प्रकार संख्यात सागरप्रमाण विकल्प असंख्यातगुणहानिके पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण विकल्पोंसे असंख्यातगणे होते हैं, इसलिये वहाँ स्थित अवस्थितकर्मवाले जीव भी असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीवोंसे असंख्यातगुणे होते हैं यह सिद्ध हुआ। शंका-यद्यपि अवस्थितकर्मवालोंके संख्यात सागरप्रमाण स्थितिविकल्प प्राप्त होते हैं तो भी वर्तमान समयमें उन सब स्थितिविकल्पोंमें अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव संभव नहीं हैं, क्योंकि वेदकसम्यग्दृष्टि जीव पल्यके असंख्यातवें भागप्तमाण होते हैं। अतः वर्तमान समयमें असंख्यातगुणहानिविभक्तिवालोंके समान अवस्थितविभक्तिवाले जीव पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंमें ही संभव है, अतः अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणहानिविभक्तिवालोंसे असंख्यातगुणे होते हैं यह बात नहीं जानी जाती है ? .. समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि पल्यके असंख्यातवें भागसामान्यकी अपेक्षा यद्यपि दोनों ही विभक्तिवाले जीवोंके वर्तमानकालमें ग्रहण की गई स्थितियोंकी समानता है तो भी विशेषका अवलम्ब करनेपर उन ग्रहण की गई स्थितिविकल्पोंकी समानता नहीं है, क्योंकि स्तोक विषय और बहुत विषयमें अवस्थित जीवोंको समान माननेमें विरोध आता है। अथवा, मिथ्यात्वकी स्थितिके समान सम्यक्त्वकी स्थितिसत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टि जीव बहुत बार होते है, क्योंकि विशुद्धिके बलसे मिथ्यात्वके . स्थितिकाण्डकके पतन होनेपर मिथ्यात्वके स्थितिकाण्डकके अन्तःप्रविष्ट सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितियोंका भी घात पाया जाता है। और इसप्रकारकी उपलब्धि असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि ऐसा नहीं मानने पर क्षपणासे रहित अवस्थामें मिथ्यात्वके स्थितिसत्त्वसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका स्थितिसत्त्व Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला सहिदे कसाय पाहुडे [ द्विदिविहत्त सम्मामिच्छत्ताणं हिदिसंतस्स बहुप्पसंगादो' । ण च एवं सम्मत सम्मामिच्छत्तेसु मिच्छादिट्ठिगुणट्ठाणे मिच्छत्तस्सुवरि समहिदीए संकममाणेसु वि सरिसत्तविरोहादो । तदो मिच्छादिट्ठम्मि मिच्छत्तट्ठिदिकंडए णिवदमाणे णियमा सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं पिट्ठदिकंडयमणियदायामं पददि । सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं ट्ठिदिकंडए णिवदमाणे मिच्छत्तङ्किदिकंडयघादो भयणिजो त्ति घेत्तव्वं । तेण मिच्छत्तुकस्सट्ठिदिसंतकम्मियमिच्छादिद्विणा वेदगसम्मत्ते पडिवण्णे दंसणतियस्स सरिसं ट्ठिदिसंतकम्मं होदि । पुणो डिदिखंडयघादेण विणा तप्पा ओग्गसम्मत्तद्धं गमिय मिच्छत्तं गंतूण डिदिकंडयघादेण विणा अंतोमुहुत्तकालमच्छमाणो जदि सम्मत्तं पडिवञ्जदि तो सम्मत्तस्स अवट्ठिदकम्मंसियो चेव होदि, सम्मत्तणिसेगेहिंतो मिच्छत्तणिसेगाणं रूवाहियत्वभादो । विसोहीए मिच्छत्तट्ठिदिं घादेदूण वेदगसम्मत्तं पडिवञ्जमाणो वि सम्मत-सम्मामिच्छत्ताणमवहिदकम्मं सिओ चेव होदि, मिच्छत्ते घादिज्जमाणे घादिदसम्मत्त सम्मामिच्छत्तट्ठिदित्तादो । एवं सव्वत्थ सम्मत्तं पडिवजमाणस्स अवदिकम्मं सियत्तं परूवेदव्वं जा उव्वेल्लणाए ण पारंभो होदि । उव्वेल्लणारण पारंभे संते वि जाव पढमुव्वेल्लणकंडयं ण पददि ताव तत्थ वेदगसम्मत्तं पडिवजमाणो वि अवदिकम्मं सिओ चैव होदि, वड्डीए कारणाभावादो । उव्वेल्लणकंडए पुण पदिदे अवट्टिदक मंसियत्तस्स ण पाओग्गो, तत्थ वेदगसम्मत्तं पडिवजमाणस्स असंखेजभागवदंसणादो । पुणो अंतोमुहुत्तकालेन मिच्छतस्स भुजगारबंधं काढूण विसोहिमुवणमिय बहुत प्राप्त होता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के मिथ्यात्वमें समान स्थितिरूपसे संक्रमण होनेपर भी समानतामें विरोध आता है । इसलिए मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में मिथ्यात्वके स्थितिकाण्डकोंके पतन होनेपर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अनियत आयामवाले स्थितिकाण्डकोंका पतन नियमसे होता है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के स्थितिकाण्डक के पतन होनेपर मिथ्यात्वका स्थितिकाण्डकघात भजनीय है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए । अतः मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म वाले मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करनेपर तीन दर्शनमोहनीयका स्थितिसत्कर्म समान होता है । पुनः स्थितिकाण्डकघात के बिना तत्प्रायोग्य सम्यक्त्वके कालको गमाकर और मिथ्यात्व में जाकर स्थितिकाण्डकघात के बिना अन्तर्मुहूर्तकालतक रहकर यदि सम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो वह सम्यक्त्वका अवस्थितकर्मवाला ही होता है, क्योंकि यहाँपर सम्यक्त्वके निषेकों से मिथ्यात्वके निषेक एक अधिक पाये जाते हैं । तथा विशुद्धि के बलसे मिथ्यात्व की स्थितिका घात करके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाला जीव भी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अवस्थितकर्मवाला ही होता है, क्योंकि मिथ्यात्वका घात करने पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिका घात होता ही है । इसप्रकार सर्वत्र उद्वेलना के प्रारम्भ होनेतक सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके अवस्थितकर्मपनेका कथन करना चाहिये । उद्वेलनाके प्रारम्भ होनेपर भी जब तक प्रथम उद्वेलनाकाण्डकका पतन नहीं होता है तबतक वहाँ वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाला जीव भी अवस्थितकर्मवाला ही होता है, क्योंकि यहाँ वृद्धिका कोई कारण नहीं है । परन्तु उद्वेलनाकाण्डकके पतन हो जानेपर जीव अवस्थितकर्मपनेके योग्य नहीं रहता है, क्योंकि वहाँ वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके असंख्यात भागवृद्धि २९२ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] विदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअं २९३ सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेहि सह मिच्छत्तस्स द्विदिघादं कादूण वेदगसम्मत्तं पडिवजमाणो अवहिदकम्मंसिओ होदि। एवं णेदव्वं जाव अण्णेगमुवेलणकंडयं ण पददि त्ति । पुणो तम्मि पदिदे असंखे०भागवड्डीए विसओ होदि जाब अंतोमुत्तकालं । पुणो वि मिच्छत्तस्स भुजगारं कादूण विसोहिमुवणमिय तिसु हाणीसु अण्णदरहाणीए डिदिकंडयघादे कदे अवडिदपाओग्गो होदि । एवं णेदव्वं जाव धुवहिदि त्ति । अंतोमुहुत्तेणावस्सं द्विदिखंडयघादो होदि :त्ति कुदो णव्वदे ? एगजीवंतरसुत्तादो। एवमेगो जीवो अंतोमुहुत्तमंतोमुहुत्तमंतरिय णियमेण अवट्टिदपाओग्गो होदि जाव अंतोमुहुत्तकालं । एवं सव्वअट्ठावीससंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणं वत्तव्यं । असंखेजगुणहाणोए पुण पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्तं कालं गंतूण एगवारं चेव पाओग्गो होदि । एवं जेणेगो जीवो बहुवारमवहिदकम्मंसियपाओग्गो होदि जेण च बहुआ तप्पाओग्गजीवा तेण असंखे०गुणहाणिकम्मंसिए हिंतो अवहिदकम्मंसिया असंखेजगुणा । * असंखेजभागवडिकम्मंसिया असंखेजगुणा। $ ५७३. कुदो ? अवहिदविहत्तिपाओग्गएगेगद्विदीए उवरि पलिदो०असंखे०भागमेत्तद्विदीणमसंखे०भागवड्विपाओग्गाणमुवलंभादो। कत्थ वि पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्ताणुवलंमादो का । तं जहा–अवट्ठिदस्स एगं हिदिसंतकम्ममस्सिदण एगो चेव देखी जाती है। पुनः अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा मिथ्यात्वका भुजगारबन्ध करके और विशुद्धिको प्राप्त होकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके साथ मिथ्यात्वका स्थितिघात करके वेदकसम्यक्वको प्राप्त होनेवाला जीव अवस्थितकर्मवाला होता है। इसप्रकार एक दूसरे उद्वेलनाकाण्डकके पतन होने तक कथन करना चाहिये । पुनः उसका पतन होनेपर अन्तर्मुहूर्त कालतक असंख्यातभागवृद्धिका विषय होता है। पुनरपि मिथ्यात्वका भुजगारबन्ध करके और विशुद्धिको प्राप्त होकर तीन हानियोंमेंसे किसी एक हानिके द्वारा स्थितिकाण्डकघातके करनेपर अवस्थितविभक्तिके योग्य होता है। इसप्रकार ध्रुवस्थितिके प्राप्त होनेतक कथन करना चाहिये। शंका-अन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा स्थितिघात अवश्य होता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान—एक जीवके अन्तरका प्रतिपादन करनेवाले सूत्रसे जाना जाता है। इस प्रकार एक जीव अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त कालका अन्तर देकर अन्तर्मुहूर्तकाल तक नियमसे अवस्थितस्थिति विभक्तिके योग्य होता है। इसी प्रकार अट्ठाईस सत्कर्मवाले सभी मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । परन्तु असंख्यातगुणहानिके योग्य तो पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके जाने पर एक बार होता है। इस प्रकार चूंकि एक जीव बहुत बार अवस्थितकर्मके योग्य होता है और चूँकि तत्प्रायोग्य जीव बहुत हैं, अतः असंख्यातगुणहानिकर्मवालोंसे अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। 8 असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। ६५७३. क्योंकि अवस्थितस्थितिविभक्तिके योग्य एक एक स्थितिके ऊपर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियां असंख्यात भागवृद्धिके योग्य पाई जाती हैं। अथवा कहीं पर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण नहीं भी पाई जाती हैं। खुलासा इसप्रकार है-अवस्थितके Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ वियप्पो लब्भदि। सम्मत्तधुवट्ठिदीए उवरिं समयुत्तरमिच्छत्तहिदिसंतकम्मिएण वेदगसम्मत्ते गहिदे सम्मत्तस्स अवद्विदविहत्तिदंसणादो। पुणो एदं धुवहिदिमस्सिदृण अण्णो अवडिदवियप्पो ण लब्भदि । पुव्वद्विदीदो समयुत्तरं मिच्छत्तहिदि बंधिदूण सम्मत्ते गहिदे पढमो असंखेञभागवड्डिवियप्पो होदि । दुसमयुत्तरं बंधिदूण सम्मत्ते गहिदे विदिओ असंखेभागवड्डिवियप्पो । तिसमयुत्तरं बंधिदण सम्मत्ते गहिदे तदिओ असंखे०भागवड्डिवियप्पो। एवं चदुसमयुतरादिकमेण असंखे०भागवड्डिवियप्पा वत्तव्वा जाव णिरुद्ध हिदिं जहण्णपरित्तासंखेज्जेण खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्ता हिदिवियप्पा वड्डिदा ति । एवं पढमअवहिदविहत्तिपाओग्गहिदिमस्सिदण असंखे० भागवडिपाओग्गदिदीणं. परूवणा कदा। एवं संखेजसागरोवममेत्तअवविदपाओग्गद्विदीओ अस्सिदण पुध असंखे०भागवड्डिपाओग्गद्विदीणं परूवणा कायव्वा । जम्हा अवट्टिदविहत्तिविसयादो असंखे०भागवड्डिविसओ असंखे गुणो तम्हा अवट्ठिदविहत्तिएहितो असंखे०भागवड्डिविहत्तिया असंखेजगुणा । * असंखेजगुणवडिकम्मंसिया असंखेजगुणा । ६५७४. कुदो पलिदो असंखे०भागमेत्तकालसंचिदत्तादो। तं जहा–मिच्छत्तधुवहिदिसंतकम्मे जहण्णपरित्तासंखेन्जेण भागे हिदे तत्थ भागलद्धहिदिसंतकम्ममादिं कादण समऊणादिकमेण हेट्ठा ओदारेदव्वं जाव सव्वजहण्णायामचरिमुव्वेल्लणएक स्थितिसत्कर्मका आश्रय लेकर एक स्थितिविकल्प प्राप्त होता है, क्योंकि सम्यक्त्वकी ध्रुवस्थितिके ऊपर एक समय अधिक मिथ्यात्वकी स्थितिसत्कर्मवाले जीवके वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करने पर सम्यक्त्वकी अवस्थितविभक्ति देखी जाती है। पुनः इस ध्रुवस्थितिका आश्रय लेकर अन्य अवस्थितविकल्प नहीं प्राप्त होता है। तथा पूर्वस्थितिसे एक समय अधिक मिथ्यात्वकी स्थितिको बांध कर सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर असंख्यातभागवृद्धिका पहला विकल्प होता है। दो समय अधिक बांधकर सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर असंख्यातभागवृद्धिका दूसरा विकल्प होता है। तीन समय अधिक बांधकर सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर असंख्यातभागवृद्धिका तीसरा विकल्प होता है। इसप्रकार विवक्षित स्थितिको जघन्य परितासंख्यातसे खण्डित करने पर जो एक खण्डप्रमाण स्थितिविकल्प आते हैं उतने विकल्पोंकी वृद्धि होने तक चार समय अधिक आदिके क्रमसे असंख्यातभागवृद्धिके विकल्प कहने चाहिये । इस प्रकार प्रथम अवस्थितविक्तिके योग्य स्थितिका आश्रय लेकर असंख्यातभागवृद्धिके योग्य स्थितियोंका कथन किया। इसीप्रकार संख्यात सागरप्रमाण अवस्थितविभक्तियोंके योग्य स्थितियोंका आश्रय लेकर अलग अलग असंख्यातभागवृद्धियोंके योग्य स्थितियोंका कथन करना चाहिये। चूंकि अवस्थितविभक्तिके विषयसे असंख्यातभागबृद्धिका विषय असंख्यातगुणा है, इसलिये अवस्थितविभक्तिवालोंसे असंख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। * असंख्यातगुणवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। ६५७४. क्योंकि उनका संचय पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा होता है। खुलासा इस प्रकार है-मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिसत्कर्ममें जघन्य परीतासंख्यातका भाग देने पर जो एक भागप्रमाण स्थितिसत्कर्म लब्ध आवे उससे लेकर एक समय कम आदि क्रमसे Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअं २९५ कंडयचरिमफालि त्ति । एदिस्से द्विदीए जो उव्वेल्लणकालो सो पलिदो० असंखे०भागमेत्तो । पलि० असंखे ० भागमेत्तुब्वेल्लणकंडयस्स जदि अंतोमुहुत्तमेत्ता उक्कीरणद्धा लब्भदि तो असंखे० गुणवड्डिपाओग्गपलिदो० संखे० भागमेतद्विदोणं किं लभामोत्त पमाणेण फलगुणि दिच्छाए ओबद्विदाए पलिदो० असंखे ० भागमेत्तुव्वेल्लणकालुवलंभादो । देण कालेण संचिदजीवा वि पलिदो० असंखेभागमेत्ता होंति । चउवीसमहोरत्ताणि अंतरिय जदि असंखे० गुणवड्डिपाओग्गडिदीणमब्भंतरे पविसमाणे जीवा पलिदो ० असंखे ० भागमेत्ता लब्भंति तो पुव्वुत्त उवेव्ल्लणकालस्संतो केत्तिए लभामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओट्टिदाए पलिदो० असंखे० भागमेत्तजीवाणमुवलंभादो | असंखे०भागवडपाओगजीवा पुण अंतोमुहुत्त संचिदा मिच्छत्तधुव हि दिसमाणसम्मत्तधुवट्टिदीदो उवरिमसम्मत्तद्विदीर्ण मिच्छत्तट्ठि दीदो असंखे ० भागहीणाणमंतोमुहुत्तमेत्तकालुवलंभादो । तं पि कुदो णव्वदे ? असंखे० भागहाणिडिदिसंतकम्मे अवदिट्ठदिसंतकम्मे च अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो मिच्छाइट्ठिणो जीवा संखे० भागवड्डि संखे० गुणवड्डि च णियमेण कुणति ति चुण्णिसुत्तोवएसादो । असंखे ० भागवड्डिकालेण वि संचिदजीवा पलिदो० असंखे०भागमेत्ता होंति । चउवीसअहोरत्त मेत्ते पवेसंतरे संते अंतोमुहुत्त कालब्भंत रे सबसे जघन्य आयामवाले अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालितक उतार कर जाना चाहिये । इस स्थितिका जो उद्वेलनाकाल है वह पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण उद्वेलनाकाण्डकका यदि अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उत्कीरणाकाल प्राप्त होता है तो असंख्यातगुणवृद्धि के योग्य पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंके कितने उत्कीरणाकाल प्राप्त होंगे, इस प्रकार फलराशिको इच्छाराशिसे गुणित करके उसे प्रमाणराशिसे भाजित करने पर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण उद्वेलनाकाल प्राप्त होता है । तथा इस कालके द्वारा संचित हुए जीव भी पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होते हैं। चौबीस दिन रातका अन्तर देकर यदि असंख्यातगुणवृद्धि के योग्य स्थितियोंके भीतर प्रवेश करनेपर जीव पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होते हैं तो पूर्वोक्त उद्वेलनाकालके भीतर कितने प्राप्त होंगे इस प्रकार फलराशिसे इच्छाराशिको गुणित करके और उसे प्रमाणराशिसे भाजित करनेपर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव प्राप्त होते हैं । परन्तु असंख्यात भागवृद्धि के योग्य जीव अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा संचित होते हैं, क्योंकि मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिके समान सम्यत्वकी ध्रुवस्थितिसे उपरिम सम्यक्त्वकी स्थितियोंका जो कि मिथ्यात्व की स्थिति से असंख्यातवें भागहीन हैं, काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण पाया जाता है । शंका – यह किस प्रमाण से जाना जाता है ? समाधान—असंख्यातभागहानिस्थितिसत्कर्म और अवस्थितस्थितसत्कर्म में अन्तर्मुहूर्त काळतक रहकर पुनः मिथ्यादृष्टि जीव नियमसे संख्यात भागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिको करते हैं इस प्रकार चूर्णिसूत्र के उपदेश से जाना जाता है । असंख्यात भागवृद्धि के कालके द्वारा भी संचित हुए जीव पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं । प्रवेशके अन्तरकाल के चौबीस दिनरात प्रमाण रहते हुए अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवों का संचय नहीं Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ संचओ णत्थि त्ति णासंकणिजं, सव्वत्थुक्कस्संतरस्स संभवाभावेण अवलि० असंखे ०भागमेत्तंतरेण वि संचयस्सुवलंभादो | ण च चउवीसअहोरत्तमेत्तो चेव अंतरकालो ति णियमो अत्थि, एगसमयमादि काढूण एगुत्तग्वड्डीए गंतॄण उकस्सेण सादिरेगचउवीस अहोरत्तमेत्तंतरस्स परूविदत्तादो | जम्हा असंखे ० भागवड्ढि विहत्तिया अंतोमुहुरा कालसंचिदा तम्हा पलिदो० असंखे ० भागमे तकालसंचिद असंखे० गुणवड्डिविहत्तिया असंखे० ० गुणा त्तिसिद्धं । * संखेज्जगुणवडिकम्मंसिया असंखेज्जगुणा । $ ५७५. कुदो ? पलिदो ० संखे० भागेणूणसंखे ० सागरोवममेत्त धुवट्ठिदीए उवेल्लणकालसंचिदत्तादो तं जहा — धुवट्ठिदीए हेहिमअसंखे० भागो असंखे० गुणडिविसओ उवरिमो भागो सव्वो वि संखेज गुणवड्ढिविसओ, संखे०सागरोवममेाधुवट्ठिदिं बंधिदूण धुव हिदीए अब्भंतरहिदसम्मत्त संतकम्मिएण सम्मत्ते गहिदे संखे० गुणवड्ढिदंसणादो। एदेसिं संखेज्जसागरोवमाणमुव्वेल्लणकालो पलिदो० असंखे० भागमेत्तो । पलिदो ० असंखे ०भागाया मेगुव्वेल्लणकंडयस्स जदि अंतोमुहुत्तमेत्ता उक्कीरणद्धा लब्भदि तो संखे० सागरोवमाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए पलिदो० असंखे० भागमेत्तुब्वेल्लणकालुवलंभादो। एसो कालो असंखे० गुणवडिउव्येण कालादो संखेrगुणो । एदग्हि काले संचिदजीवा असंखे ० गुणवड्ढिकालसंचिदजीवेहिंतो संखेजहोता है यदि कोई ऐसी आशंका करे तो उसकी ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि सर्वत्र उत्कृष्ट अन्तर संभव नहीं होने से आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तरके द्वारा भी पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंका संचय पाया जाता है । और चौबीस दिनरात प्रमाण अन्तर काल होता है ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि एक समयसे लेकर उत्तरोत्तर एक-एक समय बढ़ाते हुए उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात कहा है । चूंकि असंख्यात भागवृद्धि विभक्तिवाले जीव अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा संचित होते हैं, इसलिये पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा संचित हुए असंख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं यह सिद्ध हुआ । * संख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । $ ५७५. क्योंकि इनका संचय पल्यके संख्यातवें भाग कम संख्यात सागरप्रमाण ध्रुवस्थितिके उनका द्वारा होता है । खुलासा इस प्रकार है- ध्रुवस्थितिके नीचेका असंख्यातवां भाग असंख्यात गुणवृद्धिका विषय है । तथा सब उपरिम भाग भी संख्यातगुणवृद्धिका विषय है, क्योंकि संख्यात सागरप्रमाण ध्रुवस्थितिको बांधकर ध्रुवस्थितिके भीतर स्थित हुए सम्यक्त्व सत्कर्मवाले जीवके सम्यक्त्वके ग्रहण करनेपर संख्यातगुणवृद्धि देखी जाती है। इन संख्यात सागरोंका उद्वेलन काल पल्के असंख्यातवें भागप्रमाण है तथा पल्यके असंख्यातवें भाग आयामवाले एक उद्वेलनाकाण्डकका यदि अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उत्कीरणाकाल प्राप्त होता है तो संख्यातसागरका कितना उत्कीरणाकाल प्राप्त होगा इस प्रकार फलराशिसे इच्छाराशिको गुणित करके और उसमें प्रमाणराशिका भाग देने पर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण उद्वेलनाकाल प्राप्त होता है । शंका- यह काल असंख्यातगुणवृद्धि के उद्वेलनाकालसे संख्यातगुणा है । और इस Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअं २९७ गुणा । असंखेज्जगुणवड्डिपाओ गडिदिउध्वेल्ल णकालसंचिदजीवेहिंतो संखे० गुणवड्डिपाओग्गड्डि दिउब्वेल्लणकालसंचिदजोवेसु संखेजगुणेसु संतेसु कथमसंखेअगुणवड्डि वित्तहिंतो संखे गुणवड्ढिविहत्तियाणमसंखेञ्जगुणत्तं ? ण एस दोसो, असंखेज्जगुणवड्डिपाओग्गद्विदिं धरेण द्विदजीवेसु सम्मत्तं पडिवजमाणेहिंतो संखेअगुणवड्डिपाओग्गडिदिं धरेण सम्मत्तं पडिवजमाणाणमसंखेञ्जगुणत्तादो । तं पि कुदो ? सम्मत्तं घेतूण मिच्छतं पडिवज्जिय बहुअं कालं मिच्छत्तेणच्छिदेहिंतो सम्मत्तं गेण्हमाणा सुट्टु थोबा, पणद्वसंसकारत्तादो । अवरे बहुआ, अविणट्टसंसकारत्तादो । एदं कुदो गव्वदे ? एदम्हादो चैव सुत्तादो । जहा कम्मणिञ्जरामोक्खेण आसण्णा कम्मपरमाणू अविणहसं सकारत्तादो कम्मपोग्गलपरियदृब्भंतरे लहुँ कम्मभावेण परिणमंति तहा सम्मत्तादो मिच्छत्तं गदजीवा वि थोवमिच्छत्तद्धाए अच्छिदुण सम्मत्तं पडिवजमाणा बहुआ ति घेत्तव्वं । अथवा सण्णिपंचिंदियमिच्छाइट्टिणो मिच्छत्तं धुवट्ठिदीदो उचरिं ठविदसम्मत्तट्ठिदिसंतकम्मिया एत्थ पहाणा, तेसिं चेव बहुलं सम्मत्तग्गहणसंभवादो । मिच्छत्तधुवट्टिदीदो उवरिमट्ठिदीसु अट्ठावीससंत कम्मियमिच्छादिहीणमच्छणकालो कालमें संचित हुए जीव असंख्यातगुणवृद्धिके काल द्वारा संचित हुए जीवोंसे संख्यातगुणे हैं । इस प्रकार असंख्यातगुणवृद्धिके योग्य स्थितिके उद्वेलनाकालमें संचित हुए जीवोंसे संख्यातगुणवृद्धि के योग्य स्थितिके उद्वेलनाकालमें संचित हुए जीव संख्यातगुणे रहते हुए असंख्यात - गुणवृद्धिविभक्तिवालों से संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे कैसे हो सकते हैं ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि असंख्यातगुणवृद्धिके योग्य स्थिति में रहनेवाले जीवों में से सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जोवोंसे संख्यातगुणवृद्धि के योग्य स्थितिको प्राप्त करके सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । शंका- यह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान—–—सम्यक्त्वको ग्रहण करके जो जीव मिथ्यात्वको प्राप्त हुए हैं वे यदि बहुत काल तक मिथ्यात्व में रहते हैं तो उनमेंसे सम्यक्त्वको ग्रहण करनेवाले जीव बहुत थोड़े होते हैं, क्योंकि उनका संस्कार नष्ट हो गया है । पर दूसरे अर्थात् मिथ्यात्वमें जाकर पुनः अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीव बहुत होते हैं, क्योंकि उनका संस्कार नष्ट नहीं हुआ है । शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान — इसी सूत्र से जाना जाता है। जिस प्रकार कर्मनिर्जराके द्वारा मुक्त होकर समीपवर्ती कर्म परमाणु अविनष्ट संस्कारबाले होनेसे कर्मपुद्गल परिवर्तनके भीतर अतिशीघ्र कर्मरूपसे परिणत होते हैं उसी प्रकार सम्यक्त्वसे मिथ्यात्व में गये हुए जीव भी थोड़े काल तक मिथ्यात्वमें रहकर सम्यक्त्वको प्राप्त होते हुए बहुत होते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । अथवा मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिसे जिनकी सम्यक्त्वकी स्थिति अधिक है ऐसे संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव यहाँ प्रधान हैं, क्योंकि उन्हींका प्रायः कर सम्यक्त्वका ग्रहण करना संभव है । मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिसे उपरिम स्थितियोंमें अट्ठाईस सत्कर्मवाले मिथ्या ३८ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ पलिदो० असंखे०भागमेत्तो। तत्थ एगेगजीवस्स संखेजगुणवहीए बंधवारा असंखेजा । अंतोमुत्तम्मि जदि एगो संखेजगुणवहिवारो लब्भदि तो पलिदो० असंखे०भागमेत्तकालम्मि किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए असंखेजवारुवलंभादो। असंखे०गुणवडीए पुण सव्वे जीवा एगवारं चेव पाओग्गा होंति तेण असंखेजगुणवढिविहत्तिएहितो संखेजगुणवडिविहत्तिया असंखेजगुणा । 8 संखेजभागवडिकम्मंसिया संखेजगुण। ६५७६. अट्ठावीससंतकम्मियमिच्छाइट्ठीसु संखेजवारं संखेजभागवढि कादूण सई मिच्छत्तसंखेजगुणवहिकरणादो। संखेजगुणवर्हि बहुबारं किण्ण कुणंति ? ण, तिव्वसंकिलेसेण पउरं परिणमणसत्तीए अभावादो। सम्मत्तहिदिसंतादो संखेजगुणमिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मिएहितो संखेजभागब्भहियमिच्छत्तहिदिसंतकम्मिया जेण संखेजगुणा तेण संखेजगुणवहिसंतकम्मिएहितो संखेजभागवह्रिसंतकम्मिया संखेजगुणा त्ति सिद्धं । मिच्छत्तधुवट्ठिदिसमाणसम्मत्तहिदिसंतादो हेट्टिमट्ठिदीहि सह सम्मत्तं गेण्हमाणेसु संखे भागवढिविहत्तिएहितो संखेजगुणवढिविहत्तिया बहुआ, असंखेजगुणवडिपाओग्गहिदीणं बहुत्तादो संखेजभागवडिपाओग्गहिदीसु एगजीवस्सच्छणकालं पेक्खिदूण संखेजगुणवहिपाओग्गहिदीसु अच्छणकालस्स बहुत्तादो वा। तेण संखेजदृष्टियोंके रहनेका काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और वहाँ एक एक जीवके संख्यातगुणवृद्धिके बन्धवार असंख्यात हैं। इस प्रकार यदि अन्तर्मुहूर्तकालमें एक संख्यातगुणवृद्धि बार प्राप्त होता है तो पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके भीतर कितने बन्धवार होंगे इस प्रकार फलराशिसे इच्छाराशिको गुणित करके और उसमें प्रमाणराशिका भाग देने पर असंख्यातबार प्राप्त होते हैं। परन्तु सब जीव असंख्यातगुणवृद्धिके योग्य एक बार ही होते हैं, इसलिये असंख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं। * संख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। ६५७६. क्योंकि अट्ठाईस सत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टि जीव संख्यात बार संख्यातभागवृद्धिको करके एक बार मिथ्यात्वकी संख्यातगुणवृद्धिको करते हैं। शंका–संख्यातगुणवृद्धिको बहुत बार क्यों नहीं करते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि तीव्र संक्लेशके कारण प्रचुरमात्रामें परिणमन करनेकी शक्तिका अभाव है। सम्यक्त्वके स्थितिसत्त्वसे संख्यातगुणे मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मवाले जीवोंकी अपेक्षा संख्यातभाग अधिक मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मवाले जीव चूँकि संख्यातगुणे हैं, अतः संख्यातगुणवृद्धिसत्कर्मवाले जीवोंसे संख्यातभागवृद्धिसत्कर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं यह सिद्ध हुआ। शंका-मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिके समान सम्यक्त्वके स्थितिसत्त्वसे नीचेकी स्थितियोंके साथ सम्यक्त्वको ग्रहण करनेवाले जीवोंमें संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव बहुत हैं, क्योंकि असंख्यातगुणवृद्धिके योग्य स्थितियाँ बहुत हैं अथवा संख्याभागवृद्धिके योग्य स्थितियोंमें एक जीवके रहनेके कालको देखते हुए संख्यातगुणवृद्धि के योग्य Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] ट्ठिदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअं २९९ भागवहिविहत्तिएहितो संखे०गुणवहिविहत्तिएहि संखे०गुणेहि होदव्वमिदि १ ण, सण्णीणं मिच्छत्तधुवट्टिदीदो हेडिमसम्मत्तद्विदिसंतकम्मेण सम्मत्तं पडिवजमाणेहितो उवरिमहिदिसंतकम्मेण सम्मत्तं पडिवजमाणाणमसंखे गुणत्तादो। के वि आइरिया एवं भणंति जहा मिच्छत्तधुवहिदिसमाणसम्मत्तहिदिसंतादो उवरिमट्टिदिसंतकम्मे हि सम्मत्तं पडिवजमाणेसु . संखेजगुणवद्विविहत्तिएहिंतो संखेजभागवडिविहतिया संखेजगुणा होंतु णाम किंतु ते अप्पहाणा, अंतोमुहुत्तसंचिदत्तादो। धुवट्टिदीदो हेट्ठिमट्टिदीसु संखेजभागवडिविहत्तिया पहाणा, पलिदो० असंखे०भागसंचिदत्तादो मिच्छत्तेण चिरकालमवहिदत्तादो च । एदेहिंतो संखेजगुणवढिविहत्तिया संखे०गुणा, पुविल्लाणमुव्वेल्लणकालादो एदेसिमुव्वेलणकालस्स संखे०गुणत्तादो मिच्छत्तेण बहुकालमवद्विदत्तादो च । एसो अत्थो जइवसहाइरिएण हिदिसंकमे परूविदो दोण्हं वक्खाणाणमत्थित्तजाणावणडं। ॐ संखेजगुणहाणिकम्मंसिया संखेजगुणा । ६ ५७७. कुदो? सम्मत्तस्स संखेजगुणहाणिकदासेसजीवाणं गणहादो । तं जहा-जेहि सम्मत्तस्स गुणहाणो कदा तेसिं संखे०भागमेत्ता जीवा वेदगसम्मत्तं घेत्तण सम्मत्तहिदीए संखेजगुणवyि संखे०भागवहिं च कुणंति, सव्वेसिं सम्मत्तग्गहणस्थितियोंमें रहनेका काल बहुत है। अतः संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे होने चाहिये ? । समाधान नहीं, क्योंकि संज्ञियोंकी मिथ्यात्व सम्बन्धी ध्रुवस्थितिसे अधस्तन सम्यक्त्वस्थितिसत्कर्मके साथ सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंसे उपरिम स्थितिसत्कर्मके साथ सम्यक्त्व को प्राप्त होनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । कितने ही आचार्य इस प्रकार कहते हैं कि मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिके समान सम्यक्त्वके स्थितिसत्त्वसे उपरिम स्थितिसत्कर्मके साथ सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंमें संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवालोंसे संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीब संख्यातगुणे होवें किन्तु वे अप्रधान हैं, क्योंकि उनके संचित होनेका काल अन्तर्मुहूर्त है। हाँ ध्रुवस्थितिसे अधस्तनस्थितियोंमें संख्यातभागवृद्धि विभक्तिवाले जीव प्रधान हैं, क्योंकि उनके संचित होनेका काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग है और मिथ्यात्वके साथ ये चिरकाल तक अवस्थित रहते हैं। तथा इनसे। संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं, क्योंकि पूर्वके जीवोंके उद्वेलनाकालसे इनका उद्वेलनाकाल संख्यातगुणा है और ये मिथ्यात्वके साथ बहुत काल तक अवस्थित रहते हैं। दोनों व्याख्यानोंके अस्तित्वका ज्ञान करानेके लिये यह अर्थ यतिवृषभ आचायने स्थितिसंक्रममें कहा है। ॐ संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। ६५७७. क्योंकि जिन्होंने सम्यक्त्वकी संख्यातगुणहानि की है ऐसे सब जीवोंका यहाँ प्रहण किया है। खुलासा इस प्रकार है-जिन्होंने सम्यक्त्वको गुगहानि की है उनके संख्यातवेंभागप्रमाण जीव वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करके सम्यक्त्वकी स्थितिकी संख्यातगुणवृद्धि या Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ संभवाभावादो । एदं कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव अप्पाबहुगादो। तेण संखेजभागवड्डिविहत्तिएहितो संखेनगुणहाणिविहत्तिया संखेजगुणा त्ति घेत्तव्यं । * संखेजभागहाणिकम्मंसिया संखेजगुणा । ६ ५७८. कुदो, संखेजवारं संखे०भागहाणि कादूण सइंसंखेजगुणहाणिकरणादो। * अवत्तव्वकम्मसिया असंखेजगुणा । $ ५७९. कुदो ? एगसमएण मिच्छत्तं पडिवजमाणरासिस्स असंखेजभागत्तादो। जदि सम्मत्तादो मिच्छत्तं गंतूण तत्थ थोवकालमवहिदा पउरं सम्मत्तं गेण्हंति तो अवत्तव्यविहत्तिएहि संखेजभागवडिविहत्तिएहिंतो थोवेहि होदव्वं ? ण च एवं, संखेजभागवडिविहत्तिएहितो अवत्तव्यविहत्तिया असंखेजगुणा त्ति सुत्तम्हि उवइत्तादो त्ति ? ण एस दोसो, जेसिं जीवाणं सम्मत्तस्स द्विदिसंतकम्ममत्थि ते अस्सिदण तहा परूविदत्तादो । ते अस्सिदूण परूविदमिदि कुदो णव्वदे ? असंखेजगुणवढिविहत्तिएहितो संखेजगुणवडिविहत्तिया असंखेजगुणा ति सुत्तादो णव्वदे। अण्णहा संखेजगुणा होज असंखेजगुणवड्डिपाओग्गहिदीहिंतो संखेजगुणवडिपाओग्गहिदीणं संखेजगुणत्तादो संख्यातभागवृद्धिको करते हैं, क्योंकि सबका सम्यक्त्वका ग्रहण करना संभव नहीं है । शंका—यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-इसी अल्पबहुत्वसे जाना जाता है। इसलिए संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणहानिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिये । * संख्यातभागहानिकमवाले जीव संख्यातगुणे हैं। $ ५७८. क्योंकि संख्यात बार संख्यातभागहानिको करके जीव एक बार संख्यातगुणहानिको करता है। * अवक्तव्यकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। ___६५७९. क्योंकि एक समयमें मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाली जीवराशिके वह असंख्यातवें भागप्रमाण है। शंका-यदि सम्यक्त्वसे मिथ्यात्वमें जाकर और वहाँ स्तोक काल तक अवस्थित रहकर प्रचुर जीव सम्यक्वको ग्रहण करते हैं तो अवक्तव्यविभक्ति वाले जीव संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीवोंसे थोड़े होने चाहिये । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवालोंसे अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं ऐसा सूत्रमें उपदेश दिया है ? । समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जिन जीवोंके सम्यक्त्वका स्थितिसत्कर्म है उनकी अपेक्षा उस प्रकार कथन किया है। शंका-उनकी अपेक्षा कथन किया है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-असंख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं इस सूत्रसे जाना जाता है। अन्यथा संख्यातगुणे होते, क्योंकि असंख्यातगुणवृद्धिके योग्य स्थितियोंसे संख्यातगुणवृद्धिके योग्य स्थितियाँ संख्यातगुणी हैं और उनमें संचित Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअं ३०१ तत्थ संचिदजीवाणं पि तेण सरूवेण अवहाणादो च । एगसमयम्हि जे मिच्छत्तमुवगया सम्मादिहिणो तेसिमसंखेजदिभागो चेव वेदगसम्मत्तं पडिवजदि । तेसिं पि असंखे०भागो असंखे०गुणवडीए उवसमसम्मत्तं पडिवजदि। सेसा असंखेजभागा सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लिय णिस्संतकम्मिया होंति त्ति एसो भावत्थो। एवं कथं णव्वदे ? पंचहि पयारेहि सम्मत्तं पडिवजमाणजीवेहितो अवत्तव्यविहत्तिया असंखेजगुणा ति सुत्तादो णव्वदे। ण च अवत्तव्यविहत्तिएसु अणादियमिच्छादिट्ठीणं पहाणत्तं, तेसिमट्टत्तरसयपरिमाणत्तादो। एदं कुदो णव्वदे ? णिचणिगोदेहिंतो चउगइणिगोदेसु पविसंताणमणादियमिच्छादिट्ठीणं सम्मत्तं पडिवजमाणाणं चउगइणिगोदेहितो सिज्झमाणाणं च पमाणमुक्कस्सेण अट्टत्तरसदमिदि परमगुरूवदेसादो णव्वदे। तेण सादियमिच्छादिद्विणो तत्थ पहाणा त्ति सिद्धं । ते च एगसमएण मिच्छत्तं गच्छमाणजीवेहिंतो विसेसहीणा, आयाणुसारिवयाभावे सादियमिच्छादिहीणं वोच्छेदप्पसंगादो। अवत्तव्वं कुणमाणजीवाणं कालो जहण्णेण एगसमओ, उक्क० आवलियाए असंखेजदिभागमेत्तो। एदं पमाणं आवलि० असंखे०भागमेत्तसव्वोवक्कमणकंडयाणं जहण्णेण एगसमयमुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तंतराणं परविदं, एवं संचिदत्तादो। अवत्तव्वविहत्तिया असंखेजगुणा त्ति किण्ण वुच्चदे ? ण सम्मत्तं पडिवजमाणाणं सव्वेसि पि एदस्स हुए जीवोंका भी अवस्थान उसी रूप है। ६५८१. एक समयमें जो सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वको प्रात हुए हैं उनका असंख्यातवां भाग ही वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होता है। तथा उनका भी असंख्यातवाँ भाग असंख्यात वद्धिके साथ उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है। तथा शेष अप्संख्यात बहभाग जीव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके निःसत्त्वकर्मवाले होते हैं । यह इसका भावार्थ है। शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान--पांच प्रकारसे सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंसे अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं इस सूत्रसे जाना जाता है। और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवोंमें अनादि मिथ्यादृष्टियोंकी प्रधानता नहीं है, क्योंकि उनका प्रमाण एक सौ आठ है। शंका-यह किस प्रमाण से जाना जाता है ? समाधान नित्यनिगोदसे चतुर्गतिनिगोदमें प्रवेश करनेवाले जीवोंका, सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले अनादि मिथ्यादृष्टि जीवोंका और चतुर्गतिनिगोदसे सिद्ध होनेवाले जीवोंका उत्कृष्ट प्रमाण एक सौ आठ है इस प्रकार परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है, इसलिये सादिमिथ्यादृष्टि जीव वहां प्रधान हैं यह सिद्ध हुआ और वे एक समयमें मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंसे विशेष हीन हैं, क्योंकि आयके अनुसार व्यय नहीं माननेपर सादि मिथ्यादृष्टियोंके विच्छेद का प्रसंग प्राप्त होता है। अवक्तव्यको करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । यह प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण सर्वोपक्रमण काण्डकोंके जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तरोंका कहा है, क्योंकि इसी प्रकार उनका संचय होता है। शंका--अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं, ऐसा क्यों नहीं कहा ? भाग असंख्यातगुण Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहन्ती ३ कालस्स साहारणत्तादो । एदं कुदो णव्वदे ? तिष्णिवड्डि-तिष्णिहाणि - अवट्ठाणाणं कालो जह० एगसमओ, उक्क० आवलियाए असंखे ० भागमे तो ति महाबंधसुत्रोण भणिदत्त दो । ण त आवलि० असंखे० भागमेत्तेण अवत्तव्वस्स संचओ अस्थि, जहण्णुकस्सेण एगसमयसंचिदत्तादो । * असंखेज्जभागहाणिकम्मंसिया असंखेज्जगुणा । ६ ५८०. कुदो, सगअसंखे ० भागेणूणसम्मत्त सम्मामिच्छत्तसंतकम्मियाणं सव्वेसि पि गहणादो । * तारबंधणं सव्वत्थोवा अवत्तव्वकम्मंसिया । $ ५८१. कुदो ? अनंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय मिच्छत्तं पडिवजमाणजीवाणं गहणादो । * संखेञ्जगुणहाणिकम्मंसिया संखेज्जगुणा । $ ५८२. कुदो ? संखेज्जसमयसंचिदत्तादो । अवत्तव्यविहत्तिया एगसमयसंचिदा ए समय संचिदअसंखे० गुणहाणिकम्मंस्सिया सरिसा । दंसणमोहणीयं खवेमाणसंखेज्जजीवेहि ऊत्तस्स अविवक्खाए असंखेज्जगुणहाणिट्ठिदिकंडयाणं पदणवारा जेण संखेज्जसहस्समेत्ता तेण तत्थ संचिदजीवा वि संखे० गुणा त्ति सिद्धं । एगसमएण समाधान- नहीं, क्योंकि सम्यक्त्व को प्राप्त होनेवाले सभी के यह काल साधारण है । शंका - यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान -तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है इस प्रकार महाबन्धके सूत्र में कहा है, इससे जाना जाता है । और आवलिके असंख्यातवें भाग कालके द्वारा अवक्तव्यविभक्तिवालोंका संचय नहीं होता, क्योंकि उनके संचित होनेका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । * असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । ५८०. क्योंकि जितने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वसत्कर्मवाले जीव हैं उनमें से असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंको कम करके शेष सभी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व सत्कर्मवाले जीवोंका ग्रहण किया है । अनन्तानुबन्धीके अवक्तव्यकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं । ६५८१. क्योंकि यहां अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करके मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंका ग्रहण किया है । असंख्यातगुणहानिकर्म वाले जीव संख्यातगुणे हैं । ५८२. क्योंकि उनके संचित होनेका काल संख्यात समय है । अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव एक समयके द्वारा संचित होते हैं जो एक समय में संचित हुए असंख्यातगुणहानिवालोंके समान हैं । दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले संख्यात जीवोंसे रहितपनेकी विवक्षा न करनेपर चूंकि असंख्यातगुणहानिस्थितिकाण्डकोंके पतन होने के बार संख्यात हजार हैं, इसलिये वहां संचित हुए जीव भी संख्यातगुणे हैं यह सिद्ध हुआ । इसका यह भावार्थ है कि एक समय में Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए वड्ढोए अप्पाबहुअं ३०३ जत्तिया जीवा अणताणुबंधिचउक्कविसंजोयणमाढवेंति तत्तिया चेव एगसमयम्मि असंखेजगुणहाणिमवत्तव्वं च कुणंति त्ति एसो भावत्थो । * सेसाणि पदाणि मिच्छत्तभंगो । ९५८३. सेसाणं पदाणमप्पाबहुअं जहा मिच्छत्तस्स परूविदं तहा परूवेदव्वं । तं जहा - असंखेज गुणहाणिविहत्तियाणमुवरि संखे० गुणहाणिकम्मं सिया असंखेजगुणा, जगपदरस्स असंखे ० भागपमाणत्तादो । संखेजभागहाणिकम्मं सिया संखे० गुणा । संजगुणवडक मंसिया असंखे० गुणा । संखे० भागवड्डिकम्मं सिया संखे० गुणा । असंखे० भागवह्निकम्मं सिया गुणा | अदिविहत्तिकम्मंसिया असंखे ० गुणा । असंखे० भागहाणिकम्मंसिया संखे० गुणा । एवं चुण्णिसुत्तत्थपरूवणं काऊण संपहि उच्चारणा बुच्चदे | $ ५८४. अप्पाबहुगाणुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्त- बारसक०-णवणोक० सव्वत्थोवा असंखे ० गुणहाणिकम्मंसिया । संखे०गुणहाणिक मंसिया असंखेञ्जगुणा । संखे० भागहाणिक० संखे० गुणा । संखे० गुणवड्डिक० असंखे० गुणा । संखे ० भागव डिक० संखे० गुणा । असंखे० भागवड्डिक० अनंतगुणा । अवदिक ० असंखे० गुणा । असंखे ० भागहाणिक ० संखे० गुणा । अताणु ० चउक्कस्स सव्वत्थोवा अवत्तव्वकम्मंसिया । असंखे० गुणहाणिक० संखे० गुणा । सेसं जितने जीव अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजनाका प्रारंभ करते हैं उतने ही जीव एक समय संख्यातगुणहानि और अवक्तव्यको करते हैं । * शेष पद मिथ्यात्व के समान हैं । $ ५८३. शेष पदोंका अल्पबहुत्व जिस प्रकार मिथ्यात्व का कहा है उस प्रकार कहना चाहिये । जो इस प्रकार है- असंख्यातगुणहानिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि उनका प्रमाण जगप्रतर के असंख्यातवें भागप्रमाण है । इनसे संख्यात भागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यात भागवृद्धि कर्मवाले जीव अनन्तगुणे हैं । इनसे अवस्थितविभक्तिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इस प्रकार चूर्णिसूत्रों के अर्थका कथन करके अब उच्चारणा का कथन करते हैं। § ५८४. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायों के असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातभागहानिकर्म वाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यात भागवृद्धिकर्मवाले जीव अनन्तगुणे हैं । इनसे अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागहानिकर्म वाले जीव संख्यातगुणे है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा अवक्तव्यकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। शेष भंग मिथ्यात्वके 1 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ मिच्छत्तभंगो। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणिकम्मंसिया। अवट्टिदक० असंखे०गुणा । असंखे०भागवडिक० असंखे०गुणा। असंखे०गुणवडिक० असंखे०गुणा । संखे०गुणवडिक० असंखे०गुणा । संखे०भागवडिक० संखे०गुणा । संखे०गुणहाणिक० संखे०गुणा । संखे०भागहाणिक० संखे०गुणा। अवत्तव्वकम्मंसिया असंखे०गुणा। असंखे०भागहाणिक० असंखे०गुणा । गुणगारो पुण सव्वपदाणं पि आवलि० असंखे०भागो। ६५८५. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० सव्वत्थोवा संखे०गुणहाणिकम्मसिया । संखे०गुणवडिक० विसेसाहिया । संखे०भागवहि-संखे०भागहाणिकम्मंसिया दो वि सरिसा संखे०गुणा । असंखे०भागवडिकम्मंसिया असंखे०गुणा । अवट्ठिदक० असंखे०गुणा। असंखे०भागहाणिक० संखेजगुणा । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमोघं । अणंताणु०चउक्क० सव्वत्थोवा अवत्तव्वकम्मंसिया। असंखेल्गुणहाणिक० संखेजगुणा । संखे०गुणहाणिक० असंखे०गुणा । संखे०गुणवडिक० विसेसाहिया । सेसं मिच्छत्तभंगो । एवं पढमाए । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि संखे०गुणवहि-संखे गुणहाणिकम्मंसिया दो वि सरिसा । $ ५८६. तिरिक्खेसु ओघं । णवरि वावीसपयडीणमसंखे०गुणहाणी णत्थि । समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा असंख्यात्रगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं । अवस्थितकर्मवाले जीव असं यातगुणे हैं । असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। असंख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव असंर यातगुणे हैं। संख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। संख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। अवक्तव्यकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । परन्तु सभी पदोंका गुणकार आवलिके असंत्यातवें भागप्रमाण है। ६५८५. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानि कर्मवाले जीव ये दोनों समान होते हुए भी संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा ओघके समान भंग है । तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्कको अपेक्षा अवक्तव्यकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव विशेष अधिक हैं। शेष भंग मिथ्यात्वके समान है। इस प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिये। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानि कर्मवाले ये दोनों ही प्रकारके जीव समान हैं। ६५८६. तिर्यञ्चोंमें ओघके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें बाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानि नहीं है । पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकका भंग नारकियोंके समान है। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] विदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुरं ३०५ पंचिंदियतिरिक्खतियस्स णेरइयभंगो । एइंदिएहितो पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि उप्पजिय संखे गुणवढि संखे०भागवद्धिं च कुणमाणा जीवा किं घेप्पंति आहो ण घेप्पंति ? जदि ण घेप्पंति तो विदियादिपुढविणेरइएसु व संखे गुणवडिकम्मंसिया संखे०गुणहाणिकम्मंसिएहि सरिसा होति । अह घेप्पंति, संखे०भागहाणिकम्मंसिएहितो संखे०गुणवडिकम्मंसिया ओघे इव असंखेजगुणा होज । ण च मग्गणविणासभएण ण उप्पाइजंति, जेरइएसु वि तहा पसंगादो त्ति । एत्थ परिहारो उच्चदे, ण ताव ण घेप्पंति त्ति अणब्भुवगमादो। ण च संखे गुणहाणिविहत्तिए हितो संखे०भागहाणिविहत्तिएहिंतो च संखे गुणवहिविहत्तियाणमसंखेजगुणत्तं, सत्थाणे संखेगुणहाणिं कुणमाणजीवाणमसंखे०भागमेत्ताणं संखे०भागमेत्ताणं वा एईदिएहिंतो पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि उप्पत्तीदो। तेण कारणेण पंचिंतिरि०तियम्मि संखेन्गुणहाणिविहत्तिएहितो संखे गुणवहिविहत्तिया विसेसाहिया जादा । जदि एवं तो ओघम्मि कथं संखे०भागहाणिविहत्तिए हिंतो संखेगुणवड्डिविहत्तियाणमसंखेगुणत्तं ? ण, एईदिएहिंतो विगलिंदिएसुप्पन्जिय संखेजगुणवहिं कुणमाणजीवे पडुच्च तत्थ असंखे०गुणत्तं पडि विरोहाभावादो। संखे भागहाणि विहत्तिएहितोसंखे भागवड्डिविहत्तियाणं तिरिक्खेसु कधं सरिसत्तं? कथं च शंका-एकेन्द्रियोंमेंसे पंचेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें उत्पन्न होकर संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातभागवृद्धिको करनेवाले जीव यहाँ क्या ग्रहण किये हैं या नहीं ग्रहण किये हैं ? यदि ग्रहण नहीं किये हैं तो द्वितीयादि पृथिवियोंके नारकियोंके समान यहाँ भी संख्यातगणवृद्धिकर्मवाले जीव संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीवोंके समान प्राप्त होते हैं। यदि ग्रहण किये हैं तो संख्यातभागहानिकर्मवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव ओघके समान असंख्यातगुणे हो जायँगे। और मार्गणाके विनाशके भयसे नहीं उत्पन्न कराते हैं सो भी बात नहीं है, क्योंकि नारकियोंमें भी उस प्रकारका प्रसङ्ग प्राप्त होता है। समाधान—आगे इस शंकाका समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि नहीं ग्रहण करते हैं यह पक्ष इष्ट नहीं है, क्योंकि इसे स्वीकार नहीं किया है। और संख्यातगुणहानि विभक्तिवालोंसे तथा संख्यातभागहा नविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं नहीं, क्योंकि स्वस्थानमें संख्यातगुणहानिको करनेवाले जीवोंके असंख्यातवें भागमात्र या संख्यातवें भागमात्र जीव एकेन्द्रियोंमेंसे पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें उत्पन्न होते हैं. इसलिये पंचेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें संख्यातगुणहानिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हुए। ___ शंका-यदि ऐसा है तो ओघमें संख्यातभागहानिविभक्तिवालोंसे संख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे कैसे होते हैं ? । समाधान नहीं, क्योंकि एकेन्द्रियोंमेंसे विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर संख्यातगुणवृद्धिको करनेवाले जीवोंकी अपेक्षा वहाँ असंख्यातगुणे होनेमें कोई विरोध नहीं है। शंका-संख्यातभागहानिविभक्तिवालोंसे संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीवोंकी पंचेन्द्रिय तिर्यश्चोंमें समानता कैसे है ? Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ । जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ण सरिसत्तं ? एइंदिय-विगलिदिए हिंतो पंचिंदियअपजत्तजहण्णहिदिबंधादो संखे०- . भागेणूणट्ठिदिसंतेण पंचिंदिएसुप्पण्णेसु संकिलेसेण विणा जाइबलेणेव संखे०भागवड्डिदंसणादो ण सरिसत्तं । ण, विगलिंदिएहिंतो संखे०भागहाणिहिदिकंडयमाढविय पंचिंदिएसुप्पण्णसंखे०भागहाणिहिदिविहत्तियाणं पुव्विल्लसंखे भागवहिहिदिविहत्तिएहिंतो सरिसत्तादो। एदमत्थपदमण्णत्थ वि वत्तव्वं । : ५८७. पंचिंदियतिरिक्ख-मणुस्सअपज० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० णेरइयभंगो। अणंताणु०चउक० णेरइयमिच्छत्तभंगो। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणिसंतकम्मिया। संखेगुणहाणिसंतक० असंखे०गुणा। संखे०भागहाणिसंतक० असंखे०गुणा । चुण्णिसुत्ते संखेजगुणा त्ति भणिदं, मज्झिमविसोहिवसेण पदमाणत्तादो । उच्चारणाए पुण असंखेजगुणत्तं वुत्तं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि मिच्छत्तादिकम्मेहि सरिसाणि ण होति, भिण्णजादित्तादो। तेण एदेसिं दोण्हं कम्माणं संखेजगुणहाणिविहत्तिएहिंतो संखे०भागहाणिविहत्तिया असंखे०गुणा होति ति उच्चारणाइरिएण लधुवएसो) असंखेजभागहाणिक० असंखे गुणा । एवं पंचिंदियअपजत्ताणं । ६५८८. मणुस्सेसु बावीसं पयडीणं सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणिक० । प्रतिशंका-समानता क्यों नहीं है ? शंकाकार—पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके जघन्य स्थितिबन्धसे संख्यातवें भागकम स्थितिसत्त्वके साथ जो एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं उनके संक्लेश के बिना केवल जातिके बलसे संख्यातभागवृद्धि देखी जाती है, अतः समानता नहीं है ? समाधान-नहीं, क्योंकि विकलेन्द्रियोंमें संख्यातभागहानि स्थितिकाण्डकको आरम्भ करके पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाले संख्यातभागहानिस्थितिविभक्तिवाले जीव पूर्वोक्त संख्यातभागवृद्धिस्थितिविभक्तिवाले जीवोंके समान होते हैं। यह अर्थपद अन्यत्र भी कहना चाहिये। ६५८७. पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका भंग नारकियोंके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग नारकियोंके मिथ्यात्वके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिसत्कर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे संख्यातगुणहानिसत्कर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागहानिसत्कर्गवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। चूर्णिसूत्र में इन्हें संख्यातगुणा कहा है, क्योंकि मध्यम विशुद्धिके कारण उनका पतन हो जाता है। परन्तु उच्चारणामें असख्यातगणा कहा है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व मिथ्यात्व आदि कर्मों के समान नहीं होते, क्योंकि इनकी भिन्न जाति है, अतः इन दोनों कर्मोंकी संख्यातगुणहानिविभक्तिवालोंसे संख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं, उच्चारणासे इस प्रकार उपदेश प्राप्त हुआ। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार पंचेन्द्रियअपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। ६५८८. मनुष्योंमें बाईस प्रकृतियोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए वड्ढोए अप्पाबहुअ ३०७ संखे०गुणहाणिक० असंखे०गुणा। संखे०गुणवडिक० विसेसाहिया। संखे०भागवडिसंखे०भागहाणिक० दो वि सरिसा संखे गुणा। असंखे भागवढिक० असंखे०गुणा । अवद्वि० असंखे०गुणा। असंखे०भागहाणिक० संखेजगुणा। अणंताणु०चउक्क० णेरइयभंगो। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा अवढि० । असंखे०भागववि० संखेगुणा। असंखे०गुणवडि० संखे०गुणा। संखेगुणवडि० संखे गुणा । संखे०भागवढि० संखे०गुणा । अवत्तव्व० संखे गुणा। असंखे गुणहाणि. असंखे०गुणा। संखे०गुणहाणि० असंखे०गुणा। संखे०भागहाणिक असंखे०गुणा, जइवसहुवएसेण संखेजगुणा । असंखे०भागहाणि० असंखेजगुणा । एवं मणुसपजत्त-मणुसिणीणं । णवरि जत्थ असंखे गुणं तत्थ संखेन्गुणं कायव्वं । ५८९. देवाणं णेरइयभंगो । एवं भवणवासिय-वाणवेंतरदेवाणं । जोइसियादि जाव सहस्सारकप्पो त्ति विदियपुढविभंगो । आणदादि जाव णवगेवजा त्ति बावीसं पयडीणं सव्वत्थोवा संखे०भागहाणिकम्मंसिया । असंखे०भागहाणिकम्मंसिया असंखेगुणा । सम्मत्तस्स सव्वत्थोवा असंखेन्गुणहाणिक०। संखे गुणहाणिक० विसेसाहिया । असंखे०भागवढिकम्मंसिया असंखे गुणा । असंखे०गुणवहिक० असंखे०गुणा । थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धि कर्मवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिकर्मवाले ये दोनों परस्पर समान होते हुए भी संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यताभागवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग नारकियोंके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातगुणवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातगुणहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । पर यतिवृषभ आचायके उपदेशानुसार संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि जहाँ पर असंख्यातगुणा है वहाँ पर संख्यातगुणा करना चाहिये। ५८९. देवोंका भंग नारकियोंके समान है। इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें जानना चाहिये । तथा ज्योतिषियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें दूसरी पृथिवीके समान भंग है । आनत कल्पसे लेकर नौवेयकतकके देवोंमें बाईस प्रकृतियोंकी अपेक्षा संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्वको अपेक्षा असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यात Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ संखे०गुणवड्डिक० असंखे०गुणा । संखे०भागवड्डिक० संखे०गुणा । संखे०भागहाणिक० असंखे०गुणा। अवत्तव्व० असंखे०गुणा । असंखे०भागहा०क० असंखे०गुणा । एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि वत्तव्वं । णवरि असंखेगुणहाणि-संखे०गुणहाणिक० बे वि सरिसा कायव्वा। अणंताणु० चउक० सव्वत्थोवा अवत्तव्व०। असंखे०गुणहाणि० संखेगुणा । संखेगुणहाणि० संखे०गुणा । संखे०भागहाणिक संखे०गुणा। असंखे०भागहाणि० असंखे गुणा। अणुद्दिसादि जाव अवराइदो त्ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक. आणदभंगो। सम्मामि० मिच्छत्तभंगो । सम्मत्त० सव्वत्थोवा संखेगुणहाणि । संखे०भागहाणि० असंखे गुणा । असंखे०भागहाणि. असंखे गुणा । अणंताणु०चउक्क० आणदभंगो। णवरि अवत्तव्वं णत्थि । एवं सव्व? । णवरि संखे०गुणं कायव्वं ।। ६ ५९०. इंदियाणुवादेण एइंदिएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० सव्वत्थोवा संखे गुणहाणिकम्मंसिया।संखे०भागहाणिक० संखे गुणा। असंखे०भागवड्डिक० अणंतगुणा । अवट्टिदक० असंखे०गुणा। असंखे०भागहाणिक० संखेजगुणा । सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा असंखेगुणहाणिक० । संखे गुणहाणिक. असंखे० गुणवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका भी कथन करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि और संख्यातगणहानिकर्मवाले इन दोनोंको भी समान करना चाहिये। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यातगुणहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातगुणहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका भंग आनत कल्पके समान है। सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मिथ्यात्वके समान है। सम्यक्त्वकी अपेक्षा संख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग आनत कल्पके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि वहाँ अवक्तव्य पद नहीं है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धिमें सर्वत्र संख्यातगुणा करना चाहिये। ६५९०. इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इनसे अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मबाले जीव संख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यात Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] ट्ठिदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअं ३.९ गुणा। संखे०भागहाणिक० असंखे०गुणा । असंखे०भागहा०क० असंखे०गुणा । एवं वादर-सुहुमेइंदियपज्जत्तापजत्ताणं । विगलिंदिएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक. सव्वत्थोवा संखे गुणहाणिकम्मंसिया। संखे०भागवड्डि-हाणिकम्मंसिया दो वि सरिसा संखे गुणा । असंखेजभागवढिक० असंखेगुणा । अवढि० असंखे गुणा । असंखे०भागहाणि० संखे०गुणा। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणिक० । संखे०गुणहाणिक० असंखे०गुणा। संखे०भागहाणिक० असंखे०गुणा। असंखे०भागहाणिक० असंखे०गुणा। ५९१. पंचिंदिय-पंचिं०पज्जत्तएसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोकसायाणं सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणिक०। संखे गुणहाणिक० असंखे० गुणा। संखे०गुणवड्डिक० विसे०। संखे०भागवड्डि० संखे०भागहाणिक० दो वि तुल्ला संखे०गुणा । असंखे०भागवहिक० असंखे०गुणा। अवहिदहिदिविहत्तियकम्मंसिया असंखे०गुणा। असंखे०भागहाणिक० संखे०गणा। अणंताणु०बंधीणं सव्वत्थोवा अवत्तव्वकम्मंसिया । असंखे गुणहाणिक० संखे० गुणा । सेसपदाणि मिच्छत्तभंगो। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा असंखे गुणहाणिक० । अवहिदक० असंखे० गणा। असंखे०भागवड्डिक० असंखे०गुणा । असंखेगुणवड्डिक० असंखे०गुणा । भागहानिकर्मवाले जव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इसीप्रकार बादर और.सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें जानना चाहिये । विकळेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिकर्मवाले ये दोनों समान होते हुए भी संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे है। इनसे अवस्थितकमवाले जीव असंख्यातगुणे है। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। ५९१. पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धिकमेवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिकर्मवाले ये दोनों तुल्य होते हुए भी संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धि कर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित स्थितिविभक्तिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा अवक्तव्यकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। शेष पदोंका भंग मिथ्यात्वके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ संखे०गुणवड्डिक० असंखे०गुणा। संखे भागवड्डिक० संखे गुणा। संखे गुणहाणिकम्मंसिया संखे०गुणा। संखे०भागहाणिक० असंखे०गुणा। जइवसहाइरियउवएसेण संखे०गुणा । अवत्तब्वकम्मंसिया असंखे गुणा। असंखे०भागहाणिक० असंखे०गुणा। ६५९२. कायाणुवादेण सव्वचउक्काएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोकसाय० सव्वत्थोवा संखे०गुणहाणिक० । संखे०भागहाणिक० संखेगुणा । असंखे० भागवड्डिक० असंखे गुणा। अवट्ठिदक० असंखे०गुणा। असंखे०भागहाणिक० संखेगुणा। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं एइंदियभंगो। एवं बादरवणप्फदि०पत्तेयसरीराणं। सव्ववणप्फदि-सव्वणिगोदाणमेइंदियभंगो। तसकाइय-तसका०पज्जत्तएसु पंचिंदियभंगो । तसअपजत्तएसु पंचिंदियअपजत्तभंगो। ___५९३. जोगाणुबादेण पंचमण-पंचवचिजोगीसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक०सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणिकम्मंसिया। उवरि विदियपुढविभंगो। अथवा सव्वत्थोवा असंखेगणहाणिक० । संखे गुणवड्डिक० असंखे०गुणा। संखे०गुणहाणिक० विसेसाहिया खवगसेढीए संखे०गुणहाणिं कुणमाणजीवेहि । संखे०भागवडिक० संखेगुणा। संखे०भागहाणिक० विसेसा० खवगसेढीए संखे०भाग असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। पर यतिवृषभ आचार्यके उपदेशसे संख्यातगुणे हैं । इनसे अवक्तव्यकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। . ६५९२. कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवी आदि चार कायवालोंके सब भेदोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा संख्यातगणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव असंर यातगुणे हैं । इनसे अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगणे हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग एकेन्द्रियोंके समान है। इसी प्रकार बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंके जानना चाहिये। सब वनस्पतिकायिक और सब निगोद जीवोंका भंग एकेन्द्रियोंके समान है। त्रसकायिक और त्रसकायिकपर्याप्त जीवोंका भंग पंचेन्द्रियोंके समान है । तथा त्रसअपर्याप्तकोंका भंग पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान है। ६५९३. योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिकर्मबाले जीव सबसे थोड़े हैं। इसके आगे दूसरी पृथिवीके समान भंग है। अथवा असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव क्षपकश्रेणीमें मात्र संख्यातगुणहानिको करनेवाले जीवोंकी अपेक्षा विशेष अधिक हैं । इनसे संख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] विदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअं ३११ हाणिं कुणमाणजीवेहि । असंखे०भागवड्डिक० असंखे०गुणा । अवट्ठिदक० असंखे० गुणा । असंखे०भागहा० संखे०गुणा । अणंताणुबंधीणं सव्वत्थोवा अवत्तव्वकम्मंसिया। असंखे गुणहाणिक० संखे०गुणा । संखे०गुणहाणि-संखे गुणवड्डिक० दो वि सरिसा असंखे०गुणा । विसंजोयणाए संखे गुणहाणिकंडयजीवेहि हाणी विसेसाहिया त्ति किण्ण भणिदा ? ण, विदियादिपुढविणेरइएसु विसेसाहियत्तप्पसंगादो। ण च एवमुच्चारणाए, तत्थ तासिं सरिसत्तपरूवणादो। तत्थाहिप्पाओ जाणिय वत्तव्यो । संखे०भागहाणि-संखे०भागवड्डिकम्मंसिया दो वि सरिसा संखे०गुणा। उवरि मिच्छत्तभंगो। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं मूलोधभंगो। ___ ५९४. कायजोगीसु सव्वकम्मसव्वपदाणं मूलोघभंगो। ओरालिकायजोगीसु मणजोगिभंगो। णवरि छब्बीसं पयडीणमसंखे०भागवढि० अणंतगुणा । ओरालियमिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवा संखे०गुणहाणिक० । संखे०भागहाणिक० संखे०गुणा । संखे०गुणवडिक० असंखे०गुणा । संखे०भागवडिक० संख०गुणा । असंख०भागवडिक० अणंतगुणा । अवहि० असंखे०गुणा । असंखे०भागहाणि० संख०गुणा । एदमप्पाबहुअं क्षपकश्रेणीमें मात्र संख्यातभागहानिको करनेवाले जीवोंकी अपेक्षा विशेष अधिक हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा अवक्तव्यकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिकर्मवाले ये दोनों समान होते हुए भी असंख्यातगुणे हैं। शंका–विसंयोजनामें संख्यातगुणहानिकाण्डकवाले जीवोंकी अपेक्षा हानि विशेष अधिक है यह क्यों नहीं कहा ? समाधान नहीं, क्योंकि ऐसा कथन करनेसे दूसरी आदि पृथिवियोंके नारकियोंमें विशेषाधिकपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। और ऐसा उच्चारणामें है नहीं, क्योंकि वहां उनकी समानताका कथन किया है । अतः अभिप्राय समझकर यहां कथन करना चाहिये । इनसे संख्यातभागहानि और संख्यातभागवृद्धिकर्मवाले ये दोनों समान होते हुए भी संख्यातगणे हैं। ऊपर मिथ्यात्वके समान भंग है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व का भंग मूलोघके समान है। ___५९४. काययोगियोंमें सब कर्मों के सब पदोंका भंग मूलोघके समान है । औदारिककाययोगियोंका भंग मनोयोगी जीवोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव अनन्तगुणे हैं । औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इनसे अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । यह अल्पबहुत्व Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ छब्बीसं पयडीणं दट्ठव्वं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणिक० । संखे गुणहाणिक० असंखे०गुणा [ संखे०भागहाणिक० उच्चारणाए अहिप्पारण असंखे०गुणा जइवसहगुरूवएसेण संखेजगुणा) असंखे०भागहाणिक० असंखे०गुणा । ५९५. वउव्वियकायजोगीसु मिच्छत्त-चारसक०-णवणोक० सव्वत्थोवा संखे०गणहाणि-संखेगणवडिकम्मंसिया दो वि सरिसा । संखे०भागवडि-संखे०भागहाणिक दो वि सरिसा संखेगुणा । असंखे०भागवड्ढि० असंखे०गुणा। अवहि० असंखे०गणा। असंखे भागहाणि० संखेगुणा। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं मूलोधभंगो। अणंताणुबंधोणं सव्वत्थोवा अवत्तव्व० । असंखेगणहाणि० संखे०गणा। संखे०गुणवहि० संखेगुणहाणि दो वि असंखे०गुणा । उवरि मिच्छत्तभंगो।। ५९६. वेउव्वियमिस्स० छव्वीसं पयडीणं सव्वत्थोवा संखेन्गुणहाणि । संखे०गुणवड्डि विसेसाहिया। संखे०भागवड्ढि०-संखे भागहाणि० दो वि सरिसा संखे०गुणा । असंखे०भागवड्डि० असंखे०गुणा । अवढि० असंखे०गुणा। असंखे०भागहाणि० संखे०गुणा । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा असंखेगुणहाणिक० । संखे०गुणहाणिक० असंखे०गुणा। संखे भागहाणिक० असंखे०गुणा संखे०गुणा वा । छब्बीस प्रकृतियोंका जानना चाहिए। सम्यवत्व और सम्यग्निथ्यात्वकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव उच्चारणाके अभिप्रायानुसार असंख्यातगुणे हैं। पर यतिवृषभगुरुके उपदेशानुसार संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। ६५६५. वैक्रियिककाययोगियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा संख्यातगुणहानि और संख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले ये दोनों समान होते हुए भी सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिकर्मवाले ये दोनों समान होते हुए भी संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मूलोघके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा अवक्तव्यकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव ये दोनों समान होते हुए भी असंख्यातगुणे हैं। ऊपर मिथ्यात्वके समान भंग है। ६५९६. वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा संख्यातगणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिकर्मवाले ये दोनों समान होते हुए भी संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए वड्ढोए अप्पाबहुअं ३१३ असंखे भागहाणिक० असंखे गुणा । . ५९७. कम्मइय०जोगीसु छब्बीसं पयडीणं सव्वत्थोवा संखे०गुणहाणिक० । संखे०भागहाणिक० संखेगुणा । संखे०गुणवडि० असंखे गुणा। संख०भागवहि० संखेगुणा। असंखे०भागवढि० अणंतगणा । अवढि० असंखे०गुणा। असंखे०भागहा० संखे गुणा । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमोरालियमिस्स भंगो । एवमणाहारीणं । ६५९८. आहार-आहारमिस्स० अट्ठावीसं पयडीणं णत्थि अप्पाबहुअं, एगपदत्तादो । एवमकसाय-जहाक्खाद०-सासणाणं । ६५९९. वेदाणुवादेण इत्थि-पुरिसवेदएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक०सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पंचिंदियभंगो। णउंसय० अठ्ठावीसं पयडीणं मूलोघभंगो । अवगदवेदएसु मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अहकसाय०-इत्थि-णqसयवेदाणं सव्वत्थोवा संखे०भागहाणिकम्मंसिया। असंखे भागहाणिक० संखे०गुणा। एवं सत्तणोकसायतिसंजलणाणं । णवरि संखे०गणहाणी जाणिय वत्तव्वा । लोभसंजलणस्स सव्वत्थोवा संखेन्गुणहाणि। संखे०भागहाणि० संखे०गुणा। असंखे०भागहाणि० संखे०गुणा । कसायाणुवादेण चदुण्हं कसायाणं मूलोधभंगो।। ६००. णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणीसु मिच्छत्त-सोलसक०हैं या संख्यातगणे हैं । इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीवअसंख् यातगणे हैं। ६५९७. कार्मणकाययोगियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धि कर्मवाले जीव असंख्यातगणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव संख्यातगणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इनसे अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग औदारिकमिश्रकाययोगियोंके समान है। इसी प्रकार अनाहारक जीवोंमें जानना चाहिए। ६५९८. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि यहां असंख्यातभागहानिरूप केवल एक पद है। इसी प्रकार अकषायी, यथाख्यातसंयत और सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें जानना चाहिये। ६५९९. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग पंचेन्द्रियोंके समान है। नपुंसकवेदियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंका भंग मूलोघके समान है। अपगतवेदवाले जीवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, आठ कषाय, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अपेक्षा संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार सात नोकषाय और तीन संज्वलनोंकी अपेक्षा जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणहानिका कथन जानकर करना चाहिये। लोभसंज्वलनकी अपेक्षा संख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। कषायमार्गणाके अनुवादसे चारों कषायोंका भंग मूलोघके समान है। ६००. ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें मिथ्यात्व, .सोलह Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ णवणोक० सव्वत्थोवा संखे०गुणहाणिक० । संखे भागहाणिकम्मंसिया संखे०गुणा । संखेगुणवड्डिक० असंखे०गुणा। संखे भागवड्डिक० संखे गुणा। असखे०भागवड्डिक० अणंतगुणा । अवढि० असंखे०गुणा । असंखे०भागहाणि० संखेगुणा । सम्मत्त-सम्मामि० सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणि। संखे गुणहाणिक० असंखे०गुणा । संखे०भागहाणिक० असंखे०गुणा संखे गुणा वा । असंखे०भागहाणि. असंखे०गुणा । एवं मिच्छादि०-असण्णीणं । विहंगणाणीसु छब्बीसं पयडीणं सव्वत्थोवा संखे गुणवड्डि-हाणिकम्मंसिया सरिसा। संखे०भागवड्डि-हाणिक० सरिसा संखे०गुणा । असंखे०भागवहि० असंखे०गुणा । अवट्टि० असंखे०गुणा । असंखे०भागहाणि ० संखे०गुणा । सम्मत्त-सम्मामि० मदिअण्णाणिभंगो । ६०१. आभिणि-सुद-ओहिणाणीसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० सव्वत्थोवा असंखे गुणहाणिक०। संखे गुणहाणिक० असंखेगुणा । संखे०भागहाणिकम्मंसिया संखे०गुणा। असंखे०भागहाणिक० असंखे०गुणा । अणंताणुबंधीणं सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणिक० । संखे०गुणहाणिक० विसंजोयणरासीए पहाणत्ते संखेजगुणा । महल्लहिदीए सह सम्मत्तं घेत्तूण संखे०गुणहाणि करेमाणकषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव अनन्तगुणे हैं । इनसे अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे या संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि और असंज्ञियोंमें जानना चाहिये । विभंगज्ञानियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव समान होते हुए भी सबसे थोड़े हैं । इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव समान होते हुए भी संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव असख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मत्यज्ञानियोंके समान है। ६ ६०१. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकमवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे सख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असख्यातगुणे हैं। अनन्तानुबन्धियोंकी अपेक्षा असख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव विसंयोजना जोवराशिकी प्रधानता रहते हुए संख्यातगणे हैं। पर बड़ी स्थितिके साथ सम्यक्त्वको ग्रहण करके संख्यातगुणहानिको करनेवालो जीवराशिको प्रधानता रहते हुए Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५ गा० २२] द्विदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअं रासीए पहाणत्ते संते संखे गुणा असंखे०गुणा वा, दोण्हमेगदरणिण्णयाभावादो । संखे०भागहाणिक० संखे०गुणा । असंखे०भागहाणिक० असंखे०गुणा । सम्मत्तसम्मामि० सव्वत्थोवा असंखे गुणहाणिक० । संखेजगुणहाणिक० असंखे०गुणा । संखे०भागहाणिक० संखे०गुणा। असंखे०भागहाणिक० असंखेजगुणा । एवमोहिदंस०सम्मादिट्ठीणं । मणपज्जवणाणीसु अट्ठावीसं पयडीणं सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणि । संखे०गुणहाणि० संखे०गुणा । संखे०भागहा० संखे गुणा । असंखे०भागहा० संखे०गुणा । एवं संजद-सामाइय-छेदो०संजदाणं । ६६०२. संजमाणुवादेण परिहार० दसणतिय०-अणंताणु०चउक्क० सव्वत्थोवा असंखे गुणहाणिक । संखे०गुणहाणिक० संखेजगुणा । संखे०भागहा० संखे०गुणा । असंखे०भागहाणिक० संखे०गुणा। एकवीसपयडीणं सव्वत्थोवा संखे०भागहाणि । असंखे०भागहा० संखे०गुणा । सुहुमसांपराइय० लोभसंजल० सव्वत्थोवा संखे०गुणहाणि । संखे०भागहाणिक० संखे०गुणा । असंखे०भागहा० संखेगुणा । सेसपयडीणं णत्थि अप्पाबहुअं। णवरि दंसणतियस्स सव्वत्थोवा संखे०भागहाणि । असंखे०भागहा० संखे गुणा । संजदासंजद० देसणतियस्स सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणिकम्मंसिया । संख्यातगुणे हैं या असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि दोनोंमेंसे किसी एकका निर्णय नहीं किया जा सकता। इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा असंख्यातगणहानिकर्मवाल जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगणहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे है। इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इससे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे है। इसी प्रकार अवधिदर्शनवाले और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । मनःपर्ययज्ञानियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे है। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे है। इसी प्रकार संयत सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासयत जीवोंके जानना चाहिये।। ६०२. सयम मार्गणाके अनुवादसे परिहारविशुद्धिसयतोंमें तीन दर्शनमोहनीय और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा असख्यातगणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े है। इनसे सख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सख्यातगणे हैं । इनसे सख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे है। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव सख्यातगुणे है। इक्कीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा सख्यातभागहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे असख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे है । सूक्ष्मसांपरायिकसंयतोंमें लोभसंज्वलनकी अपेक्षा संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे सख्यातभागहानिकर्मवाले जीव सत्यातगुणे हैं । इनसे असख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे है। यहाँ शेष प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि तीन दर्शनमोहनीयकी अपेक्षा सख्यातभागहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े है। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव सख्यातगुणे है। सयतासयतोंमें तीन दर्शनमोहनीयकी अपेक्षा असख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ___ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ संखे०गुणहाणिक० संखे०गुणा । संखे०भागहा० असंखे०गुणा । असंखे०भागहा० असंखे०गुणा । अणंताणु०चउक० सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणि । संखेगुणहा० संखे०गुणा । संखे०भागहाणि० संखे०गुणा । असंखे०भागहाणि. असंखे०गुणा । एक्कवीसपयडीणं सव्वत्थोवा संखे भागहाणि । असंखे०भागहाणि० असंखेजगुणा । असंजदेसु दंसणतिय-अणंताणुवंधिचउक्काणं मूलोघभंगो। एकवीसपयडीणं पि मूलोघभंगो चेव । णवरि असंखेजगुणहाणो णस्थि ।। ६६०३. दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणीसु अहावीसं पयडीणं तसपजत्तभंगो । अचक्खुदंसणीणं मूलोधभंगो। ६६०४. लेस्साणुवादेण किण्ह-णील-काउलेस्सिय० अठ्ठावीसं पयडीणं मूलोघभंगो । णवरि वावीसं पयडीणमसंखेजगुणहाणी णत्थि । तेउ-पम्मलेस्सिय० मिच्छत्त० सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणि । संखेगुणवडि०-संखे०गुणहाणि० दो वि सरिसा असंखे गुणा । संखे०भागववि-हाणि० दो वि सरिसा संखेन्गुणा । असंखे०भागवढि० असंखेगुणा । अवढि० असंखेगुणा । असंखे०भागहाणि० संखे गुणा । एवमेकवीसपयडीणं । णवरि असंखे०गुणहाणी णत्थि । अणंताणुबंधीणं सव्वत्थोवा सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे है । इनसे सख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असख्यातगणे है । इनसे असख्यातभागहानिकम वाले जीव असंख्यातगुणे है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिकर्म वाले जीव सबसे थोड़े है। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुण है। इनसे सख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे है । इक्कीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा संख्यातभागहानिकर्मवाल जीव सबसे थोड़े है। इनसे असख्यातभागहानिकर्मवाल जीव असंख्यातगुणे है । असयतोंमें तीन दर्शनमोहनीय और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग ओघके समान है। इक्कीस प्रकृतियोंका भी भंग मूलोघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ असख्यातगुणहानि नहीं है। ६६०३. दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवालोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंका भंग त्रसपर्याप्तकोंके समान है। तथा अचक्षुदर्शनवालोंका भंग मूलोघके समान है। ६६०४. लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्ण, नील और कापोतले श्यावाले जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंका भंग मूलोघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ बाईस प्रकृतियोंकी असख्यातगुणहानि नहीं है। पीत और पद्मल श्यावालोंमें मिथ्यात्वकी अपेक्षा असख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे सख्यातगुणवृद्धि और सख्यातगुणहानिकर्मवाले ये दोनों समान होते हुये भी असख्यातगुणे है । इनसे सख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिकर्मवाल ये दोनों समान होते हुए भी संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिकम वाल जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुण हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार इक्कीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ असंख्यातगुणहानि नहीं है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा अवक्तव्यकर्मवाले जीव सबसे थोड़े Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअं अवत्तव्व० । असंखे गुणहा० संखे०गुणा। संखे०गुणवडि-हाणि० असंखे०गुणा । उवरि मिच्छत्तभंगो । सम्मत्त-सम्मामि० मूलोघभंगो। सुक्कलेस्साए मिच्छत्त-बारसक०णवणोक० सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणि । संखे गुणहाणि. असंखे०गुणा । संखे०भागहाणि० संखे गुणा । असंखे०भागहा० असंखे०गुणा । अणंताणुबंधीणं सव्वत्थोवा अवत्तव्य० । असंखे०गुणहाणि० संखे०गुणा । संखे०गुणहाणि. संखे०गुणा । संखे०भागहाणि० संखेजगुणा । असंखे भागहा० असंखे०गुणा। सम्मत्त० सव्वत्थोवा अवविद० । असंखे गुणहाणिक० असंखेगणा। संख०गुणहाणिक० विसेसाहिया । असंखे०भागवड्डि० असंखे०गुणा । असंखे गुणवड्डि० असंखे०गुणा । संखेगुणवढि० असंखेगुणा। संखे०भागवड्डि० संखेजगुणा। संखेजभागहाणि असंखेगुणा । अवत्तव्व० असंखे०गुणा । असंखे०भागहा० असंखे०गुणा। एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि। ६६०५. भवियाणुवादेण भवसिद्धिय० मूलोघभंगो। अभवसि० छब्बीसं पयडीणं सव्वत्थोवा संखे०गुणहाणिक० । संखे०भागहाणिक० संखे०गुणा । संखे०गुणवहिक० असंखे०गुणा। संखे०भागवड्डिक० संखेगुणा । असंखे भागवडिक० हैं। इनसे असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिकर्मवाले ये दोनों समान होते हुए भी असंख्यातगुणे हैं। ऊपर मिथ्यात्वके समान भंग है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मूलोघके समान है। शुक्ललेश्यावालोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा अवक्तव्यकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्वकी अपेक्षा अवस्थितकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धि कर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवक्तव्यकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका भी कथन करना चाहिये । ६६०५. भव्यमार्गणाके अनुवादसे भव्योंका भंग मूलोषके समान है। अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ अणंतगुणा । अवविद० असंखे०गुणा । असंखे०भागहा० संखे०गुणा। ६६०६. सम्मत्ताणुवादेण वेदगसम्माइट्टीसु मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणिक० । संखे०गुणहाणिक० असंखे गुणा । वेदगसम्मत्तं घेत्तूण अंतोमुहुत्तभंतरे संखेजगुणहाणिं कुणमाणअसंखे०जीवग्गहणादो। संखे०भागहाणि० संखेजगुणा । अणंताणु०बंधिचउकं विसंजोएमाणेसु संखे०भागहाणिं कुणमाणजीवा असंखे०गुणा किण्ण होंति ? ण, तेसिं पमाणविसयउवएसाभावेण तदग्गहणादो। असंखे०भागहाणि० असंखे०गुणा । एकवीसं पयडीणं सव्वत्थोवा संखेजगुणहाणिकम्मंसिया। संखे०भागहाणिक० संखेगुणा । असंखे०भागहाणि० असंखे गुणा । अणंताणुबंधीणं सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणि । संखे गुणहाणि० संखे०गुणा असंखे०गुणा वा। संखे०भागहाणि० संखेजगुणा। असंखे०भागहाणि. असंखे०गुणा । खइयसम्मादिट्टीसु एकवीसपयडीणं सव्वत्थोवा असंखेगुणहाणि । संखे०गुणहाणिक संखे-गुणा। संखे०भागहाणि० संखे०गुणा। असंखे०भागहा० असंखेगुणा । उवसमसम्मादिहीसु अट्ठावीसं पयडीणं सव्वत्थोवा संखे०भागहाणिकम्मंसिया। जीव अनन्तगुणे हैं। इनसे अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। ६६०६. सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुण हैं, क्योंकि यहाँ वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करके अन्तर्मुहूर्तके भीतर संख्यातगुणहानिको करनेवाले असंख्यात जीवोंका ग्रहण किया है। इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। शंका-अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेवाले जीवों में सख्यातभागहानिको करनेवाले जीव असख्यातगुणे होते हैं ऐसा क्यों नहीं ग्रहण किया ? समाधान-नहीं, क्योंकि उनका कितना प्रमाण है इस प्रकारका कोई उपदेश नहीं पाया जाता, अतः उनका ग्रहण नहीं किया। ___ इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इक्कीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं या असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अपेक्षा. संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१९ होदि। गा० २२] हिदिविहत्तीए ट्ठिदिसंतकम्मट्ठाणपरूवणा असंखे०भागहा० असंखे०गुणा। अथवा अणंताणुबंधीणं सव्वत्थोवा असंखेगुणहाणि । संखे गुणहाणिक० संखे०गुणा । संखे०भागहाणि० संखे०गुणा । असंखे०भागहाणिक असंखे०गुणा । सम्मामि० सव्वत्थोवा संखे०गुणहाणिकम्मंसि० । संखे०भागहाणिक संखे०गुणा । असंखे०भागहाणि० असंखे०गुणा । एसा परूवणा अट्ठावोसं पयडीणं । सण्णियाणुवादेण सण्णीणं पुरिसवेदभंगो। आहारीणं मूलोघं । एवमप्पाबहुअं समत्तं । __ हिदिसंतकम्मद्वाणाणं परूवणा अप्पाबहुअं च । ६६०७. द्विदिसंतकम्मट्ठाणाणं परूवणं तेसिं चेव अप्पाबहुरं च भणाणि त्ति पइजासुत्तमेदं । समुक्त्तिणा किण्ण उत्ता ? ण, तिस्से एदेसु चेव अंतब्भावादो सामर्थ्यलभ्यत्वाद्वा । * परूवणा। .६६०८. दोसु अहियारेसु अप्पाबहुअं मोत्तूण परूवणं भणिस्सामो त्ति वुत्तं * मिच्छत्तस्स हिदिसंतकम्मट्ठाणाणि उक्कस्सिय द्विदिमादि कादूण जाव एइंदियपाओग्गकम्म जहण्णयं ताव णिरंताराणि अत्थि । असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। अथवा, अनन्तानुबन्धीकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें संख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । यह प्ररूपणा अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जाननी चाहिये । संज्ञीमार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंका भंग पुरुषवेदके समान है । आहारकोंका भंग मूलोघके समान है। इस प्रकार अल्पबहुत्वानुगम समाप्त हुआ। ॐ अब स्थितिसत्कर्मस्थानोंकी प्ररूपणा और अल्पबहुत्व इनका अधिकार है। ६६०७. अब स्थितिसत्कर्म स्थानोंकी प्ररूपणाका और उन्हींके अल्पबहुत्वका कथन करते हैं, इस प्रकार यह प्रतिज्ञासूत्र है। शंका-समुत्कीर्तनाका कथन क्यों नहीं किया ? समाधान नहीं, क्योंकि उसका इन्हीं दो अधिकारोंमें अन्तर्भाव हो जाता है या वह सामर्थ्यगम्य है, इसलिये उसका अलगसे कथन नहीं किया। * पहले प्ररूपणाका अधिकार है। ६६०८. दो अधिकारोंमें अल्पबहुत्वको छोड़कर पहले प्ररूपणाका कथन करते हैं यह इस सूत्रका तात्पर्य है। * मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्म उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर एकेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्म तक निरन्तर है। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ६६०९. एदम्स सुत्तस्स परूवणं कस्मामो । तं जहा–मिच्छत्तस्से त्ति वयणेण सेसपयडिपडिसेहो कदो । द्विदिसंतकम्मट्ठाणाणि त्ति वयणेण पयडि-पदेसाणुभागसंतकम्मट्ठाणाणं पडिसेहो कदो। उक्कस्सियं द्विदिमादि कादूणे त्ति भणिदे सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तहिदिसंतकम्ममादि कादणे त्ति भणिदं होदि । सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तद्विदीओ मिच्छत्तस्सुक्कस्सहिदिबंधो । कधं तस्स बंधपढमसमए वट्टमाणस्स हिदिसंतववएसो ? ण एस दोसो, अत्थित्तविसिट्ठहिदीए द्विदिसते ति गहणादो। तेण मिच्छत्तस्स सत्तवाससहस्समावाहं काऊण सत्तरिसागरोवमकोडाकोडी बंधमाणस्स तमेगं ठाणं । समयूणं बंधमाणस्स विदियहाणं । एवं विसमयूणमादि कादूण उक्कस्समाबाहं धुवं कादूण ओदारेदव्वं जाव समयूणावाहाकंडयमेतद्विदीओ ओदिण्णाओ त्ति । पुणो संपुण्णाबाहाकंडयमेतद्विदीओ ओसरिदूण बंधमाणो उक्कस्सावाहं समयूणं कादूण कम्मक्खंधे णिसिंचदि तमण्णं हाणं । एदेण कमेण जाणिदृण ओदारेदव्वं जाव धुवट्ठिदिसण्णिदअंतोकोडाकोडि त्ति । एदाणि बंधमासिदूण णिरंतरं द्विदिसंतकम्मट्टाणाणि लद्धाणि । णवरि एगेगाबाधासमए झीयमाणे उवरि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागपमाणमेगेगावाधाकंडयमेतद्विदीओ झीयंति । तस्स को पडिभागो ? उक्कस्साबाहासत्तवाससहस्साणं समए सगलिंदियसत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ $ ६०९. अब इस सूत्रका कथन करते हैं। जो इस प्रकार है-सूत्रमें 'मिच्छत्तस्स' इस वचनके द्वारा दूसरी प्रकृतियोंका निषेध किया है। 'हिदिसंतकम्मट्ठाणाणि' इस वचनके द्वारा प्रकृति, प्रदेश और अनुभागसत्कर्मस्थानोंका निषेध किया है। 'उक्कस्सियं ट्ठिदिमादि कादूण' ऐसा कहने पर उसका तात्पर्य 'सत्तर कोड़ाकोड़ीसागरस्थितिसत्कर्मसे लेकर' यह है। शंका-चूँकि मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सत्तर कोड़ाकोड़ीसागर स्थितिप्रमाण होता है, अतः बन्धके प्रथम समयमें उसे स्थितिसत्त्व यह संज्ञा कैसे प्राप्त होती है ? समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अस्तित्वयुक्त स्थितिका स्थितिसत्त्वरूपसे ग्रहण किया है। अतः मिथ्यात्वकी सात हजार वर्षप्रमाण आबाधा करके सत्तर कोडाकोड़ीसागरप्रमाण बाँधनेवाले जीवके वह पहला स्थान होता है। तथा एक समय कम बांधनेवाले जीवके दूसरा स्थान होता है। इस प्रकार दो समय कमसे लेकर तथा उत्कृष्ट आबाधाको ध्रुव करके एक समय कम आबाधाकाण्डकप्रमाण स्थितियोंके कम होने तक घटाते जाना चाहिये । पुनः संपूर्ण आबाधाकाण्डकप्रमाण स्थितियोंको घटाकर बाँधनेवाला जीव उत्कृष्ट आबाधामें एक समय कम करके कम स्कन्धोंका बटवारा करता है। यह अन्य स्थान होता है। इसी क्रमसे जानकर ध्रुवस्थिति संज्ञावाली अन्तःकोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण स्थितिके प्राप्त होने तक घटाते जाना चाहिये । बन्धकी अपेक्षा ये निरन्तर स्थितिसत्कम स्थान प्राप्त हुए। किन्तु इतनी विशेषता है कि आबाधाके एक एक समयके क्षीण होनेपर ऊपरकी पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण एक एक आबाधकाण्डकप्रमाण स्थितियोंका क्षय होता है। इसका अर्थात् पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण आबाघाकाण्डकका प्रतिभाग क्या है ? उत्कृष्ट आबाधाके सात हजार वर्षों के समयोंमें सकलेन्द्रियोंकी सत्तर कोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] विदिविहत्तीए द्विदिसंतकम्मट्ठाणपरूवणा ३२१ समखंडं कादूण दिण्णे तत्थ एगखंडमाषाहाकंडयमिदि भणिदं होदि । एत्थ एगमावाहाकंडयसमयणं जाव झीयदि ताव एगा चेव आवाहा होदि। संपुण्णे झीणे आवाहा समयूणा होदि । णिसेगट्टिदो पुण उभयस्थ समाणा । ६१०, आवाहाए समयूणाए जादाए तम्मि चेव समए णिसेगहिदी वि पुव्वणिसैगहिदिं पेक्खिदण समयूणा होदि त्ति के वि भणंति, तण्ण घडदे,) एगसमयम्मि दोण्हं द्विदीणं अधहिदीए गलणप्पसंगादो। तेणेदं मोत्तूण एवं घेत्तव्वं उकस्सावाधं धुवं कादूण बंधमाणो एगसमएण एगाबाहाकंडयमेतद्विदीओ ओसकि दूण जदि बंधदि तो उक्कस्साबाहाचरिमसमयम्मि पढमणिसेगं णिसिंचिदूण उवरि णिरंतरं कम्मणिसेगं करेदि । दोण्णि ओदरिय बंधमाणो उकस्साबाधादुचरिमसमयप्पहुडि कम्मक्खंधे णिसिंचदि । एवं गंतूण एगवारेण उक्स्सहिदीदो ओसरिदूण अंतोकोडाकोडिद्विदि बंधमाणो अंतोमुहुत्तमावाधं मोत्तूण कम्मणिसेगं करेदि त्ति । संपहि धुवहिदीदो हेट्ठिमअंतोकोडाकोडिमेत्तट्ठाणवियप्पेसु णिरंतरमुप्पाइजमाणेसु जहा सण्णिकासम्मि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं हदसमुप्पत्तियकंडयमस्सिदूण णिरंतरं हाणपरूवणा कदा तथा एत्थ वि मिच्छत्तस्स णिरंतरहाणपरूवणं कादण ओदारेदव्वं जाव सागरोवममेत्तहिदी चेद्विदा त्ति । पुणो एदिस्से हेटा एइंदियहिदि बंधमस्सिदूण समयूण-दुसमयूणादिकमेण बंधाविय ओदारेदव्वं जाव स्थितियोंके समान खण्ड करके देयरूपसे देने पर वहाँ एक खण्डप्रमाण आबाधाकाण्डक प्राप्त होता है यह इसका तात्पर्य है। यहाँ एक समय कम आबाधाकाण्डकप्रमाण स्थितियोंके क्षीण होने तक एक ही आबाधा होती है। तथा एक आबाधाकाण्डकके पूरे क्षीण होने पर आबाधा एक समय कम होती है। परन्तु निषेकस्थिति दोनों जगह समान रहती है। ६६१०. यहाँ कितने ही आचार्य ऐसा कथन करते हैं कि आबाधाके एक समय कम हो जाने पर उसी समयमें निषेकस्थिति भी पहलेकी निषेक स्थितिको अपेक्षा एक समय कम होती है। पर उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा मानने में दो स्थितियोंकी अधःस्थितिगलनाका प्रसङ्ग प्राप्त होता है। अतः इस अर्थको छोड़कर इस प्रकार ग्रहण करना चाहिये कि उत्कृष्ट आबाधाको ध्रुव करके बाँधनेवाला जीव यदि एक समयके द्वारा एक आबाधाकाण्डकप्रमाण स्थितियोंको घटाकर बाँधता है तो उत्कृष्ट आबाधाके अन्तिम समयमें प्रथम निषेकको देकर ऊपर कर्मनिषकोंका निरन्तर बटवारा करता है। तथा दो आबाधाकाण्डक प्रमाण स्थितियोंको घटाकर बाँधनेवाला जीव उत्कृष्ट आबाधाके द्विचरम समयसे लेकर कर्मस्कन्धोंका बटवारा करता है। इस प्रकार जाकर एक साथ उत्कृष्ट स्थितिसे उतरकर अन्तःकोडाकोडी सागरप्रमाण स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव अन्तमुहर्त आबाधा छोड़कर शेष स्थितिप्रमाण कर्मनिषेक करता है। अब ध्रुवस्थितिसे नीचे अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थानविकल्पोंके निरन्तर उत्पन्न करने पर जिस प्रकार सन्निकर्षानुगममें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी हतसमुत्पत्तिककाण्डकका आश्रय लेकर निरन्तर स्थानप्ररूपणा की है उसी प्रकार यहाँ भी मिथ्यात्वके निरन्तर स्थानोंकी प्ररूपणा करके एक सागरप्रमाण स्थितिके शेष रहने तक स्थिति घटाते जाना चाहिए । पुनः इस स्थितिके नीचे एकेन्द्रियके स्थितिबन्धका आश्रय लेकर एक समय कम, दो समय कम आदि क्रमसे बँधाकर पल्यके असंख्यातवें भाग कम एक ४० Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ पलिदो० असंखे०भागेणूणएगसागरोवमं त्ति । एवमेइंदियपाओग्गकम्मं जहण्णयं जाव पावदि ताव णिरंतराणि हाणाणि उप्पाइदाणि जेण तेणेदेसिमत्थित्तं सिद्धं । संपहि दंसणमोहक्खवणाए लब्भमाणट्ठाणपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि । * अण्णाणि पुण दंसणमोहकखवयस्स अणियट्रिपविहस्स जम्हि द्विदिसंतकम्ममेइंदियकम्मस्स हेह्रदो जाद तत्तो पाए अंतमुहुत्तमेत्ताणि . द्विदिसंतकम्महाणाणि लब्भंति ।। ____ ६११. एदाणि पलिदो० असंखे भागेणूणेगसागरोवमपरिहीणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तट्ठाणाणि मोत्तूण अण्णाणि वि हाणाणि लब्भंति । 'अवि'सद्दो कत्थुवलद्धो ? ण, 'पुण'सदस्स 'अवि'सद्दढे वट्टमाणस्स सुत्तत्थस्सुवलंभादो । ताणि कस्स लब्भंति ति पुच्छिदे दंसणमोहक्खवयस्से त्ति भणिदं । अणियट्टिपविट्ठस्से ति णि सो अपुव्वादिपडिसेहफलो। जम्हि डिदिसंतकम्ममेइदियट्टिदिसंतकम्मस्स हेढदो जादं ति जिद्द सो पुणरुत्तद्वाणपडिसेहफलो। अणियट्टिकरणभंतरे सागरोवममेत्तद्विदिसंतकम्मे दंसणमोहणीयस्स सेसे तक्खवओ पलिदो० संखे०भागमेत्तद्विदिकंडयमागाएदि । तं पुण एइदियवीचारहाणेहिंतो असंखेजगुणं, तेसिं पलिदो० असंखे०भागत्तादो । तस्स विदिकंडयस्स जाव दुचरिमफाली पददि ताव पुणरुत्तहाणाणि सागरप्रमाण स्थितिके प्राप्त होने तक स्थिति घटाते जाना चाहिये। चूँकि इस प्रकार एकेन्द्रियके योग्य जघन्य कर्मके प्राप्त होने तक निरन्तर स्थान उत्पन्न किये अतः इनका अस्तित्व सिद्ध होता है। अब दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें प्राप होनेवाले स्थानोंकी प्ररूपणा करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले अनिवृत्तिकरणको प्राप्त हुए जीवके, जहाँ स्थितिसत्कर्म एकेन्द्रियके योग्य कर्मसे नीचे हो जाता है वहाँसे लेकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्य स्थितिसत्कर्म प्राप्त होते हैं। ६६११. पल्यका असंख्यातवां भागकम एक सागर हीन सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थानोंको छोड़कर ये अन्य भी स्थान प्राप्त होते हैं। शंका-यहाँ 'अपि' शब्द कहाँ से प्राप्त हुआ ? समाधान नहीं, क्योंकि सूत्र में 'अपि' शब्दके अर्थमें 'पुण' शब्द विद्यमान है, अतः उसके साथ सूत्रका अर्थ घटित हो जाता है। ये स्थान किसके प्राप्त होते हैं ऐसा पूछनेपर 'दर्शनमोहकी क्षपणा करनेवाले जीवके प्राप्त होते हैं ऐसा कहा। सूत्रमें 'अणियट्टिपविट्ठस्स' इस प्रकारके निर्देशका फल अपूर्वकरण आदि शेषका निषेध करना है। 'जम्हि ट्ठिदिसंतकम्ममेइंदियट्ठिदिसंतकम्मरस हेढदो जादं' इस प्रकारके निर्देशका फल पुनरुक्त स्थानोंके निषेधके लिये किया है। अनिवृत्तिकरणके भीतर दर्शनमोहनीयके एक सागरप्रमाण स्थितिसत्कर्मके शेष रहने पर उसकी क्षपणा करनेवाला जीव पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डक करता है। परन्तु वह स्थितिकाण्डक एकेन्द्रियोंके वीचारस्थानोंसे असंख्यातगुणा होता है, क्योंकि एकेन्द्रियोंके वीचारस्थान पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं । उस स्थितिकाण्डककी द्विचरम फालिके पतन होने तक पुनरुक्त - Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए द्विदिसंतकम्मट्ठाणपरूवणा ३२३ त्ति तेसिं पडिसेहो एदेण परूवदो त्ति भावत्थो । ताए पदिदाए एई दिएसु लट्ठाणेहिंतो असंखे गुणमंतरिय अपुणरुत्तट्ठाणमुप्पजदि तत्तो पाए अंतोमुहुत्तमेत्ताणि हिदिसंतकम्महाणाणि लभंति, अघट्टिदिगलणं मोत्तूण अण्णत्थ तदुवलंभाभावादो । जत्तो पाए एइंदियहिदिसंतकम्मस्स हेह्रदो जादं तत्तो पाए जाव एगा ट्ठिदी दुसमयकाला जादा ति ताव फालिट्ठाणेहि विणा अधढिदिगलणाए सांतरणिरंतरहाणाणि अंतोमुहुत्त मेत्ताणि लब्भंति ति भणिदं होदि । * सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं हिदिसंतकम्मट्ठाणाणि सत्तरिसागरोवम. कोडाकोडीअो अंतोमुहुत्त जाओ । $ ६१२. सम्मत्त-सम्ममिच्छत्ताणं त्ति णिद्दे सो सेसकम्मपडिसेहफलो । एदासिं दोण्हं पयडीणं हिदिसंतकम्मट्ठाणाणि केतियाणि त्ति भणिदे अंतोमुहुत्तणाओ सत्तरिसागरोवमकोडाकोडोओ त्ति भणिदं । संपुण्णाओ किण्ण होंति ? ण, अंतोमुहुत्तूणुकस्सद्विदीए विणा उवरिमट्ठिदिवियप्पेहि सम्मत्ताणहणाभावादो । मिच्छत्तणिरुंभणं कादूण सण्णियासम्मि जधा सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं अंतोमुहुत्तूणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तहिदिहाणाणं परूवणा कदा तधा एत्थ वि कायव्वा, विसेसाभावादो। केवलेण अंतोमुहुत्तेणेव ऊणाओ ण होति त्ति जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदिस्थान होते हैं, अतः 'जम्हि ढिदिसंत ' इत्यादि पदके द्वारा उनका निषेध किया यह इसका भावार्थ है। उस द्विचरमफालिके पतन हो जाने पर एकेन्द्रियोंमें प्राप्त होनेवाले स्थानोंसे असंख्यातगुणा अन्तर देकर अपुनरुक्त स्थान प्राप्त होता है। वहाँ से लेकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितिसत्कर्म प्राप्त होते हैं, क्योंकि अधःस्थितिगलनाको छोड़कर अन्यत्र उनकी प्राप्ति नहीं होती है। इसका तात्पर्य यह है कि जहाँसे एकेन्द्रियस्थितिसत्कर्मके नीचे स्थान हो गये वहाँसे लेकर दो समय कालप्रमाण एक स्थितिके प्राप्त होने तक फालिस्थानोंके बिना अधःस्थितिगलनारूपसे सान्तर-निरन्तर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थान प्राप्त होते हैं। * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मस्थान अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोडाकोड़ीसागरप्रमाण होते हैं । $ ६१२. सूत्रमें 'सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं' इस प्रकारके निर्देशका फल शेष कर्मोंका निषेध करना है। इन दोनों प्रकृतियोंके स्थितिसत्कर्म कितने हैं ऐसा कहने पर अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ीसागर प्रमाण हैं ऐसा कहा है। शंका-पूरे सत्तर कोडाकोड़ीसागरप्रमाण क्यों नहीं होते ? समाधान नहीं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्तकम उत्कृष्ट स्थितिको छोड़कर ऊपरके स्थितिविकल्पोंके साथ सम्यक्त्वका ग्रहण नहीं होता। मिथ्यात्वको रोककर सन्निकर्षानुगममें जिस प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोडाकोड़ीसागरप्रमाण स्थितिस्थानोंका कथन किया उसी प्रकार यहाँ भी करना चाहिये, क्योंकि दोनों कथनोंमें परस्पर कोई विशेषता नहीं है। केवल अन्तर्मुहूर्त ही कम नहीं होते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । [हिदिविहत्ती ३ ॐ अपच्छिमेण उव्वेल्लणकंडएण च ऊणाश्रो एत्तियाणि हाणाणि । ६६१३. अपच्छिमेणुव्बेल्लणहिदिकंडएणूणत्तं किमहं वुच्चदे ? ण, चरिमुव्वेल्लणकंडयचरिमफालीमेत्तहिदीणमक्कमेण पदंताणं ठाणवियप्पाणुवलंभादो। जदि एवं, तो सव्वुव्वेल्लणखंडयाणं चरिमफालीओ अक्कमेण पदिदाओ त्ति सव्वत्थ सांतरट्ठाणुप्पत्ती पावदे ? ण च एवं, पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्तट्ठाणप्पसंगादो ? ण एस दोसो, डिदिखंडयायामाणं णियमाभावेण उव्वेल्लणपारंभट्ठाणम्स णियमाभावेणविसोहिवसेण पदमाणाणं द्विदिखंडयायामाणं णियमाभावेण च णाणाजीवे अस्सिदूण सेसकंडएसु णिरंतरटाणुवलंभादो। ण च चरिमफालीए णिरंतरकमेण लब्भंति, सव्वजीवाणं सव्वजहण्णचरिमफालीए एगपमाणत्तादो। एत्तियाणि हाणाणि सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं होति त्ति घेत्तव्वं । * जहा मिच्छत्तस्स तहा सेसाणं कम्माणं । ६ ६१४. सोलसकसाय-णवणोकसायाणं मिच्छत्तस्सेव ह्राणपरूवणा कायव्वा, विसेसाभावादो। संपहि एवं विहाणेणुप्पण्णहिदिसंतकम्मट्ठाणाणं थोवबहुत्त साहणपदुप्पायणमुत्तरसुत्तं भणदि ® अभवसिद्धियपाओग्गे जेसिं कम्मंसाणमग्गहिदिसंतकम्मं तुल्लं 8 वे स्थान अन्तिम उद्वेलनाकाण्डकसे कम हैं । इतने स्थान होते हैं। ६६१३. शंका-यहाँ अन्तिम उद्वेलना स्थितिकाण्डकसे कम किसलिये कहा ? समाधान नहीं, क्योंकि अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिप्रमाण स्थितियोंका युगपत् पतन होता है, इसलिये वहाँ स्थानविकल्प नहीं प्राप्त होते ।। शंका-यदि एसा है तो सब उद्वेलनाकाण्डकोंकी अन्तिम फालियोंका अक्रमसे पतन होता है, अतः सर्वत्र सान्तर स्थानोंकी उत्पत्ति प्राप्त होती है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थानोंका प्रसंग प्राप्त होता है। समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि स्थितिकाण्डकोंके आयामोंका नियम न होनेसे, उद्वेलनाके प्रारम्भके स्थानका नियम न होनेसे और विशुद्धिके वशसे पतनको प्राप्त होनेवाले स्थितिकाण्डकायामोंका नियम न होनेसे नाना जीवोंकी अपेक्षा शेष काण्डकोंमें निरन्तर स्थान पाये जाते हैं। परन्तु अन्तिम फालिके स्थान निरन्तर क्रमसे नहीं प्राप्त होते, क्योंकि सब जीवोंके सबसे जघन्य अन्तिम फालिका प्रमाण समान है। अतः इतने स्थान सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके होते हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिये। * जिस प्रकार मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मस्थान कहे उसी प्रकार शेष कर्मो के कहने चाहिये। ६६१४. सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी मिथ्यात्वके समान स्थानप्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि उसमें इससे कोई विशेषता नहीं है। अब इस प्रकारसे उत्पन्न हुए स्थिति, सत्कर्मस्थानोंके अल्पबहुत्वकी सिद्धिका प्रतिपादन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * अभव्योंके योग्य जिन कर्मों का उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म समान होता हुआ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५ गा० २२] द्विदिविहत्तीए द्विदिसंतकम्मट्ठाणपरूवणा जहण्णगं द्विदिसंतकम्मं थोवं तेसि कम्मंसाणं हाणाणि बहुआणि । ६१५. अभवसिद्धियपाओग्गे त्ति भणिदे मिच्छादिहिपाओग्गे त्ति घेत्तव्वं । कधं मिच्छादिहिस्स अभव्वववएसो ? ण, उक्कस्सद्विदिअणुभागबंधे पडुच्च समाणतणेण अभव्वववएसं पडि विरोहाभावादो। जेसिं कम्माणमुक्कस्सट्ठिदिसंतकम्मं सरिसं होण जहण्णहिदिसंतकम्मं सरिसं ण होदि किंतु थोवं तेसिं कम्मंसाणं हाणाणि बहुआणि, हेडा बहुआणं हाणाणमुवलंभादो । जेसिं पुण कम्मंसाणं द्विदीओ उवरि बहुआओ हेट्ठा जहण्णहिदी जदि वि थोवा समा वा होदि तो वि तेसिं हाणाणि बहुआणि होति, हेलोवरि लद्धहाणेहि अब्भहियत्तादो । एदस्सुदाहरणं बुच्चदे । तं जहा—एगो एइंदिओ कसायहिदि सागरोवमचत्तारिसत्तभागमेत्तं पलिदो० असंखे०भागेणूणं बंधमाणो अच्छिदो तं बंधावलियादीदं तेण णवणोकसायाणमुवरि संकामिदे कसाय-णोकसायाणं हिदिसंतकम्महाणाणि सरिसाणि होति । पुणो बंधगद्धाभेदेण सत्तणोकसायट्ठिदिबंधहाणाणं बहुत्तं वत्तइस्सामो । तं जहा-एइंदिएसु कसायाणं जहण्णहिदिसंतकम्मे संते पुरिसवेदे हस्स-रदीणं तस्समए जुगवं बंधपारंभो कायव्वो। पारद्धपढमसमयप्पहुडि हस्स-रदिबंधगद्धाए संखे०भागे अदिक्कते पुरिसवेदबंधगद्धा थक्कदि । तत्थक्काणंतरसमए इत्थिवेदबंधगद्धापारंभो कायव्वो। एवं पारभिय पुणो इत्थिवेद-हस्स-रदीओ बंधमाणो जघन्य स्थितिसत्कर्म अल्प होता है उन कर्मों के स्थान बहुत होते हैं। ६१५. सूत्र में 'अभवसिद्धिपाओग्गे' ऐसा कहनेपर उसका अर्थ मिथ्यादृष्टिके योग्य ऐसा लेना चाहिए। शंका-मिथ्यादृष्टिको अभव्य कहना कैसे बनता है ? समाधान नहीं क्योंकि उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा समानता होनेसे मिथ्यादृष्टिको अभव्य कहने में कोई विरोध नहीं आता है। जिन कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म समान होता हुआ जघन्य स्थितिसत्कर्म समान नहीं होता है किन्तु थोड़ा होता है उन कर्मों के स्थान बहुत होते हैं, क्योंकि नीचे बहुत स्थान पाये जाते हैं। पर जिन कर्मोंकी स्थितियाँ ऊपर बहुत होती हैं और नीचे जघन्य स्थिति यद्यपि स्तोक या समान होती है तो भी उनके स्थान बहुत होते हैं। क्योंकि नीचे और ऊपर प्राप्त हुए स्थानोंकी अपेक्षा वे अधिक हो जाते हैं। अब इसका उदाहरण कहते हैं। जो इसप्रकार है-कोई एकेन्द्रिय जीव कषायकी स्थितिको एक सागरके सात भागोंमेंसे पल्यका असंख्यातवाँ भागकम चार भागप्रमाण बाँधकर स्थित है। उसके बन्धावलिसे रहित उस स्थितिके नौ नोकषायोंके ऊपर संक्रान्त करनेपर कषाय और नोकषायोंके स्थितिसत्कर्म समान होते हैं। अब बन्धकालके भेदसे सात नोकषायोंके स्थितिबन्धस्थानोंके बहुत्वको बतलाते हैं। जो इसप्रकार है-एकेन्द्रियोंमें कषायोंकी जघन्य स्थितिसत्कर्मके रहते हुए पुरुषवेद और हास्य रतिके बन्धका प्रारम्भ उसी समय एक साथ करना चाहिए। पुनः प्रारम्भ किये गये पहले समयसे लेकर हास्य और रतिके बन्धकालके संख्यातवें भागके व्यतीत हो जानेपर पुरुषवेदका बन्धकाल समाप्त होता है। पुनः पुरुषवेदके बन्धकालके समाप्त होनेके अनन्तर समयमें स्त्रीवेदके बन्धकालका प्रारम्भ करना चाहिये । इसप्रकार प्रारम्भ करके पुनः स्त्रीवेद और हास्य-रतिका बन्ध करता हुआ वह जीव पूर्वकालसे Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૨૬ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ पुविल्लद्धाणादो संखे०गुणमद्धाणं गच्छदि । एवं गंतूण पुणो इत्थिवेदबंधो थक्कदि । तत्थक्काणंतरसमए णqसयवेदबंधस्स पारंभो। तदो णqसयवेदेण सह हस्स-रदीओ पुव्वागदंतोमुहुत्तादो संखेजगुणमंतोमुहुत्तं बंधदि । तदो हस्स-रदीणं पि बंधगद्धा थक्कदि। पुणो अरदि-सोगाणं बंधपारंभो होदि । एवं होदूण णवंसयवेदेण सह अरदि-सोगे बंधमाणो हेट्ठिमअद्धाणादो संखे०गुणमद्धाणमुवरि गंतूण दोण्हं पि बंधगद्धाओ जुगवं समप्पंति । तेण सव्वत्थोवा पुरिस०बंधगद्धा २ । इत्थि०बंधगद्धा संखे०गुणा ८ । हस्स-रदिबंधगद्धा संखेगुणा ३२ । अरदि-सोगबंधगद्धा संखे०गुणा १२८ । णस०बंधगद्धा विसेसाहिया १५० । केत्तियमेत्तेण ? हस्स-रदिबंधगद्धाए संखेजाभागमेत्तेण । एवं जेण कारणेण सत्तणोकसायट्ठिदिबंधगद्धाओ विसरिसत्तेण द्विदाओ तेणेदासिं हिदिवंधट्टाणाणि सरिसाणि ण होति त्ति घेत्तव्वं । * इमाणि अएणाणि अप्पाबहुअस्स साहणाणि कायव्वाणि । ६६१६. पुव्वमेकेण पयारेण अप्पाबहुअसाहणं काऊण संपहि अण्णेण पयारेण तस्स साहणाणि भणामि त्ति सिस्ससंबोहणा एदेण कदा । 8 तं जहा-सव्वत्थोवा चरित्तमोहणीयक्खवयस्स अणियट्टिद्धा। ६१७. उवरि भण्णमाणअद्धाहिंतो एसा चरित्तमोहणीयक्खवयस्स संख्यातगुणे कालतक बन्ध करता जाता है। इसप्रकार जाकर पुनः स्त्रीवेदका बन्ध समाप्त होता है। पुनः स्त्रीवेदके बन्धके समाप्त होनेके अनन्तर समयमें नपुंसकवेदके बन्धका प्रारम्भ करता है। तदनन्तर नपुंसकवेदके साथ हास्य और रतिको पहलेसे आये हुए अन्तर्मुहूर्तसे संख्यातगुणे अन्तर्मुहूर्तकालतक बांधता है। तदनन्तर हास्य और रतिका भी बन्धकाल समाप्त होता है। पुनः अरति और शोकका बन्ध प्रारम्भ होकर नपुंसकवेदके साथ अरति और शोकका बन्ध करता हुआ नीचेके कालसे संख्यातगुणा काल ऊपर जाकर दोनोंके ही बन्धकालोंको एक साथ समाप्त करता है। अतः पुरुषवेदका बन्धकाल सबसे थोड़ा २ है। स्त्रीवेदका बन्धकाल संख्यातगुणा २४४%3D८ है। हास्य और रतिका बन्धकाल संख्यातगुणा ८४४=३२ है। अरति और शोकका बन्धकाल संख्यातगुणा ३२४४% १२८ है। नपुंसकवेदका बन्धकाल विशेष अधिक १२८+ २२=१५० है। विशेषका प्रमाण क्या है। हास्य और रतिके बन्धकालका संख्यात बहभाग विशेषका प्रमाण है १३२-(२+८)(३२ - १०)=२२ । इस प्रकार चूँकि सात नोकषायोंके स्थितिबन्धकाल विसदृशरूपसे स्थित हैं इसलिए इनके स्थितिबन्धस्थान समान नहीं होते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये। 8 अब अल्पबहुत्वके साधनके ये अन्य प्रकार करने चाहिए। ३६१६. पहले एक प्रकारसे अल्पबहुस्वकी सिद्धि की है अब अन्य प्रकारसे उसकी सिद्धिका कथन करते हैं । इस प्रकार इस सूत्रके द्वारा शिष्यको संबोधन किया है। अब उन्हीं अन्य प्रकारोंको बतलाते हैं-चारित्रमोहकी क्षपणा करनेवाले जीवके अनिवृत्तिकाल सबसे थोड़ा है। ६६१७. आगे कहनेवाले कालोंसे यह चारित्रमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके अनि Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] विदिविहत्तीए द्विदिसंतकम्मट्ठाणपरूवणा ३२७ अणियट्टिकरणद्धा थोवा त्ति दट्ठव्वा । * अपुव्वकरणद्धा संखेज गुणा । ६ ६१८. चारित्तमोहणीयक्खवयस्से त्ति पुव्वसुत्तादो अणुवट्टदे, तेण चारित्तमोहणीयक्खवयस्स अपुव्वकरणद्धा तस्सेव अणियट्टिकरणद्धादो संखेजगुणा त्ति सुत्तत्थो वत्तव्यो । पुव्विल्लअणियट्टिसद्धो किण्ण करणपरो कदो ? ण, एत्थतणकरणसहस्स सीहावलोयणेण तत्थावट्ठाणादो। * चारित्तमोहणीयउवसामयस्स अणियट्टिद्धा संखेज गुणा । ६६१९. चारित्तमोहक्खवयस्स वुदासहं चारित्तमोहउवसामयस्से त्ति णिद्देसो कओ । गुणगारपमाणं सव्वत्थ तप्पाओग्गाणि संखेजरूवाणि । सेसं सुगमं । 8 अपुव्वकरणद्धा संखेजगुणा । ६२०. चारित्त मोहउवसामयस्से त्ति पुव्वसुत्तादो अणुवट्टदे । तेण चारित्तमोहउवसामयस्स अपव्वकरणद्धा तस्सेव अणियट्टिकरणद्धादो संखे०गुणा ति सुत्तत्थो वत्तव्यो । एवं वारसक०-णवणोकसायाणं खवगसेढिमस्सिदृण लब्भमाणट्ठाणाणं साहणं परूविय संपहि दंसणमोहणीयतियस्स तक्खवणाए लब्भमाणहिदिसंतट्ठाणाणं साहणट्ठवृत्तिकरणका काल थोड़ा है ऐसा यहाँ जानना चाहिये । 3 इससे अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है। ६६१८. 'चारित्रमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके' इस पदकी पूर्व सूत्रसे अनुवृत्ति होती है । अतः चारित्रमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके अपूर्वकरणको काल उसीके अनिवृत्तिकरणके कालसे संख्यातगुणा है, इस प्रकार सूत्रका अर्थ कहना चाहिये। शंका-पूर्व सूत्रमें अनिवृत्ति शब्दके आगे करण शब्द क्यों नहीं जोड़ा। समाधान-नहीं, क्योंकि इस सूत्रमें विद्यमान करण शब्द सिंहावलोकन न्यायसे पूर्वसूत्रमें रहता है। ® इससे चारित्रमोहनीयकी उपशमना करनेवाले जोवके अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणा है। ६६१९. पूर्वसूत्र से अनुवृत्तिको प्राप्त होनेवाले 'चारित्रमोहक्खवयस्स' इसके निराकरण करनेके लिये 'चारित्तमोहउवसामयस्स' इस पदका निर्देश किया । गुणकारका प्रमाण सर्वत्र उनके योग्य संख्यात अङ्क जानना चाहिये । शेष कथन सुगम है। 8 इससे अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है । ६ ६२०. इस सूत्र में 'चारित्तमोहउवसामयस्स' इस पदकी पूर्व सूत्र से अनुवृत्ति होती है। अतः चारित्रमोहकी उपशमना करनेवाले जीवके अपूर्वकरणका काल उसीके अनिवृत्तिकरणके कालसे संख्यातगुणा है ऐसा सूत्रका अर्थ करना चाहिये । इस प्रकार क्षपकश्रेणिकी अपेक्षा बारह कषाय और नौ नोकषायोंके प्राप्त होनेवाले स्थानोंकी सिद्धिका कथन करके तीन दर्शनमोहनीयको अपेक्षा उनकी क्षपणामें प्राप्त होनेवाले स्थितिसत्त्वस्थानोंकी सिद्धिके लिये Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ मुत्तरसुत्तं भणदि 8 दसणमोहणीयक्खवयस्स अणियट्टिअद्धा संखेजगुणा । ६६२१. चारित्तमोहउवसामयस्स अपव्वकरणद्धादो दंसणमोहक्खवयस्स अणियट्टिअद्धा संखेगुणा। को गुणगारो ? तप्पाओग्गसंखेजरूवाणि । कुदो, साभावियादो। 8 अपुवकरणद्धा संखेजगुणा । ६ ६२२. दंसणमोहक्खवयस्से ति पुवसुत्तादो अणुवट्टदे। तेण दंसणमोहक्खवयस्स अणियट्टिअद्धादो तस्सेव अपुव्वकरणद्धा संखेजगुणा त्ति वत्तव्वं । संपहि अणंताणुबंधिचउक्कस्स हिदिबंधट्ठाणाणं साहणपरूवणहमुत्तरसुत्तं भणदि * अणंताणुबंधीणं विसंजोएंतस्स अणियटिश्रद्धा संखेजगुणा। ६२३. एत्थ करणसद्दो पुव्वुत्तरसुत्तेहिंतो अणुवट्टावेदव्वो, अण्णहा अभिहेयविसयबोहाणुप्पत्तीए । सेसं सुगमं । * अपुवकरणद्धा सखेजगुणा। ६६२४. अणंताणुबंधोणं विसंजोएंतस्से त्ति अणुवट्टदे । तेण तस्स अणियट्टिअद्धादो तस्सेव अपुव्वकरणद्धा संखेजगुणा त्ति वत्तव्वं । जदि वि अपुव्वहिदिसंतवाणाणं आगेका सूत्र कहते हैं __ दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणा है। ___६२१. चारित्रमोहकी उपशमना करनेवाले जीवके अपूर्वकरणके कालसे दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणा है। गुणकारका प्रमाण क्या है ? उसके योग्य संख्यात अङ्क गुणकारका प्रमाण है, क्योंकि ऐसा स्वभाव है। इससे अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है। ६६२२. इस सूत्रमें 'दंसणमोहक्खवयस्स' इस पदकी पूर्व सूत्रसे अनुवृत्ति होती है। अतः दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके अनिवृत्तिकरणके कालसे उसीके अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है ऐसा कहना चाहिये । अब अनन्तानुबन्धीचतुष्कके स्थितिबन्धस्थानोंकी सिद्धिका कथन करनेके आगेका सत्र कहते हैं। * इससे अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाले जीवके अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणा है। ६६२३. यहाँ पर करण शब्दको अनुवृत्ति पहलेके और आगेके सूत्रसे कर लेनी चाहिये, अन्यथा अभिप्रेत अर्थका ज्ञान न हो सकेगा। शेष कथन सुगम है। ॐ इससे अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है। ६ ६२४. इस सत्रमें 'अणंताणुबंधोणं विसंजोएंतस्स' इस पदकी अनुवृत्ति होती है, अतः अनन्तानुबन्धिचतुष्ककी विसंयोजना करनेवाले जीवके अनिवृत्तिकरणके कालसे उसीके अपूर्व करणका काल संख्यातगुणा है ऐसा अर्थ यहाँ कहना चाहिये । यद्यपि आगेके दो सूत्र अपूर्व Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए हिदिसंतकम्मट्ठाणपरूवणा ३२९ उवरिमवेपदाणि करणं ण होति तो वि अद्धामाहप्पजाणावण परूवेदि उवरिमसुत्तं * दसणमोहणीयउवसामयस्स अणियट्टिप्रद्धा स खेजगणा। ६६२५. अणादिओ सादिओ वा मिच्छादिही पढमसम्मत्तं पडिवजमाणो दंसणमोहणीयउवसामओ त्ति भण्णदि, उवसमसेढिसमारुहणहं दंसणतियमुवसातवेदगसम्माही संजदो वा। तस्स मोहणीयउवसामयस्स जा अणियट्टिकरणद्धा संखे०गुणा । को गुणगारो ? संखेजरूवाणि । * अपुव्वकरणद्धा स खेज्जगुणा । ६६२६. दसणमोहणीयउवसामयस्से त्ति अणुवट्टदे तेण तस्स अणियट्टिअद्धादो तस्सेव अपुव्वकरणद्धा संखेजगुणा त्ति सिद्धं । एवमप्पाबहुअसाहणेण सह परूवणा समत्ता। * एतो हिदिसतकम्महाणाणमप्पाबहुअं। ६६२७. एत्तो परूवणादो उवरि पुव्वं परूविदहिदिसंतकम्महाणाणं थोवबहुतं भणिस्सामो ति आइरियपइजावयणमेयं । ण चेदं णिप्फलं, मंदबुद्धिविणेयजणाणुग्गहहत्तादो। ® सव्वत्थोवा भट्टण्हं कसायाणं हिदिस तकम्माहाणाणि । स्थितिसत्त्वस्थानोंके कारण नहीं होते तो भी अद्धाके माहात्म्यका जान करानेके लिये भागेका सत्र कहते हैं। ___इससे दर्शनमोहनीयकी उपशमना करनेवाले जीवके अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणा है। ६ ६२५. अनादि मिथ्यादृष्टि या सादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त होता हुआ दर्शनमोहनीयका उपशामक कहा जाता है। या उपशमश्रेणी पर आरोहण करने के लिये तीन दर्शनमोहनीयकी उपशमना करनेवाला वेदकसम्यग्दृष्टि संयत जीव दर्शनमोहनीयका उपशामक कहा जाता है। मोहनीयकी उपशमना करनेवाले उस जीवके जो अनिवृत्तिकरणका काल है वह संख्यातगुणा है। गुणाकारका प्रमाण क्या है ? संख्यात अङ्क गुणकारका प्रमाण है। * इससे अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है। ६६२६. यहाँ 'दंसणमोहणीयउवसामयस्स' इस पदकी अनुवृत्ति होती है। अतः इस दर्शनमोहनीयकी उपशामना करनेवाले जीवके अवृित्तिकरणके कालसे इसीके अपर्वकरणका काल संख्यातगुणा है यह सिद्ध हुआ। इस प्रकार अल्पबहुत्वकी सिद्धि के साथ प्ररूपणानुगम समाप्त हुआ। . * अब प्ररूपणाके आगे स्थितिसत्कर्मस्थानोंके अल्पबहुत्वका अधिकार है। ६६२७. यहाँसे अर्थात् प्ररूपणानुगमके बाद पहले कहे गये स्थितिसत्कर्मस्थानोंके अल्पबहुत्वको कहेंगे इसप्रकार यह यतिवृषभ आचार्यका प्रतिज्ञावचन है। और यह निष्फळ नहीं है, क्योंकि इसका फल मन्दबुद्धि शिष्योंका अनुग्रह करना है। * आठ कषायोंके स्थितिसत्कर्मस्थान सबसे थोड़े हैं।... ४२ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ६६२८. चत्तालीससागरोवमकोडाकोडीसु एइंदियवीचारहाणपरिहीणसागरोवमचत्तारिसत्तभागे अवणिय रूवे पक्खित्ते अभव्वसिद्धियपाओग्गाणि अट्ठकसायहाणाणि होति । पुणो खबगसेढिं चडिय अणियट्टिअद्धाए चारित्तमोहणीयस्स एगसागरोवमचदुसत्तभागमेत्ते द्विदिसंतकम्मे सेसे पलिदो० संखे०भागमेत्तं द्विदिकंडयमागाएदि । तम्हि पादिदे सेसहिदिसंतकम्ममपुणरुत्तहाणं होदि, पलिदो० संखे० भागेणूणेगसागरोवमचदुसत्तभागपमाणत्तादो । एत्तो प्पहुडि अढकसायाणमपुणरुत्ताणि चेव द्विदिसंतकम्मट्ठाणाणि उप्पअंति जाव एगा हिदी दुसमयकालपमाणा चेविदा ति । एदाणि खवगसेढीए लद्धअंतोमुहुत्तमेत्तहिदिसंतकम्मट्ठाणाणि पुग्विल्लहाणेसु छुहेदव्वाणि । एवं संछुद्धे जेणट्टकसायाणं सव्वढिदिसंतकम्मट्ठाणाणि होंति तेणेदाणि उवरि भण्णमाणट्ठाणेहिंतो थोवाणि त्ति । ® इत्थि-णवुसयवेदाणं हिदिसंतकम्मट्ठाणाणि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । ६२९. कुदो ? अट्टकसाएहि लद्धेहि सेसहिदिसंतकम्मट्ठाणाणि लभ्रूण पुणो अट्ठकसायक्खीणपदेसादो उवरि जावित्थिवेदक्खीणपदेसो ति तावेदम्मि अद्धाणे अंतोमुहुत्तप्पमाणे जत्तियमेत्ता समया अत्थि तत्तियमेतद्विदिसंतकम्मट्ठाणेहि अहियत्तादो । इत्थिवेदादो हेहा णडणवुसयवेदस्स हिदिसंतकम्मट्ठाणाणं कथमित्थिवेदडिदिसंतकम्मट्ठाणेहि समाणत्तं ? ण, णवंसयवेदोदएण खवगसेढिं चडिदजीवाणं ६२८. चालीस कोड़ाकोड़ी सागरमेंसे एकेन्द्रियके वीचारस्थानोंसे रहित एक सागरके सात भागोंमेंसे चार भाग घटाकर जो शेष रहे उनमें एक मिला देने पर अभव्योंके योग्य आठ कषायस्थान होते हैं। पुनः क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ जीव अनिवृत्तिकरणके कालमें चारित्रमोहनीयके एक सागरके सात भागोंमेंसे चार भागप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष रहने पर पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डकको प्राप्त करता है । उसके पतन करने पर शेष स्थितिसत्कर्मसम्बन्धी अपुनरुक्त स्थान होता है क्योंकि उसका प्रमाण एक सागरके पल्यका संख्यातवाँ भाग कम चार भाग है। यहाँसे लेकर दो समय कालप्रमाण एक स्थितिके प्राप्त होने तक आठ कषायोंके अपुनरुक्त ही स्थितिसत्त्वस्थान उत्पन्न होते हैं। क्षपकश्रेणिमें प्राप्त हुए ये अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितिसत्कर्मस्थान पूर्व स्थानों में मिला देना चाहिए। इस प्रकार इनके मिला देने पर चूँकि आठ कषायोंके सब स्थितिसत्कर्मस्थान होते हैं अतः ये आगे कहे जानेवाले स्थानोंसे थोड़े हैं। . ॐ इनसे स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके स्थितिसत्कर्मस्थान बराबर होते हुए भी विशेष अधिक है। ___$ ६२९. क्योंकि आठ कषायोंकी अपेक्षा जो सब स्थितिसत्कर्मस्थान प्राप्त हुए वे आठ कषायोंके क्षीण होनेके स्थानसे लेकर स्त्रीवेदके क्षीण होनेके स्थान तक अन्तर्मुहूर्तप्रमाण इस अध्वानमें जितने समय प्राप्त होते हैं उतने स्थितिसत्कर्मस्थानोंसे अधिक होते हैं। शंका-नपुंसकवेदका नाश स्त्रीवेदके पहले हो जाता है, अतः नपुंसकवेदके सत्कर्मस्थान बीवेदके सत्कर्मस्थानोंके समान कैसे होते हैं ? Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए द्विदिसंत कम्मट्ठाणपरूवणा बुंसयवेदस्स इत्थवेदविणदृहाणे विणासुवलंभादो । एइंदिएसु णवुंसयवेदपडिवक्खबंधगद्धादो इत्थवेदपडिवक्खबंधगद्धा संखेजगुणा त्ति । णवुंसयवेदसंतकम्मट्ठाणेहिंतो इत्थि वेदसंतकम्मट्ठाणाणं विसेसाहियत्तं किण्ण जायदे ण, पडिवक्खबंधगद्धाओ अस्सिदुण लद्धड्डाणामेत्थ विवक्खाभावादो । तं कुदो गव्वदे ? दोहं पि वेदाणं ट्ठाणाणितुल्लाणि ति सुत्तणिद्देसादो । तेसिं विवक्खा एत्थ किष्ण कदा १ अपुव्वकरणाणियट्टिद्धाणं माहप्पजाणावणडु । * छण्णोकसायाणं द्विदिसंतकम्महापाणि विसेसाहियाणि । ९६३०. कुदो, इत्थि - णवंसयवेदक्खविदद्वाणादो उवरि अंतोमुहुत्तं गंतूण छण्णोकसायाणं खवणुवलंभादो । भय-दुर्गुछट्टाणेहि चदुणोकसायट्ठाणाणं कथं सरिसत्तं १ ण, पडिवक्खबंधगद्धाहिंतो लहाणाणं विवक्खाए अभावादो । * पुरिसवेदस्स द्विदितकम्मद्वाणाणि विसेसाहियाणि । $ ३३१. कुदो छष्णोकसायाणं खीणुद्देसादो समयू णदोआवलियमेत्तद्भाणं ३३१ समाधान — नहीं, क्योंकि जो जीव नपुंसकवेदके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ते हैं उनके नपुंसक वेदका नाश स्त्रीवेदके नाश होनेके स्थान में प्राप्त होता है । - शंका — एकेन्द्रियों में नपुंसकवेदके प्रतिपक्ष बन्धकालसे स्त्रीवेदका प्रतिपक्ष बन्धकाल संख्यातगुणा है, अतः नपुंसकवेदके सत्कर्मस्थानोंसे स्त्रीवेदके सत्कर्मस्थान विशेष अधिक क्यों नहीं होते हैं । समाधान- नहीं, क्योंकि प्रतिपक्ष बन्धकालके आश्रयसे प्राप्त हुए स्थानोंकी यहाँ विवक्षा नहीं है । शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान — सूत्र में दोनों ही वेदोंके स्थान तुल्य हैं ऐसा निर्देश किया है, इससे जाना जाता है कि यहाँ प्रतिपक्ष बन्धकालकी अपेक्षा प्राप्त होनेवाले स्थानोंकी विवक्षा नहीं है । शंका-उनकी यहाँ पर विवक्षा क्यों नहीं को ? समाधान —- अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के माहात्म्यका ज्ञान करानेके लिए यहाँ उनकी विवक्षा नहीं की । * इनसे छह नोकषायोंके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक हैं । § ६३०. क्योंकि स्त्रीवेद और नपुंसक वेदके क्षय होने के स्थानसे आगे अन्तर्मुहूर्त जाकर छह नोकषायों का क्षय पाया जाता है। शंका- चार नोकषायोंके स्थान भय और जुगुप्साके स्थानोंके समान कैसे हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि प्रतिपक्ष बन्धकालोंकी अपेक्षा प्राप्त होनेवाले स्थानोंकी यहाँ विवक्षा नहीं है । * इनसे पुरुषवेदके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक हैं । § ६३१. क्योंकि जहाँ छह नोकषायों का क्षय होता है वहाँसे लेकर एक समयक्रम दो Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ जय वला सहिदे कसाय पाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ गंतून णिल्लेविदत्तादो । विदियट्ठिदीए डिदपुरिसवेदडिदीए णिसेगाणं ण मलणमत्थि तेण छष्णोसायट्ठाणेहिंतो पुरिसवेदद्वाणाणं सरिसत्तं किष्ण बुच्चदे १ ण, णिसेगाणमेत्थ पहाणत्ताभावादो | पहाणत्ते वा विदियट्ठिदीए दिउदयवजिदसव्वपयडीणं द्वाणाणि सरिसाणि होज । ण च एवं, तहोवएसाभावादो । * कोधसंजलणद्विदिसंतकम्मद्वाणाणि विसेसाहियाणि । ९ ६३२. केत्तियमेत्तेण १ दुसमयूणदोआवलियाहि परिहीणअस्सकष्णकरणकिट्टीकरण-कोधतिष्णिकिडीवेदयकालमेत्तहिदिसंतकम्महाणेहि । णवरि णव कबंधमस्सियूण उवरि वि दुसमयुणदोआवलियमेत्तसंतद्वाणाणि कोहसंजलणस्स लब्भंति ति संपुष्णतिष्णिअद्धामेत्त संतकम्मट्ठाणेहिं विसेसाहियत्तमेत्थ दट्ठव्वं । * माणसंजणस्स हिदिसंतकम्माणापि विसेसाहियाणि । $ ६३३. केत्तियमेत्तेण ? माणसंजलणतिष्णिकिट्टीवेदयकालमेत्तेण । * मायासंजलणस्स ट्ठिदिसंतकम्माट्टणाणि विसेसाहियाणि । $ ६३४. केत्तियमेत्तेण ? मायासंजलणस्स तिन्हं किट्टीणं वेदयकालमेत्तेण । * लोभसंजलणस्स द्विदिसंतकम्महाणाणि विसेसाहियाणि । आवलिप्रमाण स्थान जाकर पुरुषवेदका क्षय होता है। शंका—द्वितीय स्थितिमें स्थित पुरुषवेदकी स्थितिके निषेकोंका गलन नहीं होता है, अतः पुरुषवेदके स्थान छह नोकषायोंके समान क्यों नहीं कहे जाते हैं ? समाधान— नहीं, क्योंकि यहाँ निषकों की प्रधानता नहीं है। यदि प्रधानता मान ली जाय तो द्वितीय स्थिति में स्थिति उदय रहित सब प्रकृतियोंके स्थान समान हो जायँगे, परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि इस प्रकारका उपदेश नहीं पाया जाता है। * इनसे क्रोधसंज्वलनके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक हैं । § ६३२. शंका — कितने अधिक हैं ? समाधान — अश्वकर्णकरणकाल, कृष्टिकरणकाल और क्रोधकी तीन कृष्टियों का वेदककाल इनमें से कमसे कम दो समय कम दो आवलिप्रमाण कालके घटा देनेपर जितना शेष रहे उतने स्थितिसत्कर्मस्थान अधिक हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि क्रोधसंज्वलन के नवकबन्धकी अपेक्षा आगे भी दो समय कम दो आवलिप्रमाण सत्त्वस्थान प्राप्त होते हैं अतः यहाँ पूरे तीन स्थान प्रमाण सत्त्वस्थान विशेष अधिक जानने चाहिये । * इनसे मान संज्वलन के स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक हैं । ९ ६३३. शंका- कितने अधिक हैं ? समाधान —— मानसंज्वलनकी तीन कृष्टियों के वेदनका जितना काल है उतने अधिक हैं । * इनसे मायासंज्वलनके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक हैं । $ ६३४. शंका- कितने अधिक हैं ? समाधान — मायासंज्वलनकी तीन कृष्टियोंका जितना वेदनकाल है उतने अधिक हैं । * इनसे लोभसंज्वलनके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक हैं । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए द्विदिसंतकम्मट्ठाणपरूवणा ३३३ ६६३५. के. मेत्तेण १ कोघोदएण खवगसेढिं चडिदस्स दुसमयूणदोआवलियपरिहीणलोभवेदगद्धामेत्तेण । * अणंताणुपंधीणं चदुण्हं हिदिसंतकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६६३६. कुदो, अढकसायप्पहुडि जाव लोभसंजलणं ति ताव एदेसिं कम्माणं खवणकालादो अणंताणुबंधिविसंजोयणकालस्स संखेजगुणत्तादो। संखेजगुणत्तं कुदो णव्वदे ? हिदिसंतकम्मट्ठाणाणं थोवबहुतजाणावणटं परूविदअद्धप्पाबहुअसुत्तादो। * मिच्छत्तस्स हिदिसतकम्मठाणाणि विसेसाहियाणि । ___६६३७. कुदो ? किंचूणसागरोवमचत्तारिसत्तभागेहि ऊणचत्तालीससागरोवमकोडाकोडिमेत्तअणंताणुबंधिचउक्कढिदिसंतकम्मट्ठाणाणमुवरि सागरोवमतिण्णिसत्तभागेहि ऊणतीसंसागरोवमकोडाकोडीमेत्तहिदिसंतकम्महाणेहि अहियत्तवलंभादो। * सम्मत्तस्स हिदिसतकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६३८. के. मेत्तेण ? एइंदियाणं मिच्छत्तजहण्णहिदीए दंसणमोहक्खवणाए लद्धमिच्छत्त जहण्णहिदिसंतकम्मट्ठाणेहि ऊणाए अंतोमुहुत्तब्भहियसम्मत्तचरिमुव्वेल्लणजहण्णफालिं मिच्छत्ते खविदे सम्मत्तेण लट्ठाणेहि परिहीणमवणिदे जत्तिया समया $ ६३५. शंका-कितने अधिक हैं ? समाधान—क्रोधके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़े हुए जीवके दो समय कम आवलि हीन लोभवेदकालप्रमाण अधिक हैं। * इनसे अनन्तानुबन्धीचतुष्कके स्थितिसत्कर्म स्थान विशेष अधिक हैं। $ ६३६. क्योंकि आठ कषायोंसे लेकर लोभसंज्वलनतक इन कर्मोंके क्षपणाकालसे अनन्तानुबन्धीका विसंयोजनाकाल संख्यातगुणा है। शंका-वह संख्यातगुणा है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-स्थितिसत्कर्मस्थानोंके अल्पबहुत्वके ज्ञान कराने के लिये कहे गये काल सम्बन्धी अल्पबहुत्व विषयक सूत्रसे जाना जाता है। इनसे मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक हैं। ६६३७. क्योंकि एक सागरके सात भागोंमेंसे कुछ कम चार भाग कम चालीस कोडाकोड़ी सागरप्रमाण अनन्तानुबन्धी चतुष्कके स्थितिसत्कर्मस्थानोंके ऊपर एक सागरके सात भागोंमेंसे तीन भाग कम तीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिसत्कर्म अधिक पाये जाते हैं। ॐ इनसे सम्यक्त्वके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक हैं। ६६३८. शंका-कितने अधिक हैं ? समाधान-दर्शनमोहकी क्षपणाके समय जो मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मस्थान प्राप्त होते हैं उन्हें एकेन्द्रियों सम्बन्धी मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिमेंसे कम करके जो शेष बचे उनमेंसे मिथ्यात्वके क्षय होनेपर सम्यक्त्वके साथ प्राप्त होनेवाले स्थानोंसे हीन अन्तर्मुहूर्त अधिक सम्यक्त्वकी अन्तिम उद्वेलना फालिको कम करके जितने समय शेष रहें उतने स्थितिसत्कर्मस्थान होते हैं। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहती ३ तत्तियमेतद्विदिसंत कम्मट्ठाणेहि । मिच्छत्तचरिमफालीदो सम्मत्तस्सुव्वेल्लणाए जा चरिमफाली सा किं सरिसा विसेसाहिया संखेजगुणा असंखे० गुणा वा ? (असंखेअगुणा ति त्थ एलाइरियवच्छयस्स णिच्छओ । कुदो १ मिच्छत्तचरिमफालीदो असंखे०गुणअणंताणुवंधिविसंजोयणाचरिमफालीदो वि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुव्वेल्ल णाचरिमफालीए असंखे० गुणत्तस्स डिदिसंकमप्पा बहुअत्तसिद्धाद * सम्मामिच्छत्तस्स हिदिस तकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ९ ६३९. केत्तियमेत्तेण ? सादिरेयसम्मामिच्छत्तचरिमुव्वेल्ल णफालीए ऊणसम्मत्तचरिमुव्वेल्ल फालिमेत्तेण । संपहि द्विदिसंतकम्मे भण्णमाणे विदियाए पुढवीए सम्मत्तचरिमुव्वेल्लणकंडयादो सम्मामिच्छत्तचरिमुव्वेल्लणकंडयं विसेसाहियमिदि भणिदं । तदो पुव्वावर विरोहेण दूसियाणं ण दोन्हं पि सुत्तट्ठमिदि १ ण एस दोसो, इहत्तादो । किंतु जवसहाइरिएण उवलद्धा वे उवएसा । सम्मत्तचरिमफालीदो सम्मामिच्छत्तचरिमफाली असंखे० गुणहोणा त्ति एगो उवएसो । अवरेगो सम्मामिच्छ तचरिमफाली तत्तो विसेसाहिया ति । एत्थ एदेसिं दोन्हं पि उवएसाणं णिच्छयं काउमसमत्थेण जइवसहाइरिएण एगो एत्थ विलिहिदो अवरेगो ट्ठिदिसंकमे । तेणेदे वे वि उवदेसा थप्पं काढूण वत्तव्वात्ति । ३३४ शंका – सम्यक्त्वकी उद्वेलनाको जो अन्तिम फालि है वह मिध्यात्वकी अन्तिम फालिके क्या समान है या विशेष अधिक है या संख्यातगुणी है या असंख्यातगुणी है ? समाधान — असंख्यातगुणी है, इस प्रकार इस विषय में एलाचार्य के शिष्य हमारा निश्चय है, क्योंकि मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिसे अनन्तानुबन्धी विसंयोजनाकी अन्तिम फालि असंख्यातगुणी है । तथा उससे भी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाकी अन्तिम फालि असंख्यातगुणी है यह बात स्थितिसत्कर्मके अल्पबहुत्व विषयक सूत्र से सिद्ध है । * इनसे सम्यग्मिथ्यात्व के स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक हैं । ९६३९. शंका — कितने अधिक हैं । समाधान-साधिक सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम उद्वेलनाफालिमेंसे सम्यक्त्वकी अन्तिम उद्वेलन फालिको घटा देनेपर जितना शेष रहे तत्प्रमाण स्थितिसत्कर्मस्थान अधिक हैं । शंका- स्थितिसत्कर्मका कथन करते समय दूसरी पृथिवीमें सम्यक्त्वके अन्तिम उद्वेलनाकाण्डकसे सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तिम उद्वेलनाकाण्डक विशेष अधिक है ऐसा कहा है, अतः पूर्वापरविरोधसे दूषित होनेके कारण दोनोंका ही सूत्रत्व नहीं बनता ?. समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह बात हमें इष्ट है । किन्तु यतिवृषभ आचार्यको दो उपदेश प्राप्त हुए । सम्यक्त्वकी अन्तिम फालिसे सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालि असंख्यातगुणी हीन है यह पहला उपदेश है । तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालि उससे विशेष अधिक है यह दूसरा उपदेश है । यहाँ इन दोनों ही उपदेशोंका निश्चय करनेमें असमर्थ यतिवृषभ आचार्यने एक उपदेश यहाँ लिखा और एक उपदेश स्थितिसंक्रम में लिखा, अतः इन दोनों ही उपदेशोंको स्थगित करके कथन करना चाहिए । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए डिदिसंतकम्मट्ठाणपरूवणा ३३५ ६६४०. संपहि पडिवक्खबंधगद्धाओ अस्सिदूण अब्भवसिद्धियपाओग्गट्ठाणाणमप्पाबहुअं वत्तइस्सामो । तं जहा-सव्वत्थोवाणि सोलसकसाय-भय-दुगुंछाणं हिदिसंबकम्मट्ठाणाणि । केत्तियमेत्ताणि ? रूवूणेईदियजहण्णहिदीए परिहीणचत्तालीस सागरोवमकोडाकोडीमेत्ताणि । तेसिं पमाणं संदिडीए बारहोत्तरपंचसदमिदि घेत्तव्वं ५१२। णqसयवेदहिदिसंतकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । केत्तियमेत्तेण ? इत्थि-पुरिसवेदबंधगद्धामेत्तेण ५२२ । अरदि-सोगडिदिसंतकम्मट्ठा० विसे० । के०मेत्तो विसेसो १ इत्थिपुरिसवेदबंधगद्धाहि ऊणहस्स-रदिबंधगद्धामेत्तो ५४४। हस्स-रदीणं हिदिसंतकम्महा० विसेसा० ६४० । के०मेत्तेण ? हस्स-रदिबंधगद्धाए ऊणअरदि-सोगबंधगद्धामेत्तेण । इत्थिवेदसंतकम्महाणाणि विसेसाहियाणि ६६४ । केत्तियमेत्तेण ? अरदि-सोगबंधगद्धाए ऊणपुरिस-णqसयवेदबंधगद्धामेत्तेण । पुरिस वेदसंतकम्महाणाणि विसेसाहियाणि ६७०। केत्तियमेत्तेण ? पुरिस वेदबंधगद्धाए ऊणइत्यिवेदबंधगद्धामेत्तेण । बंधगद्धाओ खवणद्धाओ च अस्सिदण हाणाणमप्पाबहुअपरूवणा किम ण कीरदे ? ण, णोकसायबंधगद्धाणं खवणद्धाणं च अंतरविसयअवगमाभावादो। ६ ६४०. अब प्रतिपक्षभूत बन्धकालोंकी अपेक्षा अभव्योंके योग्य स्थानोंके अल्पबहुत्वका कथन करते हैं । जो इस प्रकार है-सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके स्थितिसत्कर्मस्थान सबसे थोड़े हैं। वे कितने हैं ? एकेन्द्रियकी एक कम जघन्य स्थितिसे हीन चालीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण हैं। उनका प्रमाण अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा पाँच सौ बारह ५१२ लेना चाहिए। इनसे नपुंसकवेदके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक हैं। कितने अधिक हैं ? स्त्रीवेद और पुरुषवेदके बन्धकालप्रमाण अधिक हैं। अंकसंदृष्टिसे उनका प्रमाण ५२२ होता है। इनसे अरति और शोकके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक हैं। कितने विशेष अधिक हैं ? हास्य और रतिके बन्धकालमेंसे स्त्रीवेद और पुरुषवेदके बन्धकालको घटा देनेपर जितना शेष रहे तत्प्रमाण विशेष अधिक हैं । अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा इनका प्रमाण ५४४ होता है। इनसे हास्य और रतिके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक हैं। अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा इनका प्रमाण ६४० होता है । वे कितने अधिक हैं ? अरति और शोकके बन्धकालमेंसे हास्य और रतिके बन्धकालको घटा देनेपर जितना शेष रहे तत्प्रमाण विशेष अधिक हैं। इनसे स्त्रीवेदके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक हैं । अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा इनका प्रमाण ६६४ होता है। वे कितने अधिक हैं ? पुरुषवेद और नपुंसकवेदके बन्धकालमें से अरति और शोकके बन्धकालके घटा देनेपर जितना शेष रहे उतने अधिक हैं । इनसे पुरुषवेदके स्थितिसत्कर्मस्थान विशेष अधिक हैं। अंकसंदृष्टिको अपेक्षा इनका प्रमाण ६७० होता है। कितने अधिक हैं ? स्त्रीवेदके बन्धकालमेंसे पुरुषवेदका बन्धकाल घटा देनेपर जितना शेष रहे तत्प्रमाण विशेष अधिक हैं। शंका—बन्धफाल और क्षपणाकालकी अपेक्षा सत्कर्मस्थानोंके अल्पबहुत्वका कथन किसलिये नहीं किया ? समाधान नहीं, क्योंकि नोकषायविषयक बन्धकाल और क्षपणाकालके अन्तरका ज्ञान नहीं होनेसे नहीं किया। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पधवलासहिदे कसायपाहुडे [विदिविहत्ती ३ एदमप्पाबहुअं सव्वमग्गणासु जाणिण जोजेयच्छ । एवं 'तह हिदीए' तिजं पदं तस्स अत्थपरूवणा कदा। एवं कदाए हिदिविहत्ती समत्ता। हिदिविहत्ती समत्ता। इस अल्पबहुत्वकी सब मार्गणाओंमें जानकर योजना करनी चाहिए। इस प्रकार गोथा २२ में जो 'तह हिदीए' पद आया है उसको अर्थप्ररूपणा की। इस प्रकार करने पर स्थितिविभक्ति समाप्त होती है। स्थितिविभक्ति समाप्त । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ हिदिविहत्तिच पिणसुत्ताणि पुस्तक ३ ) हिदिविहत्ती दुविहा–मूलपयडिट्ठिदिविहत्ती चेव उत्तरपयडिट्ठिदिविहत्ती चेव । 'तत्थ अट्ठपदं । एगा हिंदी हिदिविहत्ती। अणेगाओ हिदीओ हिदिविहत्ती । 'तत्थ अणियोगद्दाराणि । सव्वविहत्ती णोसव्वविहत्ती उक्स्सविहत्ती अणुकस्सविहत्ती जहण्णविहत्ती अजहण्णविहत्ती सादियविहत्ती अणादियविहत्ती धुवविहत्ती अद्धवविहत्ती एयजीवेण सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ परिमाणं खेतं पोसणं कालो अंतरं सण्णियासो अप्पाबहुअं च भुजगारो पदणिक्खेवो वड्डी च । एदाणि चेव उत्तरपयडिट्ठिदिविहत्तीए कादव्वाणि । ___ "उत्तरपयडिहिदिविहत्तिमणुमग्गइस्सामो। तं जहा। तत्थ अट्ठपदं । एया हिदी हिदिविहत्ती अणेयाओ हिदीओ हिदिविहत्ती। एदेण अहपदेण । पमाणाणुगमो | मिच्छत्तस्स उक्कस्सहिदिविहत्ती सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ पडिवुण्णाओ। एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं । णवरि अंतोमुहुत्तणाओ। 'सोलसण्हं कसायाणमुक्कस्सहिदिविहत्ती चत्तालीससागरोवमकोडाकोडीओ पडिवुण्णाओ। एवं णवणोकसायणं । णवरि आवलिऊणाओ। "एवं सव्वासु गदोसु णेयव्यो। ___ ११एत्तो जहण्णयं । "मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्त-बारसकसायाणं जहण्णद्विदिविहत्ती एगा हिदी दुसमयकालहिदिया। सम्मत्त-लोहसंजलण-इत्थि-णसयवेदाणं जहण्णहिदिविहत्ती एगा हिदी एगसमयकालहिदिया । १४कोहसंजलणस्स जहण्णहिदिविहत्ती वेमासा अंतोमुहूत्तणा । १"माणसंजलणस्स जहण्णहिदिविहत्ती मासो अंतोमुहुत्तणो । मायासंजलणस्स जहण्णहिदिविहत्ती अद्धमासो अंतोमुहुत्तूणो । पुरिसवेदस्स जहण्णद्विदिविहत्ती अहवस्साणि अंतोमुहुत्तूणाणि । १७छण्णोकसायाणं जहण्णहिदिविहत्ती संखेजाणि वस्साणि । 'गदीसु अणुमग्गिदव्वं ।) (१) पृ० २ । (२) पृ० ५। (३) पृ०७। (४) पृ० ८ । (५) पृ० १६१। (६) पृ० १६३ । (७) पृ० १६४ । (८) पृ० १६५। (१) पृ० १६७ । (१०) पृ० १६६ । (११) पृ० २०२ । (१२) पृ० २०३ । (१३) पृ० २०५। (१४) पृ. २०७। (१५) पृ० २०८ । (१६) पृ० २०६ । (१७) पृ० २१० । (१८) पृ० २११। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिट्टाणि एयजीवेण सामित्तं । मिच्छत्तस्स उक्कस्सट्ठिदिविहत्ती कस्स ? उकस्सद्विदि बंधमाणस्स। एवं सोलसकसायाणं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सद्विदिविहत्ती कस्स ? मिच्छत्तस्स उक्कस्सहिदि बंधिदूण अंतोमुहुत्तद्धं पडिभग्गो जो द्विदिघादमकादूण सव्वलहु सम्मत्तं पडिवण्णो तस्स पढमसमयवेदयसम्मादिहिस्स । णवणोकसायाणमुक्कस्सद्विदिविहत्ती कस्स ? कसायाणमुक्कस्सहिदि बंधिदूण आवलियादीदस्स । __ "एत्तो जहण्णयं । मिच्छत्तस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? मणुसस्स वा मणुसिणीए वा खविजमाणयमावलियं पविहं जाधे दुसमयकालहिदिगं सेसं ताधे । सम्मत्तस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स । सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णहि दिविहत्ती कस्स । सम्मामिच्छत्तं खविजमाणं वा उव्वेल्लिजमाणं वा जस्स दुसमयकालडिदियं सेसं तस्स । 'अणंताणुबंधीणं जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? अणंताणुबंधो जेण विसंजोइदं आवलियं पविढं दुसमयकालहिदिगं सेसं तस्स । 'अढण्णं कसायाणंजहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? अकसायक्खवयस्स दुसमयकालट्ठिदियस्स तस्स । १ कोधसंजलणस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? खवयस्स चरिमसमयअणिल्लेविदे कोहसंजलणे । ११एवं माण-मायासंजलणाणं । १२लोहसंजलणस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? खवयस्स चरिमसमयसकसायस्स । इत्थिवेदस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? चरिमसमयइत्थिवेदोदयखवयस्स । पुरिसवेदस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? पुरिसवेदखवयस्स चरिमसमयअणिल्लेविदपुरिसवेदस्स । १४ णqसयवेदस्स जहण्णद्विदिविहत्ती कस्स ? चरिमसमयणqसयवेदोदयक्खवयस्स । छण्णोकसायाणं जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? खवयस्स चरिमे हिदिखंडए वट्टमाणस्स ।। १"णिरयगईए पोरइएसु सम्मत्तस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स । १६सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स? चरिमसमयउव्वेल्लमाणस्स । १७अणंताणुबंधीणं जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? जस्स विसंजोइदे दुसमयकालहिदियं सेसं तस्स । सेसं 'जहा उदीरणाए तहा कायव्वं । एवं सेसासु गदीसु अणुमग्गिदव्वं । [कालो । ] २०मिच्छत्तस्स उक्कस्सट्ठिदिसंतकम्मिओ केविचरं कालादो होदि ? जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एवं सोलसकसायाणं । रणदुंसयवेदअरदि-सोग-भय-दुगुंछाणमेवं चेव । रसम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सद्विदिविहत्तिओ (१) पृ० २२६ । (२) पृ० २३० । (३) पृ० २३१। (४) पृ० २३३ । (५) पृ० २४१। (६) पृ० २४३ । (७) पृ० २४४ । (८) पृ० २४५। (६) पृ० २४८ । (१०) पृ० २४९ । (11) पृ० २५० । (१२) पृ० २५१ । (१३) पृ० २५२ । (१४) पृ० २५३ । (१५) पृ० २५४। (१६) पृ० २५५ । (१७) पृ० २५६ । (१८) पृ० २५८ । (१९) पृ० २६६ । (२०) पृ० २६७ । (२१) पृ० २६८ । (२२) पृ० २६६ । (२३) पृ० २७० । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिट्टाणि केविचरं कालादो होदि। जहण्णुकस्सेण एगसमओ। इत्थिवेद-पुरिसवेद-हस्स-रदीणमुक्कस्सट्ठिदिविहत्तिओ केवचिरं कालादो होदि ! 'जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण आवलिया । र एवं सव्वासु गदीसु । जहण्णहिदिसंतकम्मियकालो। मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-सोलसकसायतिवेदाणं जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। 'छण्णोकसायाणं जहण्णहिदिसंतकम्मियकालो जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ___अंतरं। मिच्छत्त-सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदिसंतकम्मिगं अंतरं जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्समसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । एवं णवणोकसायाणं । णवरि जहण्णेण एगसमओ। * सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणमुक्कस्स द्विदिसंतकम्मियंतरं जहण्णेण अंतोमुहुत्तं उक्कस्स मुवढपोग्गलपरियÉ । ____एतो जहण्णयंतरं । ' मिच्छत्त-सम्मत्त-बारसकसाय-णवणोकसायाणं जहण्णहिदिविहत्तियस्स पत्थि अंतरं । सम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधीणं जहण्णहिदिविहत्तियस्स अंतरं जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ''उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरियट्ट । __ णाणाजीवेहि भंगविचओ । तत्थ अट्टपदं । तं जहा-जो उक्कस्सियाए हिदीए विहत्तिओ सो अणुकस्सियाए हिदीए ण होदि विहत्तिओ। १२जोअणुक्कस्सियाए द्विदीए विहत्तिओ सो उक्कस्सियाए हिदीए ण होदि विहत्तिओ। जस्स मोहणीयपयडी अत्थि तम्मि पयदं । अकम्मे ववहारो णत्थि । एदेण अट्ठपदेण मिच्छत्तस्स सव्वे जीवा उक्कस्सियाए द्विदीए सिया अविहत्तिया। सिया अविहत्तिया च विहत्तिओ च । सिया अविहत्तिया च विहत्तिया च । ३ । अणुकस्सियाए हिदीए सिया सव्वे जीवा विहत्तिया । सिया विहत्तिया च अवित्तिओ च । १४सिया विहत्तिया च अविहत्तिया च । एवं सेसाणं पि पयडीणं कायव्वो। १जहण्णए भंगविचए पयदं। '६तं चेव अट्ठपदं । एदेण अहपदेण मिच्छत्तस्स सव्वे जीवा जहणियाए द्विदीए सिया अविहत्तिया। सिया अविहत्तिया च विहतिओ च । सिया अविहत्तिया च विहत्तिया च । १७अजहणियाए द्विदीए सिया सव्वे जीवा विहत्तिया । सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च । सिया विहत्तिया च अविहत्तिया च । एवं तिण्णि भंगा। एवं सेसाणं पयडीणं कायव्वो। १जधा उक्कस्सहिदिबंधे णाणाजीवेहि कालो तधा उकस्स डिदिसंतकम्मेण (१) पृ० २७१ । (२) पृ०२७२ । (३) पृ० २९० । (४) ० २६१ । (५) पृ० ३१६ । (६) पृ० ३१७ । (७) पृ० ३१८। (८) पृ० ३३० । (१) पृ० ३३३ । (१०) पृ० ३३२ । (१) पृ० ३५५ । (१२) पृ० ३४६ । (१३) पृ० ३४७ । (१४) पृ० ३१८ । (१५) पृ० ३४६ । (१६) पृ० ३५० । (१७) पृ० ३५१ । (१८) पृ० ३८७ । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिट्टाणि कायब्वो । णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्स ट्ठिदी जहण्णण एगसमओ । उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो। 'जहण्णए पयदं । मिच्छत्त-सम्मत्त-बारसकसाय-तिवेदाणं जहण्णहिदिविहत्तिएहि णाणाजीवेहि कालो केवडिओ। जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण संखेजा समया । सम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधीणं चउक्कस्स जहण्णहिदिविहत्तिएहि णाणाजीवेहि कालो केवडिओ। जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो। 'छण्णोकसायाणं जहण्णहिदिविहत्तिएहि णाणाजीवेहि कालो केवडिओ। जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । "णाणाजीवेहि अंतरं । सव्वपयडीणमुक्कस्सट्ठिदिविहत्ति याणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एगसमओ। 'उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेजदिभागो। एत्तो जहण्णयंतरं । मिच्छत्त-सम्मत्त-अट्ठकसाय-छण्णोकसायाणं जहण्णहिदिविहत्तिअंतरं जहण्णेण एगसमओ। 'उक्कस्सेण छम्मासा । सम्मामिच्छत्त-अर्णताणुबंधीणं जहण्णद्विदिविहत्ति अंतरं जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे। 'तिण्डं संजलण-पुरिसवेदाणं जहण्णद्विदिविहत्तिअंतरं जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण वस्सं सादिरेयं । १°लोभसंजलणस्स जहण्णहिदिविहत्तिअंतरं जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण छम्मासा । इत्थि-णqसयवेदाणं जहण्णहिदिविहत्तिअंतरं जहण्णेण एगसमओ उक्कस्सेण संखेआणि वस्साणि । ११णिरयगईए सम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधीणं जहण्णहिदिविहत्तिअंतरं जहण्णेण एगसमओ। उ कस्सं चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे । सेसाणि जहा उदीरणा तहा णेदव्वाणि । सण्णियासो मिच्छत्तस्स उक्कस्सियाए द्विदीए जो विहत्तिओ सो सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं सिया कम्मंसिओ सिया अकम्मंसिओ। १3जदि कम्मंसिओ णियमा अणुक्कस्सा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्तणमादि कादण जाव एगा हिदि त्ति । १४णवरि चरिमुव्वेल्लणकंडयचरिमफालीए ऊणा । "सोलसकसायाणं किमुक्कस्सा अणुकस्सा ? उकस्सा वा अणुक्कस्सा वा । १६उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समयणमादिं कादण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेणूणा ति । 'इत्थि-पुरिसवेद-हस्स-रदीणं णियमा अणुक्कस्सा। "उक्कस्सादो अणुक्कस्साअंतोमुहुत्तणमादि कादण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । (१) पृ० ३८८ । (२) पृ० ३६४। (३) पृ० ३५९ । (४) पृ० ३६६ । (५) पृ० ४०६ । (६) पृ० ४०७ । (७) पृ० ४१०। (८) पृ० ४११ । (६) पृ० ४१२ । (१०) पृ० ४१३ । (११) पृ० ४१५ । (१२) पृ० ४२५ । (१३) पृ० ४२६ । (१४) पृ० ४३१ । (१५) पृ० ४४७ । (१६) पृ० ४४८ । (१७) पृ० ४४६ । (१८) पृ० ४५० । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिट्टाणि 'णवंसयवेद-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं द्विदिविहत्ती किमुक्कस्सा किमणुक्कस्सा ? उक्कस्सा वा अणुकस्सा वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि कादूण जाव वीससागरोवमकोडाकोडीओ पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण ऊणाओ ति। सम्मत्तस्स उक्क स्सहिदिविहत्तियस्स मिच्छ त्तस्स हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा किमणुक्कस्सा । णियमाअणुकस्सा । उकस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्तूणा । णत्थि अण्णो वियप्पो। "सम्मामिच्छत्तहिदिविहत्ती किमुक्कस्सा किमणुक्कस्सा । णियमा उक्कस्सा । “सोलसकसायणवणोकमायाणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? णियमा अणुक्कस्सा। उक्कस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्तणमादि कादूण जाव पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेणूणा ति। एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि। जहा मिच्छत्तस्स तहा सोलसकसायाणं । इत्थिवेदस्स ऊकस्सहिदिविहत्तियस्स मिच्छत्तस्स हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? णियमा अणुक्कस्सा। उकस्सादो अणुक्कस्सा समुयूगमादि कादूण जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणूणा ति । सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं विदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणकस्सा। णियमा अणक्कस्सा । उकस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्तणमादि कादृण जाव एगा हिदि त्ति । णवरि चरिमुव्वेल्लणकंडय चरिमफालोए ऊणा त्ति । १° सोलसकसायाणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुकस्सा ? णियमा अणुक्कस्सा। उकस्सादो अणकस्सा समऊणमादिं कादण जाव अवलियूणा ति। ''पुरिसवेदस्त हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणकस्सा ? णियमा अणुक्कस्सा। उक्कस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्तूणमादि कादूण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । रहस्स-रदीणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुकस्सा ? उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समयूणमादि कादूण जाव अंतोकोडाकोडि ति । अरदिसोगाणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समयणमादि कादण जाव वीससागरोवमकोडाकोडीओ पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण णाओ त्ति । एवं णqसयवेदस्स । णवरि णियमा अणकस्सा ।१६भयदुगुच्छाणं द्विदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणकस्सा ? णियमा उक्कस्सा। जहा इत्थिवेदेण तहा सेसेहि कम्मेहि । णवरि विसेसो जाणियव्यो । “णqसयवेदस्स उक्कस्सहिदिविहत्तियस्स मिच्छत्तस्स हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा। उकस्सादो अणुक्कस्सा समयूणमादि कादृण जाव पलिदोवमस्स असंखेजदि HTHHTHHHHH (१) पृ० ४५२(२) पृ ४५३ । ( ३ ) पृ० ४५५ । ( ४ ) पृ० ४५६ । (५) पृ० ४५७ । (६) पृ० ४५८ । ( ७ ) पृ० ४५९ । (८) पृ० ४६१ । (६ ) पृ० ४६२ । (१०) पृ० ४६५ । (११) पृ० ४६६ । (१२) पृ० ४६७ । (१३) पृ० ४६८ । (१४) पृ० ४७० । (१५) पृ० ४७१ । (१६) पृ० ४७२ । (७) पृ० ४७३ । ( १८) पृ० ४७६ । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिट्टाणि भागेण ऊणा ति । 'सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं द्विदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? णियमा अणुक्कस्सा १। उक्कस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्तूणमादि कादूण जाव एगा हिदि त्ति । णवरि चरिमुव्वेल्लणकंडयचरिमफालीए ऊणा। सोलसकसायाणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणकस्सा ? उकस्सा वा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुकस्सा समयूणमादि कादूण जाव आवलिऊणा ति । इत्थि-पुरिसवेदाणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? णियमा अणुक्कस्सा । उक्कस्सादो अणुकस्सा अंतोमुहुत्तूणमादि कादूण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । हस्स-रदीणं द्विदिविहत्ती किमुकस्सा अणक्कस्सा ? उक्कस्सा वा अणुकस्सा वा । उकस्सादो अणुकस्सा समऊणमादि कादूण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । अरदि-सोगाणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? उकस्सा वा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि कादण जाव वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण ऊणाओ। भय-दुगुंछाणं द्विदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? णियमा उक्कस्सा । एवमरदि-सोग-भयदुगुंछाणं पि । णवरि विसेसो जाणियव्यो। ___'जहण्णहिदिसण्णियासो। मिच्छत्तजहण्णहिदिसंत्तकम्मियस्स अणंताणुबंधीणं णत्थि । सेसाणं कम्माणं द्विदिविहत्ती किं जहण्णा अजहण्णा ? णियमा अजहण्णा । जहण्णादो अजहण्णा असंखेजगुणब्भहिया । 'मिच्छत्तेण णोदो सेसेहि वि अणुमग्गियव्वो। ___१ [अप्पावहुअं ।] सव्वत्थोवा णवणोकसायाणमुक्कस्सहिदिविहत्ती । ' 'सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदिविहत्ती विसेस हिया। सम्मामिच्छत्तस्स उक्स्सद्विदिविहत्ती विसेसाहिया । सम्मत्तस्स उकस्स द्विदिविहत्ती विसेसाहिया। मिच्छत्तस्स उक्कस्सटिदिविहत्ती विसेसाहिया। णिरयगदीए सव्वत्थोवा इत्थिवेद-पुरिसवेदाणमुक्कस्सहिदिविहत्ती। सेसाणं णोकसायाणमुक्कस्स हिदिविहत्ती विसेसाहिया । उसोलसण्हं कसायाणमुक्कस्सद्विदिविहत्ती विसेसाहिया। सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सद्विदिविहत्ती विसेसाहिया । सम्मत्तस्स उक्कस्स हिदिविहत्ती विसेसाहिया । मिच्छत्तस्स उक्कस्स हिदिविहत्ती विसेसाहिया । सेसासु गदीसु णेदव्यो। (१) पृ० ४७७ । (२) पृ० ४७८ । (३) पृ० ४७९ । (४) पृ० ४८० । (५) पृ० ४८१ (६) पृ० ४८२ । (७) पृ० ४८३ । (८) पृ० ४६४। (६) पृ० ४९५ । (१०) पृ० ५२४ । (११) पृ० ५२५ । (१२) पृ० ५२६ । (१३) पृ० ५२७ । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिट्टाणि (पुस्तक ४ 'जे भुजगार-अप्पदर-अवहिद-अवत्तव्वया तेसिमहपदं । 'जत्तियाओ अस्सिं समए द्विदिविहत्तीओ उस्सकाविदे अणंतरविदिक्कते समए अप्पदराओ बहुदरविहत्तिओ एसो भुजगारविहत्तिओ । ओसक्काविदे बहुदराओ विहत्तीओ एसो अप्पदरविहत्तिओ। ओसकाविदे [उस्सकाविदे वा] तत्तियाओ चेव विहत्तिओ एसो अवहिदविहत्तिओ । 'अविहत्तियादो विहत्तियाओ एसो अवत्तव्वविहत्तिओ। एदेण अद्वपदेण । "सामित्तं । मिच्छत्तस्स भुजगार-अप्पदर-अवहिदविहत्तिओ को होदि ? अण्णदरो णेरइयो तिरिक्खो मणुस्सो देवो वा। अवत्तव्वओ णत्थि । “सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं भुजगार-अप्पदरविहत्तिओ को होदि ? अण्णदरो मेरइयो तिरिक्खो मणुस्सो देवो वा । अवडिदविहत्तिओ को होदि ? पुव्वुप्पण्णादो समत्तादो समयुत्तरमिच्छत्तेण से काले सम्मत्तं पडिवण्णो सो अवडिदविहत्तिओ । 'अवत्तव्वविहत्तिओ अण्णदरो। एवं सेसाणं कम्माणं णेदव्वं । ‘एगजीवेण कालो। मिच्छत्तस्स भुजगारकम्मंसिओ केवचिरं कालादो होदि। जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण चत्तारि समया ४ । १ अप्पदरकम्मंसिओ केवचिरं कालादो होदि । ''जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण तेवहिसागरोवमसदं सादिरेयं । अवहिदकम्मंसिओकेवचिरं कालादोहोदि ? जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एवं सोलसकसाय-णवणोकसायाणं । णवरि भुजगारकम्मंसिओ उक्कस्सेण एगूणवीससमया। 'अणंताणुबंधिचउक्कस्स अवत्तव्वं जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । सम्मत्त-सम्मामिच्छ ताणं भुजगार-अवविद-अवत्त व्वकम्मंसिओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। "अप्पदरकम्मंसिओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । १६ उ कस्सेण वेछावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । अंतरं । मिच्छत्तस्स भुजगार-अवहिदकम्मंसियस्स अंतरं जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण तेवहिसागरोवमसदं सादिसेयं । 'अप्पदरकम्मंसियस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि १ ज हण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । सेसाणं पि णेदव्वं । __णाणाजीवेहि भंगविचओ। संतकम्मिए सु पयदं । सव्वे जीवा मिच्छत्तसोलस कसाय-णवणोकसायाणं भुजगारहिदिविहत्तिया च अप्पदरद्विदिविहत्तिया च अवद्विदद्विदिविहत्तिया च । अणंताणुबंधीणमवत्तव्वं भजिदव्वं । °सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं . (१) पृ० १ । (२) पृ० २ । (३) पृ० ३ । (४) पृ० ६ । (५) पृ०७। (६) पृ० १ । (७) पृ० १०। (८) पृ० १४। (१) पृ० १५। (१०) पृ० १८। (११) पृ० १९ । (१२) पृ० २०। (१३) पृ० २३ । (१४) पृ० २४ । (१५) पृ० २५। (१६) पृ० २६ । (१७) पृ० ४२ । (१८) पृ० ४३ । (१९) पृ० ५० । (२०) पृ० ५।। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिट्टाणि भुजगार-अवट्ठिद-अवत्तव्वविदिविहत्तिया भजिदव्वा । अप्पदरहिदिविहत्तिया णियमा अत्थि। - 'णाणाजीवेहि कालो । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार-अवडिद-अवत्तव्वहिदिविहत्तिया केवचिरं कालादो होति ? जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेस आवलियाए असंखेञ्जदिभागो। अप्पदरहिदिविहत्तिया केवचिरं कालादो होति ? सव्वद्धा । 'सेसाणं कम्माणं विहत्तिया सव्वे सव्वद्धा । णवरि अणंताणबंधीणमवत्तव्वढिदिविहत्तियाणं जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो।। 'अंतरं। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार-अबढिदहिदिविहत्तियंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे। अवद्विदहिदिविहत्तियंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेजदिभागो। 'अप्पदरहिदिविहत्तियंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णत्थि अंतरं । सेसाणं कम्माणं सव्वेसिं पदाणं णत्थि अंतरं । णवरि अणंताणुबंधीणं अवत्तव्वद्विदिविहत्तियंतरं जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण चउवीसमहोत्तरे सादिरेगे। ___सण्णियासो। मिच्छत्तस्स जो भुजगारकम्मंसिओ सो सम्मत्तस्स सिया अप्पदरकम्मंसिओ सिया अम्मंसिओ । एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि । ‘सेसाणं णेदव्यो। अप्पाबहुअं । मिच्छत्तस्स सव्वत्थोवा भुजगारहिदिविहत्तिया । अवहिदहिदिविहत्तिया असंखेजगुणा । ' अप्पदरहिदिविहत्तिया संखेजगुणा । ''एवं बारसकसाय-णवणोकसायाणं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा अवडिदहिदिविहत्तिया। "भुजगारहिदिविहत्तिया असंखेजगुणा । अवत्तव्वहिदिविहत्तिया असंखेनगुणा । 'अप्पदरहिदिविहत्तिया असंखेजगुणा । अणंताणुबंधीणं सव्वत्थोवा अवत्तव्वहिदिविहत्तिया । भुजगारहिदिविहत्तिया अणंतगुणा । अवहिदहिदिविहत्तिया असंखेजगुणा । अप्पदरहिदिविहत्तिया संखेजगुणा । १"एत्तो पदणिक्खेवो । पदणिक्खेवे परूवणा सामित्तमप्पाबहुअं अ । १६अप्पाबहुए पयदं । मिच्छत्तस्स सव्वत्थोवा उक्कस्सिया हाणी । १७उक्कस्सिया वही अवहाणं च सरिसा विसेसाहिया। एवं सबकम्माणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवज्जाणं । णवरि णबुंसय--वेद--अरदि--सोग-भय-दुगुंछाणमुक्कस्यिा वड्डी अवट्ठाणं थोवा । १“उक्कस्सिया हाणी विसेसाहिया । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवमुक्कस्समवट्ठाणं । उकस्सिया (१) पृ० ६७। (२) पृ० ६८ । (३) पृ० ६६ । (४) पृ० ७४ । (५) पृ० ७५ । (६) पृ० ७७। (७) पृ० ८३। (८) पृ० ८४। (१) पृ० १५। (१०) पृ० १६ । (१) पृ० १७॥ (१२) पृ० ६८ । (१३) पृ० १०१। (१४) १०२। (१५) १०५ । (१६) पृ० ११०। (१७) पृ० १११ । (१०) पृ० ११२ । (१६) पृ० ११३ । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिट्टाणि हाणी असंखेजगुणा। उक्कस्सिया वड्डी विसेसाहिया । 'जहणिया वही जहणिया हाणी जहण्णयमवट्ठाणं च सरिसाणि ।। रएत्तो वही। मिच्छत्तस्स अस्थि असंखेजभागवढी हाणी संखेजभागवडी हाणी संखेजगुणवड्डी हाणी असंखेजगुणहाणी अवहाणं । एवं सव्वकम्माणं । "णवरि अपंताणुबंधीणमवत्तव्वं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमसंखेजगुणवड्डी अवत्तन्वं च अस्थि ।। एगजीवेण कालो। मिच्छत्तस्स तिविहाए वहीए जहण्णेण एगसमओ । उकस्सेण वे समया। असंखेजभागहाणीए जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण तेवहिसागरोवमसदं सादिरेयं । 'संखेअभागहाणीए जहण्णेण एगसमओ। 'उक्कस्सेण जहण्णमसंखेजयं तिरूवूणयमेतिए समए। संखेजगुणहाणि-असंखेजगुणहाणीणं जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। १०अवद्विदहिदिविहत्तिया केवचिरं कालादो होति । जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण अंतोसुहृत्तं । सेसाणं पि कम्माणमेदेण वीजपदेण णेदव्वं । १एगजीवेण अंतरं । मिच्छत्तस्स असंखेजभागवड्डि-अवट्ठाणहिदिविहत्तियंतरं केवचिरं कालादो होदि । जहण्णेण एगसमयं । उक्कस्सेण तेवहिसागरोवमसदं तीहिपलिदोवमेहि सादिरेयं । संखेअभागवड्डि-हाणि-संखेजगुणवड्डि-हाणिहिदिविहत्तियंतरं जहण्णेण एगसमओ हाणी. अंतोमुहुत्तं । 'उक्कस्सेण असंखेजा पोग्गलपरियट्टा। 'असंखेजगुणहाणिहिदिविहत्तियंतरं जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । असंखेजभागहाणिहिदिविहत्तियंतरं जहण्णेण एगसमओ। उकस्सेण अंतोमुहुत्तं । सेसाणं कम्माणमेदेण चीजपदेण अणुमग्गिदव्वं । १"अप्पाबहुअं । मिच्छत्तस्स सव्वत्थोवा असंखेजगुणहाणिकम्मंसिया । संखेजगुणहाणिकम्मंसिया असंखेजगुणा। संखेजभागहाणिकम्मंसिया संखेजगुणा । १७संखेजगुणवड्डिकम्मंसिया असंखेजगुणा। “संखेजभागवड्डिकम्मंसिया संखेजगुणा । ''असंखेजभागवड्डिकम्मंसिया अणंतगुणा । अवहिदकम्मंसिया असंखेजगुणा । २°असंखेजभागहाणिकम्मंसिया संखेजगुणा। एवं बारसकसाय-णवणोकसायाणं । "सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा असंखेजगुणहाणिकम्मंसिया। अवविदकम्मंसिया असंखेजणुणा । असंखेजभागवड्डिकम्मंसिया असंखेजगुणा । असंखेजगुणवड्डिकम्मंसिया असंखेजगुणा। २"संखेजगुणवड्डिकम्मंसिया असंखेजगुणा । "संखेजभागवडिकम्मंसिया संखेजगुणा । २७संखेजगुणहाणिकम्मंसिया संखेजगुणा । (.) १० ११६ । (२) पृ० ११७ । (३) पृ० १४० । ( ४ ) पृ० १४१ । (५) पृ० १५० । (६) पृ० १६४ । (७) पृ० १६६ । (८) पृ० १६७ । (१) पृ० १६८ । (१०) पृ० १६६ । (११) पृ० १६१ । (१२) पृ० १६२। १३) पृ० १६३ । (१४) पृ० १६४ । (१५) पृ० २७४ । (१६) पृ० २७५ । (१७) पृ० २७८ । (१८) पृ० २८१ । (१६) पृ० २८७ । (२०) पृ० २८८ । (२१) पृ० २८६ । ( २२) पृ. २६० । (२३) पृ० २६३ । (२४) पृ० २६ । (२५) पृ० २६६ । (२६) पृ० २९८ । (२७) पृ० २६६ । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिट्टाणि संखेजभागहाणिकम्मंसिया संखेजगुणा । अवत्तव्वकम्मंसिया असंखेजगुणा । 'असंखेजभागहाणिकम्मंसिया असंखेजगुणा । अणंताणुबंधीणं सव्वत्थोवा अवत्तव्वकम्मंसिया। असंखेजगुणहाणिकम्मंसिया संखेजगुणा । सेसाणि पदाणि मिच्छत्तभंगो। हिदिसंतकम्मट्टाणाणं परूवणा अप्पाबहुअं च । परूवणा। मिच्छत्तस्स द्विदिसंतकम्मट्ठाणाणि उक्कस्सियं हिदिमादि कादूण जाव एइंदियपाओग्गकर्म जहण्णयं ताव णिरंतराणि अत्थि। "अण्णाणि पुण दंसणमोहक्खवयस्स अणियट्टिपविहस्स जम्हि डिदिसंतकम्मेइंदियकम्मस्स हेढदो जादं तत्तो पाए अंतोमुहुत्तमेत्ताणि हिदिसंतकम्महाणाणि लब्भंति । 'सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं द्विदिसंतकम्महाणाणि सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ अंतोमुहुत्तणाओ। अपच्छिमेण उव्वेल्लणकंडएण च ऊणाओ एत्तियाणि हाणाणि । जहा मिच्छत्तस्स तहा सेसाणं कम्माणं । अभवसिद्धियपाओग्गे जेसिं कम्मंसाणमग्गहिदिसंतकम्मं तुल्लं जहण्णगं हिदिसंतकम्मं थोवं तेसिं कम्मंसाणं हाणाणि बहुआणि । "इमाणि अण्णाणि अप्पाबहुअस्स साहणाणि कायव्वाणि । तं जहा-सव्वत्थोवा चारित्तमोहणीयक्खवयस्स अणियष्टिअद्धा । ' अपुव्वकरणद्धा संखेजगुणा । चारित्तमोहणीयउवसामयस्स अणियट्टिअद्धा संखेजगुणा । अपुव्वकरणद्धा संखेजगुणा । दसणमोहणीयक्खवयस्स अणियट्टिअद्धा संखेजगुणा । अपुव्वकरणद्धा संखेजगुणा । अणंताणुबंधीणं विसंजोएंतस्स अणियट्टि अद्धा संखेजगुणा । अपुव्वकरणद्धा संखेजगुणा। १२दसणमोहणीयउवसामयस्स अणियट्टिअद्धा संखेजगुणा । अपुव्वकरणद्धा संखेजगुणा । ___ एत्तो हिदिसंतकम्मट्ठाणाणमप्पाबहुअं । सव्वत्थोवा अण्हं कसायाणं डिदिसंतकम्महाणाणि । 'इत्थि-णवंसयवेदाणं डिदिसंतकम्मट्ठाणाणि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । छण्णोकसायाणं हिदिसंतकम्महाणाणि विसेसाहियाणि । पुरिसवेदस्स हिदिसंतकम्महाणाणि विसेसाहियाणि । '"कोधसंजलणस्स हि दिसंतकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । माणसंजलणस्स हिदिसंतकम्मट्टाणाणि विसेसाहियाणि । मायासंजलणस्स हिदिसंतकम्महाणाणि विसेसाहियाणि । लोभसंजलणस्स द्विदिसंतकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । 'अणंताणुबंधीणं चदुण्हं हिदिसंतकम्मडाणाणि विसेसाहियाणि । मिच्छत्तस्स ट्ठि दिसंतकम्महाणाणि विसेसाहियाणि । सम्मत्तस्स डिदिसंतकम्मट्ठाणाणि विसेसाहिंयाणि । १७सम्मामिच्छत्तस्स हिदिसंतकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । एवं तह डिदीए त्ति जं पदं तस्स अत्थपरूवणा कदा। (.) पृ. ३००। (२) पृ० ३०२। (३) पृ० ३०३ । (४) पृ० ३१९। (५) पृ. ३२२ । (६) पृ० ३२३ । (७) पृ० ३२४ । (८) पृ० ३२५। (१) पृ० ३२६ । (१०) पृ. ३२७ । (११) पृ० ३२८ । (१२) पृ० ३२६ । ( १३)पृ. ३३० । (१४) पृ० ३३१ । (१५) पृ० ३३२ । (१६) पृ० ३३३ । (७) पृ० ३३४ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ ३२०, ३६८, ४७४ ५१० उ उच्चारणाचार्य २११, २१३ २३४, २५८, २७२ २९१, २९२, ३४८ ३५१, ३८९, ४०७ ५२५, ५३५ ए एलाचार्य प परमगुरु अ आचार्य ( सामान्य ) उ उ अन्य पाठ उच्चारणा १९९, २११, ३१९, ३२०, ३३२, ४८५, ४९५, ५००, ५३२, ५३३ । १६९ ३०१ क कषायप्राभृत ३८० उच्चारणा १०, १२, १३, २६, ४३, ५१, ६९, ७८, १०२, १०४, १०६, ११३ ११६, १५१, १५८, १६९ १९४, २६२, ३०३ ३०६, ३११ १६५ च परिसिट्टाणि २ ऐतिहासिक नामसूची पुस्तक ३ चिरंतन आचार्य चिरंतन व्याख्यानाचार्य ५३२ य यतिवृषभ आचार्य ) १२५, भट्टारक ) १९१, १९९, २११, २२९ י, म पुस्तक ४ य यतिवृषभाचार्य ९, १०, यतिवृषभ २३, २६, २३४, २४१, २५८ २९१, ३४८, ३८९ ३९६, ४०७, ४१५ ४५३, ४९५,५२५ च ५३४ ३ ग्रन्थनामोल्लेख पुस्तक ३ च चूर्णिसूत्र १९३, २५८, २७२, २९२, ३१९, ३२० ३३२, ३९८, ४०७, ४१५४८५, ४९५, ५२५ । महाबन्धसूत्र | १९५, ४७४, बन्धसूत्र मूल उच्चारणा ६७, ३६६ ४८० ५१,६९,७७,२७९, २८४, २९९, ३०७ पुस्तक ४ चिरउच्चारणा चूर्णिसूत्र यतिवृषभाचार्य सूत्र १२ } २६ ४३, ७७, ७८, १०२, १०३, १०४, ११३, ११६, १५१,२७९, द दो उच्चारणा प पाठ २९५, ३०३, ३०६ १३ २७ व वप्पदेव ल ल वृत्तिसूत्रकर्त्ता व्याख्यानाचार्य म ११ व वप्पदेव लिखित उच्चारणा ३९८ २९२ २१३, २६१, ५३५ ) लिहंत ( उच्चारणा) १२ लिखित उच्चारणा ३९६, ४१५ व वेदना स सुन्त ३९८ महाबन्धसूत्र ? ९६, १५७, महाबन्ध १६५, ३०२ २८६ १४७ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ परिसिट्टाणि ४ चूर्णिसूत्रगतशब्दसूची पुस्तक ३ उक्कस्सहिदि २२९, २३१, २३३, ३८८ उक्कस्सटिदिबंध ३८७ उक्कस्सट्ठिदिविहत्ति १९४, १९७, २२९, २३१, २३३, २७०, ५२४, ५२५, ५२६, ५२७ उक्कस्सटिदिविहत्तिय ४०६, ४५५, ४५९, ४७६ उक्कस्सट्ठिदिसंत ३८७ उक्कस्सट्ठिदिसंतकम्मि २६७, ३१६ उक्कस्सटिदिसंतकम्मियंतर ३१८ उक्कस्सविहत्ति ७ उक्कस्सिय ३४५, ३४६, ४२५ उत्तरपयडिहिदिविहत्ति २, अ अकम्म ३४६ अविहत्तिय ३४६, ३४७, अकम्मंसिअ ४२५ ३४८, ३५०, ३५१ अजहण्ण ४९४ असंखेज ३१७ अजहण्णविहत्ति असंखेजगुणब्भहिय ४९४ अजहणिय ३५१ असंखेजदिभाग३८८,३९५, अट्ठ २४८ ४०७,४८८,४५३, अट्ठकसाय २४८, ४१० ४५७,४५९, ४७०, अह पद ५, १९१, ३४५, ४७६, ४८१ ३४६ अहोरत्त ४११, ४१५ अहवस्स आ आदि ४२६, ४४८, ४५०, अणादियविहत्ति ४५३, ४५७, ४५९, अणियोगद्दार ४६१, ४६५, ४६६, अणुक्कस्स ४२६, ४४७, ४६८, ४७०, ४७६, ४४८, ४४९, ४५०, ४७७,४७८, ४७९, ४५२,४५३,४५५, ४८०, ४८१ ४५६, ४५७, ४५९, आवलिऊण १९७, ४७८ ४६१, ४६५, ४६६, आवलिय २४१, २४५ ४६७, ४६८, ४७९, २७१, ३८८, ३९५ ४७१, ४७२, ४७६, आवलियादीद २३३ ४७७, ४७८,४७९, आवलियण ४८०, ४८१,४८२, इथि ४१३, ४४८,४७८ अणुकस्सविहत्ति ७. इत्थिवेद २०५, २५१, अणुक्कस्सिय ३४५, ३४६ २७०, ४५९, ४७२, ३४७ अणेग | उ उक्कस्स २६८, २७१, अणेय . ३१७, ३१८, ३३२, १६१, ३५० ३९५,४०७,४११, अणंताणुबंधि २४५, २५६, ४१२, ४१३, ४१५, ३३१, ३९५, ४११, ४२६, ४४७, ४४८, ४१५, ४६४ ४५०, ४५२, ४५३, अण्ण ४५५ ४५५, ४५६, ४५७, अद्धमास २०९ ४५९, ४६१, ४६५, अद्ध वविहत्ति ४६६, ४६७, ४६८, अप्पाबहुअ ८,५२४ ४७०, ४७२, ४७६, अरदि २६९,४५२, ४७०, ४७७, ४७८, ४७९, ४८१, ४८२ ४८०, ४८१, ४८२, उदीरणा २५६, ४१५ उवडपोग्गलपरियट्ट ३१८, उज्वेल्लिजमाण २४४ ऊण ४३१, ४४८,४५३, ४५७ ४६२, ४७०, ४७६ ४७७, ४८१ ए एगसमय २६७, २७०, २७१, २९०, २९१, ३१७, ३८८, ३९४, ४०६, ४१०, ४११, ४१२, ४१३, ४१५, एगसमयकालहिदिय २०५ एयजीव ७,२२९ अं० अंगुल ४०७ अंतर ७, ८,३१६,३३१, ४०६ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिनिहागि . अंतोकोडाकोडि ४५०, चरिमसमयउव्वेल्लमाण ट हिदि ५, १६१, २०३, ४६६, ४६८ २५५ २०५, ३४५, ३४६, अंतोमुहुत्त :६८, २९१, चरिमसमयणqसयवेदोदय ३४७, ३५०, ३५१, ३१६, ३१८, ३३१, क्खवय २५३ ४२५, ४२६,४६१ चरिमसमयसकसाय २५१ छिदिखंडअ २५३ अंतोमुहुत्तूण १९५, २०७, चरिमुव्वेल्लणकंडयचरिम- टिदिघाद २३१ २०८,२०९, २३१, फालि ४३१, ४६२, छिदिविहत्ति २, ५, १६१, ४२६, ४५०, ४५५, | ও ४५२, ४५५, ४५६, ४५७,४६१,४६६, | छ छण्णोकसाय २१०,२५३, ४५७, ४५६, ४६१, ४७७, ४७९ २६१, ३६६, ४१० ४६५, ४६६,४६७, क कम्म ४७२, ४९५ छम्मास ४११, ४१३ ४७०, ४७२, ४७६, कम्मंसिभ ४२५, ४२६ ज जहण्ण २६७,२७१, ३१६, ४७७, ४८०, ४८१, कसाय १२७, २३३, २४८, ३१७, ३१८, ३३१, ४८२, ४६५ ५२७ ३८८, ३९४, ३६५, काल ७, ८, ९६७, २७०, ण णवणोकसाय १९७, २३३, ४०६,४१०, ४११, ३८७, ३९४, ३९५, ३१७, ४५७, ५२५, . ४१२,४१३, ४१५, ३९६, ४०६ णवरि १६५, १६७, ३१७, जहणिय ३५० केवचिर ४०६ ३८८, ४३१, ४६२, जहण्णुकस्स २७०, २६६, केवडिय३९४,३९५,३९६ ४७१, ४७३, ४७७, . ३६६ कोषसंजलण २४९ ४८३ जहण्णहि दिविहत्ति २०३, कोहसंजलण २०७, २४९ णबुंसयवेद २०५, २५३, ख खवय २४९, २५१, २५३ २०५, २०७, २०८, २६६, ४१३, ४५२, खविजमाण २४४ . २०६, २१०, १४१, ४७१, ४७६ खविजमाणय २४१ २४३, २४५, २४८, णाणाजीव ७,३४५, ३८७, २४६, २५१, २५२, २५३, २५४, २५५, - ३६४, ३९५, ३६६, ग गदि १९९, २११, २५८, ४०६ २५६, ३३१, _ २७२, ५२७ णियमा ४२६, ४४६,४५५, च चउक्क ३९५ जहण्णट्रिदिविहत्तिअंतर ४५६, ४५७,४६१, चउवीस ४११,४१५ ४१०, ४११, ४१२, . ४६५,४६६, ४७१, चत्तालोससागरोवमकोडा ४१३, ४१५ ४७२, ४७७,४७८, . कोडि १६७ जहण्णहिदिविहत्तिय ३६४ । ४८२, ४६४ चरिम २५३ ३६५, ३६६, णिरयमइ २५४, ४१५ चरिमसमयअक्खीणदसणजहण्णहिदिसण्णियास ४६४ णिरयगदि ५२६ मोहणीय २४३, २५५ जहण्णहिदिसंतकम्मिअकाल णेरइअ २५४ . चारिसमयअणिस्लेविद२४९ २६०, २६१ णोकसाय ५९६ १. चरिमसमयअपिल्लेषिद जहणय २० , २४१, पोसव्वषिहसि ७ पुरिसवेद २५३ ..३४६, ३६४ त तिवेद २६०, ३१४ चरिमसमयहत्थिवेदोदय महण्णयंतर ३३०, ४१० । द दुगुंछा २६६,४५२, ४७२ खवय २५१ जीव ३४६, ३४७,३५० ४८२ खेत ८ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिणि मिच्छत् १९४, २०३, २.९,२३१, २४१, २६७,२९०, ३१६, ३५०,३९४,४१०, ४२५, ४५५,४५९, ४७६, ४९५, ५२६ मिच्छत्तजहण्णहिदिसंत कम्भिय ४९४ मूलपयडिहिदिविहत्ति २ मोहणीयपयडि ३४६ वट्टमाण २५३ वडि ८ ववहार ३४६ बस्स २१०, ४१२,४:३ वियप्प ४५५ विसेस ४७३, ४८३ विसेसाहिय ५२५, ५२६, ५२७ विसंजोइद २५६ विसंयोजिद २४५ वीससागरोवमकोडाकोडि सम्मामिच्छत्त १९५, २०३, २३१,२४४, २५५, २९०, ३१८,३३१, ३८८,३९५,४११, ४१५, ४२५,४५६, ४५८,४६१,४६७, ५२५ सव्व १९९, २७२, ३४६, ३४७, ३५०,३५१, सव्वत्योव ५२४, ५२६ सव्वपयडि ४०६ दुसमयकालहिदिग २४१, २४५ दुसमयकालहिदिय ०३, - २४४, २४८, २५६ ध धुवविहत्ति ७ प पडिभग्ग २३१ पडिवण्ण १६४, १६७ पढमसमयवेदयसम्मादिहि २३१ पदणिक्खेव ८ पमाणाणुगम १९४ पयडि ३४८, ३५१ पयद ३४६,३९४ । परिमाण ८ पलिदोवम ४४८, ४५३, ४५७,४५९, ४७०, ४७६, ४८१ पविड २४१ पुरिसवेद २०९, २५२, २७०,४१२, ४४९, ४६६, ४७८, ५२६ पुरिसबेदखवय २५२ पोग्गलपरियट्ट ३१७ व बंधमाण २२९ बारसकसाय २०३, ३९४ भ भय २६९, ४५२, ४७२, ४८२ भुजगार ८ भंगविचअ८, ३४५, ३४९ मणुसिणि २४१ मणुस्स २४१ माण-मायासंजलण २५० माणसंजलण २०८ मायासंजलण २०९ मास २०७, २०८ सव्वलहु २३१ सव्वविहत्ति ७ सागरोवमकोडाकोडि ४८१ सादियविहत्ति ७ सादिरेग ४११, ४१२, सामित्त ८, ४२५ सिया ३४८, ३५१, ___ ४२५ सेस २४१, २४४, २४५, २५६, २५८,३४८, र रदि २७०, ४४९, ४६७, ४८. ल लोभसंजलण २०५, ४१३ लोहसंचलण २५१ सण्णियास ८,४२५ सत्तरिसागरोवमकोडाकोडि १९४ समय ३६५ समऊण ४६५, ४८०, ४८१ समयूण ४४८,४५३,४५९, ४६८, ४७०,४७६, ४७८ सम्मत्त १६५, २०५,२३१, २४३, २५५,२६०, ३१८,३८८, ३६४, | ह ४१०,४२५,४५५, ४६१,४६७,५२५, ५७ ४७२,४९४, ४९५, ५२६, ५२७ सोग २६९, ४५३, ४७०, ४८१, ४८३ सोलसकसाय २३०, २६८, २९०, ३४६,४४७, ४५७,४५९,४६५, ' ४७७, ५२५ संखेज्ज २१०, ३९५,४१३ हस्स २७०, ४४६, २६७, ४८० Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह ३२४ अ अकम्मंसिअ अग्गडिदिसंतकम्म ३२४ ३२९ अहपद अणियट्टिअद्धा३२६, ३२७, ३२८ अणियट्टिपविट्ठ ३२२ अणंतगुण १०२, २८७ अणंतरविदिक्कत २ अणंताणुबंधि ५०,६८, ७७, १०२, १५०, ३०२, ३२८, ३३३ अणंताणुबंधिचउक्क २३ अण्ण ३२२, ३२६ अण्णदर ६,७,९ अपच्छिम . ३२४ अपुवकरणद्धा ३२७,३२८, ३२९ अप्पदर १,२,३ अप्पदरकम्मंसिअ १८,२५, ___ ४३, ८३ अप्पदरहिदिविहत्तिय ५०, ५१, ६७, ९६, १०२, १७३ अप्पदरहिदिविहत्तियंतर ७७ अप्पदरविहत्तिय ७ अप्पाबहुअ ९५, १०५, ११०, २७४, ३१९, ३२६, ३२९ अभवसिद्धियपाओग्ग ३२४ अरदि १११ अवट्ठाण १११,११२, १४० अवठ्ठाणटिदिविहन्तियंतर१९१ अवट्ठिद १, २४, ५१, ६७ अवट्टिदकम्मंसिअ १९, ४२ अवट्टिदकम्मंसियर ८७,२९० अवट्टिदहिदिविहत्तिय ५०, ९५, ९७, १०२, १६९ । परिसिट्टाणि पुस्तक ४ अवद्विदविहत्तिअ ६, ७ ॥ असंखेजभागहाणिहिदिअवत्तव्य १, २३,५०, १५० विहत्तियंतर १९३ अवत्तव्व अहोरत्त ७४, ७७ अवत्तव्धकम्मंसिअ २४ आ आदि ३१९ अवत्तव्वकम्मंसिय ३००, आवलिय ६७, ६८ ३०२ इ इत्थि ३३. अवत्तव्वविदिविहत्तिय ५१, । उ उक्कस्स १५, १९, २०, ६७, ६८, ७७, ९८, १०२ २६, ४२, ४३, अवत्तव्वविदिविहत्तियंतर ७४ ६७,६९, ७४, ७५ ७७, ११२, १६४, अवत्तव्यविहत्तिअ ३, ९ १६६, १६८, १६९ अविहत्तिय १९१, १६२, १९४ असंखेज उक्कस्सिय ११०, १११, असंखेजय १६८ ११०, ११३, ३१९ असंखेजगुण९५,९८,१०१, उज्वेल्लणकंडअ २२४ १०२. ११३, २७५ उस्सकाविद ६७८, २८७, २९० ऊण २९३, २९४, २९६ । ए एइंदियकम्म ३२२ ३००, ३०२ एइंदियपाओग्गकम्म ३१९ असंखेजगुणवडि १५० एगजीव १४, १६४, १९१ असंखेजगुणवट्टिकम्मंसिय एगसमअ १४, १९, २३, २४, ४२,४३, ६७ असंखेजगुणहाणि १४०, ७४, ७५, १६४, १६८ १६६, १६७, १६८, असंखेजगुणहाणिकम्मंसिय १६९, १९१, १९३ २७४, २८९, ३०२ एगूणवीससमय २० असंखेजगुणहाणिहिदि ओ. ओसक्काविद विहत्तियंतर १९३ । अं अंगुल ७५ असंखेजदिभाग ६७, ६८, अंतर ४२, ४३,७४, ७७, १९१ असंखेजभागवड्ढि १४०, अंतोमुहुत्त २०, ६५, ४३, १६९, १९१ असंखेजभागवट्टिकम्मंसिय अंतोमुहुत्तूण ३२३ २८७ अंतोमुहुत्तमेत्त ३२२ असंखेजभागहाणि १६६ कम्म ९, ६८, १९४,३२४ असंखेजभागहाणिकम्मंसिय कम्मंस . ३२४, ३२५ २८८, ३०२ । कसाय ३२९ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टाणि ___ काल ७, १४, १८, १९, | णिरंतर माणसंचलण ३३२ २४, २५, ४३, ६७, णेरड्य मायासंबलण ३३२ ७४, ७५, ७७, त तिरिक्ख ६, ७ मिच्छत ६, १४, ४ , ५०, १६४, १६९, १९१ तिरूवूण १६८ ८३, ९५, ११०, केवचिर १४, १८, १९, तुल्ल ३२४, ३३० १४०, १६४, ७४, २४, २५, ४३, तेवद्रिसागरोवमसद ११, ३१९, ३२४, ३३३ ६७, ७४, ७५, ७७ ४२, १६६, १९१ मिच्छत्तभंग ३०२ १६६, १६१ थ थोव १११, ३२५ ल लोभसंजलण ३३२ कोषसंजलण ३३२ द दुगुंछा १११ वड्डि १११, ११३, ११७, च चारित्तमोहणीयउवसामय देव ६,७ १४०, १६४ ३२७ दंसणमोहक्खवय ३२२ विसेसाहिय १११, ११२, चारितमोहणीयक्खवय३२६ दंसणमोहणीयउवसामय . ११३, ३३०, ३३१ छ छण्णोकसाय ३२९ ३३२, ३३३, ३३४ म जहण्ण १४, १६२५, दंसणमोहणीयक्खवय ३२८ • विसंजोएंत ३२८ - ४२, ४३, ६७,६८, पडिवण्ण ७ विहत्ति २ ७४, ७५, ७७, पद.७७, ११० वित्तिय ३, ६८ १६४, १६६, १६७ पदणिस्खेव १०५ वेछावट्टिसागरोवम ६ स सण्णियास ८३ पदय ५०, ११० १६८ सत्तरिसागरोवमकोडाकोडि जहण्णग परूवणा १०५, ३१९ ३२५ ३२३ जहण्णय पलिदोवम १९१ समय २,१५, १६४, जहण्णुक्कस्स २३, २४, पुरिसवेद ३३१ १६८ १६८, १९३ पुव्वुप्पण्ण ७ समयुत्तरमिच्छत्त ७ नीव. पोग्गलपरियट्ट १६२ सम्मत्त ७, २४, ५१, ६७, ३२४, ३२५ बहुअ ३२५ ७४, ८३, ९७, द्विदि बहुदर २ ११२, १५०, २८९ द्विदिविहत्ति बहुदरविहत्ति २ ३२३, ३३३ द्विदिविहत्तियंतर १९१ बारसकसाय ९७, २८८ सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवज द्विदिसंतकम्म ३२२, ३२५ बीजपद १६६, १९४ ट्ठिदिसंतकम्मट्ठाण३ १९, भ भय १११ सम्मामिच्छत्त ७, २४, ५१ ३२२, ३२३, ३२९, भजिदव्व ५१ ६७,७४,८३, ९७ ३३०, ३३१, ३३२ भुजगार १,६,७,४२, ११२, १५०, २८९ ३३३, ३३४ ___५१, ६७, ७४ । ३२३, ३३४ ण णवरि २०, ६८,७७, भुजगारकम्मंसिअ १४, ०, सरिस १११ १११, १५० सव्व ५०, ६८,७७ णवणोकसाय २०, ५०, भुजगारविदिविहत्तिय ५०, सबकम्म १११, १४१ ९७, २८८ ९५, ९८, १०२ सव्वत्थोवा ९५, ९७, १०२, णवुसयवेद १११, ३३१ भुजगारविहत्तिय २ ११०,११२, २७४ णाणाजीव ५०, ६७ भंगविचक्ष ५० २८६, ३०२, ३२६, णियमा ५१ | म मणुस्स ६, ७ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्व द्धा सादिरेग सादिरेय सामित्त साहण ३२६ सिया ८३ सेस ९, ४२, ६८, ७७, ८४, १९६, १९४, ३०२, ३२४ सोग १११ ६७, ६८ ७७ १९, २६, ४२ ११६, १९१ ६, १०५ अ अणिओगद्दार अाच्छेद ७ २१९ आ आवाहाकंडअ ४४९ उ उक्कस्सडिदि २६७, २९१ उक्कस्स डिदि अद्धच्छेद २९१ उत्तरपयडि उत्तरपयडिट्ठिदि ४, १९२ ज जहण्णडिदिअद्धाच्छेद २६७ १९२ अ अट्ठपद अद्धा अद्धाक्खअ अल्पतरविभक्ति १ १५ १५ २ १११ अवट्ठाण अवद्विदविहत्तिअ ३ अवत्तव्यविहन्तिअ ३ परिसिट्टाणि २०, ५० सोलस कसाय संजगुण ९६, १०२, २७५, २८१, २८८, २९८, २९९, ३००, ३०२, ३२७, ३२८, ३२९ १४०, १९१ संखेज गुणवढि संखेज गुणवड्डिकम् मंसिय २७८, २९६ संजगुणहाणि १६८ जयधवलागतविशेषशब्दसूची पुस्तक ३ ट १९३ द्वाण हिदि १९२, २०४, २४८ द्विदिविहत्ति ५, ६, १९१, १९२ ४९५ २३१ १९३ ४ ण णीद प पडिभग्ग पदणिक्खेव पडद पुस्तक ४ ख खल्लविल्लसंजोग छछेदभागहार ट विदिअणुभाग ध धुवद्विदि प परत्थाणव भ भुजगारविभक्तिक व वड्ढि १११, विसोहि ९९ १२२ २४० १२४ १२१ २ ११७ २७५ संजगुणहाणिकम्म' सिय संखेज भागव संखेज्जभागवड्डिकम्मंसिय २८१, २९८ संखेज भागहाणि १६८ संखेज भागद्दाणिकम्मंसिय पुरिसवेद म मूलपयडिडिदि व १७ २७५, २०० ह हाणि १११, ११२, ११३, १९१ व विसेसपञ्चय विसंजोएंत विहत्ति २७५ १४०, १९१ स सठाणवड्डि समभागहार सासणपरिणाम संकिलेस संकिलेसक्खअ संखा २५३ ३, ६ १९३ ४४८ २४६ ५ ११८ १२३ २४ १५ १८ १२३ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ attiebaty.org