________________
गा० २२ ]
वड्डपरूवणात्तं
२३१
९ ३७४, खेत्ताणुगमेण दुविहो णिसो - ओघे० आदेसे० । ओघेण छब्बीसं पयमसंखेजभागवड्डि- हाणि-अवट्ठिदाणि के० खेत्ते ? सव्वलोगे । सेसपदवि० लोग० असंखेज्जदिभागे । सम्मत्त० सम्मामि० सव्वपदवि ० लोग • असंखेजदिभागे । एवं तिरिक्खसच्चे इंदिय पुढ वि० - बादरपुढवि० - बादरपुढविअपज० आउ०- बादरआउ०- बादरआउअपज ०तेउ०- बादरतेउ०- बादरते उअपज ० - वाउ ० - बादरवाउ०- बादरवाउअपज ० सव्ववणप्फ दि ०. सम्वणिगोद - काय जोगि-ओरालिय-ओरालियमिस्स-कम्मइय० णवुंस ० चत्तारिकसाय-मदिसुदअण्णाण ०. असंजद ० - अचक्खु ० किण्ह णील - काउ०- भवसिद्धि ० - अभवसि ०.मिच्छादि०असणि० - आहार- अणाहारि ति । णवरि अभव० सम्म० - सम्मामि० णत्थि । सेसमासु अट्ठावीस पयडीणं सव्वपदवि० लोगस्स असंखेजमागे । णवरि छव्वीसं पय० असंखेज्जभागवड्डि-हाणि-अवट्ठिदवि० बादरवा उकाइयपजत्ता लोगस्स संखेजदिभागे । एवं खेत्ताणुगमो समत्तो ।
$ ३७४. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है ओघ और आदेश | ओघकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितका क्षेत्र कितना है ? सब लोक है । तथा शेष पदस्थितिविभक्तियोंका क्षेत्र लोकका असंख्यातवां भाग है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के सब पदस्थितिविभक्तियों का क्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग है । इसी प्रकार तिर्यंच, सब एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादरपृथिवीकायिक, बादरपृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादरजलकायिक, बादरजलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादरअग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादरवायुकायिक, बादरवायुकायिक अपर्याप्त, सब वनस्पति, सब निगोद, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणका योगी, नपुंसकवेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, अहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अभंव्योंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व नहीं हैं। शेष मार्गणाओंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पदस्थितिविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितस्थितिविभक्तिवाले बादरवाकायिक पर्याप्त जीवोंका क्षेत्र लोकका संख्यातवाँ भाग है ।
विशेषार्थ - ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितपदवाले जीवोंका प्रमाण अनन्त है और वे सब लोकमें पाये जाते हैं, क्योंकि इन पदोंको एकेन्द्रियादिक सब जीव प्राप्त होते हैं अतः इनका क्षेत्र सब लोक कहा । किन्तु शेष पदवाले जीव स्वल्प हैं अतः उनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीव भी थोड़े होते हैं अतः इनका सब पदोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र कहा । तिर्यंच आदि और जितनी मार्गणाओंका सब लोक क्षेत्र है उनमें यह ओघ प्ररूपणा बन जाती है अतः उनके कथनको ओघके समान कहा । किन्तु जिनमार्गणाओंका क्षेत्र. सब लोक नहीं है किन्तु लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है उनमें सब पदोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा । हाँ वायुकायिक पर्याप्त जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है । और इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितपदवाले जीव बहुतायत से पाये जाते हैं इसलिये पर्याप्त वायुकायिकों में इन पदवालोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण कहा । इस प्रकार क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org