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________________ २३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ पंचवचि०-इस्थि-पुरिस०-चक्खु०-सण्णि त्ति । आहार०-आहारमिस्स० सगसव्वपयडी० असंखेजभागहाणिवि० संखेज्जा । एवमकसा० जहाक्खादसंजदे ति । अवगद० सगसव्वपयडी० सव्वपदवि० संखेज्जा । एवं मणपज्जव०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहारसुहमसांपरायसंजदे त्ति । " ३७३. आमिणि-सुद०-ओहि० अट्ठावीसं पयडी० सवपदवि० असंखेज्जा । णवरि चउवीसं पयडीणं असंखेजगुणहाणि वि० संखेज्जा। एवमोहिदंस० सम्मादिट्टि त्ति । संजदासंजद० अट्ठावीसं पयडीणं सव्वपदवि० असंखेज्जा। णवरि दंसणतिय० संखेजगुणहाणि० असंखेजगुणहाणिवि० संखेज्जा । एवं वेदग० । णवरि सव्वपय० संखेज्जगुणहाणि. असंखेज्जा। सुकले० सव्वपयडीणं सव्यपदवि० असंखेज्जा। णवरि वावीसं पयडीणमसंखेजगुणहाणिवि० संखेजा। तेउ-पम्म० अट्ठावीसं पयडीणं सव्वपदवि० असंखेजा। णवरि मिच्छत्त० असंखेजगुणहाणिवि० संखेजा। खइय० एकवीसपय० असंखेजमागहा० असंखेजा। सेसपदवि० संखेजा। उवसमसम्मादिहि०. सासण० सम्मामि० सगपदवि० असंखेजा। अभव० छब्बीसं पयडीणमोघभंगो । णवरि असंखेजगुणहाणी णत्थि । एवं परिमाणाणुगमो समत्तो। गुणहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात ह । इसी प्रकार त्रस, त्रस पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, चक्षुदर्शनवाले और संज्ञी जीवोंक जानना चाहिए। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार अकषायी और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिए । अपगतवेदियोंमें अपनी सब प्रकृतियोंकी सब पदस्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसांपरायिकसंयत जीवोंके जानना चाहिए। ६ ३७३. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सब पदस्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि चौबीस प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार अवधिदर्शनवाले और सम्यग्दृष्टियोंके जानना चाहिए। संयतासंयतोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सब पदस्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात है। किन्तु इतनी विशेषता है कि तीन दर्शनमोहनीयकी संख्यातगुण असंख्यातगुणहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार वेदकसम्यग्दृष्टियोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि सब पदोंकी संख्यातगुणहानिस्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। शुक्ललेश्यावालोंमें सब प्रकृतियोंकी सब पदस्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि बाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। पीत और पद्मलेश्यावालोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंक सब पदस्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानि स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिस्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। तथा शेष पद स्थिति विभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। उपशमसम्यग्दृष्टि , सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें अपने पदस्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भंग ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि नहीं है । इस प्रकार परिमाणानुगम समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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