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________________ गा० २२ ] डिपरूवणा $ २२५. संपहि परत्थाणवड्डी उच्चदे || का परत्थाणवड्डी ? एइंदियादिहेडिमजीवसमासाओ उवरिमजीवसमासासु उत्पाइदे जा हिदीणं वड्डी सा परत्थाणवड्डी णाम । $ २२६. संपदि सत्थाणवड्डीए ताव णिरंतरवड्डिपरूवणं कस्सामो । तं जहासणिपंचिंदियपजत्तो मिच्छत्तस्स सव्वज हण्णिय मंतोकोडाको डिमेतट्ठिदिं बंधमाणो अच्छिदो तेण समयुत्तरजहण्णट्ठिदीए पबद्धाए असंखेजभागबड्डी होदि । पुणो तिस्से को भागो ? धुवट्ठी | दुसमयुत्तरादिट्ठिदीए पत्रद्धाए वि असंखेजभागवड्डी चैव होदि । तिस्से को पडिभागो ! पुव्वभागहारस्स दुभागो | तिसमयुत्तरजहण्णट्ठिदीए पबद्धाए' वि असंखेजभागवड्डी चैव होदि; तिस्से भागहारो पुव्वभागहारस्स तिभागो । तस्स को पडिभागो! वढिवाणि । एवं चत्तारि पंच-छ-सत्तट्ठादिकमेण वढावेदव्वं जाव धुवट्ठिदीए उवरि घुट्ठिी पलिदोवमसलागमेतद्विदीओ वडिदाओ ति । तासु वड्डिदासु वि असंखेजभागवड्डी चेव होदि; तक्काले धुवट्ठिदिभागहारस्स पलिदोवमपमाणत्तादो । पुणो तदुवरि एगसमयं वड्डदूण बंधमाणस्त वि असंखेज भागवड्डी चैव होदि । कुदो, तत्थ होने पर असंख्यातगुणहानि होती है। क्योंकि दूरापकृष्टि संज्ञावाली स्थिति के प्रथम स्थितिकांड कसे लेकर ऊपर की सब स्थितिकांडकोंकी घातकर शेष रही हुई सब स्थिति असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है । इस प्रकार संज्ञीपर्याप्तकके चार वृद्धियाँ और चार हानियाँ होती हैं तथा संज्ञी अपर्याप्तक के तीन वृद्धियाँ और तीन हानियाँ होती हैं यह निश्चित होता है । 1 § २२५. अब परस्थानवृद्धिका कथन करते हैं। शंका- परस्थानवृद्धि किसे कहते हैं ? १२१ समाधान — एकेन्द्रियादिक नीचेके जीवसमासोंको ऊपरके जीवसमासोंमें उत्पन्न करानेपर जो स्थितियोंकी वृद्धि होती है उसे परस्थानवृद्धि कहते हैं । ६ २२६. अब पहले स्वस्थानवृद्धिसंबन्धी निरन्तरवृद्धिका कथन करते हैं जो इस प्रकार हैजो संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव मिथ्यात्वकी सबसे जघन्य अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिको बांधकर अवस्थित है पुनः उसके एक समय अधिक जघन्य स्थितिका बन्ध होनेपर असंख्यात भागवृद्धि होती है। इसका क्या प्रतिभाग है ? ध्रुवस्थिति । दोसमय अधिक आदि स्थितिका बन्ध होनेपर भी असंख्यात भागवृद्धि ही होती है। इसका क्या प्रतिभाग है ? पूर्व भागहार अर्थात् ध्रुवस्थितिका दूसरा भाग प्रतिभाग है। तीन समय अधिक जघन्यस्थितिका बन्ध होनेपर भी असंख्यात भागवृद्धि ही होती है । इसका भागहार पूर्व भागहारका तीसरा भाग है । इस तीसरे भागको प्राप्त करने के लिये क्या प्रतिभाग है ? वृद्धिके अङ्क इसका प्रतिभाग है । इसी प्रकार चार, पाँच, छह, सात और आठ आदि के क्रम से ध्रुवस्थितिके ऊपर एक ध्रुवस्थितिमें पल्योंकी जितनी शलाकाएँ हों उतनी स्थितिकी वृद्धि होनेतक ध्रुवस्थितिको बढ़ाते जाना चाहिये । इतनी स्थितियोंके बढ़ जानेपर भी असंख्यात भागवृद्धि ही होती है; क्योंकि उस समय ध्रुवस्थितिका भागहार एक पल्य है । पुनः इसके ऊपर एक समय बढ़ाकर बाँधनेवाले जीवके भी असंख्यात भागवृद्धि ही होती है, क्योंकि यहाँपर ध्रुव 9 १ ता० प्रतौ पढिबढाए इति पाठः । १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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