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________________ ३०६ । जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ण सरिसत्तं ? एइंदिय-विगलिदिए हिंतो पंचिंदियअपजत्तजहण्णहिदिबंधादो संखे०- . भागेणूणट्ठिदिसंतेण पंचिंदिएसुप्पण्णेसु संकिलेसेण विणा जाइबलेणेव संखे०भागवड्डिदंसणादो ण सरिसत्तं । ण, विगलिंदिएहिंतो संखे०भागहाणिहिदिकंडयमाढविय पंचिंदिएसुप्पण्णसंखे०भागहाणिहिदिविहत्तियाणं पुव्विल्लसंखे भागवहिहिदिविहत्तिएहिंतो सरिसत्तादो। एदमत्थपदमण्णत्थ वि वत्तव्वं । : ५८७. पंचिंदियतिरिक्ख-मणुस्सअपज० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० णेरइयभंगो। अणंताणु०चउक० णेरइयमिच्छत्तभंगो। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणिसंतकम्मिया। संखेगुणहाणिसंतक० असंखे०गुणा। संखे०भागहाणिसंतक० असंखे०गुणा । चुण्णिसुत्ते संखेजगुणा त्ति भणिदं, मज्झिमविसोहिवसेण पदमाणत्तादो । उच्चारणाए पुण असंखेजगुणत्तं वुत्तं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि मिच्छत्तादिकम्मेहि सरिसाणि ण होति, भिण्णजादित्तादो। तेण एदेसिं दोण्हं कम्माणं संखेजगुणहाणिविहत्तिएहिंतो संखे०भागहाणिविहत्तिया असंखे०गुणा होति ति उच्चारणाइरिएण लधुवएसो) असंखेजभागहाणिक० असंखे गुणा । एवं पंचिंदियअपजत्ताणं । ६५८८. मणुस्सेसु बावीसं पयडीणं सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणिक० । प्रतिशंका-समानता क्यों नहीं है ? शंकाकार—पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके जघन्य स्थितिबन्धसे संख्यातवें भागकम स्थितिसत्त्वके साथ जो एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं उनके संक्लेश के बिना केवल जातिके बलसे संख्यातभागवृद्धि देखी जाती है, अतः समानता नहीं है ? समाधान-नहीं, क्योंकि विकलेन्द्रियोंमें संख्यातभागहानि स्थितिकाण्डकको आरम्भ करके पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाले संख्यातभागहानिस्थितिविभक्तिवाले जीव पूर्वोक्त संख्यातभागवृद्धिस्थितिविभक्तिवाले जीवोंके समान होते हैं। यह अर्थपद अन्यत्र भी कहना चाहिये। ६५८७. पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका भंग नारकियोंके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग नारकियोंके मिथ्यात्वके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिसत्कर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे संख्यातगुणहानिसत्कर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागहानिसत्कर्गवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। चूर्णिसूत्र में इन्हें संख्यातगुणा कहा है, क्योंकि मध्यम विशुद्धिके कारण उनका पतन हो जाता है। परन्तु उच्चारणामें असख्यातगणा कहा है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व मिथ्यात्व आदि कर्मों के समान नहीं होते, क्योंकि इनकी भिन्न जाति है, अतः इन दोनों कर्मोंकी संख्यातगुणहानिविभक्तिवालोंसे संख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं, उच्चारणासे इस प्रकार उपदेश प्राप्त हुआ। इनसे असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार पंचेन्द्रियअपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। ६५८८. मनुष्योंमें बाईस प्रकृतियोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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