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________________ गा० २२] द्विदिवत्तीय उत्तरपयडिभुजगारअंतरं $ १५६. आदेसेण य रइएसु मिच्छत्त- सोलसक०-णवणोक० भुज० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । सेस० ओघं । एवं सव्वणेरइय-पंचिंदियतिरिक्ख तिय-मणुस्सतिय-देव० भवणादि जाव सहस्सार ० - पंचिंदिय-पंचिं ० पज्ज० -तस-तसपज्ज० - पंचमण० - पंचवचि०वेउब्विय०-इत्थि०-पुरिस० - चक्खु ० - ते उ० पम्म० -सणि त्ति । पंचिदियतिरिक्खअपञ्ज० मिच्छत्त- सोलसक० - णवणोक० तिण्णि पदा णिरओघं । सम्म० सम्मामि० अप्प० ओघं । एवं सव्वविगलिंदिय-पंचिं ० अपज्ज० - बादरपुढ विपज्ज०- बादरआउपज्ज० -बादरतेउपज्ज०बादरवाउपज्ज० - बादरवणफदिपत्तेय० पज्ज० तसअपज० - विहंगणाणि त्ति । मणुस अपज० मिच्छत्त-सोलसक॰-णवणोक० तिष्णिपदा० सम्मत्त सम्मामि० अप्पद ० ज ० एस ०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । एवं वेउब्वियमिस्स० । णवरि उकस्संतरं बारस मुहुत्ता | इसमें सामंजस्य बिठानेकी सूचना की है उसका रहस्य यही प्रतीत होता है । इस प्रकार इन दोनों मतभेदों का वास्तविक कारण क्या होना चाहिए इसका विचार किया । $ १५६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायों की भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । शेष कथन ओघ के समान है। इसी प्रकार सब नारकी, पंचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिक, मनुष्यत्रिक, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, चतुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके जानना । पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके तीन पदोंका भंग सामान्य नारकियोंके समान है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरस्थितिविभक्तिका भंग ओघ के समान है । इसी प्रकार सब विकले - न्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, त्रसअपर्याप्त और विभंगज्ञानी जीवोंके जानना । मनुष्य अपर्याप्तकों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके तीन पदोंको तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त है । विशेषार्थ — नारकियों में मिथ्यात्व आदि २६ प्रकृतियोंकी भुजगार स्थिति विभक्तिके अन्तर में ही विशेषता है शेष सब कथन ओघ के समान है । विशेषताका उल्लेख ओघमें किया ही है । कुछ और मार्गणाएँ हैं जिनमें यह प्ररूपणा बन जाती है, अतः उनके कथनको सामान्य नारकियों के समान बतलाया है । जैसे प्रथमादि नरकके नारकी आदि। पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका एक अल्पतर पद ही होता है । परन्तु यहाँ ये दोनों प्रकृतियाँ निरन्तर पाई जाती हैं अतः यहाँ इन दोनों प्रकृतियोंके अल्पतर पदका अन्तरकाल नहीं पाया जाता । ओसे भी यही बात प्राप्त होती है अतः इस कथनको ओघ के समान बतलाया है । शेष कथन सामान्य नारकियों के समान है यह स्पष्ट ही है । सब विकलेन्द्रिय आदि कुछ और मार्गणाएँ हैं जिनमें यह प्ररूपणा बन जाती है अतः उनके कथनको पंचेन्द्रियतिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान बतलाया है । मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है । इसका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्के असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसलिये यहाँ सब प्रकृतियोंके अपने अपने सम्भव पदोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्तप्रमाण बतलाया है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोग में Jain Education International ७६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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