SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ ६१५७. आणदादि जाव उवरिमगेवजो ति अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्व० सम्मत्त०सम्मामि० भुज० अप्पदर०-अवद्विद०-अवत्तव्व० ओघ । सेसपयडि. अप्पदर० णत्थि अंतरं । एवं सुक्क० । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठ० सव्वपय० अप्पदर० णत्थि अंतरं । एवमाभिणि-सुद०-ओहि० मणपञ्ज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद०. ओहिदंस०-सम्मादि०-खइय० वेदय दिहि त्ति । $ १५८. एइंदिएसु सव्वपयडी० सव्वपदाणं णत्थि अंतरं । एवं बादरसुहुमेइंदियपजतापजत्त-बादरपुढविअपज्ज०- सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-बादरआउअपज्ज-सुहुमाउ पज्जत्तापज्जत्त-बादरतेउअपज्ज०-सुहुमतेउपज्जत्तापज्जत्त - बादरवाउअपज्ज०-सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणफदि० सुहुमवणप्फदि-बादरणिगोद०-सुहुमणिगोदपज्जत्तापज्जत्तबादरवणप्फदिपत्तयअपज्ज-ओरालियमिस्स०मदि०-सुद०-मिच्छादि० असण्णि त्ति । जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकमिश्रकाययोगका उत्कृष्ट अन्तरकाल बारह मुहूर्त है इसलिये यहाँ सब,पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल बारह मुहूर्त बतलाया है। १५७. आनत कल्पसे लेकर उपरिम अवेयकतकके देवोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्ति तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका अन्तर ओघके समान है। तथा शेष प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवोंके जानना। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना- संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना। विशेषार्थ-आनतसे लेकर उपरिम प्रैवेयकतकके देवोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अल्पतर और अवक्तव्य ये दो पद, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके चारों पद तथा शेष प्रकृतियोंका एक अल्पतर पद ही प्राप्त होता है। यहाँ सब प्रकृतियोंका अल्पतर पद तो सदा पाया जाता है इसलिये इसका अन्तरकाल नहीं बतलाया। अब रहे पूर्वोक्त शेष पद सो इनका ओघके समान अन्तरकाल यहाँ भी बन जाता है। कारण स्पष्ट है । शुक्ललेश्यामें भी यह व्यवस्था प्राप्त होती है इसलिये इसके कथनको आनतादिकके समान बतलाया है। अनुदिशादिकमें सम्यग्दृष्टि जीव ही होते हैं, अतः उनके सब प्रकृतियोंका निरन्तर एक अल्पतर पद ही होता है इसलिये इसका अन्तरकाल नहीं कहा। आगे आमिनिबोधिकज्ञानी आदि और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी एक अल्पतर पद ही होता है, अतः उनका कथन अनुदिश आदिके समान जानने की सूचना की है। ६ १५८. एकेन्द्रियोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंका अन्तरकाल नहीं है। इसीप्रकार बादर एकेन्द्रिय नथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर जलकायिक तथा उनके अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक तथा उनके अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वायुकायिक तथा उनके अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पति कायिक, सूक्ष्म वनस्पति कायिक, बादर निगोद और सूक्ष्म निगोद तथा इन सबके पर्याप्त और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy