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________________ ८१ गा० २२] विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारअंतरं $ १५६. आहार-आहारमिस्स० सव्वपयडी० अप्पदर० जह० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । एवमकसा०-जहाक्खादसंजदे ति । कम्मइय० ओरालियमिस्सभंगो । णवरि सम्मत्त०-सम्मामि० अप्पद० ज० एगसमओ, उक० अंतोमु० । एवमणाहारीणं । १६०. अवगद० मिच्छत्त-सम्मत्त सम्मामि०-अट्टक० अप्प० ज० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं । एवमट्टणोकसायाणं । पुरिस०-चदुसंज. अप्पद० ज० एगस०, उक० छम्मासा । सुहुम० लोभसंज० अवगदवेदभंगो । दंसणतिय एकारसक०-णवणोक० अकसायभंगो। अभवसि छव्वीस पयडीणं मदि०भंगो।। अपर्याप्त, बादर वनस्पति कायिक प्रत्येकशरीर और उनके अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंका प्रमाण अनन्त है इसलिये उनमें मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोंके यथाम्भव पदोंका अन्तरकाल नहीं प्राप्त होता। यद्यपि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीव असंख्यात ही हैं फिर भी इनका यहाँ एक अल्पतर पद ही है अतः इसका भी अन्तर काल नहीं प्राप्त होता। बादर एकेन्द्रिय आदि मूलमें और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी यही व्यवस्था प्राप्त होती है। १५६. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। इसी प्रकार अकषायी और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिए। कार्मणकाययोगी जीवोंमें औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। तथा इन योगोंमें सब प्रकृतियोंका एक अल्पतर पद ही होता है। इसलिये इन दोनों योगोंमें सब प्रकृतियोंके अल्पतर पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण कहा है। अकषायी और यथाख्यातसंयत जीवोंके सब प्रकृतियोंका अल्पतर पद उपशम श्रेणिमें ही प्राप्त होता है और उपशम श्रेणिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्तप्रमाण है अतः इन दोनों मार्गणाओंमें सब प्रकृतियों के अल्पतर पदका अन्तरकाल पूर्वोक्त प्रमाण बतलाया है। कार्मणकाययोगमें औदारिकमिश्रकाययोगसे जो विशेषता है वह सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंके सम्बन्धमें है। बात यह है कि कार्मणकाययोगका प्रत्येक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है। अब यदि नाना जीवोंकी अपेक्षा भी विचार किया जाता है तो इसमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है जो औदारिकमिश्रकाययोगमें नहीं प्राप्त होता। यही कारण है कि यहाँ जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है। अनाहारक अवस्था कार्मणकाययोगकी अविनाभाविनी है इसलिये इनका कथन भी कार्मणकाययोगियोंके समान बतलाया है। ६१६०. अपगतवेदी जीवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और आठ कषायके अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। इसी प्रकार आठ नोकषायोंके अल्पतर पदका अन्तर काल जानना चाहिए। पुरुषवेद और चार संज्वलनके अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें लोभसंज्वलनका भङ्ग अपगतवेदी जीवोंके समान है। तीन दर्शनमोहनीय, ग्यारह कषाय और नौ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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