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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ तेण सूचिदत्थपरूवणद्वमुच्चारणाणुगमं कस्सामो।) $ १५५. अंतराणुगमेण दुविहो-णिदेसो ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्तबारसक० णवणोक० तिण्णि पदाणं णत्थि अंतरं । अणंताणु०चउक्क० एवं चेव । णवरि अवत्तव्व० जह० एगसमओ, उक० चउवीस अहोरत्ते सादिरेगे। सम्मत्त-सम्मामि० अप्पदर० णत्थि अंतरं । भुज० ज० एगस०, उक्क० चउवीस अहोरत्ते सादिरेगे । एवमवतव्वस्स वि वत्तव्वं; विसेसाभावादो। अवढि० ज० एगसमओ, उक्क० असंखे०लोगा। कुदो ? ट्ठिदिबंधज्झवसाणहाणेसु असंखे०लोगमेत्तेसु अंतराविदे तदुवलंभादो। चुण्णिसुत्तेण एदस्स विरोहो किण्ण होदि ? होदि चेव, किं तु जाणिय जहा अविरोहो होदि तहा वत्तव्वं । एवं तिरिक्ख० कायजोगि०-ओरालि०-णवूस०-चत्तारिक०-असंजद०-अचक्खु०. तिण्णिले०-भवसि०-आहारि ति।। उच्चारणाका अनुगम करते हैं $ १५५. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है.-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारहकषाय और नौ नोकषायोंके तीन पदोंका अन्तरकाल नहीं है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कका इसीप्रकार जानना। किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एकसमय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिनरात है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिका अन्तरकाल नहीं है । भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिनरात है। इसी प्रकार अवक्तव्यस्थितिविभक्तिका भी कहना चाहिये। क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यातलोकप्रमाण है। शंका-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित स्थितिविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यातलोकप्रमाण क्यों है ? समाधान—क्योंकि असंख्यात लोकप्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंका अन्तर करानेपर वह अन्तरकाल प्राप्त होता है। शंका-इस कथनका चूर्णिसूत्र के साथ विरोध क्यों नहीं होता है। समाधान-विरोध तो होता ही है किन्तु जानकर जिस प्रकार अविरोध हो उस प्रकार कथन करना चाहिये। ___इसीप्रकार तिर्यंच, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना। विशेषार्थ-- यद्यपि चूर्णिसूत्रकारने सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी अवस्थित स्थितिविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है परन्तु यहाँ उच्चारणाके अभिप्रायानुसार वह अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण बतलाया गया है। सो यद्यपि इन दोनों कथनोंमें विरोध तो है फिर भी ऐसा मालूम होता है कि चूर्णिसूत्रकार स्थितिविकल्पोंके अन्तरका मूल कारण स्थितिबन्धके कारणभूत परिणामोंको नहीं स्वीकार करके उक्त कथन करते हैं और उच्चारणाचार्य स्थितिबन्धके विकल्पोंके अन्तरका कारण परिणामोंको स्वीकार करके उक्त कथन करते हैं। यही कारण है कि यहाँ इन दोनों प्ररूपणाओंमें मतभेद दिखलाई देता है। यदि यह निष्कर्ष ठीक है तो इसे विवक्षाभेद कहा जा सकता है । वीरसेन स्वामीने इस मतभेदका उल्लेख कर जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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