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________________ ४४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ मिच्छत्तभंगो । अप्प० ज० एगस०, उक० वे छावद्विसागरो० देसूणाणि । अवत्तव्च० ज. अंतोमु०, उक्क० अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूणं । सम्मत्त-सम्मामि० भुज०-अवढि० ज० अंतोमुहुत्तं, अप्पदर० ज० एगस०, अव्वत्तव० ज० पलिदो० असंखे०भागो । उक. सव्वेसि पि अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं । एवमचक्खु०-भवसिद्धियाणं । अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा सभी स्थितिविभक्तियोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। इसी प्रकार अचक्षुदर्शनवाले और भव्य जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-एक जीवने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की, पश्चात् वह कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर तक विसंयोजनाके साथ रहा और अन्त में जाकर उसने अवक्तव्य स्थितिविभक्तिपूर्वक अल्पतर स्थितिको प्राप्त किया। इस प्रकार अनन्तानुबन्धीकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर प्राप्त होता है। जिसने अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना की है ऐसा एक जीव मिथ्यात्वमें गया और वहाँ उसने अवक्तव्य स्थितिको प्राप्त किया। तदनन्तर दसरी बार अन्तर्महर्तके भीतर उसने मिथ्यात्वसे वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके अन्तर्महूर्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त किया और इस प्रकार दूसरी बार अवक्तव्यस्थितिको प्राप्त किया। इस प्रकार अवक्तव्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्महर्त प्राप्त हो जाता है। तथा जिस जीवने अर्ध पुद्गलपरिवर्तन कालके प्रारंभमें और अन्तमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके मिथ्यात्वको प्राप्त किया है उसके अवक्तव्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवतन प्रमाण प्राप्त होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थित स्थिति सम्यग्दर्शन ग्रहण करनेके पहले समयमें होती है । अतः जिसने अन्तर्महूतके अन्दर दो बार सम्यक्त्वको ग्रहण करके भुजगार या अवस्थित स्थितिको किया है उसके उक्त प्रकृतियोंकी भुजगार या अवस्थित स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तमहूर्त प्राप्त होता है। जो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिको कर रहा है उसने एक समय तक भुजगार या अवस्थित स्थितिको किया और पुनः अल्पतर स्थितिको करने लगा उसके उक्त प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनामें पल्यका असंख्यातवां भागप्रमाण काल लगता है और अवक्तव्य स्थिति उद्वेलनाके बिना प्राप्त नहीं होती अतः सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्य स्थितिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। जिसने अर्धपुद्गल परिवर्तन कालके प्रारंभमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता प्राप्त करके यथासम्भव भुजगार आदि स्थितियोंको किया । अनन्तर इनकी उद्वेलना करके कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक २६ प्रकृतियोंकी सत्ताके साथ रहा। पश्चात् कुछ कालके शेष रह जानेपर पुनः इनकी सत्ताको प्राप्त करके उक्त भुजगार आदि स्थितियोंको किया । इस प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार आदि स्थितियोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण प्राप्त होता है। यहाँ हमने सब प्रकृतियोंकी भुजगार आदि स्थितियों के अन्तरका खुलासा नहीं किया है। जिनका आवश्यक था उन्हींका किया है। शेषका मूलसे होजाता है। इसी प्रकार मार्गणाओंमें भी जहाँ जिसके खुलासा करनेकी आवश्यकता होगी उसीका किया जायगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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