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________________ ७२ धवलास हिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ सुद० - ओहि ०. ०-- मण पज्ज० - संजद ० - सामाइय - छेदो ० - परिहार ० - संजदासंजद ० - ओहिदंस ०सम्मादि० खइय० - वेदद्य ० दिट्ठि त्ति । - १४०. इंदि मिच्छत्त सोलसक० णवणोक० सव्वपदाणमोघं । सम्मत्त०सम्मामि० अप्पद० केव० १ सव्वद्धा । एवं बादरेइं दिय- सुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्त- बादरपुढविअपज्ज० - सुहुम पुढ विपज्जत्तापज्जत - बादरआउअपज्ज० - सुहुमआउपज्जत्तापज्जत्तचादरतेउअपज्ज०- सुहुमते उपज्जत्तापज्जत - बादरवाउअपज्ज० - सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्तवफादि- णिगोद- बादरसुहुमपज्जत्तापज्जत्त - बादरवणष्फ दिपत्तेयसरीरअपज्ज० - ओरालिय मिस्स ० म दि० सुद० - मिच्छादि० असणि त्ति । है । इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवों के जानना चाहिए। अनुदिशने लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है । इसी प्रकार अनि भिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ – आनतादिकमें मिध्यात्व आदि २६ प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थिति ही होती है। अतः वहाँ इसका सर्वदा काल बन जाता है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीकी वक्तव्य स्थिति भी होती है सो उपक्रम कालके अनुसार इसका यहाँ भी ओघ के समान काल बतलाया है। अब रहीं सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियाँ सो इनके यहाँ चारों पद बन जाते हैं । उनमें से तीन पदोंका तो उपक्रम काल के अनुसार जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण बतलाया है । और अल्पतर स्थितिवालोंका सर्वदा सद्भाव पाया जाता है इसलिये इसका सर्वदा काल बतलाया है । शुक्ललेश्या में यह व्यवस्था बन जाती है, अतः उसमें सब प्रकृतियों के सम्भव पदोंके कालको पूर्वोक्त प्रमाण कहा है। अनुदिशादिमें तो सब प्रकृतियों की एक अल्पतर स्थिति ही होती है, परन्तु वहाँ सब प्रकृतियोंका सर्वदा सद्भाव पाया जाता है इसलिये वहाँ अल्पतर स्थितिका सर्वदा काल बतलाया है । आभिनिबोधिकज्ञानी आदि जो और मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार बतलानेका कारण यह है कि उनमें भी अनुदिशादिकके समान व्यवस्था प्राप्त होती है । $ १४०. एकेन्द्रियों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके सब पदोंका भंग ओघके समान है | सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरस्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? सब काल है । इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय और इन दोनोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक और इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक और इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपति, सूक्ष्मायिक और इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक और इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, वनस्पति, निगोद तथा इन दोनोंके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रताज्ञानी, मिध्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ — ओघ में मिथ्यात्व आदि २६ प्रकृतियों के भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदोंका जो काल कहा है वह एकेन्द्रियोंकी मुख्यतासे ही बतलाया है अतः यहाँ उक्त प्रकृतियों के उक्त पदों के कालको ओघ के समान कहा । तथा एकेन्द्रियों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका एक अल्पतर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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