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________________ गा० २२ ] डिपरूवणाए सामित्तं १६१ 1 इस्स । वरि अणताणु ० चउक • अवत्तव्वं कस्स ? मिच्छाइट्ठिस्स पढमसमय संजुत्तस्स । सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं चत्तारि वड्डी अवट्ठाणमवत्तव्वं च कस्स ? अण्णद० पढमसमयसम्माइट्ठस्स । चत्तारि हाणी० कस्स १ अण्णद० सम्माइट्ठिस्स मिच्छाइट्ठिस्स वा । एवं मणुस तिय- पंचिदिय - पंचिं ० पज्ज० - तस-तसपज्ज० - प ० - पंचमण० - पंचवचि ० - कायजोगिओरालि० - तिण्णिवेद- चत्तारिक ० चक्खु ० - अचक्खु ० - भवसि ० सण्णि आहारिति । O $ २६८. आदेसेण पोरइएसु मिच्छत्त- बारसक० णवणोक० ओघं । णवरि असंखेज्ज - गुणहाणी णत्थि । सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणमोघं । णवरि असंखेज्जगुणहाणी मिच्छाइस चैव । अनंताणु ० चउक्क० सव्वपदाणमोघं । एवं सव्वणेरइय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख- पंचिं० तिरि०पज्ज० - पंचिं० तिरि० जोणिणि देव० भवणादि जाव सहस्सार० 1 दृष्टि होती हैं। असंख्यातगुणहानि किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टिके होती है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्य किसके होता है ? जो सम्यग्दृष्टि मिथ्यात्व में जाकर अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होता है उस मिध्यादृष्टि के प्रथम समय में होता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की चार वृद्धियाँ, अवस्थान और अवक्तव्य किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि के प्रथम समय में होते हैं । चार हानियाँ किसके होती हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होती हैं। इसी प्रकार मनुष्यत्रिक, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस त्रसपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, तीनों वेदवाले, चारों कषायवाले, चतुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य, संज्ञी और आहारकों के जानना चाहिए । विशेषार्थ - स्वामित्व अनुयोगद्वार में वृद्धि और हानि आदिका कौन स्वामी है इसका विचार किया है । यह तो सुनिश्चित है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर सम्यग्दृष्टिके शेष प्रकृतियों की स्थिति में वृद्धि नहीं होती । उसमें भी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी वृद्धि सम्यदृष्टि प्रथम समय में ही होती है । अतः यह निश्चित हुआ कि २६ प्रकृतियोंकी तीन वृद्धियाँ और अवस्थान मिथ्यादृष्टिके ही होते हैं । किन्तु हानियाँ सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टि दोनोंके सम्भव हैं । उसमें भी असंख्यातगुणहानि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयके क्षपणा में ही होती है, अतः निश्चित हुआ कि तीन हानियाँ सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टि दोनोंके होती हैं । किन्तु संख्यातगुणहानि सम्यग्दृष्टिके ही होती है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्य भी होता है । जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर दी है वह जब नीचे जाता है तभी अनन्तानुबन्धीका अवक्तव्य होता है । यही कारण है कि जो मिथ्यात्व के प्रथम समय में अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होता है उसके अनन्तानुबन्धीका अवक्तव्य बतलाया। अब रही सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति सो जैसा कि पहले बतलाये हैं कि इनकी वृद्धियाँ सम्यग्दृष्टि के प्रथम समय में ही सम्भव हैं तदनुसार चार वृद्धियाँ अवस्थान और अवक्तव्य तो सम्यग्दृष्टिके प्रथम समय में ही होते हैं। हाँ चारों हानियाँ मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनोंके होती हैं I ६२६८. आदेशकी अपेक्षा नारकियों में मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका कथन शोध के समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ असंख्यातगुणहानि नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कथन ओधके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि मिध्यादृष्टिके ही होती है । तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सब पदोंका भंग ओघ के समान है । इसी प्रकार सब नारकी, तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्येच पर्याप्त, पचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, वैक्रियिक काययोगी, असंयत और २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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