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________________ हिदिविहत्तीए उत्तरयरिअप्पा बहुअं ६५ णियमा अप० विहत्तिओ । एवं सेससत्तावीसं पयडीणं पुध पुत्र सण्णियासो कायव्वो । अभव० छव्वीसं पय० असणि० भंगो । एवं सणियासाणुगमो समत्तो । * अपबहुत्रं । १७७. सुगममेदं । * मिच्छुत्तस्स सव्वत्थोवा भुजगारद्विदिविहन्तिया । १७८. कुदो ? अद्धासंकिलेसक्खएण' दुसमयसंचिदत्तादो । एइंदिएहिंतो विगलसगलिदिएप्पजिय भुजगारं कुणमाणजीवा अत्थि, किं तु ते अप्पहाणा; जगपदरस्स असंखेज्जदिभागपमाणत्तादो । * अवद्विदद्विदिविहत्तिया असंखेज्जगुणा । १७९. को गुणगारो १ अंतोमुहुत्तं संखेज्जावत्तियमेत्तं । कुदो ? एगट्ठिदिबंध कालस्स उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तपमाणत्तादो । एगट्ठिदिबंधस्स उक्कस्सकालो बहुओ ण संभवदित्ति संखेज्जसमयमेत्तो द्विदिबंधकालो घेप्पदि त्तिण वोत्तु जुत्तं; मूलग्गसमासं कादुण अद्धिय डिदिबंधमज्झिमद्धाए गहिदाए विसंखेज्जावलियमेत्तस्स अवदिट्ठिदिबंध कालस्सुवलंभादो । एत्थ अवट्टिदजीव पमाणाणयणं वुच्चदे । तं जहा – एक्कम्मि समए जदि अणंतो जीवरासी स्थितिविभक्तिवाला है वह शेष सत्ताईस प्रकृतियोंकी नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है । इसीप्रकार शेष सत्ताईस प्रकृतियों की अपेक्षा अलग अलग सन्निकर्ष करना चाहिये | अभव्यों में छब्बीस प्रकृतियों का भंग असंज्ञियोंके समान है । इसप्रकार सन्निकर्षानुगम समाप्त हुआ । * अब अल्पबहुत्वानुगमका अधिकार है । $ १७७. यह सूत्र सुगम है । * मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । $ १७८. क्योंकि अद्धाक्षय और संक्लेशक्षय के केवल दो समयों में जितने जीवोंका सञ्चय होता है उतने ही मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिवाले यहाँपर ग्रहण किये हैं । यद्यपि एकेन्द्रियों में से विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रियों में उत्पन्न होकर भुजगार स्थितिविभक्तिको करने वाले जीव होते हैं परन्तु वे यहाँपर अप्रधान हैं, क्योंकि वे जगप्रतर के असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं । * अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । § १७६. गुणकारका प्रमाण क्या है ? संख्यात आवलि प्रमाण अन्तर्मुहूर्त गुणकारका प्रमाण है, क्योंकि एक स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । यदि कहा जाय कि एक स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल बहुत संभव नहीं है, अतः संख्यात समयमात्र स्थितिबन्धकाल लेना चाहिये सो भी कहना युक्त नहीं है, क्योंकि स्थितिबन्धके मूल और अग्रकालको जोड़कर और आधा करके स्थितिबन्धके मध्यम कालके ग्रहण करने पर भी अवस्थित स्थितिबन्धकाल संख्यात आवलिप्रमाण प्राप्त होता है । अब यहाँ अवस्थित जीवोंका प्रमाण लानेकी विधि कहते हैं । वह इस प्रकार है १ ता० प्रतौ अद्धासंकिलेसक्खय इति पाठः । २ ता० आ० प्रत्योः बहुआणं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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