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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ पंचिंदिय-पंचिं०पज-तस-तसपज०-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालिय०-उविय-तिण्णिवेद०-चत्तारिक०-असंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-पंचले०-भवसि०-सण्णि.. आहारि ति मूलोघभंगो । णवरि वेउव्विय किण्हणील-काउ० पढमपुढविभंगो । वेउवि०किण्ह-णील० सम्म०-सम्मामि० विदियपुढविभंगो।। ६ १७०. पंचिंतिरिक्खअपजत्ताणं जोणिणिभंगो। णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छनारकियोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि तिर्यंचयोनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके दूसरी पृथिवीके समान भंग है। मनुष्यत्रिक, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, बस पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि पाँच लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके मूलोघके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि वैक्रियिककाययोगी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले जीवोंके पहली पृथिवीके समान भंग है । इसमें भी वैक्रियिककाययोगी, कृष्णलेश्यावाले और नीललेश्यावाले जीवोंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग दूसरी पृथिवीके समान है। विशेषार्थ-पहले जो ओघ प्ररूपणा बतलाई है वह नारकियोंमें घट जाती है। किन्तु एक विशेषता है वह यह कि ओघसे सम्यग्मिध्यात्वकी अल्पतर स्थितिमें मिथ्यात्व है और नहीं है यह बतलाया है वह व्यवस्था यहाँ लागू नहीं होती; क्योंकि क्षायिकसम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके समय ओघ प्ररूपणामें उक्त व्यवस्था घट जाती है पर नारकी जीवोंके क्षायिकसम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति सम्भव नहीं। नरकमें या तो क्षायिकसम्यग्दर्शन होनेके बाद जीव उत्पन्न हो सकता है या कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न हो सकता है। अतः नरकमें सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिमें मिथ्यात्व नियमसे है। तथा इसके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित ये तीनों पद भी सम्भव हैं। यह ओघ प्ररूपणा पहले नरककी अपेक्षासे बतलाई है; क्योंकि यह विशेषता वहीं घटित होती है। द्वितीयादि नरकोंमें दो अपवादोंको छोड़कर और सब पूर्वोक्त कथन बन जाता है। बात यह है कि द्वितीय आदि नरकोंमें कृतकृत्यवेदकसम्यम्हाष्ट उत्पन्न नहीं होता, अतः वहाँ सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिके समय मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व नियमसे हैं। उसमें भी इस अवस्थामें मिथ्यात्वके भुजगार आदि तीनों पद सम्भव हैं और सम्यग्मिथ्यात्वका एक अल्पतर पद ही होता है। तथा उक्त नरकोंमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि नहीं उत्पन्न होता। अतः वहाँ बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतर स्थितिके समय मिथ्यात्व नियमसे है। तथा इसके तीनों पद भी सम्भव हैं। आगे मूलमें सामान्य तिर्यश्च आदि कुछ ऐसी मार्गणाएँ बतलाई हैं जिनमें सन्निकर्षकी प्ररूपणा सामान्य नारकियों के समान घटित होती है। किन्तु तियंञ्चयोनिमती आदि कुछ ऐसा मार्गणाएँ हैं जिनमें सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते हैं । अत: उनमें दूसरे नारकियों के समान सन्निकर्ष प्राप्त होता है। अतः इनके कथनको सामान्य नारकी या दूसरे नरकके नारकियों के समान जानना चाहिये। तथा मनुष्यत्रिक आदि कुछ ऐसी भी मार्गणाएं हैं जिनमें ओघ प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, अतः उनके कथनको ओघके समान जानना चाहिये। तो भी चार मार्गणाओंमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि कापोतलेश्या कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके भी प्राप्त होती है इसलिये इसमें पहली पृथिवीके समान कथन बन जाता है और वैक्रियिककाययोग, कृष्ण तथा नील लेश्यामें कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती, इसलिये इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कथन दूसरी पृथिवीके समान प्राप्त होता है। ६१७०. पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्तक जीवोंके तिर्यश्चयोनिनीके समान भंग है। किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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