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________________ १६४. जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ * उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । $ ३२३. कुदो ? असंखेजभागहाणीए अच्छिदजीवेण अवट्ठिदबंधं गंतूण सव्वुक्कस्समंतोमुहुत्तद्धमच्छिदेण असंखेजभागहाणीए कदाए उकस्समंतरुवलंभादो। * सेसाणं कम्माणमेदेण बीजपदेण अणुमग्गिदव्वं ।। ६३२४. एदेण देसामासियत्तमेदस्स जाणाविदं तेणेत्थ उच्चारणं भणिस्सामो । अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघे० आदेसे० । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-बारसक०णवणोक० असंखेजभागवड्डि-अवढि० जह० एगस०, उक्क० तेवढिसागरोवमसदं तीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं । असंखेजभागहाणी. जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुः । दोवड्डी० जह० एगस० । दोहाणी० जह० अंतोमुहु० । उक्क० चदुण्हं पि अणंतकालमसंखेजपोग्गलपरियट्टं। असंखेजगुणहाणी० जहण्णुक्क० अंतोमुहु० । णवरि इत्थि-पुरिसवेदाणं संखेजभागवडिअंतरमेगसमओ ण होदि, किं तु अंतोमुहुत्तं । कुदो ? तेइंदिएसुप्पजमाणवेइंदियस्स इत्थि-पुरिसवेदाणं बंधाभावादो। अंतोमुहुरंतरलहणकमो वुच्चइ । तं जहा-बेइंदिओ तेइंदिएसुप्पण्णपढमसमए कसायटिदिसंतकम्मेण संखेजभागवड्डीए आदि काण पुणो अंतोमुहुत्तेण संकिलेसं पूरेदण संखेजभागवड्डीए द्विदिबंधेण कदाए लद्धमंतोमुत्तमेत्तमंतरं संखेजभागवड्डीए । अणंताणु०चउक्क० एवं चेव । णवरि असंखेज * उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। ६३२३ क्योंकि असंख्यातभागहानिमें स्थित जो जीव अवस्थितबन्धको प्राप्त होकर और सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक वहाँ रहकर अनन्तर असंख्यातभागहानिको करता है उसके असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है। * शेष कर्माकी असंख्यातभागवृद्धि आदिका अन्तरकाल इस बीज पदके अनुसार विचारकर जानना चाहिये । ६३२४ इस वचनके द्वारा इसका देशामर्षकपना जता दिया, अतः यहाँ उच्चारणाका कथन करते हैं-अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुंहते है। दो वृद्धियोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय, दो हानियोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और चारोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। असख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय नहीं है, किन्तु अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि जो द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके स्त्रीवेद और पुरुषवेदका बन्ध नहीं होता। अब अन्तर्मुहूर्त अन्तरकी प्राप्तिका क्रम कहते हैं। जो इस प्रकार है-कषायकी स्थितिसत्कर्मवाला जो द्वीन्द्रिय जीव त्रीन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें संख्यातभागवृद्धिका प्रारम्भ करता है पुनः अन्तमुहूर्त कालमें संक्शको प्राप्त करके स्थितिबन्धके द्वारा संख्यातभागवृद्धिको करता है उसके संख्यातभागवृद्धिका अन्तर्मुहूर्त अन्तर प्राप्त होता है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा भी इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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