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________________ गा० २२] वडिपरूवणा १२६ भागहारादो धुवट्ठिदिभागहारस्स जो अंसो तन्भागहारस्स संखेजगुणहीणत्तुवलंमादो । एवं समयं पडि छेदभागहारे होदण गच्छमाणे धुवढिदिभागहारम्मि एंगरूवे परिहीणे धुवद्विदीए समभागहारो होदि । तकाले पलिदोवमस्स पुण छेदभागहारो चेव; पलिदोवमभागहारम्मि ज्झीयमाणअंसादोधुवट्ठिदिभागहारम्मि झीयमाणअंसस्स संखेजगुणत्तादो। पुणो समयुत्तरं वड्डिदूण बंधमाणाणं वड्डीए आणिजमाणाए पलिदोवमधुवहिदीए' छेदभागहारो होदि। ___ २३०. एवं छेदसमभागहारेसु धुवट्ठिदीए होदूण गच्छमाणेसु धुवट्ठिदिभागहारम्मि जाव धुवट्टिदिपलिदोवमसलागमेत्तरूवाणं रूवूणाणं परिहाणी होदि ताव पलिदो. वमस्स छेदमागहारो चेव । संपुण्णेसु परिहीणेसु पलिदोवमस्स धुवट्ठिदीए च समभागहारो होदि । तकाले पलिदोवमं पेक्खिद्ण संखेजभागवड्ढी, पलिदोवममुक्कस्ससंखेजेणखंडिणेगखंडस्स धुवद्विदीए उवरि बड्डिदत्तादो। धुवहिदि पेक्खि दूण पुण असंखेज्ज. भागवड्डी; धुवहिदीए उकस्ससंखेजगुणिदधुवट्टिदिपलिदोवमसलागभागहारत्तादो। तदो जम्मि पदेसे पलिदोवमं पेखिद्ण संखेजभागवड्डी होदि तम्हि चेव पदेसे धुवहिदि पेक्खिदूण संखेजभागवड्डी होदि त्ति णियमो णत्थि त्ति घेत्तव्वं । एवमुवरि पि समउत्तरादिकमेण वड्ढावेदव्वं । णवरि सव्वत्थ धुवट्टिदिभागहारम्मि धुवट्ठिदिपलिदोवमसलागभेत्तरूवेसु परिहीणेसु पलिदोवमभागहारम्मि एगरूवं परिहायदि त्ति घेत्तव्वं । अंशका भागहार है उससे ध्रुवस्थितिके भागहारका जो अंश है उसका भागहार संख्यातगुणा हीन पाया जाता है। इस प्रकार एक एक समयके प्रति छेदभागहार होता हुआ तब तक चला जाता है जब जाकर ध्रुवस्थितिके भागहारमें एक रूपकी हानि होकर ध्र वस्थितिका समभागहार प्राप्त होता है। परन्तु उस समय पल्यका छेदभागहार ही होता है; क्योंकि पल्यके भागहारमें क्षीण होनेवाले अंशसे ध्र वस्थितिके भागहारमें क्षीण होनेवाला अंश संख्यातगुणा होता है । पुनः एक समय स्थितिको बढ़ाकर बाँधनेवाले जीवोंकी वृद्धिके लाने पर पल्य और ध्र वस्थितिका छेदभागहार होता है। ६२३०. इस प्रकार ध्रुवस्थितिके छेदभागहार और समभागहार होते हुए चले जानेपर जब जाकर ध्रवस्थितिके भागहारमें ध्रुवस्थितिके जितने पल्य हों उनमेंसे एक कम रूपोंकी हानि होती है सबतक पल्योपमका छेदभागहार ही होता है । तथा पूरे रूपोंकी हानि होने पर ध्रु वस्थिति और पल्योपमका समभागहार होता है। उस समय पल्योपमको देखते हुए संख्यातभागवृद्धि होती है; क्योंकि यहाँ पल्योपमके उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण खण्ड करके उनमेंसे एक खण्ड प्रमाण संख्याकी ध्रुवस्थितिके ऊपर वृद्धि हुई है। परन्तु ध्रुवस्थितिको देखते हुए असंख्यातभागवृद्धि है; क्योंकि यहाँ ध्रुवस्थितिका भागहार ध्रवस्थितिमें जितने पल्योंका प्रमाण हो उनसे उत्कृष्ट संख्यातको गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतना है। अतः जिस स्थानपर पल्योपमको देखते हुए संख्यातभागवृद्धि होती है उसी स्थानपर ध्रवस्थितिको देखते हुए संख्यातभागवृद्धि होती है ऐसा नियम नहीं है ऐसा ग्रहण करना चाहिये। इसी प्रकार ऊपर भी एक समय अधिक आदि क्रमसे स्थितिको बढ़ाना चाहिये। किन्त इतनी विशेषता है कि सर्वत्र ध्र वस्थितिके भागहारमें एक ध्रु वस्थितिमें जितने पल्य हों उतने रूपोंके कम होनेपर पल्योपमके भागहारमें एक रूपकी हानि होती है ऐसा ग्रहण करना चाहिये। १ भा. प्रतौ -हिदीणं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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