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________________ १३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ६२३१. जत्थ पलिदोवमभागहारो जहण्णपरित्तासंखेजस्स अद्धमेत्तो होदि तत्थ वि धुवढिदिवविभागहारो असंखेजो होदि; धुवद्विदिपलिदोवमसलागाणमद्धेण गुणिद. जहण्णपरित्तासंखेजपमाणत्तादो । पलिदोवमस्स भागहारे जहण्णपरित्तासंखेजस्स तिभागमेत्ते जादे वि धुवहिदीए वड्डिरूवाणं भागहारो असंखेनं चेव; धुव द्विदिपलिदोवमसला. गाणं तिभागेण गुणिदजहण्णपरित्तासंखेजपमाणत्तादो । पलिदोवमवडिरूवभागहारे जहण्णपरित्तासंखेजस्स चदुब्भागमेत्ते जादे वि धुवट्टिदीए कड्डिरूवाणं भागहारो असंखेजं चेव; धुवटिदिपलिदोवमसलागाणं चदुब्मागेण गुणिदजहण्णपरित्तासंखेजपमाणत्तादो । धुवढिदिपलिदोवमसलागाहि खंडिदजहण्णपरित्तासंखेज्जे वड्विरूवागमणं पडि पलिदोवमस्स भागहारे जादे वि धुवद्विदिभागहारो असंखेज चेव; जहण्णपरित्तासंखेजपमाणत्तादो। संपहि एत्तियमद्धाणं जाव पावेदि ताव धुवट्ठिदि पेक्खिदूण असंखेजभागवड्डी पलिदोवर्म पेक्खिदूण पुण असंखेजमागवड्डी संखेजभागवड्डी च जादा। पुणो एवं वड्डिदणच्छिदद्विदीए उवरि एगसमयं वडिदण बंधमाणाणं पलिदोवमधुवद्विदीणं छेदभागहारो होदि । एवं छेदभागहारो होदण गच्छमाणो जाव धुवद्विदीए समभागहारो ण होदि ताव धुवहिदि पेक्खिदण असंखेजभागवड्डी चेव होदि। पलिदोवमं पेक्खिण पुण संखेजभागवड्डी दव्वट्टियणयालंबणादो । पञ्जवट्ठियणए पुण अवलंबिजमाणे धुवटिदिभागहारस्स अवत्तव्व प्रमाण ६२३१. तथा जहाँपर पल्योपमका भागहार जघन्य परीतासंख्यातसे आधा होता है वहाँपर भी ध्रवस्थितिकी वृद्धिका भागहार असंख्यात होता है. क्योंकि यहाँ ध्र वस्थितिके एक ध्र वस्थितिमें जितने पल्य हों उनके आधेसे जघन्य परीतासंख्यातको गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतना है । पल्योपमका भागहार जघन्य परीतासंख्यातका तीसरा भाग होनेपर भी ध्रु वस्थितिके बढ़े हुए रूपोंका भागहार असंख्यात ही होता है, क्योंकि एक ध्रु वस्थितिमें जितने पल्य हों उनके तीसरे भागसे जघन्य परीतासंख्यातको गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतना यहाँ ध्र वस्थितिके ऊपर बढ़े हुए रूपोंका भागहार है। पल्मोपमके ऊपर बढ़े हुए रूपोंका भागहार जघन्य परीतासंख्यातका चौथा भाग होनेपर भी ध्रवस्थितिमें बढ़े हुए रूपोंका भागहार असंख्यात ही है, क्योंकि एक ध्रुवस्थितिमें पल्योंका जितना प्रमाण हो उसके चौथे भागसे जघन्य परीतासंख्यातको गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतना यहाँ ध्रुवस्थितिमें बढ़े हुए रूपोंका भागहार है। तथा बढ़े हुए रूपोंकीभी अपेक्षा पल्यका भागहार एक ध्रुवस्थितिमें जितनी पल्यशलाका हों उनसे जघन्य परीतासंख्यातके खण्डित कर देनेपर जितना लब्ध आवे उतना हो जानेपर भी ध्रुवस्थितिका भागहार असंख्यात ही होता है; क्योंकि यहाँपर ध्रुवस्थितिका भागहार जघन्य परीतासंख्यात प्राप्त होता है। इसप्रकार इतने स्थान जबतक प्राप्त होते हैं तबतक ध्रुवस्थितिको देखते हुए असंख्यातभागवृद्धि होती है। परन्तु पल्योपमको देखते हुए असंख्यातभागवृद्धि होती है और संख्यातभागवृद्धि होती है। पुनः इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुई स्थितिके ऊपर एक समय बढ़ाकर बांधनेवाले जीवोंके पल्योपम और ध्रुवस्थितिका छेदभागहार होता है। इसप्रकार छेदभागहार होकर जाता हुआ जबतक ध्रुवस्थितिका सम भागहार नहीं होता है तबतक ध्रुवस्थितिको देखते हुए असंख्यातभागवृद्धि ही होती है। परन्तु पल्योपमको देखते हुए संख्यातभागवृद्धि होती है, पर यह असंख्यातभागवृद्धि द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षासे जानना चाहिये । परन्तु पर्यायाथिकनयका अवलम्ब करनेपर ध्रुवस्थितिके भागहारकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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