SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा०.२२ ] डा . १३१ बड्डी होदि । तत्थ अंसं मोत्तूण अंसीणमभावादो । संपहि केदरं गंतूण धुवट्टिदीए समभागहारो होदि । उवरिमविरलणाए एगरूवधरिदमुक्कस्स संखेजेण खंडेदूण तत्थ एगखंड रूवणं जाव वड्डदि ताव छेदभागहारो संपुण्णे' वडिदे समभागहारो । तावे ध्रुव डिदि पेक्खिदूण संखेज भागवड्डीए आदी जादा । कुदो, धुवट्ठिदिवड्डिभागहारो उक्कस्ससंखे पत्तोति । $ २३२. एवं पुणो वि उवरि छेदसरूवेण भागहारो गच्छमाणो जहण्णपरित्तासंखेजस्स अद्धमेत्तो धुवट्ठिदिभागहारो जादो ताघे पलिदोवमस्स भागहारो दुगुणिदधुवडिदिपलिदोवमसला गोवट्टिदजहण्णपरित्तासंखेज मेतो होदि । धुवट्ठिदिभागहारे जहण्णपरित्तासंखेज्जस्स तिभागे संते तिगुणपलिदोवमसलागाहि खंडिदजहण्णपरित्तासंखेअं पलिदोवमस्स भागहारो होदि । धुवट्ठिदिभागहारे जहण्णपरित्तासंखेअस्स चदुब्भागे संते चदुग्गुणघुवट्ठिदिपलिदोवमसलागोवट्टिदजहण्णपरित्तासंखेअं पलिदोवमभागहारो होदि । धुवट्ठिदिलिदोवमसलागाहि खंडिदजहण्णपरित्तासंखेने धुवडिदिभागहारे संते पलिदोवमस्स धुवट्ठिदिपलिदोवमसलागाणं वग्गेण खंडिदजहण्णपरित्तासंखेज्जभागहारो होदि । एवं भागहारो हीयमाणो जाधे पलिदोवमस्स दोरूबमेतो जादो ताघे दुगुणधुवट्ठिदिपलिदोवमसलागाओ धुवट्ठिदिभागहारो होदि । जाधे पलिदोवमभागहारो एगरूवं जादो, ताधे धुवट्ठिदिलिदोवमसलागाओ धुवट्ठिदिभागहारो होदि । संपहि पलिदोवम अवक्तव्यवृद्धि होती है; क्योंकि वहाँपर अंशको छोड़कर अंशीका अभाव है । अब कितनीदूर जाकर ध्रुवस्थितिका समभागहार प्राप्त होता है इसे बतलाते हैं- उपरिम विरलनमें एक रूपके प्रति जो संख्या प्राप्त है उसे उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करके जो एक खण्ड लब्ध आवे एक कम उसकी जबतक वृद्धि हो तबतक छेदभागहार होता है और पूरेकी वृद्धि होनेपर समभागहार होता है । उस समय ध्रुवस्थितिको देखते हुए संख्यातभागवृद्धिकी आदि हुई; क्योंकि यहाँपर ध्रुवस्थितिके वृद्धिरूपों का भागहार उत्कृष्ट संख्यातको प्राप्त हुआ । ९ २३२. इस प्रकार फिर भी ऊपर छेद और समानरूपसे भागहार जाता हुआ जब ध्रुवस्थितिका भागहार जघन्य परीतासंख्यातका आधा होता है तब पल्योपमका भागहार एक ध्रुवस्थितिमें जितनी पल्यशलाकाएं हों उनके दूनेप्रमाणसे जघन्य परीतासंख्यातको भाजित करनेपर जो लब्ध उतना होता है। ध्रुवस्थितिके भागहार के जघन्य परीता संख्यातके तीसरे भागप्रमाण होनेपर एक ध्रुवस्थितिकी तिगुनी पल्यशलाका ओंसे जघन्य परीतासंख्यातको भाजित करके जो लब्ध आवे उतना पल्योपमका भागहार होता है । ध्रुवस्थितिके भागहार के जघन्य परीतासंख्यातके चौथे भागप्रमाण होनेपर ध्रुवस्थितिकी चौगुनी पल्यशलाकाओंसे भाजित जघन्य परीतासंख्यातका जितना प्रमाण हो उतना पल्योपमा भागहार होता है । ध्रुवस्थितिका भागहार ध्रुवस्थितिकी पल्योपम शलाकाओं से भाजित जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण होनेपर पल्योपमका भागहार ध्रुवस्थितिकी पल्यशलाकाओं के वर्गसे जघन्य परीतासंख्यातको भाजित करनेपर जितना लब्ध आवे उतना होता है । इस प्रकार घटता हुआ पल्योपमका भागहार जहाँपर दो अंक प्रमाण होता है वहाँपर ध्रुवस्थितिका भागहार ध्रुवस्थितिकी दुगुनी पल्यशलाकाप्रमाण होता है । तथा जहाँ पर पल्योंपमका भागहार एक अंक प्रमाण होता है वहाँपर ध्रुवस्थितिका भागहार ध्रुवस्थितिकी पल्यशलाकाप्रमाण होता है । १ ता• प्रतौ संपुष्णो इति पाठः । २ आ० प्रतौ छेदसमरूवेण इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy